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भारत में महिला सशक्तिकरण

भारत अपने इतिहास और संस्कृति की वजह से पूरे विश्व में एक विशेष स्थान रखता है। हमारा यह देश सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य शक्ति आदि में विश्व के बेहतरीन देशों में शामिल है। वैसे तो आजादी के बाद देश की इन स्थितियों में सुधार की पहल हुई लेकिन हालिया समय में इस क्षेत्रों में पहल तेज हुई है। इसके लिए समाज के मानव संसाधन को लगातार बेहतर, मजबूत व सशक्त किया जा रहा है और समाज की आधी आबादी स्त्रियों की है, इस बाबत उनके लिए विशेष प्रयास किए जा रहे हैं। डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि यदि किसी समाज की प्रगति के बारे में सही-सही जानना है तो उस समाज की स्त्रियों की स्थिति के बारे में जानो। कोई समाज कितना मजबूत हो सकता है, इसका अंदाजा इस बात से इसलिए लगाया जा सकता है क्योंकि स्त्रियाँ किसी भी समाज की आधी आबादी हैं। बिना इन्हें साथ लिए कोई भी समाज अपनी संपूर्णता में बेहतर नहीं कर सकता है। समाज की आदिम संरचना से सत्ता की लालसा ने शोषण को जन्म दिया है। स्त्रियों को दोयम दर्जे के रूप में देखने की कवायद इसी कड़ी का एक महत्वपूर्ण पहलू है।

आधी आबादी के रूप में महिलायें

भारत में विभिन्न संस्कृतियों का संगम है। स्त्री हर संस्कृति के केंद्र में होकर भी केंद्र से दूर है। सिमोन द बोउवार का कथन है, “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है।” समाज अपनी आवश्यकता के अनुसार स्त्री को ढालता आया है। उसके सोचने से लेकर उसके जीवन जीने के ढंग को पुरुष अभी तक नियंत्रित करता आया है और आज भी करने की कोशिश करता रहता है। पितृसत्तात्मक समाज ने वह सब अपने अनुसार तय किया है। जब-जब सशक्तिकरण का सवाल उठता है तब-तब समाज ही कठघरे में खड़ा होता है । समाज में लगातार बदलावों के लिए संघर्ष चलता रहता है ।

मातृसत्तात्मक समाज

भारत व समूचा विश्व पितृसत्तात्मक समाज के ढांचे में रहता आया है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जब हम महिलाओं के सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं, तो उसका आशय यह नहीं है कि अब पितृसत्तात्मक समाज को बदल कर मातृसत्तात्मक समाज में बदल दिया जाए। भारत में पूर्वोत्तर की खासी व कुछ अन्य जनजातियों में मातृसत्तात्मक समाज की अवधारणा देखी जाती है जहाँ नारी की प्रधानता है। विश्व की कुछ जनजातियों जैसे चीन की मोसुओ, कोस्टा रिका की ब्रिब्रि जनजाति, न्यू गुयाना की नागोविसी जनजाति मातृसत्तात्मक है। यहाँ महिलायें ही राजनीति, अर्थव्यवस्था व सामाजिक क्रियाकलापों से जुड़े निर्णय लेती हैं। यदि समाज को स्वस्थ दिशा में आगे बढ़ना है तो समाज मातृ या पितृसत्तात्मक होने के बजाय इनसे निरपेक्ष हो तो एक बेहतर सामाजिक संरचना तैयार होगी और सही मायनों में पुरुष-स्त्री समान रूप से सशक्त होंगे।

