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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

कुपोषण स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में बाधक क्यों है

श्वानों को मिलता दूध–वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
मां की हड्डी से चिपक–ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की यह पंक्तियां भारत में गरीबी तथा भूख की दुखमय दशा का जीवंत वर्णन कर रहीं हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक के बाद भी आम भारतीयों खासकर बच्चों और महिलाओं में कुपोषण का स्तर बेहद चिंताजनक है। भले ही भारत में भूख और कुपोषण की दर पहले से घट रही हो, किंतु इसके बावजूद आज भी हम दुनिया में सबसे ज्यादा भूखों की आबादी वाले तथा अविकसित और कुपोषित बच्चों की आबादी का ठिकाना बने हुए हैं। जिस समय सारा देश विश्वगुरु बनने का सपना देख रहा हो, लेकिन फिर भी देश की एक बड़ी आबादी को पेट भर खाना और पोषण युक्त आहार न मिले। ऐसी स्थिति में विश्वगुरु का सपना देखना नाकाफी तथा उन सभी के साथ अन्यायपूर्ण होगा। क्योंकि मनुष्य भले ही ज्ञान–विज्ञान–अध्यात्म की ऊंचाइयां छूकर सभ्यता को गौरवान्वित करे किंतु मनुष्य की पहली जरूरत है – उचित मात्रा में पेट भर संतुलित आहार।

कुपोषण राष्ट्र को किस प्रकार नुकसान पहुंचाता है, इससे पहले कुपोषण के बारे में सही से जान लेना उचित होगा। कुपोषण ऐसी अवस्था है जिसमे पौष्टिक पदार्थ और संतुलित भोजन न लेने के कारण शरीर को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। हालांकि कुपोषण कोई पोषक तत्वों की कमी से ही संबंधित नहीं है, अपितु यह पोषक पदार्थों के असंतुलन, अधिकता तथा कमी से संबंधित है। इसकी भी कई अवस्थाएं होती हैं। जैसे एक अल्पपोषित व्यक्ति/बच्चे में कम वजन (अर्थात अपनी उम्र के अनुसार कम वजन), वेस्टिंग (ऊंचाई के अनुसार कम वजन) तथा स्टंटिंग (उम्र के अनुसार कम लंबाई) और दूसरा अधिक वजन या मोटापा भी इसी में शामिल है। इस प्रकार, शरीर में आवश्यकता से कम अथवा अधिक अर्थात अल्पपोषण तथा अतिपोषण दोनों ही स्थितियां कुपोषण को जन्म देती हैं जोकि किसी भी व्यक्ति या बच्चे के शारीरिक तथा मानसिक विकास में बाधक बनकर उसके सर्वांगीण विकास को अवरूद्ध करती है।

यदि आंकड़ों की बात की जाए तो, आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी देश में भूख और कुपोषण एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक, 2022( Global hunger Index- GHI 2022) में भारत 121 देशों की श्रेणी में 107 वें स्थान पर है और 29.1 के कुल स्कोर के साथ भारत को ‘गंभीर’ की श्रेणी में रखा गया है। एशियाई देशों में भी भारत का प्रदर्शन निम्न दर्जे का है। एक अध्ययन के अनुसार, 2022 में देश भर में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में स्टंटिंग का स्तर लगभग 31 प्रतिशत था अर्थात हर तीसरे बच्चे की लंबाई उसकी उम्र के हिसाब से कम है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक के अनुसार शिशुओं में वेस्टिंग दर 19.3 प्रतिशत दर्ज़ की गई अर्थात प्रत्येक पांच बच्चों में से एक बच्चा अपनी लंबाई के अनुसार कम वजन का है। जबकि भारत में 2.8 प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के अनुसार अधिक वजनी हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण–5 (NFHS–5) के सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 23 फीसदी लड़कियों की शादी 18 वर्ष की कानूनी आयु प्राप्त करने से पहले ही हो गई जोकि कुपोषित बच्चों को जन्म देने के लिए उत्तरदायी हैं। चिंतनीय बात तो यह है कि निम्न या मध्यम आय वर्गीय देशों में 5 वर्ष से कम आयु में होने वाली अधिकांश बच्चों की मौतें अल्पपोषण के कारण ही होती हैं।

