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राज्यसभा

विशेष: सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (AFSPA)

  • 09 Mar 2018
  • 19 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने शोपियां गोलीकांड की घटना के बाद धारा 302 और 307 के तहत प्राथमिकी (FIR) दर्ज कराई थी, जिसमें मेजर आदित्य का भी नाम था, क्योंकि फायरिंग करने वाली टुकड़ी का वह नेतृत्व कर रहे थे। मेजर आदित्य के पिता लेफ्टिनेंट कर्नल करमवीर सिंह (रिटायर्ड) ने सेना के खिलाफ FIR को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देते हुए कहा कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (Armed Forces Special Power Act-AFSPA) के तहत आने के कारण उनके पुत्र पर इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। 

इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 10 गढ़वाल राइफल्स के मेजर आदित्य के खिलाफ अगली सुनवाई तक किसी भी तरह की जाँच पर रोक लगा दी। इस बीच जम्मू-कश्मीर सरकार ने शीर्ष अदालत को बताया कि मेजर आदित्य का नाम आरोपियों के कॉलम में शामिल नहीं है। इस घटना के बाद AFSPA जैसे संवेदनशील कानून का मुद्दा एक बार फिर सतह पर आ गया। 

विदित हो कि 27 जनवरी को शोपियां के गनोवपोरा गाँव में पथराव कर रही भीड़ पर सैन्यकर्मियों के गोली चलाने से तीन नागरिकों की मौत हो गई थी, जिसके बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने घटना की जाँच के आदेश दिये थे। मेजर आदित्य कुमार सहित गढ़वाल रायफल्स के 10 कर्मियों के खिलाफ रणबीर दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) और 307 (हत्या का प्रयास) के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी।

नोट: भारत के जम्मू-कश्मीर में रणबीर दंड संहिता (RPC) लागू है, जिसे रणबीर आचार संहिता भी कहा जाता है। भारतीय संविधान की धारा 370 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य में भारतीय दंड संहिता (IPC) का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। ब्रिटिश काल से ही इस राज्य में रणबीर दंड संहिता लागू है। दरअसल, भारत के आजाद होने से पहले जम्मू-कश्मीर एक स्वतंत्र रियासत था और उस समय वहाँ डोगरा राजवंश का शासन था। महाराजा रणबीर सिंह वहां के शासक थे, इसलिए 1932 में महाराजा के नाम पर रणबीर दंड संहिता लागू की गई थी। कुछ बदलावों के साथ यह संहिता थॉमस बैबिंटन मैकॉले की भारतीय दंड संहिता के ही समान है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

अफ्स्पा का इतिहास 

  • सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (AFSPA) 1958 में एक अध्यादेश के माध्यम से लाया गया था तथा तीन माह के भीतर ही इसे कानूनी जामा पहना दिया गया था। 
  • 1958 और इसके बाद, पूर्वोत्तर भारत: भारत में संविधान लागू होने के बाद से ही पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ रहे अलगाववाद, हिंसा और विदेशी आक्रमणों से प्रतिरक्षा के लिये मणिपुर और असम में 1958 में AFSPA लागू किया गया था। 
  • इसे 1972 में कुछ संशोधनों के बाद असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैंड सहित समस्त पूर्वोत्तर भारत में लागू किया गया था। इन राज्यों के समूह को Seven Sisters के नाम से जाना जाता है। 
  • त्रिपुरा में उग्रवादी हिंसा के चलते 16 फरवरी 1997 को AFSPA लागू किया गया था, जिसे स्थिति सुधरने पर 18 साल बाद मई 2015 में हटा लिया गया था।
  • 1983, पंजाब एवं चंडीगढ़: पंजाब में बढ़ते अलगाववादी हिंसक आंदोलन से निपटने के लिये सेना की तैनाती का रास्ता साफ करते हुए 1983 में केंद्र सरकार द्वारा अफ्स्पा (पंजाब एंड चंडीगढ़) अध्यादेश लाया गया जो 6 अक्तूबर को कानून बन गया। यह कानून 15 अक्तूबर, 1983 को पूरे पंजाब और चंडीगढ़ में लागू कर दिया गया। लगभग 14 वर्षो तक लागू रहने के बाद 1997 में इसे वापस ले लिया गया।
  • 1990, जम्मू-कश्मीर: जम्मू-कश्मीर में हिंसक अलगाववाद का सामना करने के लिये सेना को विशेष अधिकार देने की प्रक्रिया के चलते यह कानून लाया गया, जिसे 5 जुलाई, 1990 को पूरे राज्य में लागू कर दिया गया। 
  • इस कानून के पारित होने से पहले भी उसी वर्ष एक अध्यादेश जारी किया गया था। तब से आज तक जम्मू-कश्मीर में यह कानून लागू है, लेकिन राज्य का लेह-लद्दाख क्षेत्र इस कानून के अंतर्गत नहीं आता।

