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डेली न्यूज़

  • 15 May, 2025
  • 57 min read
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम का विकास

प्रिलिम्स के लिये:

साउंडिंग रॉकेट, SLV, सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल, INSAT, SpaDeX मिशन, भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन, SVAMITVA, FASAL, क्रायोजेनिक, अंतरिक्ष मलबा, IN-SPACe, पुन: प्रयोज्य रॉकेट।    

मेन्स के लिये:

भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र का विकास, भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र से संबंधित प्रमुख मुद्दे और अंतरिक्ष-आधारित क्षमताओं को मज़बूत करने के तरीके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

वैश्विक अंतरिक्ष अन्वेषण सम्मेलन (GLEX) 2025नई दुनिया की ओर: अंतरिक्ष अन्वेषण का पुनर्जागरण” विषय के तहत नई दिल्ली में आयोजित किया गया। प्रधानमंत्री ने यह रेखांकित किया कि भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम केवल वैज्ञानिक खोज तक सीमित नहीं है, बल्कि यह नागरिकों को सशक्त बनाने और आर्थिक एवं सामाजिक विकास को आगे बढ़ाने का एक उपकरण भी है।

  • एक अन्य विकास में, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ESA) ने भारत के साथ सहयोग पर बल दिया और अंतरिक्ष अन्वेषण के व्यापक और अनछुए क्षेत्रों में मिलकर कार्य करने की संभावना जताई।

वैश्विक अंतरिक्ष अन्वेषण सम्मेलन (GLEX)

  • परिचय: GLEX का उद्देश्य अंतरिक्ष अन्वेषण में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना है, जिसके लिये कार्यक्रमगत, तकनीकी और नीतिगत जानकारी के आदान-प्रदान को प्रोत्साहित किया जाता है।
    • यह सम्मेलन अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष महासंघ (IAF), मेज़बान संस्था भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO), और सह-मेज़बान संस्था एस्ट्रोनॉटिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया (ASI) द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित किया गया था।
    • IAF, जिसकी स्थापना वर्ष 1951 में हुई थी, एक प्रमुख वैश्विक गैर-सरकारी संगठन (NGO) है जो अंतरिक्ष गतिविधियों के क्षेत्र से जुड़े सभी हितधारकों को एक मंच पर लाता है। इसमें अंतरिक्ष यात्री—जैसे भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा—तथा इसरो, ESA और रोस्कोसमोस जैसी अंतरिक्ष एजेंसियाँ शामिल हैं।
  • उद्देश्य: यह सम्मेलन सभी अंतरिक्ष अन्वेषण में संलग्न राष्ट्रों के लिये सहयोगात्मक समाधान, साझा चुनौतियाँ, प्राप्त अनुभव तथा आगे की दिशा पर विचार-विमर्श हेतु एक मंच प्रदान करता है।

भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम समय के साथ किस प्रकार विकसित हो रहा है?

  • साधारण शुरुआत (1960 –1970 के दशक): वर्ष 1963 में, केरल के थुंबा से पहला साउंडिंग रॉकेट (अमेरिकी निर्मित नाइक-अपाचे) प्रक्षेपित किया गया, जिसका उद्देश्य मूल वायुमंडलीय अध्ययन करना और बुनियादी आधारभूत ढाँचे की स्थापना करना था।
  • स्वदेशी क्षमताओं का निर्माण (1980 –1990 के दशक): भारत ने संचार और मौसम निगरानी के लिये SLV (सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) तथा INSAT शृंखला विकसित की, साथ ही कृषि, जल प्रबंधन और आपदा प्रतिक्रिया में सहायता के लिये IRS (भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह) प्रणाली की स्थापना की।
    • प्रारंभिक चरण में ध्यान आत्मनिर्भरता और विकासोन्मुख अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी पर केंद्रित था।

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  • वैश्विक मंच पर प्रवेश (2000 –2010 का दशक): वर्ष 2008 में भारत ने अपना पहला चंद्र अभियान चंद्रयान-1 प्रक्षेपित किया, जो पहले ही प्रयास में सफल रहा—यह कई वैश्विक शक्तियों (जैसे कि अमेरिका का पायनियर और सोवियत संघ का लूना, जिनके वर्ष 1958 में प्रक्षेपण विफल रहे थे) से आगे था। इस मिशन ने चंद्रमा की सतह पर जल अणुओं की खोज में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
    • वर्ष 2014 में, मंगलयान (मंगल ऑर्बिटर मिशन) ने भारत को पहले प्रयास में मंगल ग्रह तक पहुँचने वाला पहला देश बना दिया।
    • वर्ष 2023 में, चंद्रयान-3 ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास सफलतापूर्वक लैंडिंग की, और वर्ष 2024 में, भारत ने स्पैडेक्स मिशन के तहत दो उपग्रहों को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किया।
  • वैश्विक पहुँच (2010 –2020 के दशक): वर्ष 2017 में, भारत ने एकल मिशन में PSLV-C37 का उपयोग करते हुए 104 उपग्रह प्रक्षेपित किये।
    • भारत ने 34 देशों को प्रक्षेपण सेवाएँ प्रदान कीं, जिससे उसकी वैश्विक अंतरिक्ष भूमिका मज़बूत हुई, जिसमें दक्षिण एशिया उपग्रह और आगामी G-20 उपग्रह मिशन जैसी पहलों का समावेश है।
  • भविष्य की महत्वाकांक्षाएँ (2020- 2040 के दशक): भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में भेजने के लिये गगनयान मिशन विकासाधीन है, जिसमें चंद्रमा (2040), मंगल और शुक्र के लिये योजनाबद्ध मिशन शामिल हैं।
    • भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (संभवतः वर्ष 2035 तक) लो अर्थ ऑर्बिट में स्थायी अनुसंधान को सक्षम करेगा।
  • निजी क्षेत्र का उदय: वर्तमान में 250 से अधिक अंतरिक्ष स्टार्टअप्स अस्तित्व में हैं, जो प्रोपल्शन सिस्टम, इमेजिंग और सैटेलाइट प्रौद्योगिकी में नवाचार को बढ़ावा दे रहे हैं। जैसे,
    • स्काईरूट एयरोस्पेस ने वर्ष 2022 में विक्रम-S (भारत का पहला निजी रॉकेट) लॉन्च किया।
    • अग्निकुल कॉसमॉस ने वर्ष 2022 में श्रीहरिकोटा में भारत के पहले निजी अंतरिक्ष प्रक्षेपण पैड का उद्घाटन किया।

भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम आर्थिक और सामाजिक विकास को कैसे बढ़ावा देगा? 