आइए, अब बात करते हैं कुपोषण एक स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में क्यों बाधक है? दरअसल बच्चे ही किसी देश का भविष्य होते हैं। वर्तमान के बच्चे ही भविष्य के राष्ट्र की दिशा और दशा का निर्धारण करते हैं। उचित पोषण के अभाव में सभी को शिक्षा का समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है और बालक की सीखने की क्षमता भी प्रभावित होती है। एक कुपोषित बच्चे का मन पढ़ाई में नहीं लग पाता। भारत में इन्हीं कारणों से ड्रॉप आउट भी होते हैं। प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर ड्रॉप आउट अनुपात लगभग 5 प्रतिशत, जबकि उच्च शिक्षा में यह करीब 18 प्रतिशत है। और शिक्षा से ही मनुष्य की प्रगति तय होती है। यही कारण है कि कुपोषित व्यक्ति शारीरिक, मानसिक रूप से अस्वस्थ रहने के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य तथा आर्थिक स्तरों पर मजबूत प्रदर्शन नहीं कर पाता जो कि किसी राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक के प्रदर्शन को कमजोर बनाती है। इसके अतिरिक्त, चूंकि उचित पोषण के अभाव में व्यक्ति दुबला–पतला, कमजोर या फिर कई तरह की बीमारियों का शिकार हो जाता है, जिससे उसके आय अर्जन के अवसरों का भी ह्रास होता है। फलस्वरूप वह एक गरिमामय जीवन के अधिकार से भी वंचित हो जाता है जो भारतीय संविधान में प्रदत्त है। इस प्रकार, कुपोषित व्यक्ति राष्ट्र के लिए एक कुशल मानव संसाधन के रूप में सामने नही आ पाता और वह देश की तरक्की को प्रगति पहुंचाने के स्थान पर राष्ट्र प्रगति में बाधक बन जाता है।

हालांकि बीते वर्षों में भारत ने कुपोषण की समस्या को घटाने में काफी कामयाबी हासिल की है किंतु फिर भी, वैश्विक स्तर पर तय लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। पिछले दशक में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वर्ष 2025 तक तय किए गए सतत विकास लक्ष्य–2 (SDG–2) के लिए रणनीति तैयार करने हेतु गंभीरता से प्रयास किए गए हैं। भारत सरकार द्वारा भी इस समस्या से निपटने हेतु विविध कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके अन्तर्गत पोषण अभियान एक महत्वपूर्ण अभियान है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा वर्ष 2018 में लांच किया गया था जोकि शिशु, किशोर तथा महिलाओं में स्टंटिग, वेस्टिंग, एनीमिया तथा कुपोषण को कम करने पर लक्षित है। हालांकि अब पोषण 2.0 मिशन भी कार्यान्वित हो गया है जोकि मातृ और बाल पोषण को समर्पित एक मुख्य कार्यक्रम है। मिड–डे मील योजना भी स्कूली बच्चों के बीच कुपोषण तथा भूख की समस्या को कम करने पर केंद्रित है। इस योजना से स्कूलों में बच्चों के नामांकन तथा उपस्थिति पर भी प्रत्यक्ष सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 भी एक लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सब्सिडी युक्त खाद्यान्न शहरी और गरीब आबादी को उपलब्ध कराता है। इसके अतरिक्त, सरकार द्वारा "फूड फॉर्टिफिकेशन" भी एक सराहनीय प्रयास है जिसमें चावल, दूध और नमक जैसे मुख्य खाद्य पदार्थों में आयरन, जिंक तथा आयोडीन, विटामिन A एवं D तथा अन्य मुख्य खनिजों को शामिल किया जाता है जिससे पोषण स्तर में सुधार आ सके। किंतु

मीलों हम आ गए हैं,
मीलों हमें जाना है..

