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सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के लिये भारत को चाहिये जर्मनी जैसा कड़ा कानून

  • 10 Jul 2017
  • 18 min read

संदर्भ और मुद्दा
भारत को विविधताओं का देश माना जाता है, इस विविधता में जहाँ प्रेम, भाईचारा, अपनत्व है तो वहीं वैमनस्य और कटुता का अंश भी गाहे-बगाहे देखने को मिल जाता है| मौजूदा समय में इंटरनेट के माध्यम से लगभग हर व्यक्ति आज किसी-न-किसी सोशल नेटवर्किंग साइट से जुड़ा है। सोशल मीडिया ने जिस तेज़ी से लोगों के जीवन में पैंठ बनाई  है, उसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं| हाल ही में पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के बसीरहाट में सोशल मीडिया साइट ‘फेसबुक’ पर एक पोस्ट के बाद सांप्रदायिक हिंसा फैल गई| कश्मीर घाटी में हिंसा भड़काने में सोशल मीडिया की प्रमुख भूमिका है| जहाँ भी हिंसा होती है वहाँ स्थिति सामान्य होने तक प्रायः इंटरनेट सेवाएँ बंद कर दी जाती हैं, ताकि अफवाहों को बल न मिले| तात्पर्य यह कि अब देश के किसी भी कोने में हिंसा होती है तो उसके पीछे किसी-न-किसी रूप में अफवाह फैलाने के लिये सोशल मीडिया का दुरुपयोग अब खुलकर होने लगा है। ऐसी स्थिति में देश के सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती बन गया है। आज देश में सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने की आवश्यकता शिद्दत से महसूस की जा रही है।

आइये, प्रश्नोत्तर के माध्यम से यह जानने-समझने का प्रयास करते हैं कि सोशल मीडिया कैसे भारत के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर रहा है? क्यों ऐसा कहा जा रहा है कि  भारत को जर्मनी जैसे कठोर कानून  की ज़रूरत है? भारत में सोशल मीडिया के लिये बना वर्तमान कानून पर्याप्त है या नहीं? 

कैसा है जर्मन कानून?
हाल ही में जर्मनी की संसद ने एक ऐतिहासिक कानून पारित कर इंटरनेट कंपनियों को उनके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अवैध, नस्लीय, निंदनीय सामग्री के लिये जवाबदेह ठहराने वाला कानून पारित किया है| उन्हें एक निश्चित समयावधि में आपत्तिजनक सामग्री को हटाना होगा अन्यथा उन पर 50 मिलियन यूरो तक का जुर्माना लगाया जा सकता है| यह कानून लोकतांत्रिक देशों में अब तक का संभवतः सबसे कठोर कानून है| इंटरनेट कंपनियों ने इस कानून को अभिव्यक्ति की वैध स्वतंत्रता के लिये संभावित खतरा बताते हुए चिंता व्यक्त की है| लेकिन जर्मनी के न्याय मंत्री ने यह कहकर इसका प्रतिवाद किया कि "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहाँ समाप्त होती है, जहाँ आपराधिक कानून शुरू होता है| " 

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इस तरह के कानूनों का परस्पर गुंथी हुई डिजिटल दुनिया पर क्या प्रभाव पड़ेगा, जहाँ फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप और रेडिट जैसे सोशल प्लेटफॉर्म लगभग हर देश में सर्वव्यापी हैं| इनमें सार्वजनिक वार्तालापों में सामाजिक और कानूनी स्वीकार्यता के प्रत्येक के अपने कानून और सीमाएँ हैं| ऐसे में ऐसी सामग्री के विनियमन पर भारत कहाँ खड़ा है, जहाँ उसके समाज का कई मुद्दों पर ध्रुवीकरण हो चुका है, विशेषकर सोशल मीडिया पर| 

