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क्या अत्याचार निवारण अधिनियम (SC/ST एक्ट) के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सही था?

  • 09 Apr 2018
  • 10 min read

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम,1989 के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया। इस फैसले में न्यायालय ने कहा कि SC\ST एक्ट के तहत केस दर्ज होने की स्थिति में आरोपी की तुरंत गिरफ्तारी नहीं की जाएगी। इस निर्णय का दलित संगठनों द्वारा प्रखर विरोध किया गया एवं  2 अप्रैल, 2018 को भारत बंद की घोषणा की। इस बंद में कई जगह हिंसक घटनाएँ हुईं और कई लोगों की जान चली गई।

आज हम वाद-प्रतिवाद-संवाद के जरिये इसी मुद्दे पर चर्चा करेंगे और यह जानने का प्रयास करेंगे कि क्या सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सही था।

वाद 

  • द हिंदू समाचार पत्र के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया हालिया निर्णय भेदभाव रहित एवं एकदम स्पष्ट है।
  • यह निर्णय अत्याचार निवारण अधिनियम (SC/ST एक्ट) के अंतर्गत शिकायत दर्ज करने से पूर्व मामले से संबंधित सभी पहलुओं की पुलिस द्वारा जाँच करने का आदेश देता है। 
  • यह आदेश इसलिये दिया गया है ताकि शिकायतकर्त्ता और आरोपी दोनों के साथ न्याय किया जा सके।
  • बी. आर. अंबेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान कानून के समक्ष समानता का अधिकार देता है जिसके अनुसार देश के सभी नागरिक समान हैं और इनमें दलित एवं आदिवासी भी शामिल हैं।
  • स्वयं अंबेडकर द्वारा भी बंधुत्व का मंत्र दिया गया था, अतः हमें उसका पालन करना चाहिये एवं देश के सभी नागरिकों का संरक्षण करना चाहिये।
  • हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि आज भी कुछ लोगों द्वारा उन्हीं कानूनों का दुरुपयोग किया जाता है जो उनकी सुरक्षा हेतु बनाए गए थे ।
  • ऐसे में यदि इस दुरुपयोग को रोका जाए और आरोपों की प्राथमिक स्तर पर ही जाँच कर ली जाए तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
  • यदि तथ्यों की जाँच–पड़ताल किये बिना ही किसी व्यक्ति के खिलाफ केस दर्ज कर लिया जाए तो यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत (Principle of Natural Justice) के विरुद्ध होगा 
  • हर नागरिक को अपने बचाव का समुचित अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।
  • सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया था कि वह अधिनियम में कोई बदलाव नहीं लाएगी एवं खुद न्यायालय ने भी केवल मामले की गहराई से जाँच करने के आदेश दिये हैं जिसमें कुछ भी गलत नहीं है।
  • सरकार द्वारा न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर करने के बावजूद देश भर में बड़े स्तर पर हुए प्रदर्शनों में बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान हुआ जो निराशाजनक है।
  • आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2014 में SC/ST एक्ट के तहत लगभग 40,000 केस दर्ज हुए थे। अगले दो वर्षों में भी इनकी संख्या कमोबेश एक जैसी बनी रही। ऐसे में यह आवश्यक था कि झूठे केसों की संख्या को नियंत्रित किया जाए जिससे न्यायपालिका का कार्यभार कम हो सके।
  • एक्ट के अंतर्गत दर्ज किये जाने वाले केसों में से केवल 15 प्रतिशत मामलों में आरोप सही पाए जाते हैं।
  • शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे मामले अधिक दर्ज किये जाते हैं क्योंकि वहाँ जाति-भेद अधिक मज़बूत है। ऐसे में कभी-कभी सामान्य झगड़े को भी जातिगत रूप दे दिया जाता है जो क़ानून के दुरुपयोग की वज़ह बनता है। 

