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भारतीय अर्थव्यवस्था

ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय समावेशन और डिजिटल प्रौद्योगिकी

  • 08 Jan 2021
  • 10 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में देश में वित्तीय समावेशन के प्रयासों तथा इसे अंतिम मील तक संभव बनाने व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

एक कल्याणकारी राज्य होने के नाते भारत में सरकारी नीति का एक मुख्य उद्देश्य वित्तीय समावेशन को सक्षम बनाना और हस्तक्षेपकारी सार्वजनिक नीतियों के माध्यम से ‘घोर गरीबी’ (Abject Poverty) को कम करना है। प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (Direct Benefits Transfer- DBT) की पहल इसी प्रकार के एक लक्षित हस्तक्षेप का उदाहरण है। सरकार के कई कार्यक्रम जैसे- मातृत्त्व पात्रता, विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम अर्थात् मनरेगा के तहत श्रमिकों की मज़दूरी आदि प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण की पहल के तहत आते हैं, जिसमें निर्धारित धनराशि को सीधे लाभार्थी के बैंक खाते में हस्तांतरित कर दिया जाता है।

हालाँकि इसके बावजूद लाभार्थियों को अपना पैसा प्राप्त करने के लिये कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में लाभार्थियों को लंबी यात्रा करने के बाद भी बैंक से धनराशि निकलने के लिये घंटों इंतज़ार करना पड़ता है। इन बाधाओं को आमतौर पर ‘लास्ट माइल चैलेंज’ (Last Mile Challenges) के रूप में जाना जाता है। इन चुनौतियों ने पात्र लाभार्थियों और उनके अधिकारों के बीच की दूरी को बढ़ा दिया है, इस समस्या का तत्काल समाधान किया जाना चाहिये।

प्रभाव:

  • डिजिटल बहिष्करण: हाल ही में प्रकाशित केपीएमजी रिपोर्ट (KPMG Report) के अनुसार, ब्रिक्स (BRICS) समूह में शामिल सभी देशों (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में से भारत में इंटरनेट का उपयोग सबसे कम होता है।
    • इसी प्रकार डिजिटल क्वालिटी ऑफ लाइफ इंडेक्स 2020 [Digital Quality of Life (DQL) Index 2020] भी डिजिटल मापदंडों में भारत के निराशाजनक प्रदर्शन को रेखांकित करता है।
    • इसके अतिरिक्त डिजिटल निरक्षरता, सांख्यिकी बोध का अभाव और एक बड़ी आबादी का प्रौद्योगिकी से अपरिचित होना, डिजिटल उत्पादों के पूर्ण उत्थान के कार्य को बाधित करता है।
    • प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण और बैंकिग जागरूकता का अभाव: प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के लाभार्थियों को अक्सर यह नहीं पता होता है कि बैंक द्वारा उनके भुगतान को रद्द किये जाने की स्थिति में उन्हें क्या करना चाहिये। अधिकांश मामलों में ऐसा
    • तकनीकी कारणों, जैसे कि गलत खाता संख्या और बैंक खातों के साथ गलत आधार मैपिंग आदि की वजह से होता है।
    • इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा बहुत ही कम होता है जब श्रमिकों/लाभार्थियों से लेन-देन के लिये उनके पसंद के तरीकों/माध्यमों के बारे में परामर्श किया जाए।
  • भ्रष्टाचार: डिजिटल बहिष्करण और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण प्रणाली से लाभार्थियों के परिचित न होने के कारण भ्रष्टाचार के नए तरीकों ने जन्म लिया है।
    • हाल ही में झारखंड में बड़े पैमाने पर हुए छात्रवृत्ति घोटाले में इसके प्रमाण देखे गए थे, जहाँ बिचौलियों, सरकारी अधिकारियों, बैंकिंग सेवा प्रदाताओं और अन्य लोगों के गठजोड़ से कई गरीब छात्रों को अपनी छात्रवृत्ति से वंचित कर दिया गया था।
  • अपर्याप्त ग्रामीण बैंकिंग: भारत में प्रति 1 लाख वयस्कों पर मात्र 14.6 बैंक शाखाएँ हैं, जबकि ग्रामीण भारत में यह स्थिति और भी खराब है।
    • इसके अतिरिक्त ग्रामीण बैंकों में पहले से ही कर्मचारियों की संख्या कम है और बैंक शाखाओं की संख्या कम होने के कारण भी इन पर अधिक दबाव होता है।
    • ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक शाखाओं की दूरी अधिक होने के कारण इन तक पहुँचने के लिये श्रमिकों को मज़दूरी का नुकसान उठाना पड़ता है। साथ ही लोगों को भुगतान/सब्सिडी प्राप्त करने हेतु बैंक तक पहुँचने के लिये परिवहन पर पैसा खर्च करना होता है।
  • असफल बैंकिंग अभिकर्त्ता मॉडल: वर्ष 2006 में व्यावसायिक अभिकर्त्ता मॉडल पर जारी पहले नियमों के एक दशक से अधिक समय बाद भी बैंक और अन्य वित्तीय सेवा प्रदाता शाखाहीन बैंकिंग (Branchless Banking) के लिये एक व्यावहारिक और टिकाऊ व्यावसायिक मॉडल की रूपरेखा तैयार करने में असफल रहे हैं।
  • जवाबदेहिता: जवाबदेही की कमी और एक व्यवस्थित शिकायत निवारण प्रणाली की अनुपस्थिति सभी प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण कार्यक्रमों को प्रभावित करती है।

