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शासन व्यवस्था

फेक न्यूज़ की गंभीर समस्या

  • 18 Nov 2020
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये

सोशल मीडिया, फेक न्यूज़

मेन्स के लिये

फेक न्यूज़ का अर्थ और उससे संबधित विभिन्न महत्त्वपूर्ण पहलू, फेक न्यूज़ के प्रसार में सोशल मीडिया की भूमिका  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों पर दिखाए जा रहे कंटेंट के विरुद्ध आ रही शिकायतों और फेक न्यूज़ की गंभीर समस्या से निपटने के लिये तंत्र के बारे में केंद्र सरकार से सूचना मांगी है और साथ ही यह निर्देश भी दिया कि यदि ऐसा कोई तंत्र नहीं है तो जल्द-से-जल्द इसे विकसित किया जाए।

प्रमुख बिंदु

  • सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को चेताया कि यदि वह इस प्रकार के किसी भी तंत्र को विकसित करने में विफल रहती है तो न्यायालय को मजबूरन यह कार्य किसी बाहरी संस्था को देना होगा।

क्या है ‘फेक न्यूज़’?

  • सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि ‘फेक न्यूज़’ का अभिप्राय ऐसी खबरों और कहानियों अथवा तथ्यों से है, जिनका उपयोग जान-बूझकर पाठकों को गलत सूचना देने अथवा धोखा देने के लिये किया जाता है।
  • ‘फेक न्यूज़’ एक विशाल वट वृक्ष के सामान है, जिसकी कई शाखाएँ और उपशाखाएँ होती हैं। इसके तहत किसी के पक्ष में प्रचार करना व झूठी खबर फैलाने जैसे कृत्य तो आते ही हैं, साथ ही किसी व्यक्ति या संस्था की छवि को नुकसान पहुँचाना या लोगों को उसके विरुद्ध झूठी खबर के ज़रिये भड़काने की कोशिश करना भी शामिल है।
  • आमतौर पर ये खबरें लोगों के विचारों को प्रभावित करने और किसी एक विशिष्ट राजनीतिक एजेंडे को बढ़ावा देने के लिये प्रसारित की जाती हैं और प्रायः इस प्रकार की झूठी खबरों के कारण उन्हें प्रकाशित करने वाले लोगों को काफी फायदा होता है।
  • इतिहास
    • ‘फेक न्यूज़’ को आधुनिक युग की सोशल मीडिया से संबंधित कोई नई घटना नहीं माना जा सकता है, बल्कि प्राचीन यूनान में भी प्रभावशाली लोगों द्वारा अपने हित में जनमत जुटाने के लिये दुष्प्रचार और गलत सूचनाओं का उपयोग किया जाता था।

भारत में ‘फेक न्यूज़’

  • भारत में लगातार फैल रही झूठी खबरें और दुष्प्रचार देश के लिये एक गंभीर सामाजिक चुनौती बनती जा रही है। भारत जैसे देश में यह समस्या और भी गंभीर रूप धारण करती जा रही है तथा इसके कारण अक्सर सड़क पर दंगे और मॉब लिंचिंग की घटनाएँ देखने को मिलती हैं।
  • भारत जहाँ 75 करोड़ से भी अधिक इंटरनेट उपयोगकर्त्ता हैं, में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे- फेसबुक और व्हाट्सएप आदि ‘फेक न्यूज़’ प्रसारण के प्रमुख स्रोत बन गए हैं।
  • भारत में ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं, जहाँ ‘फेक न्यूज़’ या झूठी खबर के कारण किसी निर्दोष व्यक्ति की जान चली गई हो।
  • भारत में व्हाट्सएप को ‘फेक न्यूज़’ के लिये सबसे अधिक असुरक्षित माध्यम माना जाता है, क्योंकि इसका प्रयोग करने वाले लोग अक्सर खबर की सत्यता जाने बिना उसे कई लोगों को फॉरवर्ड कर देते हैं, जिसके कारण एक साथ कई सारे लोगों तक गलत सूचना पहुँच जाती है।

