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भारत और चीन मित्र क्यों नहीं हैं?

पुस्तक : इंडिया वर्सेज चाइना, व्हाई दे आर नॉट फ्रेंड्स
लेखक : कांति बाजपेयी
विषय : अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत और चीन साथ मिलकर दुनिया की आबादी का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा हैं। उनका रिश्ता लगभग तीन अरब लोगों के लिए महत्वपूर्ण है। यह उनके पड़ोस के देशों और बड़े पैमाने पर दुनिया के लिए भी परिणामी है। 1962 के युद्ध के बाद दोनों देश हिमालय की सीमा पर उच्च स्तर की सैन्य स्थिरता बनाए रखने में सफल रहे हैं। फिर जून 2020 में लद्दाख के गलवान में एक झड़प में भारतीय और चीनी सैनिक घायल हुए और मारे भी गए। दोनों पक्षों ने सेना की मुस्तैदी बढ़ाई और एक दूसरे के क्षेत्रों में अतिक्रमण करने का संकेत भी दिया। बातचीत की एक श्रृंखला के बावजूद वे सीमा के दोनों ओर जमा हुए लगभग पचास हजार सैनिकों को हटाने में असमर्थ रहे – लगभग उतने ही सैनिक 1962 के युद्ध में भी तैनात किए गए थे। दोनों देशों के बीच छह दशकों की सापेक्षिक शांति कुछ ही हफ्तों में खत्म हो गई। लद्दाख संकट से पता चलता है कि भारत-चीन संबंध उससे कहीं अधिक जटिल है जितना कि अधिकांश पर्यवेक्षक समझते रहे हैं या स्वीकार करते हैं। उनके मध्य की वर्तमान कठिनाइयों को युद्ध की स्मृति और अशांत सीमा के रूप में वर्णित करना स्वाभाविक है। जाहिर है ये विवेचनाएं दिल्ली और बीजिंग की सोच को प्रभावित करती हैं। फिर भी गलवान का संकेत है कि हमें और गहरी पड़ताल करने की जरूरत है।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति और संबंधों के जाने माने विद्वान और लेखक कांति बाजपेयी अपनी पुस्तक इंडिया वर्सेज चाइना, व्हाई दे आर नॉट फ्रेंड्स (जगरनॉट, 2021) में कई नए तर्क रखते हैं। इन तर्कों से परिचित होने से पहले भारत और चीन के मध्य उभरे संघर्ष को उसकी ऐतिहासिकता में जानना उपयोगी होगा।

साम्राज्यवाद के पतन के उपरांत भारत और चीन ने अच्छे संबंधों के साथ शुरुआत की थी। भारत चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने और संयुक्त राष्ट्र में एक सीट के अधिकार का समर्थन करने वाले पहले देशों में से एक था। 1950 से 1953 तक कोरियाई युद्ध के दौरान दिल्ली ने बीजिंग और वाशिंगटन के बीच मध्यस्थता की थी। आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले दो बार चीन का दौरा कर चुके थे और 1930 के दशक के अंत में भारतीय चिकित्सा कर्मियों के एक समूह को वहाँ जाने की व्यवस्था करने में मदद की थी। अपनी सुप्रसिद्ध द डिस्कवरी ऑफ इंडिया में उन्होंने चीनी समाज के लिए अपनी प्रशंसा दर्ज की जो 1950 के दशक में बढ़ते तनाव के बाद भी जारी रही: “चीनी लोगों की जीवन शक्ति मुझे चकित करती है। मैं कल्पना नहीं कर सकता कि इस तरह की चट्टानी ताकत से संपन्न समाज का पतन कैसे हुआ।" 1954 में नेहरू ने चीन की एक अत्यधिक प्रचारित यात्रा की थी। बड़ी भीड़ ने उनका स्वागत किया और कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष माओत्से तुंग और प्रधानमंत्री झोउ एनलाई से ऐतिहासिक भेंट हुई थी। जब 1960 में झोउ ने भारत का दौरा किया तो भारतीय भीड़ ने जयकारा लगाया था, “हिंदी चीनी भाई भाई!' हालाँकि केवल दो साल बाद भारत और चीन युद्ध में थे। भारत युद्ध हार गया और अधिकांश क्षेत्रों से चीनी सैनिकों की वापसी के बावजूद उन्होंने कब्जा कर लिया। एशिया के इन दो दिग्गजों के बीच संबंध कभी पूरी तरह से ठीक नहीं हुए।

भारत और चीन मित्र क्यों नहीं हैं?

