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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

बाघ संरक्षण हेतु गलियारे का निर्माण

  • 15 Sep 2017
  • 11 min read

भूमिका

राजस्थान का रणथंभौर यकीनन भारत के सबसे प्रसिद्ध बाघ आरक्षित क्षेत्रों में से एक है। इसकी सबसे खूबसूरत विशेषता यह है कि यहाँ आपको बहुत आसानी से कैमरे के सामने पोज़ देते बाघ दिखाई दे जाएंगे। वस्तुतः इसमें एक क्रूर संरक्षण नैतिकता (fierce conservation ethic) काम करती है, जो इसके समानांतर चलती इसकी सफल कहानी का द्योतक है। एक अनुमान के अनुसार, इस अपेक्षाकृत छोटे बाघ अभयारण्य में 60 से अधिक बाघ रहते हैं, परन्तु यहाँ समस्या इसके आने वाले भविष्य की है ? एक आनुवंशिक अध्ययन से प्राप्त जानकारी के अनुसार, पिछले कुछ समय से रणथंभौर के बाघ कम आनुवंशिक विविधता (low genetic diversity) तथा अलगाव (isolation) की समस्या का सामना कर रहे हैं। ऐसे में सवाल यह बनता है कि रणथंभौर के इस बाघ अभयारण्य का भविष्य क्या होगा? 

रणथंभौर बाघ अभ्यारण्य की मूल समस्या क्या है?

  • हालाँकि, इस अभयारण्य के आकार को देखते हुए यह कहना गलत न होगा कि यहाँ बाघों की संख्या पर्याप्त है, यानि इस अभयारण्य में बाघों की संख्या को लेकर कोई परेशानी नहीं है। यह क्षेत्र अन्य वनों से एकदम अलग कटा हुआ है।
  • यह भारत में अवस्थित कई अन्य बाघ अभयारण्यों के लिये एक सूक्ष्म ज्योति का काम करता है।
  • देश में बहुत से ऐसे बाघ अभयारण्य हैं जिनमें एक बड़ी संख्या में स्वस्थ बाघ निवास करते हैं, परंतु इन अभयारण्यों की समस्या यह है कि ये अपने आस-पास के परिदृश्य में तेज़ी से हो रही गड़बड़ी से निरंतर प्रभावित होते रहते हैं। 
  • हालाँकि, इन अभयारण्यों में बाघों की संख्या स्थिर बनी हुई है, तथापि इनके बीच की कनेक्टिविटी कम होती जा रही है।

बाघों की स्थिति के संबंध में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार

  • मृत बाघों के पोस्ट-मार्टम से प्राप्त नमूनों तथा जीवित बाघों से प्राप्त नमूनों के संग्रहण पर आधारित एक नया अध्ययन प्रकाशित किया गया है। 
  • इस अध्ययन में भारत के वन्यजीव संस्थान, सेल्यूलर और आणविक जीवविज्ञान केंद्र (Centre for Cellular and Molecular Biology), केरल पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय तथा आरण्यक (Aaranyak ) द्वारा भी सहयोग प्रदान किया गया है।
  • इस अध्ययन के अनुसार, भारत में तीन अलग और आनुवंशिक रूप से बाघ अभयारण्य से जुड़े क्षेत्र अवस्थित हैं। ये क्षेत्र हैं- दक्षिण भारत एवं मध्य भारत, तराई एवं उत्तर-पूर्व भारत, तथा रणथंभौर।

