अंतर्राष्ट्रीय संबंध
विश्व व्यापार संगठन का पुनर्गठन
प्रिलिम्स के लिये:विश्व व्यापार संगठन, मुक्त व्यापार समझौता, सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र (MFN) सिद्धांत, टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौता, विशेष और विभेदक उपचार मेन्स के लिये:वैश्विक व्यापार में विश्व व्यापार संगठन का महत्त्व, विश्व व्यापार संगठन की प्रासंगिकता को कमज़ोर करने वाले मुद्धे। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
विश्व व्यापार संगठन (WTO) को नियम-आधारित वैश्विक व्यापार को बढ़ावा देने के लिये डिज़ाइन किया गया था। हालाँकि, बढ़ते संरक्षणवाद, शिथिल विवाद निपटान तंत्र एवं तरजीही मुक्त व्यापार समझौतों (FTA) के संदर्भ में चुनौतियों के कारण इसकी प्रासंगिकता के बारे में चिंताएँ बढ़ रही हैं।
विश्व व्यापार संगठन की प्रासंगिकता को कमज़ोर करने वाली चुनौतियाँ क्या हैं?
- विवाद निपटान तंत्र की निष्क्रियता: अपीलीय निकाय (व्यापार विवादों के लिये अंतिम न्यायालय), कभी विश्व व्यापार संगठन की विश्वसनीयता की आधारशिला हुआ करता था, अमेरिका द्वारा नए न्यायाधीशों की नियुक्ति को अवरुद्ध करने के कारण वर्ष 2019 से यह निष्क्रिय पड़ा है।
- वर्ष 1995 और 2003 के बीच विवाद परामर्श चरम पर था लेकिन वर्ष 2018 के बाद अपीलीय निकाय की निष्क्रियता के कारण विवाद निपटान गतिविधियों और अपील दोनों में तीव्र गिरावट आई।
- इससे वैश्विक व्यापार नियमों का प्रवर्तन कमज़ोर होने के साथ नियम-आधारित व्यवस्था का क्षरण हुआ।
- वार्ता गतिरोध (दोहा दौर की विफलता): दोहा विकास दौर (वर्ष 2001 में शुरू) का उद्देश्य विकासशील देशों के लिये वैश्विक व्यापार को अधिक न्यायसंगत बनाना था।
- लेकिन कृषि, बाजार पहुँच और सब्सिडी पर विमर्श में गतिरोध बना रहा। व्यापार सुविधा समझौते (TFA) और मत्स्यपालन सब्सिडी जैसी सीमित सफलताएँ अपवाद हैं, न कि आदर्श।
- विकसित और विकासशील देशों के हित परस्पर विरोधी होने के साथ विश्व व्यापार संगठन "एकल उपक्रम" सिद्धांत के तहत आम सहमति तक नहीं पहुँच सका।
- सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र (MFN) सिद्धांत का क्षरण: अनुच्छेद 1 के अंतर्गत विश्व व्यापार संगठन का मुख्य सिद्धांत MFN नियम है, जो सदस्यों के बीच गैर-भेदभावपूर्ण व्यापार सुनिश्चित करने पर केंद्रित है।
- हालाँकि, FTA को अनुच्छेद 1 के अपवाद के रूप में मान्यता दी गई है, बशर्ते कि उसे विश्व व्यापार संगठन द्वारा अधिसूचित और अनुमोदित किया गया हो।
- FTA के संबंध में विश्व व्यापार संगठन की कमज़ोर निगरानी से MFN प्रणाली कमजोर हुई है क्योंकि द्विपक्षीय और क्षेत्रीय FTA के उदय से MFN दायित्व दरकिनार होने के साथ व्यापार नियम खंडित हुए हैं और बहुपक्षीय दृष्टिकोण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
- संरक्षणवाद और व्यापार युद्धों का उदय: अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध और एकतरफा टैरिफ के प्रयोग (जैसे, टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौते के अनुच्छेद XXI के तहत "राष्ट्रीय सुरक्षा" का हवाला देकर) से WTO के सिद्धांत कमज़ोर हुए हैं।