महिला सशक्तिकरण का आधार- विश्व में नारी आंदोलन व भारत में इसका प्रभाव

विश्व में नारी आंदोलन की नींव 19वीं शताब्दी में ही रखी गई। पश्चिम के कई राष्ट्र उस दौर में इस आंदोलन में भागीदार बने। नारी आंदोलन जब सामने आए तब ही स्त्री सशक्तिकरण की एक अवधारणा दुनिया के समक्ष प्रमुखता से आई। इसलिए स्त्री सशक्तिकरण को समझने के लिए नारी आंदोलन को समझना भी अतिआवश्यक है। सरल शब्दों में कहें तो नारी आंदोलन की शुरुआत समाज द्वारा नारी को निम्नतर समझने से हुई। नारीवाद का महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि इस पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को हीन दर्जा प्राप्त है। यह समाज ही उसके लिए जीवन जीने के नियम और स्वरूप को गठित करता है। स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व को नकार देता है। नारी आंदोलन किसी पुरुष का नहीं बल्कि पितृसत्तात्मक विचार का विरोध करता है। यह आंदोलन मानता है कि स्त्री को भी पुरुष के बराबर सम्मान, अधिकार व अवसर मिले। नारी आंदोलन लैंगिक असमानता के स्थान पर इस अवधारणा को मानता है कि स्त्री भी एक मनुष्य है। मनुष्य होने के साथ-साथ वह दुनिया की आधी आबादी है। सृष्टि के निर्माण में उसका भी उतना ही सहयोग है जितना कि पुरुष का।

नारी आंदोलन का पहला चरण 19वीं सदी का उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के प्रारंभ होने का है। अमरीका के शहरी, उदारवादी और औद्योगिक माहौल में महिलाओं के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना इसका पहला उद्देश्य था। दूसरी लहर साठ के दशक से शुरू हुई मानी जाती है। इसमें यह पहचान की गयी कि कानून व वास्तविक असमानताएं दोनों आपस में जटिलतापूर्वक जुड़ी हुई हैं एवं इसे दूर किया जाना चाहिए। तीसरी लहर नब्बे के दशक से प्रारंभ होती है। यह द्वितीय लहर की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न हुई। इसमें दूसरी लहर के द्वारा नारीत्व की दी हुई परिभाषा को चुनौती दी गई। वैश्विक रूप में जिस प्रकार नारीवाद को देखा जा रहा था, उसे गढ़ा जा रहा था, उसी क्रम में उसी के साथ भारत में भी महिलाओं की स्थितियों को लेकर लगातार समाज सुधार के व्यापक प्रयास हो रहे थे। लेकिन इसका स्वरूप वैसा नहीं था जैसा वह पश्चिम में रहा है। भारत में नवजागरण अर्थात उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से इसकी शुरुआत मानी जाती है जो 1915 के आस पास तक रहती है। यह उत्थान समाज सुधार व राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जुड़कर आगे बढ़ रहा था। इसमें अंधविश्वासों के विरुद्ध आवाज, बाल विवाह, सती प्रथा व देवदासी प्रथा के खिलाफ आवाज आदि की बात उठाई गई। राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा व सवित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई जैसे लोगों ने तत्कालीन समाज के अनुसार स्त्रियों की समस्याओं को दूर कर उनके लिए एक अनुकूल माहौल बनाकर व उनको सशक्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया।

भारत में स्त्री को सशक्त करने की दिशा में नारी आंदोलनों का दूसरा दौर जो लगभग भारत में गांधी के आगमन के साथ आरंभ होता है वह 1915 से आरंभ हुआ माना जाता है। यह वो दौर था जब महिलाएं एक आह्वान पर सक्रिय रूप से भागीदारी कर रही थीं। यह वही दौर है जब 1917 में भारतीय महिला संघ की स्थापना हुई। इस समय गांधी व अम्बेडकर जी द्वारा महिलाओं को समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास सराहनीय रूप से देखा जाता है। महात्मा गांधी बड़े व्यावहारिक रूप से पर्दा प्रथा, बाल विवाह, दहेज प्रथा उन्मूलन व विधवाओं की समस्याओं तथा छुआछूत के उन्मूलन की बात कर रहे थे। दूसरी ओर ऐसे ही कार्य डॉ. अंबेडकर कर रहे थे जहाँ उन्होंने मताधिकार दिलाना, लैंगिक भेदभाव को समाप्त करना व समानता के अधिकार को दिलाने में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारत में इसका तीसरा चरण जो अभी तक देखा जा सकता है उसके प्रमुख बिंदु महिलाओं के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन में समानता से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार भारत में महिला सशक्त होने की दिशा में नारीवादी आंदोलन ने एक मुख्य भूमिका निभाई है। वर्तमान समय में अनेक क्षेत्रों में महिलाओं के सशक्त होने के तमाम पहलू व उसमें आने वाली चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं।