  • सार्वजनिक सेवा वितरण: इसरो का उपग्रह डेटा स्वामित्व जैसी योजनाओं का समर्थन करता है, जो ग्रामीण भूस्वामियों को संपत्ति कार्ड प्रदान करता है, विवादों को कम करता है और ऋण पहुँच को बढ़ाता है।
    • यह LPG और मनरेगा मज़दूरी जैसी सब्सिडी का लक्षित वितरण सुनिश्चित करने के लिये आधार (इसरो के भू-स्थानिक डेटा से जुड़ा हुआ) के माध्यम से E-KYC में भी सहायता करता है।
  • कृषि एवं खाद्य सुरक्षा: इसरो का फसल (अंतरिक्ष, कृषि-मौसम विज्ञान और भूमि-आधारित अवलोकनों का उपयोग करके कृषि उत्पादन का पूर्वानुमान) कार्यक्रम फसल की पैदावार का पूर्वानुमान लगाने, मूल्य अस्थिरता को कम करने एवं खाद्य वितरण में सहायता करने के लिये उपग्रह डेटा का उपयोग करता है। 
    • भुवन-कृषि परिशुद्ध खेती के लिये मिट्टी के मानचित्र प्रदान करता है।
    • रिसोर्ससैट-2 वनस्पति स्वास्थ्य में परिवर्तन का अवलोकन करके टिड्डियों के हमले जैसी आपदाओं की निगरानी में मदद करता है। 
  • आपदा प्रबंधन: INSAT-3D/3DR जैसे उपग्रह चक्रवातों पर नज़र रखते हैं, जिससे समय पर निकासी संभव हो पाती है। 
    • बाढ़ और सूखे की निगरानी के लिये, राष्ट्रीय कृषि सूखा आकलन और निगरानी प्रणाली (NADAMS) सूखे की स्थिति का आकलन करने और राहत निधि आवंटन का मार्गदर्शन करने के लिये उपग्रह डेटा का उपयोग करती है।
  • डिजिटल विभाजन को कम करना: GSAT उपग्रह दूरदराज़ और आदिवासी क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी प्रदान करते हैं, जिससे वंचित क्षेत्रों में शिक्षा, टेलीमेडिसिन और ई-गवर्नेंस सेवाओं तक पहुँच बढ़ जाती है।
  • राष्ट्रीय सुरक्षा: GSAT-7 शृंखला भारतीय सशस्त्र बलों के लिये संचार का समर्थन करती है, जबकि कार्टोसैट उपग्रह सीमा निगरानी, रक्षा तैयारियों और राष्ट्रीय संप्रभुता को बढ़ाने में सहायता करते हैं।
    • NavIC (नेविगेशन विद इंडियन कांस्टेलेशन) सैन्य प्लेटफार्मों (विमान, जहाज़, मिसाइल और जमीनी सेना) के लिये सटीक निर्देशित हथियारों के लिये एन्क्रिप्टेड सिग्नल एवं डेटा प्रदान करता है।

भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र से संबंधित प्रमुख मुद्दे क्या हैं?

  • बजटीय बाधाएँ: भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.04% ही अंतरिक्ष के लिये आवंटित करता है, जो अमेरिका द्वारा व्यय किये जाने वाले  0.28% से काफी कम है।
    • नासा के 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर की तुलना में इसरो का बजट 1.95 बिलियन अमेरिकी डॉलर होने के कारण, भारत को बड़े पैमाने की परियोजनाओं, बुनियादी ढाँचे और अनुसंधान एवं विकास निवेशों के वित्तपोषण में सीमाओं का सामना करना पड़ रहा है।
    • उदाहरण के लिये, सीमित धनराशि के कारण पुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण यान (RLV-TD) के परीक्षण में देरी हुई।
  • आयात निर्भरता: भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम उन्नत सेंसरों और अर्धचालकों के लिये लगातार आयात पर निर्भर है।
    • स्वदेशी नवाचार धीमा है तथा उसे पर्याप्त धन नहीं मिल पाता है, जैसा कि क्रायोजेनिक CE-20 इंजन के विकास में देरी से पता चलता है।
  • अंतरिक्ष में बढ़ता अपशिष्ट: भारत के पास प्रभावी अपशिष्ट शमन रणनीतियों का अभाव है तथा कक्षा में 114 से अधिक भारतीय मूल की वस्तुएँ अंतरिक्ष अपशिष्ट के रूप में वर्गीकृत हैं।
  • सुरक्षा कमजोरियाँ: भारत के पास अंतरिक्ष आधारित प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों का अभाव है, जो शत्रु देशों के खिलाफ भारत की अंतरिक्ष परिसंपत्तियों, एकीकृत निगरानी और मज़बूत ASAT क्षमताओं के लिये खतरा उत्पन्न करते हैं। 
    • अंतरिक्ष में इसका सैन्य उपयोग सीमित है, विशेषकर जब इसकी तुलना चीन और अमेरिका के दोहरे उपयोग वाले प्रभुत्व से की जाए।
  • कुशल कार्यबल का पलायन: विदेशों में बेहतर बुनियादी ढाँचे और अवसरों के कारण  भारत को प्रतिभाओं के बड़े पैमाने पर पलायन का सामना करना पड़ रहा है।
    • जबकि भारतीय मूल के शीर्ष वैज्ञानिक वैश्विक मिशनों में योगदान दे रहे हैं, भारत STEM में अपनी उपस्थिति बनाए रखने के लिये संघर्ष कर रहा है
  • सीमित वाणिज्यिक उपस्थिति: PSLV जैसी लागत प्रभावी और विश्वसनीय प्रक्षेपण प्रणाली होने के बावजूद, वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी केवल 2-3% है।
    • व्यावसायीकरण और अनुबंध अधिग्रहण स्पेसएक्स जैसे प्रतिस्पर्धियों से पीछे है।
  • भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा: चीन की तीव्र प्रगति, जैसे कि तियांगोंग अंतरिक्ष स्टेशन और बेइदोउ, भारत के क्षेत्रीय प्रभाव को ढक देती है। 
    • इसके अतिरिक्त, अंतरिक्ष कूटनीति और दोहरे उपयोग वाली तकनीकी रणनीतियों का भारत में अभाव उसे वैश्विक अंतरिक्ष दौड़ में नुकसान की स्थिति में डालता है।

भारत अपनी अंतरिक्ष-आधारित क्षमताओं को मज़बूत करने के लिये क्या उपाय अपना सकता है?

