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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

सीमा पार जल प्रशासन

  • 22 Dec 2020
  • 10 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में सीमा पार जल प्रशासन व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

हाल में चीन द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा (LOC) के निकट तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर बाँध बनाए जाने की योजना के संदर्भ में कई रिपोर्ट्स सामने आई हैं। इस कदम का पूर्वोत्तर भारत की  जल सुरक्षा पर दूरगामी प्रभाव हो सकता है  गौरतलब है कि दक्षिण एशियाई देशों से होकर बहने वाली कई प्रमुख नदियाँ जैसे-सिंधु, ब्रह्मपुत्र, गंगा और इनकी कई सहायक नदियों का उद्गम स्थान तिब्बत में ही है।  

प्रमुख नदियों की सीमा पार प्रकृति और इस संदर्भ में उपरी प्रवाह का देश होने के कारण चीन को बढ़त प्राप्त है जिसकी वजह से वह तिब्बत से निकलने वाली नदियों के प्रवाह को कम करने या इसे मोड़ने के लिये बाँध या अन्य अवसंरचनाएँ स्थापित कर सकता है। 

गौरतलब है की पूरे दक्षिण एशिया के अलग-अलग क्षेत्र उच्च से लेकर अत्यंत उच्च जल-तनाव वाले क्षेत्रों में आते हैं, ऐसे में सीमा पार नदी सहयोग (Trans-Boundary Rivers Cooperation) पर एक तंत्र की स्थापना करना बहुत आवश्यक हो जाता है। 

सीमा पार नदी सहयोग का महत्त्व:            

  • जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में: सीमा पार जल सहयोग कई अन्य व्यापक लाभ के कार्य करने और उन्हें भुनाने का अवसर प्रदान करता है। जैसे-जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु साझा प्रयासों को मज़बूत करना और जल संसाधनों से जुड़े आपसी संघर्ष को रोकना तथा उन्हें हल करना।
    • इसके अतिरिक्त हिमालय क्षेत्र में बाँध के निर्माण से चरम प्राकृतिक आपदाओं जैसे-बाढ़, सूखा , भू-स्खलन, वनाग्नि और कई अन्य पारिस्थितिक खतरों की आवृत्ति में वृद्धि हो सकती है, जो प्रशासन के समक्ष नई चुनौतियाँ उत्पन्न करेगा।  
  • सतत् विकास लक्ष्य के संदर्भ में:   पानी से संबंधित एसडीजी लक्ष्यों और अन्य व्यापक सतत् विकास लक्ष्यों को साकार करने के लिये सीमा पार जल सहयोग के महत्त्व को स्वीकार करना बहुत आवश्यक है।
    • गौरतलब है कि एसडीजी 6.5 लक्ष्य के तहत ‘सीमा पार जल सहयोग सहित सभी स्तरों पर एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन को लागू करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
  • क्षेत्रीय विकास के संदर्भ में: अंतर्राष्ट्रीय जल,  देशों के मध्य संबंधों को मज़बूत करने में एक उत्प्रेरक का कार्य कर सकता है, इसी प्रकार सीमा पार जल सहयोग से अक्सर जलधारा को साझा करने वाले देशों के बीच व्यापक आर्थिक एकीकरण की दिशा में सुधार देखा गया है। 
    • सीमा पार जल सहयोग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, आर्थिक विकास, नौपरिवहन, ऊर्जा उत्पादन, वन्यजीव संरक्षण और व्यापक क्षेत्रीय एकीकरण में सुधार के लिये उत्प्रेरक का कार्य कर सकता है।
    •  सीमा पार जल सहयोग की व्यवस्था निवेशकों को एक स्थिर और विश्वसनीय कानूनी एवं संस्थागत वातावरण प्रदान करके निवेश को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।  

चुनौतियाँ:

  • प्राकृतिक बढ़त: 
    • नदियों के ऊपरी प्रवाह क्षेत्रों में बाँधों या जल के प्रवाह की दिशा बदलने के लिये परियोजनाओं के विकास का निचले प्रवाह पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, ऐसी स्थिति में जलधारा के उद्गम से दूर के क्षेत्र या देश में रह रहे लोगों को जितना भी जल प्राप्त हो रहा हो उन्हें स्वीकार करना पड़ता है। 
  • अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की अनदेखी:  हालाँकि वर्तमान में सीमा पार नदियों से जुड़े मामलों के प्रशासन के बारे में एक अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय लागू है परंतु अभी भी दक्षिण एशिया में नदी प्रणालियों के प्रबंधन के लिये सहकारी ढाँचे की कमी है।
    • विश्व भर  में लगभग 60% सीमा पार नदी घाटियों में अभी भी कोई सहकारी व्यवस्था नहीं है।        
    • इसके अलावा मौजूदा सीमा पार जल संधियाँ और संस्थाएँ अक्सर अपने जनादेश, डिज़ाइन, संसाधन और प्रवर्तन तंत्र के संदर्भ में कमज़ोर होती हैं।

सीमा पार नदियों को लेकर मौजूदा कानूनी ढाँचा: 

  • अंतर्राष्ट्रीय जलधाराओं के गैर-नौपरिवहन उपयोग के कानून पर अभिसमय , 1997।
  • सीमा पार जलधाराओं और अंतर्राष्ट्रीय झीलों के संरक्षण तथा उपयोग पर हेलसिंकी कन्वेंशन, 1992।
  • विश्वास की कमी: सीमा पार जल प्रशासन की स्थापना में सबसे बड़ी बाधा जल संसाधनों की कमी न होकर सामाजिक संसाधनों की कमी और चीन तथा अन्य दक्षिण एशियाई देशों के बीच ‘शक्ति संतुलन की कमी होना है।
  • लंबी अवधि की विकास प्रक्रिया: जल संसाधनों की अनेक कारकों पर निर्भरता के कारण सभी हितधारकों के बीच एक आम सहमति बनाने में काफी समय लग सकता है और इस दौरान एक छोटा राजनीतिक मतभेद भी सहयोग ढाँचे के विकास की प्रक्रिया को बाधित कर सकता है।

आगे की राह:

  • जल कूटनीति:  जल कूटनीति को लागू कर सीमा-पार नदी गवर्नेंस को अपनाया जा सकता है।
    • जल कूटनीति की  प्रक्रिया संप्रभु राष्ट्रीय सरकारों के प्रशासन के तहत संचालित होती है परंतु यह नगरपालिकाओं और राज्य के स्तर सहित कई हितधारकों के बीच सहयोग का मार्ग प्रसस्त करती है। 
  • नदी बेसिन प्रबंधन: नदियों को राजनीतिक सीमाओं की दृष्टि से देखने की बजाय नदी बेसिन प्रबंधन के दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता है।   
    • यह दृष्टिकोण भूदृश्य और जलग्रहण क्षेत्र की अखंडता का सम्मान करता है।
  • संस्थागत ढाँचे की स्थापना: देशों के बीच समझौते और नदी बेसिन संगठन जैसी संस्थागत व्यवस्थाएँ सीमा पार जल के समान एवं स्थायी प्रबंधन हेतु महत्त्वपूर्ण साधन प्रदान कर सकती हैं। 
    • एक सीमा पार जल प्रशासन ढाँचे में नदी बेसिन और जलभृतों में जल साझा करने, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिये कानूनी फ्रेमवर्क का पालन करने तथा सीमा पार जल प्रशासन के  लिये संयुक्त संस्थानों की स्थापना करने जैसे पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त सीमा पार जल संबंधित आँकड़ों को एकत्र करने, उन्हें साझा करने और उनके विश्लेषण हेतु साझा मानकों को अपनाया जाना भी बहुत आवश्यक है। 

निष्कर्ष: 

प्राकृतिक आपदा और जलवायु का प्रभाव देश की सीमाओं पर आकर रुक नहीं जाता और वर्तमान में पहले से ही लगभग दो बिलियन लोग जल संकट का दबाव झेल रहे क्षेत्रों में रह रहे हैं। इस संदर्भ में बगैर सीमा पार जल सहयोग के समावेशी सतत् विकास व्यापक रूप से प्रभावित होगा और शांति तथा सुरक्षा के जोखिम में वृद्धि होगी।

Transboundary-water

अभ्यास प्रश्न: सीमा पार जल सहयोग के अभाव में समावेशी सतत् विकास के व्यापक रूप से प्रभावित होने के साथ ही शांति तथा सुरक्षा से जुड़े जोखिम में भी वृद्धि होती है। चर्चा कीजिये।

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