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आंतरिक सुरक्षा

नगालैंड में अफस्पा का विस्तार

  • 04 Jan 2022
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम 1958, कोन्याक जनजाति, विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTGs)

मेन्स के लिये:

सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम 1958 और इसकी आवश्यकता, भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिये चुनौतियां

चर्चा में क्यों?

कोन्याक संगठनों की संरक्षक संस्था ‘कोन्याक सिविल सोसाइटी संगठन’ ने सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम 1958 (AFSPA) के विस्तार की निंदा की है।

  • नगालैंड में सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम 1958 को 30 दिसंबर 2021 से छह महीने के लिये बढ़ा दिया गया है।

कोन्याक

  • परिचय:
    • नगालैंड में कोन्याक जनजाति एओ, तंगखुल, सेमा और अंगामी के बाद सबसे बड़ी जनजाति है।
    • अन्य नागा जनजातियों में लोथा, संगतम, फोम, चांग, ​​खिमनुंगम, यिमचुंगरे, जेलियांग, चाखेसांग (चोकरी) और रेंगमा शामिल हैं।
    • माना जाता है कि 'कोन्याक' शब्द 'व्हाओ' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है 'सिर' और 'न्याक' का अर्थ है 'काला'। इसका अनुवाद 'काले बालों वाला पुरुष' है।
    • उन्हें दो समूहों में बाँटा जा सकता है- 'थेंडु', जिसका अर्थ है 'टैटू वाला चेहरा' और 'थेंथो', जिसका अर्थ है 'सफेद चेहरा'।
  • परिवेश:
    • यह जनजाति ज्यादातर मोन ज़िले में निवास करती है, जिन्हें 'द लैंड ऑफ द एंग्स' के नाम से भी जाना जाता है, वे अरुणाचल प्रदेश, असम और म्याँमार के कुछ ज़िलों में भी पाए जाते हैं।
    • अरुणाचल प्रदेश में उन्हें वांचो के रूप में जाना जाता है ('वांचो' 'कोन्याक' का पर्यायवाची शब्द है)।
      • जातीय, सांस्कृतिक और भाषायी रूप से एक ही पड़ोसी राज्य अरुणाचल प्रदेश के नोक्टेस और तांगसा भी कोन्याक से निकटता से संबंधित हैं।
  • मनाए जाने वाले त्योहार :
    • तीन सबसे महत्त्वपूर्ण त्योहार एओलिंगमोन्यु, एओनिमो और लाउन-ओंगमो हैं।
      • एओलिंगमोन्यु अप्रैल के पहले सप्ताह में बीज बोने के बाद मनाया जाता है और यह नए साल की शुरुआत का प्रतीक है। इसका धार्मिक महत्त्व समृद्ध फसल के लिये भगवान को प्रसन्न करना है।
      • पहली फसल जैसे- मक्का और सब्जियों की कटाई के बाद जुलाई या अगस्त में एओनिमो मनाया जाता है।
      • लाउन-ओंगमो एक धन्यवाद देने वाला त्योहार है और सभी कृषि गतिविधियों के पूरा होने के बाद मनाया जाता है।

प्रमुख बिंदु

सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, 1958: 