कब माना जाता है कोई क्षेत्र अशांत

  • AFSPA के तहत केंद्र सरकार राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर किसी राज्य या क्षेत्र को अशांत घोषित कर वहाँ केंद्रीय सुरक्षा बलों को तैनात करती है। 
  • विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषा, क्षेत्रीय समूहों, जातियों, समुदायों के बीच मतभेद या विवादों के चलते राज्य या केंद्र सरकार किसी क्षेत्र को अशांत घोषित करती है।
  • AFSPA अधिनियम की धारा 3 राज्य तथा केंद्रशासित क्षेत्रों के राज्यपालों को भारत के राजपत्र (गज़ट) पर एक आधिकारिक अधिसूचना जारी करने की शक्ति प्रदान करती है, जिसके पश्चात् केंद्र को असैन्य क्षेत्रों में सशस्त्र बलों को भेजने का अधिकार मिल जाता है। 
  • अशांत क्षेत्र (विशेष न्यायालय) अधिनियम, 1976 के अनुसार, एक बार अशांत घोषित होने पर क्षेत्र में न्यूनतम तीन माह के लिये यथास्थिति बनाए रखनी होगी। 
  • राज्य सरकारें यह सुझाव दे सकती हैं कि इस अधिनियम को लागू किया जाना चाहिये अथवा नहीं, परंतु इस अधिनियम की धारा-3 के तहत उनके सुझाव को संज्ञान में लेने अथवा न लेने की शक्ति राज्यपाल अथवा केंद्र के पास है।

असीमित शक्तियाँ मिल जाती हैं सशस्त्र बलों को 

  • इस कानून की धारा-4 के अनुसार, सुरक्षा बल का अधिकारी संदेह होने पर किसी भी स्थान की तलाशी ले सकता है और खतरा होने पर उस स्थान को नष्ट करने के आदेश दे सकता है। 
  • इस कानून के तहत सेना के जवानों को कानून तोड़ने वाले व्यक्ति पर गोली चलाने का भी अधिकार है। 
  • यदि इस दौरान उस व्यक्ति की मौत भी हो जाती है तो उसकी जवाबदेही गोली चलाने या ऐसा आदेश देने वाले अधिकारी पर नहीं होगी। 
  • सशस्त्र बल किसी भी व्यक्ति को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकते हैं। गिरफ्तारी के दौरान वे किसी भी तरह की शक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं।
  • सैन्य अधिकारी परिवार के किसी व्यक्ति, संपत्ति, हथियार या गोला-बारूद को बरामद करने के लिये बिना वारंट के घर के अंदर ज कर तलाशी ले सकता है और इसके लिये बल प्रयोग कर सकता है।
  • किसी वाहन को रोककर गैर-कानूनी ढंग से हथियार ले जाने का संदेह होने पर उसकी तलाशी ली जा सकती है।
  • यदि किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो उसको जल्द ही निकटतम पुलिस स्टेशन में पेश करना होता है कि उसको क्यों गिरफ्तार किया गया।

सरकार और सेना AFSPA के समर्थन में
केंद्र सरकार और सेना AFSPA वाले क्षेत्रों में सेना की ताकत घटाने के पक्षधर नहीं हैं। इसकी पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय में तब हुई थी, जब 8 जुलाई 2016 को सर्वोच्च न्यायालय ने AFSPA के अंतर्गत सुरक्षा बलों को दिये जाने वाले विशेष सुरक्षा अधिकारों को निरस्त कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने जिन क्षेत्रों में AFSPA लागू है वहां अशांति के दौरान सुरक्षा बलों द्वारा किये जाने वाले एनकाउंटर में होने वाली मौतों के लिये FIR को अनिवार्य कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि सेना और अर्द्धसैनिक बल उन इलाकों में अतिशय बल का इस्तेमाल नहीं कर सकते जहाँ AFSPA लगा हो। 