1. सोशल मीडिया पर सामग्री को विनियमित करने के लिये हाल ही में जर्मनी द्वारा पारित कानून में किस बात पर अधिक बल दिया गया है?
वैसे तो इस कानून का नाम नेटवर्क एन्फोर्समेंट एक्ट है, लेकिन जर्मन मीडिया इसे फेसबुक कानून कहता है| इस कानून में यह प्रावधान किया गया है कि जर्मनी में संचालन कर रही फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया कंपनियों को हर प्रकार की हेट स्पीच तथा नस्लीय व निंदात्मक पोस्ट, जो ‘स्पष्ट रूप से अवैध’ हो, को यूजर से सूचना मिलने के बाद 24 घंटे के भीतर हटाना होगा| यदि सामग्री प्रथम दृष्टया आपत्तिजनक तो है, परंतु हिंसा भड़काने, मानहानि करने या उत्तेजना  फैलाने वाली नहीं है तो कंपनियों को कार्रवाई करने के लिये 7 दिन का समय दिया गया है| ऐसी अवैध सामग्री को हटाने में लगातार असफल रहने पर 5 मिलियन से  50 मिलियन यूरो तक जुर्माना लगाया जा सकता है| 

इस कानून के तहत सोशल मीडिया नेटवर्क चलाने वाली कंपनियों को शिकायतकर्त्ता को बताना होगा उसने मामले में क्या कार्रवाई की और कैसे की| ऐसा करने में असफल रहने पर जर्मनी में कंपनी के मुख्य प्रतिनिधि पर 5 लाख यूरो का अतिरिक्त जुर्माना लगाया जा सकता है| कंपनियों को हर 6 महीने बाद सार्वजनिक रूप से बताना होगा कि उसे कितनी शिकायतें मिलीं और किस प्रकार उनका निराकरण किया गया| इसके अलावा उन्हें उस यूजर की पहचान भी बतानी होगी, जिस पर लोगों की मानहानि या गोपनीयता भंग करने का आरोप लगाया गया है| अब तक फेसबुक तथा ट्विटर ऐसा करने से बचते रहे हैं| 

सोशल नेटवर्क का ऐसा कोई भी प्लेटफॉर्म जिसके सदस्यों की संख्या 20 लाख से अधिक है, उन्हें शिकायत निवारण तंत्र बनाना होगा| फेसबुक और ट्विटर ने दुरुपयोग रोकने के लिये व्यवस्था की हुई है, और उभर रहे अन्य छोटे सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म भी जल्द ही ऐसा करने जा रहे हैं| ई-मेल तथा मैसेंजर सेवाएँ देने वाले प्लेटफॉर्म्स को इस कानून की परिधि से बाहर रखा गया है| सेवा प्रदाता कंपनियों को यह विकल्प दिया गया है कि वे किसी तीसरे स्वतंत्र पक्ष से समीक्षा करा सकती हैं, जिसकी निगरानी जर्मनी का संघीय न्यायिक मंत्रालय करेगा| यह कानून जर्मनी में राष्ट्रीय चुनावों के बाद इसी वर्ष अक्तूबर में लागू होगा|

2. ऐसे कठोर कानून की  ज़रुरत क्यों महसूस की गई?
इस कानून से काफी पहले पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में इस मामले में जर्मनी सबसे आगे था जिसने फेसबुक, गूगल और ट्विटर को बाध्य किया कि वे हेट स्पीच और भड़काऊ संदेशों पर कार्रवाई करें|  इसके बावजूद इसी वर्ष किये गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि फेसबुक और ट्विटर जर्मन अधिकारियों द्वारा निर्धारित 70% के लक्ष्य को ऐसी सामग्री की सूचना मिलने के बाद 24 घंटे की समयावधि में हटा पाने में विफल रहे| फेसबुक ने 34% ऐसी सामग्री हटाई तो ट्विटर केवल 1% पर सिमटकर रह गया| यू ट्यूब ने अवश्य सूचना मिलने के 24 घंटे के भीतर 90% आपतिजनक सामग्री को हटाने में सफलता प्राप्त की|