  • वित्तपोषण तंत्र में विविधता लाना: भारत सॉवरेन स्पेस बॉण्ड और सार्वजनिक-निजी सह-वित्तपोषण मॉडल के माध्यम से दीर्घकालिक निवेश आकर्षित कर सकता है। 
    • इसके अतिरिक्त, IN-SPACe के तहत भारतीय अंतरिक्ष कोष की स्थापना से अनुसंधान एवं विकास, स्टार्टअप और नवाचार को समर्थन मिल सकता है, जिससे घरेलू अंतरिक्ष पारिस्थितिकी तंत्र मज़बूत होगा।
  • स्वदेशी प्रौद्योगिकी विकास: भारत को विदेशी प्रौद्योगिकी पर निर्भरता कम करने और रणनीतिक स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिये पुन: प्रयोज्य रॉकेट एवं उपग्रहों के लिये AI जैसी प्रमुख प्रौद्योगिकियों को विकसित करने हेतु अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी नवाचार केंद्र बनाने चाहिये।
  • प्रतिभा प्रतिधारण: भारत को विशिष्ट अंतरिक्ष शिक्षा कार्यक्रम शुरू करने चाहिये, अंतरिक्ष प्रशिक्षण अकादमियाँ स्थापित करनी चाहिये तथा शीर्ष प्रतिभाओं को बनाए रखने के लिये अनुसंधान फेलोशिप और कॅरियर मार्ग प्रदान करना चाहिये।
  • अंतरिक्ष स्थिरता: भारत को अंतरिक्ष अपशिष्ट के प्रबंधन के लिये अंतरिक्ष स्थिति जागरूकता (SSA) प्रौद्योगिकियों और डी-ऑर्बिटिंग समाधानों में निवेश करना चाहिये साथ ही अपशिष्ट को कम करने तथा स्थाई अंतरिक्ष अन्वेषण को बढ़ावा देने पर केंद्रित राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्थिरता योजना शुरू करनी चाहिये।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना: भारत को आर्टेमिस और ग्रहीय रक्षा जैसे मिशनों पर प्रौद्योगिकी साझा करने के लिये नासा, ESA और रोस्कोस्मोस जैसी वैश्विक अंतरिक्ष एजेंसियों के साथ सहयोग को मज़बूत करना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में उभरते अंतरिक्ष राष्ट्रों के साथ साझेदारी से क्षमता निर्माण एवं अंतरिक्ष कूटनीति को बढ़ावा मिलेगा।
  • अंतरिक्ष-आधारित उद्यमिता: भारत को उपग्रह निर्माण, डेटा विश्लेषण और पेलोड विकास में  स्टार्टअप्स और MSME क्षेत्र को समर्थन देने के लिये एक राष्ट्रीय अंतरिक्ष नवाचार ढाँचा बनाना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त, अंतरिक्ष समाधानों के लिये युवा-प्रेरित विचारों को बढ़ावा देने के लिये हैकथॉन और नवाचार जैसी पहले शुरू की जानी चाहिये।

विदेशी अंतरिक्ष एजेंसियों के साथ ISRO का सहयोग क्या है?

  • रोस्कोस्मोस (रूस):
    • गगनयान मिशन: रूस ने गगनयान मानव अंतरिक्ष उड़ान मिशन के लिये भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को प्रशिक्षित करने में सहायता की।
    • प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी: भारत और रूस ने क्रायोजेनिक इंजन और चालक दल मिशन समर्थन सहित अंतरिक्ष यान प्रौद्योगिकियों पर सहयोग किया है। उदाहरण के लिये राकेश शर्मा सोवियत अंतरिक्ष यान सोयूज T-11 पर सवार होकर अंतरिक्ष की यात्रा करने वाले पहले भारतीय नागरिक थे।
  • नासा (अमेरिका): NISAR (नासा-ISRO सिंथेटिक अपर्चर रडार) नासा और ISRO के बीच एक संयुक्त परियोजना है, जो हर 12 दिन में पूरे विश्व का मानचित्र तैयार करेगी तथा पारिस्थितिकी तंत्र, बर्फ द्रव्यमान, वनस्पति, समुद्र स्तर में वृद्धि, भूजल एवं भूकंप, सुनामी, ज्वालामुखी और भूस्खलन जैसे प्राकृतिक खतरों पर सुसंगत डेटा उपलब्ध कराएगी।
  • JAXA (जापान): LUPEX (चंद्र ध्रुवीय अन्वेषण) ISRO और JAXA का एक संयुक्त मिशन है जिसका उद्देश्य चंद्रमा के ध्रुवीय क्षेत्रों का अन्वेषण करना है, विशेष रूप से स्थायी रूप से छाया वाले क्षेत्रों को लक्ष्य करके पानी की उपस्थिति की जाँच करना और एक स्थायी दीर्घकालिक चंद्र स्टेशन की क्षमता का आकलन करना है।
  • CNES (फ्राँस): मेघा-ट्रॉपिक्स (2011) एक संयुक्त भारत-फ्राँसीसी संयुक्त उपग्रह मिशन है, जिसे मानसून, चक्रवात आदि जैसे पहलुओं से संबंधित उष्णकटिबंधीय वातावरण और जलवायु के अध्ययन के लिये लॉन्च किया गया है।

निष्कर्ष

भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम काफी विकसित हुआ है, जो एक साधारण शुरुआत से अंतरिक्ष अन्वेषण में वैश्विक अभिकर्त्ता के रूप में विकसित हुआ है। हालाँकि, बजट की कमी, आयात निर्भरता और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा जैसी चुनौतियाँ बनी हुई हैं। स्वदेशी तकनीक, प्रतिभा प्रतिधारण और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर ध्यान केंद्रित करके भारत निरंतर विकास तथा आर्थिक विकास के लिये अपनी अंतरिक्ष-आधारित क्षमताओं को मज़बूत कर सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम बुनियादी वायुमंडलीय अनुसंधान से वैश्विक अंतरिक्ष अन्वेषण तक विकसित हुआ है। भारत की अंतरिक्ष यात्रा में प्रमुख उपलब्धियों और इसके सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न. भारत के उपग्रह प्रमोचित करने वाले वाहनों के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)

  1. PSLV से वे उपग्रह प्रमोचित किये जाते हैं जो पृथ्वी संसाधनों के मानिटरन उपयोगी हैं जबकि GSLV को मुख्यतः संचार उपग्रहों को प्रमोचित करने के लिये अभिकल्पित किया गया है।
  2.  PSLV द्वारा प्रमोचित उपग्रह आकाश में एक ही स्थिति में स्थायी रूप से स्थिर रहते प्रतीत होते हैं जैसा कि पृथ्वी के एक विशिष्ट स्थान से देखा जाता है।
  3.  GSLV Mk III, एक चार स्टेज वाला प्रमोचन वाहन है, जिसमें प्रथम और तृतीय चरणों में ठोस रॉकेट मोटरों का तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरणों में द्रव रॉकेट इंजनों का प्रयोग होता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) 2 और 3
(c) 1 और 2
(d) केवल 3

