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  • 21 Jun, 2019
  • 13 min read
सुरक्षा

रक्षा नीति को प्राथमिकता की आवश्यकता

इस Editorial में 20 जून को The Hindustan Times में प्रकाशित संपादकीय The defence policy must be prioritised का विश्लेषण करते हुए इसके सभी पक्षों पर चर्चा की गई है।

संदर्भ

भारत में 17 वें लोकसभा चुनाव अभी हाल ही में समाप्त हुए हैं। इन चुनावों में राष्ट्रीय सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन कर उभरा, इससे पहले सुरक्षा इतना बड़ा मुद्दा कभी नहीं रहा था। सरकार के गठन के बाद सरकार की प्राथमिकता के कुछ विषय महत्त्वपूर्ण माने जा रहे हैं, जिसमें रक्षा नीति को भी प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। लंबे समय से रक्षा क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता महसूस की जा रही है, जिसे समय-समय पर कुछ बदलावों द्वारा पूर्ण करने का प्रयास किया जाता रहा है, लेकिन रक्षा नीति में, आमूल चूल बदलाव की आवश्यकता है, ताकि भारत को ज़रूरत के समय किसी कठिनाई का सामना करने से बचाया जा सके।

रक्षा क्षेत्र से संबंधित कुछ मुद्दे निम्न हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है:

चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ की आवश्यकता

1999 के कारगिल युद्ध के पश्चात् बनी कारगिल समिति ने राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित सुधारों की सिफारिश की थी। अधिकांश सिफारिशों को विभिन्न सरकारों ने लागू कर दिया किंतु चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (Chief of Defence Staff- CDS) के पद के गठन की सिफारिश को अब तक लागू नहीं किया जा सका है। इस पद के सृजन की सिफारिश 2011 में बनी समिति भी कर चुकी है। ये पद सरकारी नेतृत्व के लिये सैन्य सलाहकार की भूमिका के लिये आवश्यक है, लेकिन इसका विरोध सैन्य बलों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा किया जाता रहा है। कुछ लोग इस पद को लेकर ये आशंका व्यक्त करते हैं कि एक व्यक्ति में अत्यधिक सैन्य शक्ति का संकेंद्रण समस्या को जन्म दे सकता है। 2015 में तत्कालीन रक्षा मंत्री CDS के गठन की बात कर चुके हैं, लेकिन अभी भी ऐसा होना शेष है। सरकार के अब तक के प्रयास CDS की नियुक्ति के संबंध में विफल रहे हैं। आवश्यकता है कि सरकार इस पद के संबंध में सैन्य बलों के प्रतिरोध को समाप्त करे, ताकि एक सशक्त CDS के माध्यम से विभिन्न कमानों के एकीकरण को बल दिया जा सके।

रक्षा विनिर्माण

भारत विश्व की कुछ ऐसी सैन्य शक्तियों में शामिल है, जिसका रक्षा बजट एवं सैन्य आकार बहुत बड़ा है। भारत को पड़ोसियों से गंभीर सुरक्षा चुनौतियों इतिहास में प्राप्त होती रही हैं। इसके बावजूद भारत का रक्षा विनिर्माण शिथिल पड़ा हुआ है। अभी भी भारत अपनी ज़रुरतों का 60 प्रतिशत से अधिक भाग आयात करता है। मेक इन इंडिया कार्यक्रम के आरंभ होने के बाद सरकार ने उम्मीद जताई थी कि भारत अपनी ज़रूरतों का 70 प्रतिशत हिस्सा अगले 5 वर्षों में घरेलू विनिर्माण से पूरा करेगा, लेकिन आँकडों से पता चलता है कि परिणाम इसके विपरीत ही प्राप्त हुए हैं। अब सरकार को एक और कार्यकाल मिला है तो अब सही समय है फिर से सरकार रक्षा विनिर्माण को गति दे। इसके लिए निजी क्षेत्र के साथ साथ सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को भी शामिल किया जा सकता है। इस तरह से भारत को अपनी बड़ी रक्षा ज़रूरतों को पूरा करने में अधिक सहायता प्राप्त होगी, साथ ही यह भारत की अर्थव्यवस्था को भी बल देगा।