  • पृष्ठभूमि:
    • भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिये बनाए गए ब्रिटिश-युग के कानून का पुनर्जन्म, AFSPA 1947 में चार अध्यादेशों के माध्यम से जारी किया गया था।
    • अध्यादेशों को 1948 में एक अधिनियम द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था और पूर्वोत्तर में वर्तमान कानून 1958 में तत्कालीन गृह मंत्री जी.बी. पंत द्वारा प्रभावी किया गया था।
    • इसे शुरू में सशस्त्र बल (असम और मणिपुर) विशेष अधिकार अधिनियम, 1958 के रूप में जाना जाता था।
    • अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिज़ोरम और नगालैंड राज्यों के अस्तित्व में आने के बाद अधिनियम को इन राज्यों पर भी लागू करने के लिये अनुकूलित किया गया था।
  • परिचय:
    • AFSPA सशस्त्र बलों और "अशांत क्षेत्रों" में तैनात केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों को कानून का उल्लंघन करने वाले किसी भी व्यक्ति को मारने और बिना वारंट के किसी भी परिसर की तलाशी लेने तथा अभियोजन एवं कानूनी मुकदमों से सुरक्षा के साथ निरंकुश शक्तियाँ देता है।
    • नगा हिल्स में विद्रोह से निपटने के लिये कानून पहली बार 1958 में लागू हुआ, उसके बाद असम में विद्रोह हुआ। 
  • अशांत क्षेत्र:
    • 1972 में अधिनियम में संशोधन किया गया और एक क्षेत्र को "अशांत" घोषित करने की शक्तियाँ राज्यों के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी प्रदान की गईं।
    • वर्तमान में केंद्रीय गृह मंत्रालय केवल नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश के लिये AFSPA का विस्तार करने हेतु  समय-समय पर "अशांत क्षेत्र" अधिसूचना जारी करता है।
    • मणिपुर और असम के लिये अधिसूचना राज्य सरकारों द्वारा जारी की जाती है।
    • त्रिपुरा ने 2015 में अधिनियम को निरस्त कर दिया और मेघालय में 27 वर्षों से AFSPA लागू था, जब तक कि इसे 1 अप्रैल, 2018 से केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा रद्द नहीं कर दिया गया।
    • यह अधिनियम असम की सीमा से लगे 20 किलोमीटर के क्षेत्र में लागू किया गया था।
    • जम्मू और कश्मीर में एक अलग जम्मू-कश्मीर सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, 1990 है।
  • अधिनियम को लेकर विवाद:
    • मानवाधिकारों का उल्लंघन:
      • कानून गैर-कमीशन अधिकारियों तक, सुरक्षाकर्मियों को बल का उपयोग करने और "मृत्यु का कारण बनने तक" गोली मारने का अधिकार देता है, यदि वे आश्वस्त हैं कि "सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव" के लिये ऐसा करना आवश्यक है।
      • यह सैनिकों को बिना वारंट के परिसर में प्रवेश करने, तलाशी लेने और गिरफ्तारी करने की कार्यकारी शक्तियाँ भी देता है।
      • सशस्त्र बलों द्वारा इन असाधारण शक्तियों के प्रयोग से अक्सर अशांत क्षेत्रों में सुरक्षा बलों पर फर्जी मुठभेड़ों और अन्य मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगते रहे हैं, जबकि नगालैंड एवं जम्मू-कश्मीर जैसे कुछ राज्यों में AFSPA के अनिश्चितकालीन लागू होने पर सवाल उठाया गया है।
    • जीवन रेड्डी समिति की सिफारिशें: 
      • नवंबर 2004 में, केंद्र सरकार ने पूर्वोत्तर राज्यों में अधिनियम के प्रावधानों की समीक्षा के लिये न्यायमूर्ति बी पी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में पाँच सदस्यीय समिति नियुक्त की।
      • समिति की मुख्य सिफारिशें इस प्रकार थीं:
        • AFSPA को निरस्त किया जाना चाहिये और गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 में उचित प्रावधान शामिल किये जाने चाहिये
        • सशस्त्र बलों और अर्द्धसैनिक बलों की शक्तियों को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करने हेतु गैरकानूनी गतिविधि अधिनियम को संशोधित किया जाना चाहिये तथा प्रत्येक ज़िले में जहांँ सशस्त्र बल तैनात हैं, शिकायत प्रकोष्ठ स्थापित किये जाने चाहिये।
    • दूसरी ARC की सिफारिशें: सार्वजनिक व्यवस्था पर दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) की 5वीं रिपोर्ट में भी अफस्पा को निरस्त करने की सिफारिश की गई है। हालांँकि, इन सिफारिशों को लागू नहीं किया गया है।
  • अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय के विचार:
    • वर्ष 1998 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय (नगा पीपुल्स मूवमेंट ऑफ ह्यूमन राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया) में AFSPA की संवैधानिकता को बरकरार रखा है।
    • इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि
      • केंद्र सरकार द्वारा स्व-प्रेरणा से घोषणा की जा सकती है, हालांकि यह वांछनीय है कि घोषणा करने से पहले राज्य सरकार को केंद्र सरकार से परामर्श लेना चाहिये;
      • घोषणा एक सीमित अवधि के लिये होनी चाहिये और घोषणा की समय-समय पर समीक्षा हेतु 6 महीने की अवधि समाप्त हो गई है;
      • अफस्पा द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते समय, प्राधिकृत अधिकारी को प्रभावी कार्रवाई हेतु आवश्यक न्यूनतम बल का प्रयोग करना चाहिये ।

आगे की राह 

  • वर्षों से हुई कई मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं के कारण अधिनियम की यथास्थिति अब स्वीकार्य समाधान नहीं है। AFSPA उन क्षेत्रों में उत्पीड़न का प्रतीक बन गया है जहांँ इसे लागू किया गया है इसलिये सरकार को प्रभावित लोगों को संबोधित करने और उन्हें अनुकूल कार्रवाई के लिये आश्वस्त करने की आवश्यकता है।
  • सरकार को मामले-दर-मामले आधार पर अफ्सपा को लागू करने और हटाने पर विचार करना चाहिये  और पूरे राज्य में इसे लागू करने के बजाय इसे केवल कुछ सवेदनशील ज़िलों तक सीमित करना चाहिये।
  • सरकार और सुरक्षा बलों को सर्वोच्च न्यायालय, जीवन रेड्डी आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का भी पालन करना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू  

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