सशक्त होने का वास्तविक आशय

पूरे विश्व में 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। हरिशंकर परसाई जी के व्यंग्य की पंक्ति है कि “दिवस कमजोरों के मनाए जाते हैं, मजबूत लोगों के नहीं।“ सशक्त होने का आशय केवल घर से बाहर निकल कर नौकरी करना या पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलना भर नहीं है। सशक्त होने का आशय यहाँ पर उसके निर्णय ले सकने की क्षमता का आधार है कि वह अपने निर्णय स्वयं ले रही है या इसके लिए वह किसी और पर निर्भर है। इसी प्रकार आज आर्थिक रूप से सशक्त होने उसके लिए बहुत आवश्य है। यदि वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं है तो वह कभी भी सशक्त नहीं हो सकेगी, इसलिए यह एक और अन्य महत्वपूर्ण पहलू है।

भारत में महिलाओं को आज सभी क्षेत्रों में वैधानिक रूप से समान अधिकार प्राप्त है लेकिन समाज में उन्हें आज भी इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है। सामाजिक रूप से आज भी हमारे समाज का मूल पितृसत्ता के रूप में मौजूद है। ग्रामीण क्षेत्रों में पितृसत्तात्मक ढांचा आज भी बहुत मजबूत है। समय-समय पर खाप पंचायतें या इसकी जैसी ही अन्य संस्थाएं महिलाओं के वस्त्र पहनने को लेकर मोरल पुलिसिंग के तमाम प्रावधान सुझाते रहते हैं। धर्म भी इसमें कई बार अपनी भूमिका अदा करता है। धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के प्रवेश को वर्जित करना इसके ताजातरीन परिणाम हैं। सबरीमाला या अन्य धर्म के स्थलों पर प्रवेश न करना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। धर्म-जाति के गठजोड़, रूढ़ि व अंधविश्वास ने महिलाओं को और शोषित किया है।

राजनीति का क्षेत्र इतिहास से वर्तमान तक पुरुषों के एकाधिकार का क्षेत्र रहा है। कभी भी इस पर महिलाओं का एकाधिकार स्थापित नहीं हुआ। राजनीति घरेलू चारदिवारी से बाहर निकल समाज को संचालित करने वाली, दिशा देने का कार्य करती है। विश्व के हर कोने में पूरे समाज में राजनीतिक पदों पर पुरुषों को ही देखा गया। भारतीय समाज भी इससे अलग नहीं है। आदिम समय से चली आ रही पुरुष प्रधान परंपरा अभी भी सतत क़ायम है। वर्तमान समय में देश की लोकसभा के कुल 542 सांसदों में से केवल 78 महिला सांसद हैं, वहीं राज्यसभा में केवल 24 सांसद हैं। कुल 28 राज्यों में वर्तमान समय में केवल 1 महिला मुख्यमंत्री हैं। वर्तमान राष्ट्रपति केवल दूसरी महिला हैं जो इस पद को सुशोभित कर रही हैं। भारत में राष्ट्रपति से ज़्यादा व्यावहारिक पद प्रधानमंत्री का माना जाता रहा है, इस पद केवल एक महिला का आ पाना सब कुछ उजागर करता है।