बाजपेयी के अनुसार भारत और चीन चार प्रमुख कारणों से मित्र नहीं हैं: एक-दूसरे के बारे में उनकी धारणाओं पर गहरे मतभेद हैं, उनकी क्षेत्रीय परिधि, अन्य बड़ी शक्तियों के साथ उनकी रणनीतिक साझेदारी और साथ ही उनके बीच सत्ता की विषमता को मुख्य कारणों के रूप में इंगित किया गया है। दोनों समाजों की एक-दूसरे के प्रति धारणाएँ बड़ी नकारात्मक हैं, खासकर उन्नीसवीं शताब्दी में भारत का पूर्ण रूप से एक उपनिवेश बन जाने को लेकर चीनी मनीषा में कई आशंकाएँ रहीं हैं। भारत और चीन का अपनी परिधि और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सहमत न हो पाना आंशिक रूप से इसकी एक वजह हो सकती है। एक-दूसरे के बारे में नकारात्मक धारणाएँ इसलिए भी जटिल हैं कि वे कभी भी रणनीतिक साझेदार नहीं रहे हैं। दोनों ने कई बार सोवियत संघ (रूस) और अमेरिका के साथ भागीदारी की है लेकिन कभी भी एक-दूसरे के साथ साझेदारी में नहीं रहे हैं। उनका कभी साथ में मिलकर काम करने का कोई इतिहास नहीं है। उनके मतभेद और अंतर बहुत मायने नहीं रखते अगर दोनों में शक्ति का असंतुलन नहीं होता जो खासकर 1990 के दशक के बाद चीन में पक्ष में बढ़ा है। इस शक्ति असंतुलन के कारण दोनों में से कोई भी पक्ष उनके मध्य के संघर्ष पर पहल नहीं करते क्योंकि भारत ऐसा करने में कमजोर दिखाई देगा और चीन के पास ऐसा करने का कोई महत्वपूर्ण कारण नहीं है।

ऊपर गिनाए गए कारणों को अंग्रेजी में बाजपेयी ने चार पी (Four Ps) की तरह समझाया है। यह चार पी हैं– परसेप्शन (यानी धारणा), पेरीमीटर्स (यानी परिधि), पार्टनरशिप (यानी साझेदारी), और पावर (यानी शक्ति)। इनके अतिरिक्त बाजपेयी सवाल उठाते हुए पूछते हैं क्या ऐसे अन्य कारक भी हैं जो भारत और चीन के संबंधों को प्रभावित करते हैं? फिर पांचवें पी- यानी पाकिस्तान के बारे में बात उठाई गई है जिसे अक्सर संघर्ष के स्रोत के रूप में पहचाना जाता है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ गिलानी ने चीन के साथ अपने देश की दोस्ती को 'पहाड़ों से भी ऊँचा, समुद्र से भी गहरा, स्टील से भी मजबूत और शहद से भी मीठा' बताया था। इन दो शक्तियों के बीच अर्ध-गठबंधन स्पष्ट रूप से भारत को परेशान करता है जो इस्लामाबाद को बीजिंग की भू-राजनीतिक चालों में एक मोहरे के रूप में देखता है। भारत और चीन कई अन्य मतभेदों के कारण भी विभाजित हैं, जैसे दक्षिण एशिया में भारत के अन्य पड़ोसियों के मध्य बढ़ता चीनी प्रभाव। साथ ही चीन की राजनीतिक धुरी में जापान और वियतनाम के साथ भारत का मजबूत होता गठबंधन। वहीं दुनिया के अन्य हिस्सों में और बहुपक्षीय मंचों में उनकी कूटनीति के साथ दोनों शक्तियों द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर की मांग और चीन के साथ भारत का भारी व्यापार घाटा इसमें शामिल है। साथ ही यारलुंग त्सांगपो/ब्रह्मपुत्र नदी पर चीनी बांध निर्माण जैसे कारकों को भी उल्लेखित करना होगा।

पुस्तक की उपयोगिता

यह पुस्तक भारत-चीन संघर्ष के बारे में दोनों देशों की एक-दूसरे की धारणाओं, सीमा और तिब्बत पर उनके मतभेदों और महान शक्तियों के साथ उनकी साझेदारी के साथ उनकी बढ़ती शक्ति विषमता की पड़ताल करती है। दोनों देशों के बीच सहयोग का रिकॉर्ड भी है जो मुख्य रूप से सीमावर्ती क्षेत्रों में सैन्य स्थिरता को बनाए रखने में सामने आती है। 1967, 1975, 1986-87, 2013, 2014, 2015, 2017, और 2020 में गंभीर टकराव के बावजूद इन आठ प्रकरणों में भारत की तरफ से शहीदों की कुल संख्या सौ से थोड़ी ही अधिक है (चीनी आंकड़े सार्वजनिक नहीं हैं)। इतने बड़े देशों के बीच एक भीषण सीमा विवाद को देखते हुए यह संख्या कम ही कही जाएगी । दूसरी ओर लगभग पच्चीस वर्षों की सैन्य स्थिरता के बाद बस पिछले दशक में भारत और चीन के बीच पाँच बड़े टकराव हुए हैं।