अतः इस समस्या को जड़ से समाप्त करने हेतु अभी और गंभीर प्रयास जरूरी हैं। इसके लिए सर्वप्रथम पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले कुपोषण के दुष्चक्र को तोड़ना बहुत जरूरी है। इस कार्यक्रम के लिए गर्भवती महिलाओं तथा नवजात शिशुओं पर प्राथमिकता से ध्यान देना होगा। साथ ही कम उम्र में बच्चे पैदा करने के चलन पर भी रोक लगानी होगी क्योंकि कम आयु में किशोरियों का विवाह तथा उनके मां बनने का चक्र कुपोषण को जन्म देता है। एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक 72 मिलियन लोग अल्पपोषित हो जायेंगे। इसलिए भारत में समग्र आबादी के लिये नियमित आहार एवं पोषण संबंधी आकलन हेतु खाद्य एवं आहार उपभोग से संबंधित आँकड़े तैयार करने के लिए एक राष्ट्रीय प्रयास की आवश्यकता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से मोटे तथा पौष्टिक अनाजों का वितरण भी कुपोषण दूर करने में काफी मददगार साबित हो सकता है। इसके अतिरिक्त फूड फॉर्टिफिकेशन के द्वारा उचित विटामिन, मिनरल्स के समावेशन को बड़े पैमाने पर कार्यान्वित किया जाना चाहिए और साथ ही शिक्षा तथा जन जागरूकता द्वारा इस दिशा में बेहतर प्रयास किए जा सकते हैं।

वस्तुतः अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी का एक प्रसिद्ध वक्तव्य है, “भूख के खिलाफ जंग ही मानवता की आज़ादी के लिए असली जंग है।” इस वक्तव्य पर हमें गहन विचार करना होगा कि क्या दुनिया जीतने की जिद्द के बीच मानवता की आज़ादी के लिए जंग हम जीत पाए हैं या नही? विषमता से परिपूर्ण इस दुनिया में एक बड़ा तबका आज भी भूख से कम रोटी पर तथा कुपोषित जीवन जीने हेतु विवश है। हालांकि संविधान का मौलिक अधिकार सभी को "भोजन का अधिकार" देता है और वहीं, नीति निदेशक तत्त्वों में नागरिकों को "पोषण युक्त आहार" उपलब्ध कराने की बात कही गई हैं लेकिन धरातल पर यह बात अभी तक मुकम्मल नहीं हो पाई है। चूंकि एक प्रचलित कहावत के अनुसार, "स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है" मानव के संपूर्ण विकास के लिए पोषण युक्त आहार मनुष्य की प्रथम आवश्यकता है। संतुलित आहार जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात ही मानव सभ्य समाज की अन्य विकासमय संभावनाओं के बारे में सोचना प्रारंभ करता है। मनुष्य की चेतना का उच्चतम विकास भी शारीरिक जरूरतों के पूरा होने के पश्चात ही प्रारंभ होता है। ऐसी स्थिति होने पर ही मनुष्य एक स्वस्थ, विकसित तथा समृद्ध राष्ट्र और विश्व का निर्माण कर सकता है।

  आशू सैनी  

आशू सैनी, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले से हैं। इन्होंने स्नातक बी.एस.सी (गणित) विषय से और परास्नातक एम.ए (इतिहास) विषय से किया है। इन्होंने इतिहास विषय से तीन बार यू.जी.सी. नेट की परीक्षा पास की है। वर्तमान में इतिहास विषय में रिसर्च स्कॉलर (पी.एच-डी) हैं। पढ़ना, लिखना, सामजिक मुद्दों पर विचार-विमर्श करना और संगीत सुनना इनकी रुचि के विषय हैं। इनके कई लेख दैनिक जागरण और जनसत्ता में प्रकाशित हो चुके हैं।

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