उत्तर: (a)


प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)

इसरो द्वारा प्रक्षेपित मंगलयान

  1. को मंगल ऑर्बिटर मिशन भी कहा जाता है।
  2.  के कारण अमेरिका के बाद मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाला भारत दूसरा देश बना ।
  3.  ने भारत को अपने अंतरिक्ष यान को अपने पहले ही प्रयास में मंगल ग्रह की परिक्रमा करने में सफल होने वाला एकमात्र देश बना दिया।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न: भारत के तीसरे चंद्रमा मिशन का मुख्य कार्य क्या है जिसे इसके पहले के मिशन में हासिल नहीं किया जा सका? जिन देशों ने इस कार्य को हासिल कर लिया है उनकी सूची दीजिये। प्रक्षेपित अंतरिक्ष यान की उपप्रणालियों को प्रस्तुत कीजिये और विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र के ‘आभासी प्रक्षेपण नियंत्रण केंद्र’ की उस भूमिका का वर्णन कीजिये जिसने श्रीहरिकोटा से सफल प्रक्षेपण में योगदान दिया है।(2023)

प्रश्न: भारत की अपना स्वयं का अंतरिक्ष केंद्र प्राप्त करने की क्या योजना है और हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम को यह किस प्रकार लाभ पहुँचाएगी?  (2019) 

प्रश्न: अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों पर चर्चा कीजिये।  इस तकनीक के अनुप्रयोग ने भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में किस प्रकार सहायता की? (2016)


भारतीय अर्थव्यवस्था

CSR खर्च में वृद्धि

प्रिलिम्स के लिये:

कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व, कंपनी अधिनियम, 2013 , संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्य, NGO, CSR पर इंजेती श्रीनिवास समिति की रिपोर्ट

मेन्स के लिये:

भारत में CSR गतिविधियों का महत्त्व, CSR व्यय का सामाजिक प्रभाव, भारत में CSR से संबंधित प्रमुख मुद्दे।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

प्राइम डेटाबेस (भारतीय बाज़ार डेटा फर्म) की रिपोर्ट से पता चलता है कि वित्त वर्ष 2023-24 में  सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) व्यय में 16% की वृद्धि होगी।

  • इसका श्रेय विभिन्न क्षेत्रों में लाभप्रदता में सुधार को दिया जा सकता है तथा यह कॉर्पोरेट परोपकार और अनुपालन संस्कृति में बदलती प्राथमिकताओं को भी दर्शाता है।

नोट: सूचीबद्ध कंपनियाँ वे हैं जिनके शेयर भारत में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (BSE) या नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) जैसे मान्यता प्राप्त स्टॉक एक्सचेंजों पर सूचीबद्ध और कारोबार किये जाते हैं एवं नियामक आवश्यकताओं का अनुपालन करते हैं।

 CSRव्यय में नवीनतम रुझान क्या हैं?

  • CSR खर्च में रुझान (वित्त वर्ष 2023-24): सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा CSR खर्च वित्त वर्ष 2022-23 में 15,524 करोड़ रुपये से बढ़कर वर्ष 2023-24 में 17,967 करोड़ रुपये हो गया, जो मुनाफे में समग्र वृद्धि को दर्शाता है। 
    • HDFC बैंक, रिलायंस इंडस्ट्रीज, TCS और ONGC शीर्ष योगदानकर्ता रहे।
    • लगभग 98% कम्पनियों ने अपने CSR दायित्वों को पूरा किया तथा लगभग आधी कम्पनियों ने अपेक्षित व्यय से अधिक व्यय किया। 
    • सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) ने भी वित्त वर्ष 2022-23 की तुलना में अपने CSR योगदान में 19% की वृद्धि की।
  • क्षेत्र अनुसार आवंटन और बदलाव: शिक्षा को सबसे अधिक आवंटन (1,104 करोड़ रुपये) प्राप्त हुआ, उसके बाद स्वास्थ्य सेवा (720 करोड़ रुपये) का स्थान रहा।
    • पर्यावरणीय स्थिरता पर व्यय में सबसे अधिक 54% की वृद्धि हुई, जो ESG (पर्यावरण, सामाजिक और शासन) लक्ष्यों की ओर बदलाव को दर्शाता है, इसके बाद राष्ट्रीय विरासत में 5% की वृद्धि हुई। 
      • हालाँकि, मलिन बस्ती विकास, ग्रामीण विकास और सशस्त्र बलों के सेवानिवृत्त सैनिकों के कल्याण जैसे क्षेत्रों के लिये समर्थन में तेज़ी से गिरावट आई (क्रमशः 72%, 59% और 52%)।
  • राज्यवार रुझान: महाराष्ट्र, राजस्थान और तमिलनाडु CSR निधि के शीर्ष तीन प्राप्तकर्ता थे, जिनमें शीर्ष 10 राज्यों का कुल CSR व्यय का 60% हिस्सा था।
    • वर्ष 2022-23 की तुलना में CSR फंड में सबसे अधिक वृद्धि देखने वाले राज्य तमिलनाडु, महाराष्ट्र और गुजरात हैं, जबकि राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में CSR फंडिंग में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज़ की गई।
  • प्रत्यक्ष व्यय बनाम कार्यान्वयन एजेंसियाँ: वित्त वर्ष 2023-24 में, 31% कंपनियों ने सीधे  CSR पर खर्च किया, 29% ने कार्यान्वयन एजेंसियों का उपयोग किया, 38% ने दोनों का उपयोग किया और 2% ने विधि निर्दिष्ट नहीं की।
    • हालाँकि, अधिकांश धनराशि (50% से अधिक) कार्यान्वयन एजेंसियों के माध्यम से खर्च की गई

कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व क्या है?

  • कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) से तात्पर्य समाज और पर्यावरण के प्रति कंपनी की ज़िम्मेदारी से है। 
    • यह एक स्व-विनियमन मॉडल है जो यह सुनिश्चित करता है कि व्यवसाय आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कल्याण पर अपने प्रभाव के लिये जवाबदेह बने रहें। 
    •  CSR को अपनाने से कंपनियाँ सतत् विकास में अपनी व्यापक भूमिका के प्रति अधिक जागरूक हो जाती हैं।

Corporate_Social_Responsibility

  • कानूनी ढाँचा: भारत कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135 के तहत CSR व्यय को अनिवार्य बनाने वाला पहला देश है, जो पात्र गतिविधियों के लिये एक संरचित ढाँचा प्रदान करता है।
  • प्रयोज्यता: CSR नियम उन कंपनियों पर लागू होते हैं जिनकी पिछले वित्तीय वर्ष में निवल संपत्ति 500 ​​करोड़ रुपए से अधिक या कारोबार 1,000 करोड़ रुपए से अधिक या निवल लाभ 5 करोड़ रुपए से अधिक हो।
    • ऐसी कंपनियों को अपने पिछले तीन वित्तीय वर्षों (या यदि हाल ही में स्थापित की गई हैं तो उपलब्ध वर्षों) के औसत निवल लाभ का कम से कम 2% कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) गतिविधियों पर व्यय करना आवश्यक है।
  • CSR पहलों के प्रकार:
    • कॉर्पोरेट परोपकार (Corporate Philanthropy): दान और चैरिटी योगदान।
    • सामुदायिक स्वयंसेवा (Community Volunteering): कर्मचारियों द्वारा संगठित सेवा कार्य।
    • नैतिक व्यवहार (Ethical Practices): सामाजिक रूप से उत्तरदायी उत्पादों का निर्माण
    • कारण प्रचार और सक्रियता (Cause Promotion): सामाजिक मुद्दों को समर्थन देना।
    • कारण-आधारित विपणन (Cause Marketing): बिक्री को दान से जोड़ना।
    • सामाजिक विपणन (Social Marketing): जनहित के लिये अभियानों को वित्तपोषित करना।
  • पात्र क्षेत्र: CSR गतिविधियों में कई तरह की पहल शामिल हैं, जिनमें गरीबी उन्मूलन, शिक्षा और लैंगिक समानता को बढ़ावा देना, HIV/AIDS जैसी बीमारियों से लड़ना, पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना एवं  सामाजिक-आर्थिक विकास व वंचित समूहों के कल्याण के लिये  सरकारी राहत कोष (जैसे पीएम केयर्स और पीएम राहत कोष) में योगदान देना शामिल है।

भारत में CSR व्यय से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?  

  • व्यय में भौगोलिक असमानता: व्यय महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक एवं तमिलनाडु जैसे औद्योगिक राज्यों में केंद्रित है, जबकि पूर्वोत्तर राज्यों (मिज़ोरम, सिक्किम) तथा लक्षद्वीप, लेह और लद्दाख को तुलनात्मक रूप से कम धनराशि प्राप्त होती है, जो क्षेत्रीय असंतुलन को दर्शाता है।
  • CSR आवंटन प्रवृत्तियाँ: CSR निधियों का 75% से अधिक हिस्सा शिक्षा और व्यावसायिक कौशल, भुखमरी, गरीबी एवं स्वास्थ्य देखभाल, पर्यावरणीय स्थिरता, ग्रामीण विकास तथा खेल जैसे प्रमुख क्षेत्रों में केंद्रित था।
    • झुग्गी-झोपड़ी विकास, आपदा प्रबंधन और सशस्त्र बलों के दिग्गजों से संबंधित क्षेत्रों पर बहुत कम व्यय किया जाता है।
  • कार्यान्वयन में देरी और खराब योजना: देर से अनुमोदन और निधियों के आवंटन के कारण क्रियान्वयन में देरी होती है, जिससे कंपनियाँ दीर्घकालिक सामुदायिक विकास की बजाय त्वरित बुनियादी अवसरंचना को प्राथमिकता देती हैं।
    • रणनीतिक दूरदर्शिता का अभाव CSR को दान तक सीमित कर देता है, जबकि दीर्घकालिक नीतियों का अभाव और दोहराए गए प्रयासों के कारण अस्पष्ट व्यय तथा सहयोग के स्थान पर प्रतिस्पर्द्धा पैदा होती है।
  • निगरानी और मूल्यांकन (M&E) अंतराल: वर्तमान M&E प्रणालियाँ वास्तविक सामाजिक प्रभाव के बजाय मात्रात्मक परिणामों पर ध्यान केंद्रित करती हैं।
    • मानकीकृत विधियों का अभाव और तृतीय-पक्ष मूल्यांकनकर्त्ताओं द्वारा असंगत रिपोर्टिंग पारदर्शिता में बाधा डालती है तथा परियोजनाओं के बीच तुलना को कठिन बनाती है।
  • NGO साझेदारी की चुनौतियाँ: कंपनियों और NGO के बीच कमज़ोर समन्वय परियोजना नियोजन एवं कार्यान्वयन को सीमित करता है।
    • अल्पकालिक CSR चक्र और NGO रिज़र्व के लिये धन के उपयोग पर प्रतिबंध क्षमता निर्माण को प्रभावित करते हैं। बिचौलियों पर बढ़ती निर्भरता दक्षता और जवाबदेही को और कम करती है।
  • अप्रयुक्त CSR राशि: अनिवार्यता के बावजूद 27 कंपनियों ने CSR पर व्यय नहीं किया।
    • अधिकांश कंपनियाँ नवोन्मेषी या उच्च प्रभाव वाले परियोजनाओं से बचती हैं और सुरक्षित, दोहराए जाने वाले उपक्रमों को प्राथमिकता देती हैं, जिससे सतत् विकास के लिये CSR की संभावनाएँ सीमित हो जाती हैं।

भारत में CSR पहल के प्रभाव को सुदृढ़ करने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं?