महिलाओं का आर्थिक रूप से सशक्त होना उनके पूरे भविष्य को तय करता है। यदि हम अपने निर्णय स्वयं ले सकते हैं तो सही मायने में हम पूरी तरह से आजाद हैं। अनेक मसलों पर हमारा निर्णय निर्भरता की वजह से प्रभावित होता है। भारतीय सामाजिक संरचना में महिलायें काम करने के लिए बाहर नहीं जाया करती थीं, इसलिए कोई आर्थिक स्वतंत्रता उनके पास नहीं थी। पैसे के लिए वे अपने घर के पुरुषों यथा पिता, भाई, पति या पुत्र पर निर्भर रहा करती थीं। आज ये परिस्थितियाँ बदली हैं। महिलायें घरों से बाहर निकली हैं, पढ़ कर सभी क्षेत्रों में नौकरियां कर रही हैं। सरकारी व निजी क्षेत्र में वे समान वेतन पर काअम कर रही हैं लेकिन निजी क्षेत्रों में कई बार, कई जगहों पर उन्हें आज भी भेद-भाव का सामना करना पड़त है। एक लंबे समय तक भारतीय पुरुष व महिला क्रिकेट खिलाड़ियों की बीसीसीआई द्वारा दिए जाने वाली वार्षिक फीस में भेदभाव था, इसे अब 2022 में जाकर दूर किया गया । पूरे फिल्म उद्योग में पुरुष सितारों की फीस कि तुलना में महिलाओं की फीस काफी कम है। ऐसी असमानताएं निजी क्षेत्रों में आज बरकरार है जिसे दूर किए जाने की जरूरत है। फिल्म निर्देशन, उद्यमिता एवं कार्पोरेट के मुखिया जैसी जगहों पर इक्का-दुक्का उदाहरण छोड़ कर केवल पुरुषों का ही वर्चस्व है जो दर्शाता है कि पुरुष प्रधानता के लक्षण मौजूद हैं।

भारत मे महिलाओं के शिक्षा के प्रयास आधुनिक काल के शुरुआती दौर में ही हुए जिसका प्रसार अब लगातार देखने को मिलता है। आज के भारत में ग्रामीण क्षेत्रों की बच्चियाँ भी अब पढ़ने जाने लगी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जातिगत अवधारणाएं अभी भी बलवती हैं जिनके बावजूद निचली जाति की लड़कियां भी अब प्राथमिक विद्यालय की ओर रुख कर रही हैं जो कि एक सकारात्मक संकेत है लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा आज भी घरेलू काम-काज तक ही सीमित हैं। शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं की स्थितियों में अंतर आज भी विद्यमान है। पूरे देश में महिलाओं की स्थिति को सशक्त करने में इस तरह के मौजूद अंतर को पाटना अभी बेहद जरूरी है।

वर्तमान समय में महिला अपनी बेहतरी की ओर बढ़ रही है परंतु हमेशा से स्त्री की स्थिति इतनी निम्नतर नहीं थी। वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल को देखें तो स्त्री ने सम्माननीय जीवन पहले भी जिया है। एक सशक्त जीवन की गवाह वह पहले भी रह चुकी है।

उत्तरवैदिक काल से स्त्री की स्थिति में एकाएक बदलाव नहीं हुए। स्त्री पर अनगिनत अंकुश लगाए जाने लगे। मध्यकाल तक आते-आते स्त्री की स्थिति दयनीय हो चुकी थी। हालांकि भारतीय इतिहास में भक्ति आंदोलन के समय में महिलाओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित हुआ लेकिन लगातार हो रहे आक्रमणों के बीच महिलाओं को पुनः घरों में कैद किया गया। किसी भी आक्रमण में सर्वाधिक शोषित महिलायें ही रहीं। बाद में एक हरम में कई रानियों को रखने का रिवाज सामान्य हो गया। भोग की वस्तु के रूप में तब्दील हो चुकी स्त्री

दशा को सुधार करने की कोशिश फिर आधुनिक काल में ही शुरू हुई। एक लंबे प्रयास व आंदोलनों से गुजरते हुए महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए खुद लड़कर अपने लिए अनेक नए अवसरों का रास्ता खोला। अभी सामाजिक-आर्थिक-राजनीति और सांस्कृतिक रूप से कई जगहों पर इनके साथ समानता का व्यवहार किया जाना बाकी है, जो इस सभ्य समाज में उनका हक़ है। महिलाओं के लिए संभावनाओं का बड़ा द्वार अभी भी उनके इंतजार में है जो लगातार उनके सशक्त होते रहने से ही खुल सकेगा।

श्रुति गौतम

असिस्टेंट प्रोफेसर (वी आई पी एस) दिल्ली

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