आगे की राह:

  • सामाजिक न्याय के दायरे का विस्तार: पारदर्शी तरीके से एक निर्धारित समय के अंदर पैसा प्राप्त करने के अधिकार को शामिल करते हुए सामाजिक न्याय के दायरे का विस्तार किया जाना चाहिये।
    • इसके अलावा इन अधिकारों का संरक्षण एक मज़बूत शिकायत निवारण प्रक्रिया और सभी भुगतान मध्यस्थों के लिये जवाबदेही मानदंड स्थापित कर किया जाना चाहिये।
  • अधिक विकल्प प्रदान करना: आधार (ADHAAR) सक्षम भुगतान प्रणाली के सार्वभौमिकरण से आधार सक्षम बैंक खाता धारकों को निर्बाध वित्तीय लेन-देन करने में मदद मिलेगी।
  • बीसी मॉडल के लिये एक आचार संहिता की स्थापना: बैंकिंग अभिकर्त्ताओं की प्रभावी निगरानी और पर्यवेक्षण के लिये बैंकों द्वारा मानक नियमों के विकास के साथ एक आचार संहिता भी तैयार की जानी चाहिये।
    • एजेंट पॉइंट को खोजने के लिये एजेंटों की वास्तविक अवस्थिति की जियोटैगिंग और जीपीएस मैपिंग भी बेहतर निगरानी तथा पर्यवेक्षण को सक्षम बनाएगी।
  • ऊबर मॉडल: ग्राहकों को CICO पॉइंट के रूप में कार्य करने हेतु सक्षम बनाकर ‘कैश-इन/कैश-आउट’ (CICO) की व्यवस्था के लिये "उबर" मॉडल अपनाने की संभावना तलाशने की आवश्यकता है।
    • यह एजेंटों पर निर्भरता को कम करेगा और उन्हें CICO से आगे अपने कार्य के विस्तार की अनुमति देगा।
    • दूसरी ओर, ग्राहक भी एक स्थिर और सीमित एजेंट नेटवर्क से परे लेन-देन करने में सक्षम होंगे।
  • डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देना: डिजिटल साक्षरता भारत के वित्तीय समावेशन और डोरस्टेप डिलीवरी मॉडल में क्रांति लाने की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।

निष्कर्ष:

  • वर्तमान में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के कुछ प्रमुख पहलुओं पर फिर से विचार करते हुए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जाना बहुत ही आवश्यक है। इसके लिये सरकार, नियामक, सेवा प्रदाता, उद्योग, निकाय और अन्य सहित सभी
  • हितधारकों को ग्रामीण क्षेत्रों की वर्तमान ज़मीनी वास्तविकता और ज़रूरतों के अनुरूप आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: डिजिटल प्रौद्योगिकी पर अत्यधिक निर्भरता ने ग्रामीण भारत में वित्तीय समायोजन के प्रयासों में नई चुनौतियों को जन्म दिया है। चर्चा कीजिये।

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