- GATT का अनुच्छेद XXI सदस्य देशों को कुछ परिस्थितियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के नियमों के साथ टकराव में राष्ट्रीय सुरक्षा के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये उपाय करने की अनुमति देता है। इसे "सुरक्षा संबंधी अपवाद" के रूप में भी जाना जाता है। इसमें विखंडनीय सामग्रियों, हथियारों की तस्करी और युद्धकालीन उपायों से संबंधित कार्य शामिल हैं।
- संरक्षणवादी उपायों को उचित ठहराने के लिये देश तेज़ी से राष्ट्रीय सुरक्षा अपवादों का सहारा ले रहे हैं।
- नवीन व्यापार मुद्दों का समाधान करने में असमर्थता: WTO के नियम डिजिटल अर्थव्यवस्था, ई-कॉमर्स, हरित प्रौद्योगिकी और डेटा स्थानीयकरण जैसे उभरते क्षेत्रों के अनुरूप नहीं हैं।
- सीमा-पार डिजिटल व्यापार या जलवायु संबंधी व्यापार बाधाओं को विनियमित करने के लिये कोई व्यापक ढाँचा मौजूद नहीं है।
- सदस्यों के बीच शक्ति असंतुलन: विकसित देश (जैसे, अमेरिका, यूरोपीय संघ) आक्रामक सुधार एजेंडे को अपनाते हैं जबकि विकासशील देश (जैसे भारत, दक्षिण अफ्रीका) इसका विरोध करते हैं।
- कृषि सहायता और बौद्धिक संपदा अधिकार जैसे क्षेत्रों में न्यायसंगत व्यवहार का अभाव उत्तर-दक्षिण (North-South) विभाजन को बढ़ाता है।
- भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता आम सहमति को कमज़ोर कर रही है: अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते तनाव, रूस-यूक्रेन युद्ध के परिणाम, तथा रणनीतिक गुटों के निर्माण (जैसे, हिंद-प्रशांत आर्थिक ढाँचा (IPEF), ब्रिक्स पहल) के उद्भव ने विश्व व्यापार संगठन के भीतर सहयोग को काफी कम कर दिया है।
- व्यापक एवं प्रगतिशील ट्रांस-पैसिफिक भागीदारी समझौता (CPTPP) और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) जैसे बड़े व्यापार समझौते, वैकल्पिक ढाँचे का निर्माण कर रहे हैं, जो श्रम, पर्यावरण और डिजिटल नियमों पर सख्त मानक लागू करते हैं।
- जैसे-जैसे ये समझौते गति पकड़ते जाएंगे, वैश्विक व्यापार प्रशासन में WTO की केंद्रीय भूमिका कम होती जाएगी।
- इसके अतिरिक्त, विश्व व्यापार संगठन में सर्वसम्मति आधारित निर्णय लेना कठिन होता जा रहा है, तथा बढ़ते भू-राजनीतिक अविश्वास के कारण यह और भी कठिन हो गया है।
- "विकासशील देश" की स्थिति पर असहमति: विश्व व्यापार संगठन के सदस्य विशेष और विभेदक उपचार (SDT) प्राप्त करने के लिये "विकासशील देश" के रूप में अपनी स्थिति की स्वयं घोषणा करते हैं।
- अमेरिका और यूरोपीय संघ का तर्क है कि चीन जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को गरीब देशों के समान लाभ नहीं मिलना चाहिये, लेकिन सुधार पर कोई आम सहमति नहीं है।
- विश्व व्यापार संगठन और भारत: खाद्य सुरक्षा आवश्यकताओं का हवाला देते हुए चावल और गेहूँ जैसी फसलों के लिये भारत का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) प्रायः WTO द्वारा फसल के मूल्य पर निर्धारित 10% सब्सिडी सीमा से अधिक होता है।
- इसके अतिरिक्त, भारत विश्व व्यापार संगठन में श्रम और पर्यावरण मानकों पर बातचीत करने में अनिच्छुक है, तथा इन मुद्दों को यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और अमेरिका के साथ द्विपक्षीय रूप से सुलझाने को प्राथमिकता देता है।
- वार्ता की विफलता, विशेष रूप से कृषि समर्थन पर, बहुपक्षीय ढाँचे के भीतर आम सहमति प्राप्त करने में कठिनाई को उज़ागर करती है, जिससे विश्व व्यापार संगठन की प्रासंगिकता कम हो जाती है।
विश्व व्यापार संगठन का महत्त्व क्या है?