रक्षा क्षेत्र में मेक इन इंडिया

‘मेक इन इंडिया’ पहल के अंतर्गत सरकार द्वारा पहले ही बड़ी संख्या में ऐसे कदम उठाए गए हैं, जिन से भारत में स्वदेशी रक्षा विनिर्माण को बल मिलेगा। इन महत्त्वपूर्ण पहलों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश ( FDI) की सीमा को 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दिया जाना, सार्वजनिक क्षेत्र के समान ही निजी क्षेत्र को भी अवसर प्रदान करना तथा औद्योगिक लाइसेंसिंग प्रक्रिया को सुदृढ़ करना भी शामिल है। इसके साथ ही रक्षा मंत्रालय ने रक्षा उत्पादन नीति की भी घोषणा की है। इस नीति में 1 लाख 70 हजार करोड़ के उत्पादन तथा 35000 करोड़ के निर्यात कारोबार को लक्ष्य बनाया गया है। इस लक्ष्य को 2025 तक प्राप्त करना घोषित है, रक्षा उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिये 2 रक्षा गलियारों के निर्माण की भी घोषणा की गई है।

सरकार के उपर्युक्त प्रयासों के अतिरिक्त भी कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है, ताकि रक्षा क्षेत्र में ‘मेक इन इंडिया’ को बल दिया जा सके। कुछ सिफारिशे निम्नलिखित हैं-

  • रक्षा उत्पादन नीति में भारतीय कंपनियों से खरीद की नीति को शामिल करना।
  • ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड (OFB) की जवाबदेहिता सुनिश्चित करना।
  • DPSU (Defence Public Sector Undertaking) में अनुसंधान में अधिक खर्च करना।
  • DRDO (Defence Research & Development Organization) की परियोजनाओं की निगरानी करना और उन्हें निश्चित समय से जोड़ना।
  • ‘मेक इन इंडिया’ में रक्षा निर्यात को प्रोत्साहन मिला है। जिसे और बढ़ाने की आवश्यकता है।

defence policy

  • रक्षा क्षेत्र के उद्योग को अन्य उद्योगों के समान अवसंरचना से संबंधित छूटें प्राप्त नहीं होती हैं। यदि इस क्षेत्र को भी वैसी ही सहूलियतें दी जाएँ तो इस क्षेत्र में भी तीव्र वृद्धि की संभावना को बल मिल सकता है।

राजकोषीय चुनौती

वित्त वर्ष 2019-20 के लिए रक्षा बजट 4 लाख 30 हजार करोड़ था। यह बजट पिछले वर्ष की तुलना में 27 प्रतिशत अधिक था। यदि गहराई से दृष्टि डालें तो पता चलता है कि 70 प्रतिशत बजट का आवंटन गैर-पूंजीगत खर्चों (वन रैंक वन पेंशन (OROP),सैन्य कर्मियों का वेतन तथा पेंशन) में होता है। इस बजट में सिर्फ 9 प्रतिशत की वृद्धि ही पूंजी खर्च में की गई है। सेना के आधुनिकीकरण के लिए पूंजीगत खर्च में वृद्धि की आवश्यकता है। बजट आवंटन के अतिरिक्त सेना की संरचना में कुछ आधारिक परिवर्तन पर भी विचार किया जा सकता है। भारत के पास विश्व का दूसरा सबसे बड़ा सैन्यबल है। एक व्यवस्था के तहत धीरे-धीरे इसकी संख्या को कुछ कम किया जा सकता है। इस तरह जनशक्ति को तकनीक और आधुनिकता के साथ संतुलित किये जाने में आसानी होगी।

