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डेली न्यूज़

जैव विविधता और पर्यावरण

हरित वित्तपोषण

  • 28 Dec 2021
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये:

COP-26 जलवायु शिखर सम्मेलन, वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन, जलवायु वित्तपोषण के लिये वैश्विक ढाँचा , क्योटो प्रोटोकॉल, UNFCCC, वैश्विक पर्यावरण कोष (GEF)

मेन्स के लिये:

भारत में जलवायु वित्त पोषण की स्थिति, जलवायु वित्त पोषण, हरित वित्त की आवश्यकता और इसका महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने COP-26 जलवायु शिखर सम्मेलन में घोषणा की है कि भारत वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन स्थिति प्राप्त करेगा।

  • इन जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये भारत जैसे देश को अगले दस वर्षों में अतिरिक्त वित्तपोषण के लिये लगभग 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी।

प्रमुख बिंदु:

  • परिचय:
    • ग्रीन फाइनेंसिंग सार्वजनिक, निजी और गैर-लाभकारी क्षेत्रों से सतत् विकास प्राथमिकताओं के लिये वित्तीय प्रवाह (बैंकिंग, माइक्रो-क्रेडिट, बीमा और निवेश से) के स्तर को बढ़ाने के लिये है।
    • इसका एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा पर्यावरणीय और सामाजिक ज़ोखिमों को बेहतर ढंग से प्रबंधित करना है, ऐसे अवसरों का लाभ उठाना जो प्रतिफल की एक अच्छी दर और पर्यावरणीय लाभ के साथ ही अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं।
  • जलवायु (हरित) वित्त की आवश्यकता: 
    • ‘प्रदूषणकर्त्ता द्वारा भुगतान’ का सिद्धांत (Polluter Pays Principle) 
      • ‘प्रदूषणकर्त्ता द्वारा भुगतान’ का सिद्धांत (Polluter Pays Principle) आमतौर पर स्वीकृत प्रथा है जिसके अनुसार प्रदूषण उत्पन्न करने वालों को मानव स्वास्थ्य या पर्यावरण को नुकसान से बचाने के लिये इसके प्रबंधन की लागत वहन करनी चाहिये।
    • सामान्य लेकिन विभेदित उत्तरदायित्व और संबंधित क्षमता (सीबीडीआर-आरसी):
      • यह जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने में अलग-अलग देशों की विभिन्न क्षमताओं और अलग-अलग ज़िम्मेदारियों को स्वीकार करता है।
    • अंतर्निहित सिद्धांत: विकसित देश ऐतिहासिक रूप से प्रमुख पर्यावरण प्रदूषक रहे हैं।
      • इसलिये उपर्युक्त सिद्धांतों के आधार पर विकसित देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये प्रौद्योगिकी और वित्त प्रदान करने हेतु नैतिक रूप से ज़िम्मेदार हैं।
  • जलवायु वित्तपोषण की स्थिति:
    • विकसित देशों से अपेक्षित योगदान: विकसित देशों से आवश्यक जलवायु वित्त विकासशील देशों को उनके जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये प्रतिवर्ष 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हस्तांतरित करना।
    • विकसित देशों द्वारा वास्तविक योगदान: वर्ष 2010 में ‘कैनकन समझौतों’ के माध्यम से विकसित देशों ने विकासशील देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये वर्ष 2020 तक प्रतिवर्ष संयुक्त रूप से 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लक्ष्य हेतु प्रतिबद्धता ज़ाहिर की थी।
  • हालाँकि ‘ग्लासगो जलवायु समझौते’ (COP26) ने नोट किया कि विकसित देशों की प्रतिबद्धता अभी तक पूरी नहीं हुई है।
  • इस संबंध में ‘COP26’ ने ‘संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज’ (UNFCCC) को वित्त पर स्थायी समिति से वर्ष 2022 में ऐसे देशों पर एक रिपोर्ट तैयार करने का अनुरोध किया है, जो विकासशील देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये प्रतिवर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में प्रगति कर रहे हैं।
  • ग्लोबल फ्रेमवर्क फॉर क्लाइमेट फाइनेंसिंग:
    • जलवायु वित्त के प्रावधान को सुविधाजनक बनाने हेतु UNFCCC ने विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन प्रदान करने के लिये वित्तीय तंत्र की स्थापना की है।
      • क्योटो प्रोटोकॉल के तहत अनुकूलन कोष: इसका उद्देश्य उन परियोजनाओं और कार्यक्रमों को वित्तपोषित करना है, जो विकासशील देशों में संवेदनशील समुदायों की मदद करते हैं और जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिये क्योटो प्रोटोकॉल के पक्षकार हैं।
      • ग्रीन क्लाइमेट फंड: यह वर्ष 2010 में स्थापित UNFCCC का वित्तीय तंत्र है।
        • भारत, प्रतिवर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की पेरिस समझौते की जलवायु वित्त प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिये विकसित देशों पर ज़ोर दे रहा है।
      • वैश्विक पर्यावरण कोष (GEF): वर्ष 1994 में कन्वेंशन लागू होने के बाद से ‘वैश्विक पर्यावरण कोष’ ने वित्तीय तंत्र की एक परिचालन इकाई के रूप में कार्य किया है।
        • यह एक निजी इक्विटी फंड है जो जलवायु परिवर्तन के तहत स्वच्छ ऊर्जा में निवेश द्वारा दीर्घकालिक वित्तीय रिटर्न प्राप्त करने पर केंद्रित है।
        • जीईएफ दो अतिरिक्त फंड, स्पेशल क्लाइमेट चेंज फंड (SCCF) और कम विकसित देशों के फंड (LDCF) का भी रखरखाव करता है।