- परिचय: विश्व व्यापार संगठन की स्थापना वर्ष 1995 में उरुग्वे दौर की वार्ता (वर्ष 1986-94) के बाद मारकेश समझौते (वर्ष 1994) के तहत हुई थी, जिसका मुख्यालय जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में है।
- WTO व्यापार को उदार बनाने के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है और सरकारों के लिये व्यापार समझौतों पर बातचीत करने के लिये एक मंच के रूप में कार्य करता है। इसने GATT का स्थान लिया, जिसने वर्ष 1948 से वैश्विक व्यापार को विनियमित किया था।
- GATT ने वस्तुओं के व्यापार पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि WTO में वस्तुओं, सेवाओं और बौद्धिक संपदा में व्यापार शामिल है, जिसमें सृजन, डिज़ाइन और आविष्कार शामिल हैं।
- WTO व्यापार को उदार बनाने के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है और सरकारों के लिये व्यापार समझौतों पर बातचीत करने के लिये एक मंच के रूप में कार्य करता है। इसने GATT का स्थान लिया, जिसने वर्ष 1948 से वैश्विक व्यापार को विनियमित किया था।
- सदस्य: विश्व व्यापार संगठन के 166 सदस्य हैं, जो विश्व व्यापार के 98% का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत वर्ष 1995 से इसका सदस्य है और वर्ष 1948 से GATT का हिस्सा है।
- सदस्यता बातचीत पर आधारित है, जिससे सभी सदस्यों के अधिकारों और दायित्वों का संतुलन सुनिश्चित होता है।
- प्रमुख WTO समझौते: TRIMS (व्यापार-संबंधित निवेश उपाय), TRIPS (बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार-संबंधित पहलू), और AoA (कृषि पर समझौता)।
- प्रमुख रिपोर्टें: वर्ल्ड ट्रेड रिपोर्ट, ग्लोबल ट्रेड आउटलुक एंड स्टैटिस्टिक्स, एड फॉर ट्रेड इन एक्शन।
- महत्त्व: वर्ष 1995 के बाद से विश्व व्यापार की वास्तविक मात्रा में 2.7 गुना वृद्धि हुई है, तथा औसत टैरिफ 10.5% से घटकर 6.4% हो गया है, जो व्यापार बाधाओं में उल्लेखनीय कमी को दर्शाता है।
- विश्व व्यापार संगठन ने वैश्विक व्यापार में वृद्धि को सुगम बनाया है, तथा इसकी स्थापना के बाद से विश्व व्यापार का मूल्य लगभग चार गुना बढ़ गया है।
- इसने पूर्वानुमानित बाज़ार स्थितियों का सृजन किया, जिससे वैश्विक मूल्य शृंखलाओं (GVC) का उदय हुआ, जो अब कुल वस्तु व्यापार का लगभग 70% है।
- विश्व व्यापार संगठन ने गरीबी उन्मूलन में मदद की है, जिसके तहत वर्ष 1995 में अत्यधिक गरीबी की दर 33% से घटकर वर्ष 2020 तक 10% से कम हो गई है।
- वैश्विक तनावों के बावजूद, विश्व व्यापार संगठन व्यापार नियमों के लिये एक केंद्रीय निकाय बना हुआ है, जो वैश्विक व्यापार वार्ताओं में ग्लोबल साउथ की सहभागिता सुनिश्चित किये जाने हेतु समान मतदान अधिकारों और विवाद समाधान तक पहुँच के माध्यम से एक मंच प्रदान करता है।
बहुध्रुवीय विश्व में WTO का पुनरुत्थान किस प्रकार किया जा सकता है?