एक पुस्तक के तौर पर इंडिया वर्सेज चाइना चार व्यापक तर्क उपलब्ध करवाती है। पहला, जबकि भारत और चीन ने लगभग पंद्रहवीं शताब्दी तक कई बार एक-दूसरे की ओर देखा था, उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से एक-दूसरे के बारे में उनकी आधुनिक धारणाएँ काफी हद तक नकारात्मक हो गई। हाल में कोविड -19 महामारी ने इन नकारात्मक धारणाओं को और शक्तिशाली बनाया है। उनकी आपसी धारणाओं पर औपनिवेशिक विचारों के प्रभाव के साथ-साथ दोनों पक्षों की अज्ञानता ने भी तिरस्कार और अनादर की भावनाएँ पैदा की हैं। आम भारतीय और चीनी एक-दूसरे को किस तरह से देखते हैं यह ज्यादातर अज्ञात है।

दूसरे में परिधि पर मतभेद है। सीमावर्ती भूमि और तिब्बत भारत-चीन संघर्ष के केंद्र में हैं। बकौल बाजपेयी कुछ लेखक मूल झगड़े के लिए भारत को दोषी ठहराते हैं वहीं दूसरे चीन को। बाजपेयी का सुझाव है कि 1949 और 1962 के बीच सीमा समस्या से निपटने के लिए दिल्ली और बीजिंग को “आईना-छवि” की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। इस मुद्दे पर उलझने में हिचकिचाहट, अंतर्विरोध और विसंगतियाँ बढ़ने लगी थीं जिससे दोनों पक्षों में संदेह पैदा हुआ और औपनिवेशिक सीमाओं पर दूसरे के मूल सिद्धांत को स्वीकार करने में असमर्थता प्रकट हुई। तिब्बत पर एक दूसरे की प्रतिबद्धताओं के बारे में दोनों के मध्य संदेह और बढ़ गए थे। भारत ने निष्कर्ष निकाला कि चीन तिब्बत की स्वायत्तता पर अपनी प्रतिबद्धताओं से मुकर गया था और चीन ने निष्कर्ष निकाला कि भारत 1950 के बाद तिब्बत की स्थिति को पूर्ववत करना चाहता है। प्रत्येक पक्ष ने एक दूसरे को सैन्य रूप से रक्षात्मक होनेकी बजाय आक्रामक माना था। सीमा पर मतभेद, तिब्बत, और हिमालय में सैन्य गतिविधियाँ इन संबंधों को और अधिक जटिल बना रही हैं।

तीसरा, यदि भारत और चीन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भागीदार होते, तो उनका एक-दूसरे के प्रति अपनी नकारात्मक धारणाओं और परिधि में उनके संघर्षों के विरुद्ध संतुलन बनाने के लिए रणनीतिक सहयोग का इतिहास होता। असहमति होने पर उन्हें एक-दूसरे को आश्वस्त करने के लिए भी उपयोग किया जाता। इसके बजाय सत्तर वर्षों के जुड़ाव में वे लगभग हमेशा विश्व राजनीति के विपरीत पक्षों में रहे हैं। वे कभी भी एक आम शत्रु के विरुद्ध भागीदार नहीं बने। हालाँकि उनके हित कभी-कभी समानांतर दिखाई दिए हैं खासकर जब अमेरिकी आधिपत्य का विरोध करने का समय था।

अंत में, 1980 के दशक की शुरुआत से भारत आर्थिक, सैन्य और ‘सॉफ्ट पावर’ के मामले में चीन से तेजी से पीछे हो गया है। आर्थिक तौर पर शक्ति असंतुलन बहुत बड़ा है और निकट भविष्य में इसके और दुर्गम होने की संभावना है। सैन्य शक्ति-अंतर भी एक गंभीर समस्या है जबकि वास्तविकता में यह भूगोल द्वारा संयमित है क्योंकि भारत और चीन के बीच के पहाड़ों और समुद्री दूरियों का मतलब है कि युद्ध और बल का प्रयोग सीमित होगा।

इस तरह यह किताब हमें इस ओर उकसाती है कि हम भारत के बारे में चीन की बनी धारणाओं को जाने और साथ ही चीन के बारे में भी जानने का प्रयास करें। दो एशियाई महाशक्तियाँ बिना एक दूसरे के बारे में जाने कैसे आगे जा सकती हैं? यह सवाल इस किताब में हर बार उभरता है।

शान कश्यप

(लेखक रवेंशा यूनिवर्सिटी, कटक में जलवायु परिवर्तन के इतिहास पर शोध कर रहा है)

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