जर्मनी में चांसलर एंजेला मर्केल की सरकार 2015 के बाद युद्धग्रस्त मुस्लिम देशों से 10 लाख से अधिक शरणार्थियों के देश में आने से आप्रवासी विरोधी और नस्लवादी टिप्पणियों में वृद्धि होने के आशंका को लेकर चिंतित है|  जर्मनी में नाज़ी प्रतीक चिह्नों और नरसंहार का नकार (Holocaust Denial) अवैध है और वहाँ हेट स्पीच को लेकर पश्चिमी जगत के देशों में सबसे कड़े कानून हैं| जर्मनी के न्यायिक मंत्री का कहना है कि इस कानून के नियमों को ऐसा बनाया गया है जो जिस प्रकार वास्तविक दुनिया में लागू होते हैं, उसी प्रकार डिजिटल दुनिया में भी लागू हों| यह कानून बनाकर हमने इंटरनेट पर चल रहे जंगल के कानून को समाप्त कर दिया है  और सभी के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित की है| जर्मनी यह सुनिश्चित करना चाहता है कि बिना अपमानित या भयभीत हुए कोई भी अपनी राय स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त कर सकता है| यह कानून कोई सीमा नहीं है, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये एक अनिवार्यता है| 

“अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहाँ समाप्त हो जाती है, जहाँ से आपराधिक कानून शुरू होता है|” (“Freedom of opinion ends where criminal law begins.”)

3. इस कानून को लेकर लोगों की क्या प्रतिक्रिया है?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों में इस कानून को लेकर काफी रोष है और इस बात पर जर्मनी में बराबर यह बहस चल रही है कि इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये इसका क्या अर्थ है| फेसबुक ने इस कानून का विरोध करते हुए कहा कि हम इस समस्या पर काफी परिश्रम कर रहे हैं और हमारा यह मानना है कि इस समस्या का सबसे अच्छा हल तभी निकल सकेगा जब सरकार, सिविल सोसाइटी और उद्योग एक साथ काम करेंगे| रोचक तथ्य यह है कि जर्मनी में फेसबुक के 29 मिलियन सक्रिय यूजर हैं, जो वहाँ की कुल जनसंख्या से तीन गुना अधिक हैं| फेसबुक ने कहा कि इस कानून को लेकर उससे कोई विशेष परामर्श नहीं किया गया, फिर भी उसने वैश्विक रूप से और 3000 लोगों को आपत्तिजनक सामग्री पर नज़र रखने के लिये नियुक्त किया है| इस काम में 4500 लोग पहले से लगे हुए हैं| पिछले दो महीनों से फेसबुक जर्मनी में प्रति सप्ताह लगभग 3500 आपत्तिजनक पोस्टों को हटा रहा है|

दूसरी ओर, जर्मनी में यहूदियों की केंद्रीय परिषद ने इस कानून का स्वागत करते हुए कहा कि यह हेट स्पीच से प्रभावी तरीके से निपटने के लिये तार्किक कदम है, क्योंकि सेवा प्रदाताओं द्वारा अपनाए जाने वाले  सभी स्वैच्छिक उपाय असफल हो चुके हैं| जर्मनी का यह कानून अन्य देशों के लिये मिसाल बन सकता है, क्योंकि ऐसा शायद ही कोई देश है जिसे सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म्स पर इस प्रकार की समस्याओं से दो-चार न होना पड़ा हो| लेकिन परिभाषाओं के मुद्दे तय करना और सीमा का निर्धारण करना अब भी आसान नहीं होगा, क्योंकि जर्मनी में बहुत से लोगों की राय में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कुछ ट्वीट  अपमानजनक और भड़काऊ हैं|

4. जर्मनी की स्थिति की तुलना भारत से कैसे की जा सकती है?
सोशल मीडिया पर दुर्व्यवहार और हेट स्पीच की समस्या सर्वव्यापी है और भारत भी इससे अछूता नहीं है| अब हटाई जा चुकी सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66ए ने ऐसी सामग्री को शेयर करना एक दंडात्मक अपराध बना दिया था, जो पूर्णतः भड़काऊ या खतरनाक प्रवृत्ति वाली या ऐसी जानकारी वाली थी  जिसके बारे में विदित हो कि यह झूठी है|  इसके तहत दुविधा, असुविधा, खतरे, रुकावट, अपमान, चोट, आपराधिक धमकी, शत्रुता, घृणा या द्वेषभाव के कारण लगातार शेयर की जाने वाली सामग्री को रखा गया था। दोष सिद्ध होने पर इस धारा के तहत तीन साल की जेल और जुर्माने का प्रावधान था| 