प्रतिवाद 

  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय कई मायनों में गलत है।
  • न्यायालय ने अपनी सीमाओं से परे जाकर संसद द्वारा बनाए गए कानून के संदर्भ में दिशा-निर्देश दिये।
  • इस निर्णय से अधिनियम की प्रभाविता पर नकारात्मक असर पड़ेगा, जबकि अधिनियम का मूल उद्देश्य असहाय नागरिकों की दमनकारी पूर्वाग्रहों से सुरक्षा करना था।
  • कानून का दुरुपयोग संसाधन संपन्न लोगों द्वारा ही किया जा सकता है किंतु भूमिहीन, गरीब दलितों द्वारा इसका दुरुपयोग अतार्किक लगता है।
  • लगभग 75 प्रतिशत जनता खासकर महिलाएँ और हाशिये पर स्थित लोग शिकायत दर्ज करवाने में हिचकते हैं क्योंकि उन्हें पुलिस के खराब बर्ताव का डर रहता है 
  • अहमदाबाद स्थित ‘सेंटर फॉर सोशल जस्टिस’ द्वारा किये गए अध्ययन में यह खुलासा हुआ कि कानून प्रवर्तन तंत्र के दलित विरोधी रवैये के कारण अधिकांश आरोपी छूट जाते हैं। 
  • अधिकांश केसों में कोर्ट यह मानने से ही इनकार कर देते हैं कि संबंधित अपराध पीड़ित व्यक्ति की जाति के कारण हुआ है। उदारहणस्वरुप 2002 में हरियाणा के झज्जर में पाँच दलितों की भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई। किंतु कोर्ट ने इस आधार पर SC/ST एक्ट के अंतर्गत कार्यवाही करने से इनकार कर दिया कि आरोपियों को मारे गए लोगों की जाति पता नहीं थी।
  • केस झूठा है या सही, यह निर्णय लेने का अधिकार न्यायाधीशों का होता है, जबकि न्यायालय ने यह कार्य पुलिस को सौंप दिया है।
  • ऐसे फैसलों से जनता का न्याय व्यवस्था से विश्वास डगमगा सकता है।

संवाद 

  • 20 मार्च, 2018 को ‘सुभाष के. महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य’ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय में बेगुनाह लोगों को अनावश्यक प्रताड़ना से बचाने संबंधी दिशा-निर्देश दिये गए।
  • न्यायालय का यह भी कहना था कि इस अधिनियम को अत्याचारों से सुरक्षा हेतु लाया गया था । अतः इसका उपयोग उसी संदर्भ में किया जाना चाहिये, न कि जातिवाद को बढ़ावा देने में।
  • न्यायालय ने अपने निर्णय का एक आधार उस सुझाव को भी बनाया जो दिसंबर 2014 में सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण पर संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में दिया गया था। इस सुझाव में कहा गया था कि SC/ST एक्ट में झूठे आरोपों से लोगों को बचाने संबंधी प्रावधान भी शामिल होना चाहिये।
  • इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि प्रत्येक आरोपी को ‘विधि की सम्यक प्रक्रिया’ (Due Process of Law) संबंधी अधिकार प्राप्त है और इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है।
  • किंतु न्यायालय को यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये थी कि SC/ST समुदाय के लोगों की स्थिति अभी भी दुर्बल है और उनके लिये इस तरह के मज़बूत अधिनियम की सख्त आवश्यकता है । अतः इस कानून में किसी भी तरह की छेड़छाड़ नुकसानदेह हो सकती है।
  • इस निर्णय में कहीं-न-कहीं व्यक्तिगत अधिकारों को SC/ST समुदाय के लोगों के मानवाधिकारों के सरंक्षण की आवश्यकता पर प्राथमिकता प्रदान की गई, जबकि इस समुदाय की स्थिति अभी भी बहुत अच्छी नहीं है।
  • न्यायालय ने निर्णय देते समय अधिनियम को मूल अधिकारों के ढाँचे के भीतर रखने पर भी विचार  नहीं किया जबकि अनुच्छेद-17 न सिर्फ छुआछूत का निषेध करता है बल्कि, SC/ST समुदाय के लोगों संबंधी विशेष कानूनों (SC/ST एक्ट सहित) का स्रोत भी है। 

निष्कर्ष 

  • लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार दिये गए हैं और कानून के समक्ष भी सभी को समान माना गया है। ऐसे में किसी भी नागरिक के अधिकारों का हनन अनुचित है फिर चाहे वह सवर्ण हो या दलित। न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय भी इसी तर्क की पुष्टि करता है। हिंसक प्रदर्शन जैसी घटनाओं से स्थिति और खराब ही होती है। लोगों को चाहिये कि वे संवैधानिक तरीकों से और शांतिपूर्ण ढंग से अपना पक्ष रखें न कि उत्पात मचाकर लोकव्यवस्था को खराब करें। 

वहीं, दूसरी ओर शासन तंत्र की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह पिछड़े समुदायों और दलितों के सरंक्षण हेतु बनाए गए कानूनों का ईमानदारी पूर्वक और भेदभाव रहित दृष्टिकोण अपनाकर अनुपालन सुनिश्चित करे जिससे इन वर्गों के भीतर उत्पन्न असुरक्षा और उत्पीड़न का डर समाप्त हो सके एवं इनका शासन तंत्र और न्याय प्रणाली में विश्वास बना रहे।

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