जरूरी सैन्य शिक्षा

यह सैन्य क्षेत्र की एक बड़ी समस्या है, जिस पर प्रायः कम बात की जाती है। अधिक चर्चा सैन्य सामग्री और सेवाओं को ही लेकर होती है, जिससे सैन्य शिक्षा पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है, लेकिन यदि दीर्घकालीन दृष्टिकोण से देखें तो सैन्य शिक्षा का अत्यंत महत्त्व है। वर्तमान व्यवस्था में प्रशिक्षण के सीमित दृष्टिकोण पर ही बल दिया जाता है, जैसे ब्रिगेडों और बटालियनों की कमान सँभालना आदि। ऐसे प्रशिक्षण का व्यावहारिक दृष्टि से सीमित उपयोग होता है। वर्तमान समय में सैन्य अधिकारियों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य (सामरिक, राजनीतिक, अंतर्राष्ट्रीय) की समझ जरूरी समझी जाने लगी है। प्रशिक्षण का यह पुराना दृष्टिकोण सेना में सभी स्तरों पर सेवा की गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है, फिर भी विभिन्न सरकारों द्वारा इस पर कोई भी गंभीर प्रयास नहीं किया गया है।

रक्षा अधिग्रहण

भारत अपनी रक्षा सामग्री एवं सेवाओं की आवश्यकता का 60 प्रतिशत से अधिक का आयात करता है। इन सामग्रियों के अधिग्रहण को एक बहुत लंबी श्रेणीबद्ध प्रक्रिया से गुज़रना होता है। इसके लिए 2001 से रक्षा खरीद प्रक्रिया का पालन किया जा रहा है, जिसे समय-समय पर सुधारने का प्रयास किया गया है। रक्षा अधिग्रहण परिषद और रक्षा खरीद बोर्ड भी इस प्रक्रिया में शामिल होता है। विभिन्न सुधारों और प्रयासों के बावजूद इसमें सुधार की आवश्यकता है। किसी भी रक्षा अधिग्रहण सौदे को 80 सदस्यों तथा 8 भिन्न-भिन्न समितियों से होकर गुजरना होता है, जिससे इस प्रक्रिया की दक्षता और प्रभावकारिता बुरी तरह प्रभावित होती है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) भी रिपोर्टों में इस पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। CAG के अनुसार ऐसे अधिग्रहण परिणामिक रूप से बगैर जवाबदेहिता के समाप्त होते हैं एवं किसी तरह की गड़बड़ी की स्थिति में जवाबदेही तय करना मुश्किल हो जाता है। सरकार को लंबी और जवाबदेही रहित प्रक्रिया में सुधार करने की आवश्यकता है। ऐसी प्रक्रिया सिर्फ जवाबदेही को ही भ्रमित नहीं करती बल्कि रक्षा सौदे की गति को भी बहुत मंद कर देती है, जिससे उत्पाद की लागत एवं उपयोगिता दोनों नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।

रक्षा अधिग्रहण परिषद (Defence Acquisition Council-DAC)

Defence Acquisition Council-DAC

निष्कर्ष

21वीं शताब्दी में भारत को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इसी प्रकार की एक चुनौती रक्षा क्षेत्र से भी मिल रही है। तीव्र तकनीकी विकास ने रक्षा क्षेत्र को भी प्रभावित किया है। भारत न सिर्फ अपने पड़ोसियों (चीन और पाकिस्तान) से ही चुनौती का सामना कर रहा है बल्कि तीव्र तकनीकी परिवर्तनों के सापेक्ष में सेना को आधुनिक बनाने की भी समस्या से जूझ रहा है। भारत के रक्षा क्षेत्र में निर्यात में कुछ वृद्धि ज़रुर देखी गई है, लेकिन आयात की तुलना में यह अभी भी नगण्य ही बना हुआ है।

इन सभी चुनौतियों से निपटने के लिये रक्षा क्षेत्र को आमूल-चूल परिवर्तनों की आवश्यकता है, जिससे इसके ढाँचे में जरूरी परिवर्तन किये जा सके, जिस प्रकार भारतीय राजनीति के क्षितिज में सुरक्षा एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन कर उभरी है, नवनिर्मित सरकार से इस क्षेत्र में आवश्यक सुधार अपेक्षित है।

प्रश्न- भारत का रक्षा क्षेत्र हाल के दौर में बदलावों से गुज़र रहा है लेकिन, अभी भी कुछ ऐसे बिंदु हैं जिस पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। आप के अनुसार ऐसे कौन से बिंदु जिन पर अधिक ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है ?


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