लेकिन लागू होने के बाद जब कुछ मामलों में इसका दुरुपयोग होने की बात सामने आई तो इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई| मार्च 2015 में  सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 66ए को असंवैधानिक ठहराते हुए रद्द कर दिया| जब यह धारा लागू थी तो इसमें व्यक्ति की छानबीन की जाती थी, सोशल नेटवर्क की नहीं—जैसा कि जर्मनी ने अब अपने कानून में प्रावधान किया है| लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 69ए को वैध ठहराया, जिसके तहत कानून प्रवर्तन एजेंसियों को यह अधिकार दिया गया है कि वे किसी भी कंप्यूटर संसाधन के माध्यम से किसी भी जानकारी के सार्वजनिक उपयोग को अवरुद्ध करने के लिये दिशा-निर्देश जारी कर सकते हैं| साथ ही न्यायालय ने इस धारा में यह जोड़ दिया कि सामग्री को हटाने के लिये मध्यस्थ को न्यायालय/सरकार के आदेश की आवश्यकता होगी| सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 में ये दोनों धाराएँ 2009 में जोड़ी गई थीं| इसके अलावा कानून प्रवर्तक एजेंसियाँ भारतीय दंड संहिता की अन्य धाराओं का भी प्रयोग ऐसी सामग्री हटाने के लिये करती हैं| 

फेसबुक के डेटा से पता चलता है कि उसने जुलाई से दिसंबर 2016 की अवधि में उसने भारत में 719 आपत्तिजनक कंटेंट्स को ब्लॉक किया| इनके बारे में फेसबुक का कहना था कि ये कंटेंट्स उन कानूनों का उल्लंघन करते थे जो धार्मिक भावनाएँ भड़काने, हेट स्पीच, और राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान करने का निषेध करने के लिये बने हैं| भारत में फेसबुक के 200 मिलियन यूजर हैं, इसलिये यहाँ कंटेंट को फ़िल्टर करने वाला जर्मनी जैसा कानून प्रभावी नहीं हो सकता|  2016 के अंत तक भारत में 15.5 करोड़ लोग हर महीने फेसबुक पर आते थे और 16 करोड़ लोग हर महीने व्हाट्सएप पर थे| 

सोशल मीडिया के दुरुपयोग से आंतरिक सुरक्षा को खतरा 
आज के गतिशील दौर में लोगों को एक-दूसरे के करीब लाने में सोशल मीडिया बहुत बड़ी भूमिका निभा रहा है, परन्तु इसी सोशल मीडिया का इस्तेमाल जब हिंसा भड़काने, अफवाहें फैलाने और इसी प्रकार के अन्य देश और समाज विरोधी कार्यों के लिये होने लगता है तब समस्या होती है। परिस्थितियां असाधारण होने पर असाधारण कदम उठाने अनिवार्य हो जाते हैं। अभी की स्थिति में सेंसरशिप जैसी कोई चीज़ नहीं है| लोगों को खुली छूट मिली हुई है जिसका गलत इस्तेमाल किया जा रहा है| लोगों की अभिव्यक्ति के अधिकार का पूरा समर्थन किया जाना चाहिये, लेकिन सुरक्षा की कीमत पर नहीं। साइबर दुनिया के गलत इस्तेमाल पर अंकुश लगाना ज़रूरी है। साइबर सुरक्षा और सोशल मीडिया के दुरुपयोग का मुद्दा ऐसा है, जिसकी और अनदेखी नहीं की जानी चाहिये। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स के ज़रिये गलत विचारों के साझा करने से देश की आंतरिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है, ऐसे में इसके खिलाफ कड़ा नियमन करने की आवश्यकता है| परिस्थितियाँ बिगड़ने पर इंटरनेट पर प्रतिबंध लगा देना कोई समाधान नहीं है|  सोशल मीडिया के क्षेत्र में नित नई चुनौतियाँ उभर रही हैं। ऐसे में साइबर अपराधों और हमलों को लेकर काफी सजग रहने की आवश्यकता है।

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