इसके जवाब में सरकार ने तर्क दिया था कि यदि ऐसा हुआ तो अशांति वाले क्षेत्रों में शांति और कानून-व्यवस्था बनाए रखना असंभव हो जाएगा। ऑपरेशन के दौरान सेना द्वारा की गई कार्रवाई को न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत नहीं लाया जा सकता। सेना को पूरी ताकत के साथ अशांत क्षेत्रों में कार्रवाई करने की छूट होनी चाहिये। सेना जब हथियारों से लैस उपद्रवियों का सामना कर रही हो तो उसे अपने ताकत के इस्तेमाल की छूट होनी ही चाहिये। सरकार की तरफ से यह भी तर्क दिया गया कि यदि कोई सैनिक किसी आतंकी के खिलाफ कार्रवाई कर रहा हो और उसे FIR किये जाने का भय बना रहे तो आतंकियों के खिलाफ लड़ाई बहुत मुश्किल हो जाएगी। सरकार का यह भी तर्क है कि किसी ऑपरेशन के दौरान सेना द्वारा की गई कार्रवाई को न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत नहीं लाया जा सकता।

(टीम दृष्टि इनपुट)

1947 में जारी हुए थे 4 अध्यादेश 

  • 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दमन के लिये ब्रिटिश शासन ने 15 अगस्त, 1942 को एक अध्यादेश जारी किया था, जिसमें सैन्य बलों को आंदोलनकारियों के विरुद्ध कार्रवाई के लिये विशेषाधिकार दिये गए थे। 
  • देश विभाजन और आज़ादी के बाद 1947 में तात्कालिक अशांत स्थितियों से निपटने के लिये इसी अध्यादेश के प्रावधानों के अनुरूप चार अलग-अलग अध्यादेश बंगाल, असम, पूर्वी बंगाल और तत्कालीन संयुक्त प्रांत में आंतरिक शांति की बहाली के लिये लाए गए थे। 
  • 1948 में केंद्र सरकार ने इन चारों अध्यादेशों को मिलाकर एक समग्र सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून बनाया। इसे 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दमन के लिये ब्रिटिश शासन द्वारा बनाए गए अध्यादेश की तर्ज़ पर बनाया गया था, जिसमें सैन्य बलों को कार्रवाई के लिये विशेषाधिकार दिये गए थे। 
  • इस कानून को भारत सरकार ने 1957 में निरस्त कर दिया था।

AFSPA के पक्ष और विपक्ष में तर्क 
पक्ष: इस कानून के समर्थक कहते हैं कि आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों और राजद्रोह के मामलों में सशस्त्र बल इस कानून द्वारा मिली शक्तियों के कारण प्रभावशाली तरीके से काम कर पाते हैं। इस प्रकार यह कानून देश की एकता और अखंडता की रक्षा में योगदान दे रहा है। अशांत क्षेत्रों में कानून व्यवस्था एवं शांति बनाए रखने में इस कानून के प्रावधानों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस कानून के माध्यम से मिले अतिरिक्त अधिकारों के कारण सशस्त्र बलों का मनोबल बढ़ा है। 

विपक्ष: इसके विरोधी यह तर्क देते हैं कि इस कानून के माध्यम से मिली शक्तियों का सशस्त्र बल दुरुपयोग करते हैं। सशस्त्र बलों को मिली अत्यधिक शक्तियाँ उन्हें असंवेदनशील और गैर-पेशेवर बनाती हैं। उन पर फ़र्ज़ी एनकाउंटर, यौन उत्पीड़न आदि के आरोप भी लगते रहे हैं। यह कानून मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के साथ नागरिकों के मूल अधिकारों का निलंबन करता है जिससे लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं। आलोचक यह तर्क भी देते हैं कि लागू होने के दशकों बाद भी यह अशांत क्षेत्रों में कानून व्यवस्था बहाल करने में सफल नहीं हो पाया, अतः इसे हटा देना चाहिये। AFSPA की समीक्षा के लिये वर्ष 2004 में बनी समिति ने इस कानून को निरस्त करने की अनुशंसा की तथा इसे दमन, घृणा और शोषण का प्रतीक माना। एक तरफ 50 से अधिक वर्षों में यह वांछित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सका तो दूसरी तरफ इसके द्वारा होने वाले मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं को देखते हुए इसकी समीक्षा की जानी आवश्यक हो गई है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