  • CSR विनियमों को सरल और व्यापक बनाना: नियामक अस्पष्टता को दूर करने के लिये CSR दिशानिर्देशों को सरल और अधिक अनुकूल बनाया जाना चाहिये, जिससे कंपनियों को अनुमेय गतिविधियों को बेहतर ढंग से समझने में सहायता मिलेगी।
    • नवीनता लाने और वास्तविक सामाजिक आवश्यकताओं के साथ बेहतर संरेखण के लिये पात्र CSR गतिविधियों की सूची का विस्तार किया जाना चाहिये।
  • एक केंद्रीकृत मंच बनाना: एक राष्ट्रीय CSR पोर्टल विकसित किया जाना चाहिये जहाँ कंपनियाँ अपनी परियोजनाओं, निधि उपयोग और परिणामों की रिपोर्ट कर सकें।
    • यह कॉर्पोरेट्स को NGO और सरकारी योजनाओं से भी जोड़ सकता है जिन्हें समर्थन की आवश्यकता हो, जिससे फंड मिलान और पारदर्शिता में सुधार होगा।
  • ऑडिट और प्रभाव मूल्यांकन: बड़ी परियोजनाओं के लिये अनिवार्य तीसरे पक्ष के ऑडिट से फंड के दुरुपयोग को रोका जा सकता है। कंपनियों को प्रभाव मूल्यांकन भी प्रकाशित करना चाहिये जो वास्तविक परिणाम दिखाए, जिससे केवल धन खर्च करने से हटकर सार्थक सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करने पर ध्यान केंद्रित हो।
  • साझेदारी और सहयोग को बढ़ावा देना: कंपनियों को बेहतर कार्यान्वयन के लिये NGO, स्थानीय अधिकारियों और अन्य कंपनियों के साथ मिलकर कार्य करना चाहिये।
    • विभिन्न उद्योगों या विभिन्न क्षेत्रों में CSR निधियों को एकत्रित करने से बड़ी और अधिक प्रभावशाली परियोजनाएँ संभव हो सकती हैं, विशेष रूप से ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा, जलवायु अनुकूलन और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में।
  • दीर्घकालिक परियोजनाओं का समर्थन करना: CSR पुरस्कार जैसी प्रोत्साहन योजनाएँ रचनात्मक और प्रभावी पहलों को बढ़ावा दे सकती हैं।
    • नीतियों को ऐसे दीर्घकालिक परियोजनाओं को प्रोत्साहित करना चाहिये जो शिक्षा सुधार, स्वास्थ्य प्रणालियों और पर्यावरणीय स्थिरता जैसे मूलभूत समस्याओं का समाधान करें, न कि केवल अल्पकालिक कार्यक्रमों या दान तक सीमित रहें।
  • क्षमता निर्माण एवं संतुलित आवंटन: छोटे उद्यमों में क्षमता निर्माण से CSR का प्रभाव बढ़ सकता है। CSR निधियाँ पिछड़े क्षेत्रों एवं जलवायु परिवर्तन, महिला सशक्तीकरण, सार्वजनिक स्वास्थ्य, आपदा प्रबंधन, विरासत संरक्षण और झुग्गी पुनर्वास जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित होनी चाहिये, ताकि संतुलित और समावेशी विकास सुनिश्चित किया जा सके।
  • पुरस्कार एवं सम्मान: अनिल बैजल समिति (2015) की सिफारिश के अनुसार, दो श्रेणियों की कंपनियों - बड़ी और छोटी - के लिये वार्षिक CSR पुरस्कार स्थापित किये जा सकते हैं।

CSR पर इंजेती श्रीनिवास समिति की सिफारिशें

  • CSR व्यय को कर छूट योग्य बनाया जाए।
  • कंपनियों को अप्रयुक्त CSR फंड्स को 3 से 5 वर्ष तक आगे बढ़ाने की अनुमति दी जाए।
  • कंपनी अधिनियम, 2013 के अनुसूची VII (जो CSR पहलों के लिए योग्य गतिविधियों को निर्दिष्ट करता है) को सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) के साथ संरेखित किया जाए, जिसमें स्थानीय और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के बीच संतुलन हो।
  • CSR व्यय जो ₹5 करोड़ से अधिक हो, उसके लिये प्रभाव मूल्यांकन अनिवार्य किया जाए।
  • CSR कार्यान्वयन एजेंसियों को MCA पोर्टल पर पंजीकृत करना अनिवार्य किया जाए।
  • योगदानकर्त्ताओं, लाभार्थियों और एजेंसियों को जोड़ने के लिये CSR एक्सचेंज पोर्टल बनाया जाए।
  • CSR निवेश को सोशल इम्पैक्ट बॉण्ड में निवेश की अनुमति दी जाए।
    • सोशल इम्पैक्ट बॉण्ड एक वित्तीय उपकरण है, जिसमें सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिये सरकार, निजी और दानदाता क्षेत्र सम्मिलित होते हैं।
  • सामाजिक और पर्यावरणीय लक्ष्यों को लाभ के साथ प्राथमिकता देने वाली सोशल इम्पैक्ट कंपनियों को प्रोत्साहित किया जाए।

निष्कर्ष

भारत में CSR एक स्वैच्छिक कार्य से समावेशी विकास के लिये एक विनियमित उपकरण के रूप में विकसित हुआ है। जैसे-जैसे कॉर्पोरेट लाभ और जनता की अपेक्षाएँ बढ़ रही हैं, CSR को और अधिक रणनीतिक, पारदर्शी तथा राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप बनाना आवश्यक हो गया है। सीमा मानकों की पुनर्समीक्षा और मूल्यांकन तंत्रों को सुदृढ़ करने से CSR केवल अनुपालन से हटकर सतत् सामाजिक-आर्थिक विकास का एक प्रभावशाली चालक बन सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रभावी कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) कार्यान्वयन में चुनौतियों पर चर्चा कीजिये और सामाजिक-आर्थिक विकास पर इसके प्रभाव को बेहतर बनाने के उपाय सुझाइए।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रश्न. कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व कंपनियों को अधिक लाभदायक तथा चिरस्थायी बनाता है। विश्लेषण कीजिये। (2017)


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

G-20 का बढ़ता प्रभाव

प्रिलिम्स के लिये:

G20, यूरोपीय संघ (EU), अफ्रीकी संघ (AU), IMF, विश्व बैंक, वित्तीय स्थिरता बोर्ड (FSB), डिजिटल अर्थव्यवस्था, विशेष आहरण अधिकार (SDR), ग्लोबल हंगर एंड पॉवर्टी अलायंस 

मेन्स के लिये:

वैश्विक आर्थिक शासन में G-20 की भूमिका, G-20 की विशिष्टता और प्रतिनिधित्व की कमी की आलोचना, बहुपक्षीय वैश्विक मंचों के लिये सुधार

स्रोत: डाउन टू अर्थ 

चर्चा में क्यों?

G20 को प्रायः "अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के लिये प्रमुख मंच" के रूप में जाना जाता है, लेकिन वैश्विक प्रतिनिधित्व की कमी के कारण इसकी आलोचना की जाती है। इसकी विशेष सदस्यता वैश्विक मुद्दों को संबोधित करने में इसकी विश्वसनीयता और प्रभावशीलता को कम करती है।

  • वर्ष 2025 में दक्षिण अफ्रीका द्वारा G20 की अध्यक्षता किये जाने के साथ, इस मंच को अधिक समावेशी तथा वैश्विक रूप से प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाने हेतु सुधारों के लिये समर्थन बढ़ रहा है।

G20 का महत्त्व क्या है?

