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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

बी.एन. श्रीकृष्ण समिति की सिफारिशें और बीआईटी मॉडल, 2015

  • 24 Aug 2017
  • 10 min read

संदर्भ

भारत को अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता का केंद्र बनाने के लिये कौन से उपाय किये जाएँ और इन उपायों की रुपरेखा क्या हो? इन सवालों के जवाब तलाशने के लिये न्यायमूर्ति बी.एन. श्रीकृष्ण की अगुवाई में एक समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव देते हुए भारतीय मध्यस्थता कानून में कई बदलावों की सिफारिश की है।

दरअसल, द्विपक्षीय निवेश संधि (bilateral investment treaty-BIT) पर इस समिति की सिफारिशें इसलिये महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि भारत वर्तमान में 20 बीआईटी विवादों से जूझ रहा है। इस समिति की अनुशंसाओं के बारे में जानने से पहले यह समझना होगा कि बीआईटी और इससे संबंधित विवाद क्या हैं।

द्विपक्षीय निवेश संधियाँ (बीआईटी) क्या हैं?

  • 1991 के आर्थिक संकट से पहले भारत द्विपक्षीय निवेश संधियों को महत्त्व इसलिये नहीं देता था, क्योंकि तब वह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को गौण महत्त्वों वाला समझता था। किन्तु जैसे ही आर्थिक संकट ने भारत की जड़ें कमज़ोर करनी शुरू की, भारत ने विश्व बैंक और आईएमएफ का दरवाज़ा खटखटाया।
  • वित्त प्रदायी इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भारत को क़र्ज़ देने के साथ ही उसे अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाज़े खोलने को भी कहा। तत्पश्चात भारत ने एलपीजी सुधारों की कवायद आरम्भ की और इन्हीं प्रयासों के अंतर्गत विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संधियाँ की।
  • द्विपक्षीय निवेश संधियाँ महत्त्वपूर्ण इस दृष्टिकोण से हैं कि इनकी अनुपस्थिति में कोई भी विदेशी निवेशक, भारत द्वारा प्रतिकूल विनियामक दबाव बनाए जाने की स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता का इस्तेमाल नहीं कर सकता है, जिससे कि भारत को अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत जवाबदेह ठहराया जा सके।
  • ज़ाहिर है द्विपक्षीय निवेश संधि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण घटक है।

क्यों है विवाद ?

  • दरअसल, पिछले वर्ष भारत ने 58 देशों को सूचित कर दिया था कि वह उनके साथ अपनी द्विपक्षीय निवेश संधियों को निरस्त करने जा रहा है। 
  • दरअसल, भारत बीआईटी के उस मॉडल का पालन करना चाहता है, जिसमें भारत की घरेलू निवेश नीतियों को वैश्विक निवेश परिस्थितियों के अनुकूल बनाने की बात कही गई है।
  • लेकिन इसके लिये सर्वप्रथम पहले की गई सन्धियों को निरस्त करना था और फिर बीआईटी के नए मॉडल पर अन्य देशों को राजी करना था। नए मॉडल में व्यवस्था यह की गई थी कि कोई विदेशी निवेशक किसी विवाद की स्थिति में मुआवज़े के लिये भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय पंचाट में आसानी से न घसीट पाए।
  • नए मॉडल पर केवल उन्ही देशों के हस्ताक्षर करने की अधिक संभावना है जिनकी घरेलू परिस्थितियाँ भारत जैसी ही हैं; यही कारण है कि आज बीआईटी के मुद्दे पर भारत लगभग 20 विवादों का सामना कर रहा है।

क्यों गठित की गई बी.एन. श्रीकृष्ण समिति ?

  • अब जब भारत वर्ष 2015 के बीआईटी मॉडल के साथ कार्य करना चाहता है, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता की सीमित गुंजाइश है तो विवादों का निपटारा भारतीय अदालतों में ही करना होगा।
  • अतः निवेश करने वाली संस्थाओं और देशों को यह विश्वास दिलाना आवश्यक हो गया कि भारत के मध्यस्थता कानून व्यावहारिक और सक्षम हैं।
  • भारत को अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता का हब बनाने और वाणिज्यिक विवादों के शीघ्र निपटान हेतु रोडमैप तैयार करने के उद्देश्य से सरकार द्वारा यह समिति गठित की गई।