भारत में जलवायु वित्तपोषण:

  • घरेलू संसाधनों से वित्तपोषण: भारत की जलवायु क्रियाओं को अब तक बड़े पैमाने पर घरेलू संसाधनों द्वारा वित्तपोषित किया गया है।
  • हरित वित्तपोषण के लिये धन: जलवायु परिवर्तन से संबंधित हरित वित्तपोषण प्रमुख रूप से राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष (एनसीईएफ) और राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (एनएएफ) द्वारा जुटाया जाता है।
    • भारत सरकार जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना के तहत स्थापित आठ मिशनों के माध्यम से वित्तपोषण भी प्रदान करती है।
    • इसने वित्त मंत्रालय में एक जलवायु परिवर्तन वित्त इकाई (सीसीएफयू) की स्थापना की है, जो सभी जलवायु परिवर्तन वित्तपोषण मामलों के लिये नोडल एजेंसी है।

हाल ही में भारत सरकार की पहल:

  • प्रदर्शन उपलब्धि और व्यापार (पीएटी) योजना: सरकार ने 13 ऊर्जा गहन क्षेत्रों में कार्बन उत्सर्जन में कमी को लक्षित करते हुए पीएटी योजना शुरू की है।
  • विदेशी पूंजी को प्रोत्साहित करना: सरकार ने अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में स्वचालित मार्ग के तहत 100 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की अनुमति दी है।
  • अक्षय ऊर्जा को प्रोत्साहन:  
    • सरकार ने परियोजनाओं के लिये सौर और पवन ऊर्जा की अंतर-राज्यीय बिक्री हेतु अंतर-राज्यीय पारेषण प्रणाली (आईएसटीएस) शुल्क माफ कर दिया है।
    • अक्षय खरीद दायित्व (आरपीओ) के लिये प्रावधान करना और अक्षय ऊर्जा पार्क स्थापित करना।
    • राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन की घोषणा।
  • भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान: इसे पेरिस समझौते के तहत वर्ष 2015 में हस्ताक्षरकर्त्ता देशों द्वारा अपनाया गया था, भारत ने निर्धारित लक्ष्यों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NCD) प्रस्तुत किया था:
    • अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की उत्सर्जन तीव्रता को वर्ष 2030 तक वर्ष 2005 के स्तर से 33-35% तक कम करना।
    • वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संसाधनों से लगभग 40% संचयी विद्युत शक्ति स्थापित क्षमता प्राप्त करना।
    • वर्ष 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण के माध्यम से 2.5-3 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर अतिरिक्त कार्बन सिंक निर्मित करना।

आगे की राह 

  • सहयोग के दायरे का विस्तार: सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ वित्तीय बाज़ारों, बैंकों, निवेशकों, सूक्ष्म-ऋण संस्थाओं, बीमा कंपनियों में प्रमुख भागीदारों को शामिल करने हेतु बहु-हितधारक भागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
  • समग्र ढांँचा: निम्नलिखित को बढ़ावा देकर हरित वित्तपोषण को बढ़ावा दिया जा सकता है:
    • देशों के नियामक ढांँचे में बदलाव लाकर।
    • सार्वजनिक वित्तीय प्रोत्साहनों के सामंजस्य से।
    • विभिन्न क्षेत्रों से हरित वित्तपोषण में वृद्धि करके।
    • सतत् विकास लक्ष्यों के पर्यावरणीय आयाम के साथ सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तपोषण निर्णय लेने के संरेखण द्वारा 
    • स्वच्छ और हरित प्रौद्योगिकियों के निवेश में वृद्धि करके।
    • टिकाऊ प्राकृतिक संसाधन-आधारित हरित अर्थव्यवस्थाओं और जलवायु स्मार्ट नीली अर्थव्यवस्था हेतु वित्तपोषण द्वारा।
    • ग्रीन बॉण्ड के उपयोग को बढ़ावा देकर।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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