  • परिचय: G20 की स्थापना वर्ष 1999 में एशियाई वित्तीय संकट के बाद वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक गवर्नरों के लिये वैश्विक आर्थिक एवं वित्तीय मुद्दों पर चर्चा करने हेतु एक मंच के रूप में की गई थी।
  • विकास: वर्ष 2007-08 के वित्तीय संकट के बाद G20 को अभिकर्त्ता के स्तर पर पदोन्नत किया गया तथा वर्ष 2009 में इसे वैश्विक आर्थिक सहयोग के लिये शीर्ष मंच घोषित किया गया।
    • यद्यपि इसकी शुरुआत समष्टि अर्थशास्त्र पर ध्यान केंद्रित करने के साथ हुई थी, परंतु अब इसका एजेंडा व्यापार, स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन आदि को भी शामिल करता है।
  • सदस्यता: इसके सदस्यों में 19 राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएँ और यूरोपीय संघ (EU) एवं अफ्रीकी संघ (AU) शामिल हैं। भारत वर्ष 1999 में G20 का सदस्य बना जब इस समूह की स्थापना हुई थी।
    • अन्य देशों को तदर्थ आधार पर "विशेष अतिथि" के रूप में आमंत्रित किया जा सकता है।
  • संरचना और प्रशासन: G20 एक घूर्णनशील अध्यक्षता के अधीन संचालित होता है, जिसका वार्षिक शिखर सम्मेलन होता है तथा यह बिना किसी स्थायी सचिवालय के कार्य करता है।
    • ट्रोइका प्रणाली (वर्तमान, पूर्व और आगामी अध्यक्ष) G20 के कार्यों का प्रबंधन करती है, जिसमें वर्ष 2025 की ट्रोइका में दक्षिण अफ्रीका (वर्तमान), ब्राज़ील (पूर्व) और अमेरिका (2026 का आगामी अध्यक्ष) शामिल हैं।
  • वैश्विक प्रभाव: वैश्विक जनसंख्या का 67%, विश्व सकल घरेलू उत्पाद का 85% और वैश्विक व्यापार का 75% प्रतिनिधित्व करता है।
  • पिछले कुछ वर्षों में G-20 के प्रमुख परिणाम:
    • भुखमरी  और गरीबी के विरुद्ध वैश्विक गठबंधन: ब्राज़ील के रियो डी जेनेरियो में वर्ष 2024 के G20 शिखर सम्मेलन में शुरू की गई इस पहल का उद्देश्य नकद हस्तांतरण कार्यक्रमों के माध्यम से 500 मिलियन लोगों तक पहुँचना और वर्ष 2030 तक बच्चों को 150 मिलियन स्कूली भोजन उपलब्ध कराना है।
    • भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (IMEC): नई दिल्ली में G20 शिखर सम्मेलन के दौरान शुरू किया गया IMEC का उद्देश्य भारत, मध्य पूर्व और यूरोप के बीच व्यापार, आर्थिक संबंधों एवं क्षेत्रीय एकीकरण को मज़बूत करना है।
    • वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन (GBA): इसे सतत् जैव ईंधन को अपनाने को बढ़ावा देने के लक्ष्य के साथ नई दिल्ली, भारत में G-20 शिखर सम्मेलन में लॉन्च किया गया था। 
    • वैश्विक न्यूनतम कॉर्पोरेट कर: वर्ष 2021 में रोम में आयोजित G-20 शिखर सम्मेलन में, G-20 नेताओं ने 15% वैश्विक न्यूनतम कॉर्पोरेट कर को औपचारिक रूप से स्वीकार किया, जिसका उद्देश्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कर बचाव को रोकना और एक न्यायसंगत वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करना था।
    • डिजिटल अर्थव्यवस्था कार्य योजना (2017): डिजिटल व्यापार, साइबर सुरक्षा और डेटा शासन में सहयोग को सुदृढ़ करना।
    • बेसल III मानदंड: वर्ष 2010 के सियोल शिखर सम्मेलन में, G-20 नेताओं ने बैंकिंग नियमों को कड़ा करने के लिये बेसल III मानदंड अपनाए।
    • मजबूत विकास के लिये रूपरेखा (2009): संकट के बाद समन्वित राजकोषीय प्रोत्साहन और बैंकिंग सुधारों के माध्यम से वित्तीय प्रणाली को स्थिर किया गया।
      • ऋण सेवा स्थगन पहल (2020) ने कोविड-19 के दौरान गरीब देशों को ऋण राहत प्रदान की, जिससे पुनर्प्राप्ति में सहायता मिली।
    • जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (2010): निम्न-कार्बन विकास को बढ़ावा दिया, जिसने वर्ष 2015 के पेरिस समझौते को प्रभावित किया।

G20_Map

G-20 की सीमाएँ क्या हैं?

  • प्रतिनिधित्व का अभाव: G-20 एक स्व-चयनित समूह है, जिसमें 19 देश, यूरोपीय संघ और अफ्रीकी संघ शामिल हैं, जबकि विश्व के 90% से अधिक देशों को बाहर रखा गया है, जो केवल कभी-कभार "विशेष अतिथि" के रूप में भाग ले सकते हैं।
    • इसके पास संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समुदाय (193 संयुक्त राष्ट्र सदस्य देश एवं गैर-सदस्य देश) का प्रतिनिधित्व करने का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है।
    • गैर-सदस्य देश केवल "विशेष अतिथि" के रूप में आमंत्रित किये जाने पर ही भाग ले सकते हैं, जिससे यह मंच विशेषाधिकार प्राप्त और प्रतिनिधित्वविहीन बन जाता है।
  • निर्णय-निर्माण में विशिष्टता: G-20 की अनौपचारिक संरचना और स्थायी सचिवालय की अनुपस्थिति के कारण गैर-सदस्य देशों को शामिल करना कठिन हो जाता है। इसके निर्णय पूरे विश्व को प्रभावित करते हैं, फिर भी अधिकांश राष्ट्र इन विचार-विमर्शों में प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं होते।
    • हालाँकि ट्रोइका प्रणाली निरंतरता सुनिश्चित करती है, फिर भी इसमें क्रियान्वयन की शक्ति का अभाव है, जिससे G-20 एक क्रियान्वयन-प्रधान निकाय की अपेक्षा अधिकतर एक विचार-मंच बनकर रह जाता है।
  • वैश्विक चुनौतियों के लिये वैश्विक समाधान की आवश्यकता: जलवायु परिवर्तन, महामारियाँ और आर्थिक असमानता जैसी समस्याएँ व्यापक वैश्विक सहयोग की मांग करती हैं।
    • G-20 की संकीर्ण सदस्यता इसकी क्षमता को सीमित करती है कि वह सभी देशों के हितों को प्रतिबिंबित करने वाले समावेशी समाधान तैयार कर सके।
    • वैश्विक सहयोग में गिरावट आ रही है क्योंकि समृद्ध राष्ट्र आधिकारिक विकास सहायता (ODA) में कटौती कर रहे हैं और प्रमुख अर्थव्यवस्थाएँ समावेशी संयुक्त राष्ट्र मंचों के बजाय विशिष्ट G-20 मंचों को प्राथमिकता दे रही हैं।
    • धनी राष्ट्र G-20 में प्रभुत्व रखते हैं, जिससे गरीब देशों की सहायता और जलवायु वित्त के मुद्दे नज़रअंदाज़ हो जाते हैं और वैश्विक असमानता गहरी हो जाती है।
  • विभिन्न प्राथमिकताएँ: विकसित देश उन्नत तकनीक, जलवायु परिवर्तन और भू-राजनीतिक स्थिरता को प्राथमिकता देते हैं, जबकि विकासशील देश गरीबी उन्मूलन, संसाधनों तक पहुँच और आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
    • प्राथमिकताओं में यह अंतर जलवायु वित्तपोषण, व्यापार उदारीकरण और न्यायसंगत संसाधन वितरण जैसे मुद्दों पर असहमति का कारण बनता है।
  • भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विताएँ: अमेरिका और चीन जैसे देशों के बीच राजनीतिक तनाव, या रूस और इज़राइल से जुड़े संघर्ष, सहमति निर्माण में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं और अक्सर सहयोगात्मक समस्या समाधान से ध्यान भटकाते हैं।