भारत में ‘फेक न्यूज़’ का कारण

  • पारंपरिक मीडिया की विश्वसनीयता में कमी: भारत समेत विश्व के तमाम देशों में अब पारंपरिक मीडिया और टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों को ‘समाचार और समसामयिक’ के विश्वसनीय स्रोत के रूप में नहीं देखा जाता है, बल्कि मीडिया खासतौर पर टेलीविजन न्यूज़ चैनल राजनीतिक दलों के लिये एक मंच बनकर रह गए हैं।
    • इस प्रकार मीडिया ने अपनी विश्वसनीयता को पूर्णतः खो दिया है और वह ‘फेक न्यूज़’ का एक प्रमुख स्रोत बन गया है।
  • सोशल मीडिया का उदय: डिजिटल और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के साथ दुनिया भर में फेक न्यूज़ एक बड़ी समस्या बन चुकी है। सोशल मीडिया के आगमन ने ‘फेक न्यूज़’ के प्रचार- प्रसार का विकेंद्रीकरण कर दिया है। 
    • इंटरनेट और सोशल मीडिया की विशालता के कारण यह जानना और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है कि किसी खबर की सत्यता क्या है और इस खबर का उद्भव कहाँ से हुआ है।
  • समाज का ध्रुवीकरण: वैचारिक आधार पर समाज के ध्रुवीकरण ने ‘फेक न्यूज़’ के प्रसार को और भी आसान बना दिया है। बीते कुछ वर्षों में ऐसी झूठी खबरों, जो कि हमारे राजनीतिक अथवा वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों का अपमान करने अथवा उन्हें बदनाम करने के उद्देश्य से प्रसारित की जाती हैं, के प्रति लोगों का आकर्षण काफी बढ़ा है।
  • उपयुक्त कानून का अभाव: ध्यातव्य है कि भारत में फर्ज़ी खबरों से निपटने के लिये कोई विशेष कानून नहीं है, जिसके कारण इसके प्रसार को बढ़ावा मिलता है। 
  • प्रायः लोग किसी भी खबर के पीछे की सच्चाई जानने का प्रयास नहीं करते हैं, बल्कि वे ऐसी खबरों का उपयोग अपने अनुचित एजेंडे को उचित बनाने के लिये करते हैं।

एक मज़बूत कानून की आवश्यकता

  • यद्यपि नफरत से भरा कंटेंट बनाने वाले और इसे साझा करने वाले लोगों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की प्रासंगिक धाराओं के तहत सज़ा दी जा सकती है, किंतु इंटरनेट की विशालता के कारण ऐसे लोगों की पहचान करना काफी चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
  • सरकारी विनियमन के तहत आने वाले पारंपरिक मीडिया के विपरीत ऑनलाइन प्लेटफॉर्म अथवा ऑनलाइन मीडिया के क्षेत्र में आवश्यक बाध्यकारी नियमों का अभाव है, जिसके कारण ‘फेक न्यूज़’ के प्रसार की संभावना काफी अधिक बढ़ जाती है।
  • बीते कुछ वर्षों में ‘फेक न्यूज़’ फैलाने वाले कई लोगों को गिरफ्तार किया गया है और कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने भी अपनी नीति में कुछ परिवर्तन किया है, किंतु इसके बावजूद एक सार्वभौमिक नीति अथवा नियम के अभाव के कारण ‘फेक न्यूज़’ की समस्या से अब तक पूर्णतः निपटा नहीं जा सका है।
  • इसलिये वर्तमान में इस समस्या से निपटने के लिये एक सार्वभौमिक नीति, विनियमन और दिशा-निर्देशों की कमी को तत्काल संबोधित किये जाने की आवश्यकता है।

आगे की राह

  • ‘फेक न्यूज़’ के प्रसार को रोकने के लिये कानून बनाते समय यह आवश्यक है कि एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए केवल पारंपरिक मीडिया और टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों को ही दोष न दिया जाए, क्योंकि सोशल मीडिया के दौर में कोई भी व्यक्ति गलत सूचनाओं का निर्माण कर सकता है और उन्हें लाखों लोगों तक पहुँचा सकता है।
  • कानून बनाने से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण उस कानून को सही ढंग से लागू करना होता है, क्योंकि जब तक कोई कानून सही ढंग से लागू नहीं होगा तब तक उसका कोई महत्त्व नहीं होगा।
  • कानून का निर्माण करने के साथ-साथ लोगों को ‘फेक न्यूज़’ के बारे में जागरूक करना और उन्हें शिक्षित करना भी आवश्यक है।

स्रोत: द हिंदू

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