समिति की महत्त्वपूर्ण सिफारिशें

  • इस समिति ने सिफारिश की है कि बीआईटी से संबंधित विवादों के जल्द निपटान के लिये एक अन्तः मंत्रिस्तरीय समिति (inter-ministerial committee-IMC) का गठन किया जाए, जिसमें वित्त, विदेश और कानून मंत्रालयों के अधिकारी शामिल हों।
  • समिति ने यह भी कहा है कि सरकार को कानूनी विशेषज्ञता को बढ़ावा देने के लिये बाहर से बीआईटी मामलों के विशेषज्ञों की सेवाएँ लेनी चाहिये।
  • बिट विवादों से लड़ने के लिये एक विशेष निधि का निर्माण करना चाहिये।
  • भारत के बीआईटी दायित्वों एवं उनके निहितार्थ को बेहतर ढंग से समझने के लिये केंद्र और राज्य सरकारों की क्षमता बढ़ानी चाहिये।
  • इस समिति की सबसे महत्त्वपूर्ण सिफारिश अंतर्राष्ट्रीय कानूनी विवादों पर सरकार को सलाह देने के लिये एक 'अंतर्राष्ट्रीय कानून सलाहकार' (international law adviser-ILA)) पद के गठन की सिफारिश करना है।
  • कहा गया है कि यह 'अंतर्राष्ट्रीय कानून सलाहकार' ही बीआईटी मध्यस्थता के दिन-प्रतिदिन के प्रबंधन के लिये ज़िम्मेदार होगा।
  • बीआईटी विवादों के समाधान के लिये  समिति ने कुछ उपयोगी हस्तक्षेप किए हैं, जैसे कि बीआईटी अपीलीय तंत्र और एक बहुपक्षीय निवेश अदालत की स्थापना की चर्चा करना।

इन सिफारिशों को कैसे और अधिक प्रभावी बनाया जा सकता था ?

  • समिति की सबसे महत्त्वपूर्ण सिफारिश को लेकर ही कुछ चिंताएँ सामने आ रही हैं। समिति ने बीआईटी विवादों को देखने के लिये एक विशेषज्ञ पद के गठन की बात की है, जिसे 'अंतर्राष्ट्रीय कानून सलाहकार' के नाम से जाना जाएगा।
  • दरअसल, विदेश मंत्रालय का एक विभाग, जिसे हम ‘द लीगल एंड ट्रीटीज़’ (The Legal and Treaties-L&T) के नाम से जानते हैं का यह दायित्व है कि वह अंतर्राष्ट्रीय कानूनी मामलों में सरकार को आवश्यक सुझाव दे।
  • जब पहले से ही इस कार्य के लिये एक विभाग है तो एक नए पद का निर्माण इन मामलों में दायित्वों के दोहराव की स्थिति ला सकता है। ज़रूरी यह था कि ‘द लीगल एंड ट्रीटीज़’ विभाग को ही और अधिक मज़बूत बनाया जाए।
  • दूसरा विवाद भारत ने नए बीआईटी मॉडल के अनुच्छेद 15 से संबंधित है। विदित हो कि इस समिति ने इस अनुच्छेद की प्रशंसा की है, जबकि इसमें खामियाँ हैं।
  • बीआईटी मॉडल, 2015 के अनुच्छेद 15 के अनुसार विवाद की स्थिति में विदेशी निवेशकों को कम से कम पाँच साल की अवधि के लिये घरेलू अदालतों में मुकदमा चलाने की आवश्यकता है। इसके बाद ही निवेशक बीआईटी के तहत विवाद निपटारे का आग्रह कर सकते हैं।
  • हालाँकि इस आग्रह के बाद उन्हें 6 माह तक शांतिपूर्वक समाधान निकालने की कोशिश करनी होगी| यदि तब भी कोई निष्कर्ष नहीं निकलता तो निवेशकों को बीआईटी के तहत विवाद निपटारे के लिये ३ माह का समय दिया जाता है।
  • इस तरह के बाध्यकारी प्रावधानों के संबंध में समिति कुछ सुधारात्मक सुझाव दे सकती थी, लेकिन उसने इस व्यवस्था को उचित बताया है।

निष्कर्ष

  • विदित हो कि वर्ष 1993 में भारत ने बीआईटी का अपना पहला मॉडल तैयार किया था, लेकिन तब और आज की परिस्थितियों में  नाटकीय बदलाव आया है।
  • हालाँकि वर्ष 2003 में बीआईटी मॉडल में कुछ बदलाव किया गया, लेकिन बदलती हुई आर्थिक स्थितियों के कारण उसमें व्यापक संशोधन की आवश्यकता थी और यही कारण है कि हमने 2015 का मॉडल अपनाया।
  • बीआईटी के प्रावधानों के उल्लंघन के मामलों में अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता निकायों ने प्रायः भारत के विरुद्ध पक्षपाती निर्णय दिये हैं। यही कारण है कि नए मॉडल ने निवेशकों के लिये अंतर्राष्ट्रीय पंचाट तक पहुँचना मुश्किल बना दिया।
  • बी.एन. श्रीकृष्ण समिति के पास मौका था कि वह थोड़ा प्रतिक्रियावादी नज़र आ रहे इस मॉडल को लेकर कुछ व्यावहारिक सुझाव दे।
  • हालाँकि, केवल बीआईटी ही निवेश आकर्षित करने का साधन नहीं है, बल्कि किसी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर कैसी है, भूमि तथा श्रम की उपलब्धता कैसी है आदि कुछ ऐसे घटक हैं जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
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