- व्यापार उदारीकरण से आगे बढ़ना: विश्व व्यापार संगठन को केवल एक व्यापार उदारीकरण निकाय होने से आगे बढ़कर समतामूलक वैश्वीकरण का संरक्षक बनना होगा, तथा व्यापार से विकासात्मक, पर्यावरणीय और डिजिटल संक्रमण का समर्थन सुनिश्चित करना होगा।
- विखंडन को रोकने के लिये डिजिटल व्यापार, सीमा पार डेटा प्रवाह, ग्रीन सब्सिडी और औद्योगिक नीति पर लागू करने योग्य नियम बनाने की आवश्यकता है।
- वैश्विक व्यापार और विकास रिपोर्ट (2023, UNCTAD) में की गई अनुशंसाओं के अनुसार एआई-संचालित व्यापार और पर्यावरणीय वस्तुओं जैसे उभरते क्षेत्रों के प्रबंधन के लिये WTO ढाँचे को अद्यतन करना आवश्यक है।
- विवाद निपटान प्रणाली को बहाल करना: न्यायिक अतिक्रमण की सीमाओं को स्पष्ट करना, कड़े समयसीमाएँ लागू करना, तथा घरेलू नीतियों की स्वतंत्रता का सम्मान सुनिश्चित करना जैसी प्रमुख अमेरिकी चिंताओं का समाधान करके अपीलीय निकाय को बहाल किये जाने की आवश्यकता है।
- विशेष एवं विभेदक उपचार (SDT) का पुनः निर्धारण: SDT का लाभ प्राप्त करने हेतु देशों को "विकसित" अथवा "विकासशील" दर्जे की स्व-घोषणा करने का परिवर्जन करना चाहिये।
- पात्रता प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद, भेद्यता सूचकांक और निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता जैसे गतिशील मानदंडों पर आधारित होनी चाहिये, तथा निष्पक्ष, अद्यतन विकास वर्गीकरण के लिये विश्व बैंक के आय वर्गीकरण या संयुक्त राष्ट्र सुभेद्यता सूचकांक जैसे ढाँचे का उपयोग किया जाना चाहिये।
- व्यापार-जलवायु संबंधों को संस्थागत बनाना: कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (CBAM) और ग्रीन सब्सिडी को WTO मानदंडों के अनुरूप संरेखित करने के लिये जलवायु-संगत व्यापार पर WTO ढाँचा तैयार किये जाने की आवश्यकता है।
- हरित मानकों का नए संरक्षणवादी साधनों के रूप में उपयोग होने से रोकने हेतु LDC और विकासशील देशों के लिये भिन्न कार्बन संक्रमण अवधि की गारंटी प्रदान करने की आवश्यकता है।
- स्थायी WTO सुधार परिषद का गठन: प्रत्येक पाँच वर्ष में प्रणालीगत सुधारों का प्रस्ताव करने हेतु एक स्थायी WTO सुधार परिषद की स्थापना की जानी चाहिये।
- इससे यह व्यापार प्रशासन का विकासशील प्रौद्योगिकी, पर्यावरणीय और राजनीतिक वास्तविकताओं के अनुरूप होना सुनिश्चित होगा।
- भारत, ऑस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका जैसी मध्यम शक्तियाँ इन आवश्यक परिवर्तनों पर आम सहमति बनाने के लिये WTO सुधार के लिये गठबंधन (CWR) बना सकती हैं।
निष्कर्ष:
एक अधिकाधिक बहुध्रुवीय और खंडित होते विश्व में, विश्व व्यापार संगठन का पुनरुद्धार एक गतिशील, समावेशी और स्थितिस्थापक संस्थान बनने की इसकी क्षमता पर निर्भर करता है, जो निष्पक्ष और नियम-आधारित वैश्विक व्यापार के मूलभूत सिद्धांतों को संरक्षित करते हुए विकास आवश्यकताओं, तकनीकी परिवर्तनों और जलवायु अनिवार्यताओं को संतुलित करने में सक्षम हो।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) की प्रासंगिकता को प्रभावित करने वाली चुनौतियों की विवेचना कीजिये और इसके पुनरुत्थान हेतु उपायों का सुझाव दीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. 'एग्रीमेंट ओन एग्रीकल्चर', 'एग्रीमेंट ओन द एप्लीकेशन ऑफ सेनेटरी एंड फाइटोसेनेटरी मेज़र्स और 'पीस क्लाज़' शब्द प्रायः समाचारों में किसके मामलों के संदर्भ में आते हैं; (2015) (a) खाद्य और कृषि संगठन उत्तर: (c) प्रश्न. निम्नलिखित में से किसके संदर्भ में कभी-कभी समाचारों में ‘ऐम्बर बॉक्स, ब्लू बॉक्स और ग्रीन बॉक्स’ शब्द देखने को मिलते हैं? (2016) (a) WTO मामला उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. यदि 'व्यापार युद्ध' के वर्तमान परिदृश्य में विश्व व्यापार संगठन को जिंदा बने रहना है, तो उसके सुधार के कौन-कौन से प्रमुख क्षेत्र हैं विशेष रूप से भारत के हित को ध्यान में रखते हुए? (2018) प्रश्न. “विश्व व्यापार संगठन के अधिक व्यापक लक्ष्य और उद्देश्य वैश्वीकरण के युग में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रबंधन एवं प्रोन्नति करना है। लेकिन वार्ताओं की दोहा परिधि मृत्योन्मुखी प्रतीत होती है, जिसका कारण विकसित तथा विकासशील देशों के बीच मतभेद है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस पर चर्चा कीजिये। (2016) |


शासन व्यवस्था
संवैधानिक आयोग की रिपोर्ट प्रस्तुत करने विलंब
प्रिलिम्स के लिये:अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), संयुक्त राष्ट्र सार्वभौमिक आवधिक समीक्षा मेन्स के लिये:हाशिये पर पड़े समुदायों के लिये कल्याणकारी नीतियों पर विलंबित रिपोर्ट का प्रभाव, भारत की सांख्यिकीय प्रणालियाँ |
स्रोत:द हिंदू
चर्चा में क्यों?