संयुक्त राष्ट्र दे चुका है AFSPA रद्द करने की सलाह 
AFSPA के लागू होने की बहुत आलोचनाएँ भी हुई हैं। मानवाधिकार संगठन इस कानून को 'बेरहम' तक बता चुके हैं। 31 मार्च, 2012 को संयुक्त राष्ट्र के न्यायेतर व मनमाने आचरण मामलों के विशेष प्रतिवेदक क्रिस्टोफर हेंस ने भारत से आग्रह किया था कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में AFSPA का कोई स्थान नहीं है इसलिये इसको रद्द कर दिया जाए। यह रिपोर्ट 2013 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में पेश की गई थी। 
ह्यूमन राइट्स वॉच भी यह कहते हुए इस कानून की आलोचना करता रहा है कि इसमें दुरुपयोग, भेदभाव और दमन की पर्याप्त संभावनाएँ शामिल हैं।

बी.पी. जीवन रेड्डी समिति की रिपोर्ट 

2004 में असम राइफल्स की हिरासत में मणिपुर में थांगजम मनोरमा नाम की एक महिला की हत्या के बाद हुए आंदोलन के मद्देनज़र तत्कालीन केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। 

  • इस समिति ने 2005 में दी अपनी अनुशंसाओं में इस कानून को ‘दमन का प्रतीक’ बताते हुए इसे निरस्त करने की सिफारिश की थी। 
  • बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय समिति ने 6 जून 2005 को अपनी 147 पन्नों की रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी, ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून, 1958 को निरस्त करना चाहिये। कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन यह कानून दमन का प्रतीक बन गया है'। 
  • समिति ने कहा था, ‘यह बेहद वांछनीय और उपयुक्त परामर्श देने योग्य है कि कानून को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए, लेकिन इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिये कि उस क्षेत्र (पूर्वोत्तर) की जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग चाहता है कि सेना वहां बनी रहे (हालाँकि कानून हटा लिया जाना चाहिये)।’ 
  • लेकिन सेना और रक्षा मंत्रालय ने इस कानून को निरस्त करने का विरोध करते हुए इस समिति की सिफारिशों को खारिज़ कर दिया था। 
  • उल्लेखनीय है कि उपरोक्त घटना के विरोध में इरोम शर्मिला ने अपना बहुचर्चित अनिश्चितकालीन अनशन किया था, जो 2016 में समाप्त हुआ।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: AFSPA को एक बार फिर चर्चा के केंद्र में लेकर आई शोपियां गोलीकांड की घटना पर सेना ने भी अपनी यूनिट के खिलाफ FIR को गलत बताते हुए कहा कि जवानों ने आत्मरक्षा में फायरिंग की थी। मेजर आदित्य के पिता लेफ्टिनेंट कर्नल करमवीर सिंह (रिटायर्ड) ने कहा कि उनके पुत्र को AFSPA के तहत इस प्रकार की कार्रवाई करने का अधिकार है। इससे एक बार फिर समय-समय पर सिर उठाने वाला AFSPA का मुद्दा सतह पर आ गया है, अर्थात् आम नागरिकों के अधिकार और सैन्यकर्मियों के अधिकार तथा AFSPA की उपयोगिता और व्यवहार्यता का मुद्दा। आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में AFSPA की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन साथ ही इस तरफ भी ध्यान देना ज़रूरी है कि अशांत क्षेत्रों में दशकों से लागू होने के बावजूद यह वांछित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सका है। ऐसे में संतुलन बनाने के लिये मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं को देखते हुए इसकी समीक्षा तो की ही जा सकती है।

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