कौन-से सुधार G-20 को अधिक समावेशी और प्रतिनिधित्त्वपूर्ण बना सकते हैं?

  • क्षेत्रीय परामर्शदात्री समूह: वर्ष 2009 में G-20 के तहत स्थापित वित्तीय स्थिरता बोर्ड (FSB) का शासन मॉडल, G-20 को अधिक समावेशी बनाने के लिये एक समाधान प्रस्तुत करता है। 
    • G-20 के विपरीत, FSB  में अमेरिका, एशिया और अफ्रीका जैसे क्षेत्रों के लिये क्षेत्रीय सलाहकार समूह (RCG) शामिल हैं, जो गैर-सदस्य देशों को अपने दृष्टिकोण साझा करने एवं निर्णय लेने में योगदान करने की अनुमति देते हैं। प्रत्येक RCG की सह-अध्यक्षता G-20 और गैर-G-20 सदस्य करते हैं। 
    • G-20 के लिये इस मॉडल को अपनाने से मंच को अपने मूल सदस्यों को बनाए रखने में मदद मिलेगी, साथ ही क्षेत्रीय पड़ोसी देशों के साथ औपचारिक परामर्श प्रक्रिया स्थापित करने, छोटे देशों को सशक्त बनाने और वैश्विक प्रतिनिधित्व एवं जवाबदेही को बढ़ाने में भी मदद मिलेगी।
  • भागीदारी का विस्तार करना : गैर-G-20 देशों, विशेष रूप से वैश्विक दक्षिण को स्थायी पर्यवेक्षक का दर्ज़ा प्रदान करना तथा व्यापक प्रतिनिधित्व के लिये दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों के संगठन (ASEAN) और कैरेबियाई समुदाय एवं साझा बाज़ार (CARICOM) जैसे क्षेत्रीय निकायों के साथ भागीदारी को औपचारिक बनाना।
    • चर्चाओं में विविधतापूर्ण आवाजों को सुनिश्चित करने के लिये विशेष अतिथि आमंत्रणों को व्यवस्थित रूप से घुमाना।
  • संस्थागत संरचना में सुधार: निरंतरता और जवाबदेही के लिये एक स्थायी सचिवालय की स्थापना करना, जलवायु वित्त, ऋण राहत और डिजिटल अर्थव्यवस्था जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर अनिवार्य प्रगति रिपोर्ट के साथ कार्य समूह बनाना।
    • उत्तराधिकार नियोजन से परे नीतिगत सुसंगतता की निगरानी के लिये ट्रोइका प्रणाली को मज़बूत बनाना।
  • प्रमुख वैश्विक चुनौतियों का समाधान: विकसित देशों के लिये बाध्यकारी जलवायु वित्तपोषण लक्ष्य निर्धारित करना तथा कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं के लिये G-20 हरित विकास कोष की स्थापना करना।
    • निम्न आय वाले देशों में संकटों को रोकने के लिये वैश्विक ऋण संरचना में सुधार करना तथा विकासशील देशों के लिये IMF विशेष आहरण अधिकार (SDR) का विस्तार करना।
  • भूखमरी से वैश्विक रूप से निपटना: खाद्य सुरक्षा और जलवायु अनुकूलन जैसी अफ्रीका एवं वैश्विक दक्षिण की प्राथमिकताओं को महत्त्व देना, खाद्य असुरक्षा व टिकाऊ कृषि से निपटने के लिये वैश्विक भूखमरी तथा गरीबी गठबंधन(Global Hunger and Poverty Alliance) जैसी पहलों को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष:

जबकि G-20 वैश्विक आर्थिक सहयोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन इसमें समावेशिता की कमी, अनौपचारिक संरचना और भू-राजनीतिक तनाव इसकी प्रभावशीलता को कमज़ोर करते हैं। अपनी वैधता को मज़बूत करने के लिये, इसे समावेशी भागीदारी मॉडल अपनाना चाहिये, स्थायी शासन तंत्र स्थापित करना चाहिये और जलवायु वित्त, ऋण राहत एवं खाद्य सुरक्षा के लिये कार्रवाई योग्य समाधानों को प्राथमिकता देनी चाहिये- यह सुनिश्चित करते हुए कि यह वास्तव में " अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के लिये प्रमुख मंच " बन जाए।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न : वैश्विक आर्थिक चुनौतियों का समाधान करने में G-20 की सीमाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये तथा वैश्विक शासन में इसकी भूमिका को सुदृढ़ करने के उपाय सुझाइये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. "G20 कॉमन फ्रेमवर्क" के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2022)

  1. यह G20 और उसके साथ पेरिस क्लब द्वारा समर्थित पहल है।
  2.  यह अधारणीय ऋण वाले निम्न आय देशों को सहायता देने की पहल है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


प्रश्न. निम्नलिखित में से किस एक समूह में चारों देश G-20 के सदस्य हैं? (2020)

(a) अर्जेंटीना, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की
(b) ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, मलेशिया और न्यूज़ीलैंड
(c) ब्राज़ील, ईरान, सऊदी अरब और वियतनाम
(d) इंडोनेशिया, जापान, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया

उत्तर: (a)


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