भारत के अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के राष्ट्रीय आयोगों की एक दर्जन से अधिक वार्षिक रिपोर्टें कई वर्षों से सार्वजनिक नहीं की गई हैं।
- इसके अलावा, संसद में कई रिपोर्टें प्रस्तुत नहीं की गईं, जिनमें जवाबदेही और कल्याणकारी उपायों के समय पर क्रियान्वयन के बारे में चिंताएँ जताई गईं।
संवैधानिक आयोग की रिपोर्ट को समय पर प्रस्तुत करने और सदन में पेश करने का क्या महत्त्व है?
- अधिदेशित उत्तरदायित्व: संविधान के अनुच्छेद 338, 338A और 338B के अनुसार NCSC, NCST और NCBC को हाशिये पर पड़े समुदायों के लिये सुरक्षा उपायों के कार्यान्वयन की समीक्षा करते हुए राष्ट्रपति को वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।
- ये रिपोर्ट सुरक्षा उपायों की समीक्षा करती हैं तथा हाशिये पर पड़े समुदायों के सामाजिक-आर्थिक विकास और संरक्षण के लिये उपाय सुझाती हैं।
- नीतिगत प्रभाव: सिफारिशें आरक्षण, क्रीमी लेयर मानदंड, सामुदायिक वर्गीकरण और कल्याणकारी हस्तक्षेपों के संबंध में सरकारी नीतियों को आकार देती हैं।
- रिपोर्टें भेदभाव, अधिकारों तक पहुँच और सामाजिक-आर्थिक संकेतकों जैसे उभरते मुद्दों पर प्रकाश डालकर प्रासंगिक नीति निर्माण सुनिश्चित करती हैं।
- उदाहरण के लिये, जनजातीय विकास के लिये सुशासन पर NCST की विशेष रिपोर्ट ने विस्थापन और पुनर्वास के मुद्दों पर प्रकाश डाला, जिससे भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 में उचित मुआवज़ा और पारदर्शिता का अधिकार लागू करने में मदद मिली, जिसमें जनजातीय विस्थापन संबंधी चिंताओं का समाधान किया गया।
- जवाबदेही तंत्र: वार्षिक रिपोर्ट, कार्यवाही रिपोर्ट के साथ, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के उपचार और उत्थान के संबंध में संसद के प्रति सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करती है।
- सुधारात्मक कार्यवाही को सक्षम बनाना: अत्याचारों या नीतिगत कमियों जैसे मुद्दों की शीघ्र पहचान से त्वरित सुधारात्मक उपाय संभव हो पाते हैं।
- उदाहरण के लिये, NCST की छठी वार्षिक रिपोर्ट (2010-2011) ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के प्रवर्तन संबंधी खामियों को उज़ागर किया, जिसके परिणामस्वरूप अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 2015 में कड़े संशोधन किये गए।
- पारदर्शिता और विश्वास को बढ़ावा: रिपोर्टों को समय पर प्रस्तुत करने से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों को यह आश्वासन मिलता है कि उनकी चिंताओं पर ध्यान दिया जा रहा है, जो पारदर्शिता, दक्षता और उत्तरदायी शासन को दर्शाता है।
- भारत की वैश्विक छवि को बढ़ावा: यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समावेशी विकास और मानवाधिकारों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र सार्वभौमिक आवधिक समीक्षा (UPR) तंत्र के तहत इसकी आवधिक समीक्षाओं में परिलक्षित होता है।
रिपोर्ट समय पर प्रस्तुत करने में आयोगों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?