रणथंभौर की वास्तविक स्थिति

  • ध्यातव्य है कि रणथंभौर की बाघ आबादी सबसे कम आनुवंशिक विविधता वाली एवं अवसादग्रस्त है। 
  • वस्तुतः इसके दो मुख्य बिंदु हैं- पहला, बाघों की आबादी को मज़बूत बनाए रखने के लिये आनुवंशिक प्रवाह की आवश्यकता होती है; बाघों के बेहतर स्वास्थ्य के लिये महज़ शारीरिक स्वस्थता हासिल करना पर्याप्त नहीं है।
  • दूसरा, हम एक ऐसे युग में रहते हैं जहाँ सक्रिय प्रबंधन की बात एक सामान्य अवधारणा की भाँति प्रतीत होती है। यही कारण है कि जब किसी बाघ अभयारण्य में बाघों की संख्या में कमी हो जाती है तो दूसरे क्षेत्रों से बाघों को वहाँ स्थानांतरित कर दिया जाता है, जैसा कि पन्ना (मध्य प्रदेश) और सरिस्का (राजस्थान) के मामलों में किया गया।
  • इस संदर्भ में पहली नज़र में ऐसा लगता है कि समस्या हल हो गई है। लेकिन वास्तविकता यह नहीं है, बल्कि यह है कि क्या ये प्रबंधन उपकरण वास्तविक निवास स्थान के माध्यम से आनुवंशिक प्रवाह के लिये उपयुक्त प्रॉक्सी हैं अथवा नहीं?
  • भारत में वैश्विक जंगली बाघ आबादी की 60% से अधिक संख्या निवास करती है। इस प्रकार, यह सवाल सिर्फ आज का नहीं है बल्कि भविष्य का भी है। 
  • इस संबंध में हुए कई अध्ययनों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, बाघ दूरस्थ एवं घने जंगलों में ज़्यादा अच्छी तरह से रह पाते हैं, लेकिन बाघों को वयस्क आयु में अपने जन्म स्थान से पृथक एक नए जंगल की आवश्यकता होती है, ताकि ये अपनी पीढ़ी का विस्तार कर सकें। 
  • प्राकृतिक इतिहास में बाघ को एक 'जंगली' पशु के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। इसे कम मानवीय अशांति वाले क्षेत्रों में रहना पसंद होता है, यह अक्सर बड़े शिकार को छोड़ देता है, लोगों से दूरी बनाए रखना तथा अपने क्षेत्र (territorial space) के प्रति अधिक उग्र व्यवहार करना आदि इसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
  • आधुनिक निगरानी तंत्रों के तहत भी इस बात को साबित किया गया है कि बाघ क्षेत्रों को स्थापित करने के लिये लंबे समय तक कठिन दूरी तय करते हैं। उदाहरण के तौर पर, रणथंभौर से लेकर भरतपुर (राजस्थान), पीलीभीत से लखनऊ (उत्तर प्रदेश) और पेंच (मध्य प्रदेश) से लेकर उमरेड (महाराष्ट्र) तक बाघों को रास्ता तय करते पाया गया है।
  • यहाँ स्पष्ट करते चलें कि आनुवंशिक रूप से पृथक या असहाय आबादी आनुवंशिक अवसाद उत्परिवर्तन एवं बीमारियों से ग्रस्त हो सकती है। इस प्रकार की प्रजातियों में ऐसा पहले भी हुआ है। विदित हो कि फ्लोरिडाई तेंदुआ और संभवत: ग्रेट इंडियन बस्टर्ड जैसी आबादी भी इसी समस्या से त्रस्त हैं। 
  • जंगलीपन और वन्यजीव संरक्षण (Wildness and wildlife conservation) के अंतर्गत पारिस्थितिक प्रक्रियाओं को संरक्षित करने के प्रावधान को शामिल किया गया है, जिसकी अपनी विकासशील क्षमताएँ हैं। 
  • बाघ अभयारण्यों के मध्य एक मज़बूत जंगल या आवास गलियारे को विकसित करना, इसकी पारिस्थितिकी प्रक्रियाओं को बनाए रखने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम होता है, जो कि इस प्रजाति के अस्तित्व और अनुकूलन की मुख्य कुंजी साबित हो सकता है।

चिंताएँ

  • कितनी भी व्यवस्थित प्रणाली को अपनाया जाए उसके बावजूद आज भी संरक्षित क्षेत्रों के बाहर बाघों को सुरक्षित रख पाना एक बेहद मुश्किल काम है। 
  • इस दिशा में अधिक काम न करने का एक मुख्य कारण यह भी है कि देश के कुछ बाघ अभयारण्यों में बाघों की संख्या स्थिर है। 
  • एक अन्य समस्या नई परियोजनाओं के कारण संरक्षित क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभावों की है।
  • ध्यातव्य है कि मध्य प्रदेश में केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना के अंतर्गत पन्ना बाघ अभयारण्य का एक बड़ा हिस्सा जलमग्न हो जाएगा। 
  • एक नई प्रस्तावित सिंचाई परियोजना के अंतर्गत पलामो बाघ अभयारण्य (झारखंड) में तकरीबन तीन लाख से अधिक पेड़ जलमग्न हो जाएंगे। 
  • इसके अतिरिक्त सारिसका, काजीरंगा (असम) और कान्हा एवं पेंच रिज़र्व के मध्य से होते हुए एक नए राजमार्ग परियोजना को स्वीकृति प्रदान की गई है, जिससे इन संरक्षित क्षेत्रों के व्यापक क्षेत्र में कटौती होगी।

ये केवल आँकड़े नहीं हैं

  • अभी तक जब कभी भी बाघों के विषय में चर्चा की गई है हर बार केवल इनकी संख्या  को ही केंन्द्र बिंदु बनाया गया है।
  • इसके संबंध में दूसरे पहलुओं पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। निस्संदेह, बाघों के संरक्षण के संबंध में इनकी संख्या एक बहुत महत्त्वपूर्ण कारक होती है। तथापि इनके सतत् संरक्षण प्रयास हेतु किये जाने वाले प्रयासों के तहत इसके अन्य पक्षों पर भी विचार किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

वास्तविकता यह है कि इस संबंध में वन विभाग के द्वारा केवल संरक्षण का काम किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह अपने से ज़मीन खरीद कर बाघों को संरक्षित नहीं कर सकता है। स्पष्ट रूप से इस कार्य के लिये कई हितधारकों और राजनीतिक प्रमुखों की इच्छाशक्ति बहुत अहम् भूमिका का निर्वाह करती है। मानवीय हस्तक्षेप के साथ बाघों को लाने ले-जाने के अलावा, दो अभयारण्यों के बीच एक मज़बूत गलियारे को विकसित किये जाने की आवश्यकता है। स्पस्ट रूप से इस संबंध में और अधिक गंभीरता से विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है, ताकि समय रहते इनका संरक्षण किया जा सके।

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