- संसाधन की कमी: संसाधन की कमी, अधिकांश आयोगों के लिये एक बड़ी चुनौती है। व्यापक रिपोर्ट संकलित करने और समीक्षा करने के लिये पर्याप्त संसाधनों और विशेषज्ञों की कमी से प्रक्रिया में देरी होती है।
- विस्तृत रिपोर्ट तैयार करना (विशेष रूप से कई राज्यों के लिये सिफारिशें करना) समय लेने वाला कार्य है जिससे समस्या और बढ़ती है।
- मंत्रालयों की प्राथमिकता: देरी की वजह, नोडल मंत्रालयों द्वारा रिपोर्ट पेश करने को दी जाने वाली प्राथमिकता भी है। कुछ मामलों में रिपोर्ट तब तक विलंबित रहती है जब तक राजनीतिक और प्रशासनिक ध्यान केंद्रित नहीं हो जाता है।
- पुरानी पद्धतियाँ और तकनीकी खामियाँ: मैन्युअल, कागज-आधारित सर्वेक्षणों पर निरंतर निर्भरता से डेटा संग्रहण धीमा हो जाता है और गिग अर्थव्यवस्था जैसी नई आर्थिक वास्तविकताओं को समझने में समस्या आती है।
- डिजिटल और प्रशासनिक डेटा स्रोतों के सीमित एकीकरण से दक्षता और व्यापकता में कमी आती है।
- स्पष्ट समय-सीमा का अभाव: अनुच्छेद 338(5)(d) के तहत सुरक्षा उपायों पर वार्षिक रिपोर्ट को अनिवार्य किया गया है लेकिन अतिरिक्त रिपोर्टों के लिये समय-सीमा आयोग के विवेक पर निर्भर है।
- निश्चित समय-सीमा के अभाव के कारण देरी और विसंगतियाँ हो सकती हैं जिससे समय पर जवाबदेहिता और सुरक्षा उपायों की समीक्षा प्रभावित हो सकती है।
- आयोगों की पुरानी रिपोर्टें, उनकी प्रासंगिकता को कम करती हैं जिससे अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों का अपने हितों की रक्षा करने वाली संस्थाओं से विश्वास उठ जाता है।
- अद्यतन नीतिगत सलाह के अभाव में उभरते मुद्दे (जैसे कि भेदभाव के नए रूप, शिक्षा तक पहुँच या आर्थिक बहिष्कार) अनसुलझे रह सकते हैं।
- अपर्याप्त सार्वजनिक और संसदीय दबाव: हालाँकि आयोगों की रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत करना और संसद में प्रस्तुत करना अनिवार्य है लेकिन सीमित सार्वजनिक और संसदीय दबाव के कारण रिपोर्ट प्रस्तुत करने में देरी होती है।
- कठोर निगरानी के अभाव के कारण अधिक देरी होती है।
रिपोर्ट में देरी का शासन पर प्रभाव
- साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण का कमज़ोर होना: जनगणना के आँकड़ों में देरी से साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण कमज़ोर होता है।
- पुराने आँकड़े सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) जैसी प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावित करते हैं जिसके अंतर्गत वर्ष 2020 तक 92 करोड़ लोगों को शामिल किया जाना था लेकिन यह सीमित है, जिससे 10 करोड़ से अधिक लोग लाभ से वंचित हैं क्योंकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के 67% कवरेज अनुपात (जो वर्ष 2011 की जनगणना के आँकड़ों पर आधारित है) में जनसंख्या वृद्धि को ध्यान में नहीं रखा गया है।
- इसी प्रकार, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (NSAP) पुराने सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना (SECC) आँकड़ों पर आधारित है जिससे इसका सीमित विस्तार हो रहा है।
- इसके अतिरिक्त, प्रवासन डेटा (जो रुझानों का आकलन करने और राहत की योजना बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण है) पुराना हो गया है क्योंकि वर्ष 2011 का डेटा ही वर्ष 2019 में जारी किया गया था और वर्ष 2021 की जनगणना में देरी हो रही है।
- शहरी और ग्रामीण नियोजन में कठिनाइयाँ: शहरी नियोजन (बुनियादी ढाँचा, आवास, परिवहन) और ग्रामीण विकास (कृषि, जल प्रबंधन) डेटा अंतराल के कारण अप्रभावी हो जाते हैं।
- जल जीवन मिशन जैसी योजनाओं के समक्ष ग्रामीण क्षेत्रों के अद्यतित घरेलू आँकड़ों के अभाव के कारण सटीक लक्ष्य निर्धारण संबंधी चुनौतियों हैं।
- संस्थागत विश्वसनीयता पर नकारात्मक प्रभाव: प्रतिकूल आँकड़ों को छिपाने, जैसे कि वर्ष 2017-18 के राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय उपभोग व्यय सर्वेक्षण को विधारित किया जाना, से पारदर्शिता और सांख्यिकीय संस्थानों की विश्वसनीयता को लेकर चिंताएँ बढ़ गई हैं।
रिपोर्टों की यथासमय प्रस्तुतीकरण हेतु किन सुधारों की आवश्यकता है?
- जवाबदेही तंत्र के साथ समय-सीमा: रिपोर्ट तैयार करने और प्रस्तुत करने के लिये कड़ी सांविधिक समय-सीमाएँ (जैसे, वित्तीय वर्ष के पश्चात् छह माह के भीतर) को अनिवार्य करने वाले नियम तैयार किये जाने चाहिये, जो भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) लेखा परीक्षा मानक 2017 में उल्लिखित लेखा परीक्षा परिपाटी के समान हो।
- संस्थागत स्वायत्तता का सुदृढ़ीकरण: NCSC, NCST और NCBC जैसे आयोगों को निर्वाचन आयोग जैसे संवैधानिक निकायों के समान कार्यात्मक स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिये।
- वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित करने, रिपोर्टिंग अधिकारियों के लिये सुरक्षित पदावधि और राजनीतिक हस्तक्षेप से सुरक्षा सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है। रिपोर्ट लेखन, प्रभाव आकलन और डेटा व्याख्या में नियमित प्रशिक्षण को संस्थागत बनाया जाना चाहिये।
- सांख्यिकीय सुधारों पर रंगराजन समिति (2001) ने भारत में प्रमुख सांख्यिकीय गतिविधियों की देखरेख के लिये एक सशक्त राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (NSC) के गठन की अनुशंसा की थी।
- इसमें अनुशंसा की गई, NSC की भूमिका सांख्यिकीय मानकों का निर्धारण करना, उनकी निगरानी करना और उनका क्रियान्वन करना तथा विभिन्न सांख्यिकीय एजेंसियों के बीच समन्वय सुनिश्चित करना होगा।
- तकनीकी सुधार: विभिन्न मंत्रालयों में रिपोर्ट तैयार करने, उनकी समीक्षा करने और प्रस्तुत करने के चरणों पर नज़र रखने के लिये ऑनलाइन डैशबोर्ड का उपयोग किया जाना चाहिये।
- सुरक्षित दस्तावेज़ प्रमाणीकरण और टाइमस्टैम्पिंग के लिये ब्लॉकचेन को एकीकृत किया जाना चाहिये। रिपोर्ट तैयार करने को स्वचालित करने और मैन्युअल त्रुटियों और होने वाले विलंब को कम करने के लिये ई-श्रम जैसे प्लेटफॉर्म पर AI-संचालित एनालिटिक्स को उपयोग में लाया जाना चाहिये।
- सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) की निगरानी के साथ संरेखण: रिपोर्टों, विशेष रूप से उत्तरदायी, समावेशी, भागीदारी और प्रतिनिधि निर्णय लेने से संबंधित संकेतक, का समय पर प्रस्तुतीकरण भारत की SDG 16 प्रतिबद्धताओं में एकीकृत किया जाना चाहिये।
- संयुक्त राष्ट्र उच्च स्तरीय राजनीतिक मंच (HLPF) में भारत की स्वैच्छिक राष्ट्रीय समीक्षा (VNR) में घरेलू रिपोर्टिंग संरचनाओं में सुधार को स्पष्ट रूप से उजागर किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिये राष्ट्रीय आयोगों की वार्षिक रिपोर्ट जारी करने में विलंब होना गंभीर प्रणालीगत मुद्दों को दर्शाती है। यह सुनिश्चित करने के लिये की जाने वाली अनुशंसाएँ इन समुदायों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान संबंधी नीतियों में प्रभावी रूप से शामिल की जाएँ, समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना महत्त्वपूर्ण है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. सरकारी नीतियों को रूपित करने में सांविधानिक आयोगों की भूमिका का परीक्षण कीजिये। इनके द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत करने में होने वाले विलंब से कल्याणकारी योजनाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत के निम्नलिखित संगठनों/निकायों पर विचार कीजिये: (2023)
उपर्युक्त में से कितने सांविधानिक निकाय हैं? (a) केवल एक उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिये राज्य द्वारा की गई दो प्रमुख विधिक पहलें क्या हैं? (2017) |

