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भारतीय अर्थव्यवस्था में कर सुधारों की भूमिका

कर एक अनिवार्य शुल्क या वित्तीय शुल्क है जो किसी भी सरकार द्वारा किसी व्यक्ति या संगठन पर सार्वजनिक कार्यों जैसे; सर्वोत्तम सुविधाएं और बुनियादी ढांचा के निर्माण हेतु आवश्यक राजस्व की पूर्ति हेतु लगाया जाता है। स्वतंत्र भारत में यदि वित्तीय व्यवस्था के अंतर्गत कर संरचना की बात करें तो कर को दो प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है- प्रत्यक्ष कर, अप्रत्यक्ष कर।

प्रत्यक्ष कर एक ऐसा कर है जो एक व्यक्ति या संगठन द्वारा प्रत्यक्ष यानी सीधे तौर पर उस संस्था को दिया जाता है जिसने इसे अधिरोपित किया है। उदाहरण के लिये एक व्यक्तिगत करदाता, आयकर, वास्तविक संपत्ति कर, व्यक्तिगत संपत्ति कर सहित विभिन्न उद्देश्यों के लिये सरकार को प्रत्यक्ष कर का भुगतान करता है। यदि अप्रत्यक्ष करों की बात की जाए तो यह एक ऐसा कर है जिसे वस्तुओं और सेवाओं पर उस ग्राहक तक पहुँचने से पहले अधिरोपित किया जाता है जो अंततः खरीदे गए सामान या सेवा के बाज़ार मूल्य के हिस्से के रूप में अप्रत्यक्ष कर का भुगतान करता है। उदाहरण के लिये वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), आयात शुल्क।

भारत में प्रचलित वर्तमान कराधान प्रणाली की आरम्भिक जड़ें जेम्स विल्सन द्वारा वर्ष 1860 में प्रस्तुत किये गए प्रथम भारतीय बजट में खोजी जा सकती है। इस बजट में पहली बार विल्सन ने कर कानूनों और कागज की मुद्रा के प्रचलन की बात कही। विल्सन द्वारा प्रस्तुत किये गए कर संबंधी कानूनों का तीखा विरोध भी हुआ।

ब्रिटिश भारत के प्रशासनिक अफसर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने द वीक नामक अखबार में अपनी बात रखते हुए कहा कि राज्य उन लोगों पर कर कैसे लगा सकता है जिनका सरकार में कोई प्रतिनिधित्व नही है। ट्रेवेलियन द्वारा सरकार में हिस्सेदारी के संबंध उठाया गया ये सवाल बाद में गठित हुई राजनीतिक संस्थाओं जैसे इंडियन एसोसिएशन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वारा जोरशोर से उठाया गया। यदि भारत की स्वतंत्रता से पहले प्रमुख कर सुधारों की बात करें तो वर्ष 1935 के भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत वस्तुओं की बिक्री पर कर अधिरोपण को राज्य सूची में शामिल किया गया था। अधिनियम के इसी प्रावधान के आधार पर सबसे पहले मद्रास में वर्ष 1939 में बिक्री कर संबंधी कानून बने। इसके बाद 1941 में पंजाब व अन्य राज्यों में भी बिक्री कर सम्बन्धी प्रावधान लाए गए।

भारतीय स्वतंत्रता के एक दशक बाद यानी वर्ष 1957-1958 के वित्तीय वर्ष हेतु प्रस्तुत किए गए बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री टी.टी.कृष्णामचारी ने सक्रिय आय और निष्क्रिय आय के मध्य अंतर बताते हुए सक्रिय आय के तहत नौकरियों और व्यापार को रखा जबकि निष्क्रिय आय के तहत किराये पर दी गई संपत्तियों और ब्याज को रखा। इसके साथ ही किसी भी किस्म के आयात हेतु लाइसेंस को जरूरी कर दिया गया। संपत्ति कर भी लगाया गया व सीमा एवं उत्पाद शुल्कों को 400 फीसदी तक बढ़ा दिया गया।

कर सुधार की प्रक्रिया में वर्ष 1974 में एल के झा समिति गठित की गई। इन्होंने उत्पादों पर मूल्यवर्धित कर अर्थात वैट लगाने की संस्तुति दी। वैट एक अवधारणा है और इसे बिक्री कर के समुच्चय के अंतर्गत रखा जा सकता है। दरअसल एक वस्तु विभिन्न चरणों जैसे फैक्ट्री, वितरक, थोक विक्रेता, खुदरा दुकानदार से होते हुए अंतिम खरीदार तक पहुँचती है। ऐसे में ये सभी हितधारक अपना-अपना मुनाफा भी लेते है। वैट इन्हीं मुनाफों पर लगने वाला एक कर है।

वर्ष 1976 में तत्कालीन वित्त मंत्री द्वारा कर सुधारों के अंतर्गत कर दरों को कम किया गया। यहाँ पर स्रोत आधारित करों की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया। इन कर सुधारों का प्रभाव अगले 30 सालों तक बना रहा। वोडाफोन और कर अधिकारियों के मध्य कर संबंधी विवाद के लिए हुई लड़ाई इसका एक उदाहरण है। दरअसल वोडाफोन द्वारा भारतीय टेलीकॉम कंपनियों में किये गए अप्रत्यक्ष अधिग्रहण को कर अधिकारियों द्वारा कराधान की परिधि में लाया गया था। इस करारोपण के विरुद्ध वोडाफोन सुप्रीम कोर्ट गई। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने फैसला वोडाफोन के पक्ष में ही सुनाया।

आपातकाल के बाद 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बनते हैं। इनकी सरकार में वित्त मंत्री हीरुभाई एम पटेल द्वारा वित्त वर्ष 1978-1979 के लिए बजट प्रस्तुत किया जाता है। इसके अंतर्गत विदेशी कंपनियों के लिए ये अनिवार्य किया जाता है कि वे किसी भारतीय कंपनी के साथ मिलकर ही यहां बिजनेस करें। इसके बाद विदेशी कंपनी और भारतीय कंपनी के संयुक्त नामों वाली कंपनियां सामने आती हैं। मारुती सुजुकी, हीरो-होंडा इसी के उदाहरण हैं। कोका कोला द्वारा इस शर्त को नहीं माना गया था इसी कारण उस दौर में उनका अस्तित्व समाप्त हो गया था।

इसके बाद अर्थव्यवस्था में उन कर सुधारों को प्रस्तुत किया जाता है जिनकी बदौलत भारत आज विश्व की पाँच शीर्षस्थ अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। वर्ष 1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा प्रस्तुत किये गए बजट में आर्थिक उदारीकरण की एक नई इबारत गढ़ी जाती है। इसके अंतर्गत भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के विचारों को शामिल किया जाता है। हालांकि वित्त संबंधी मामलों के विशेषज्ञ इन आर्थिक सुधारों के पीछे विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा लाइसेंस राज को खत्म करने को मानते हैं। इसी सुधार के बरक्स भारत मे सोने की तस्करी में गिरावट आई क्योंकि अब सोने का दाम पहले की अपेक्षा काफी ज्यादा गिर चुका था।

उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण सुधारों के दौरान ही कर सुधारों के लिए वर्ष 1991-1992 में राजा चेलैया कर सुधार समिति गठित की गई। इसी समिति की संस्तुतियों के आधार पर वर्ष 1994 में सेवा शुल्क अर्थात सर्विस टैक्स की अवधारणा लाई गई। इसके बाद वित्त वर्ष 1997-1998 में वित्त मंत्री द्वारा बजट प्रस्तुत किया जाता है और इसे ड्रीम बजट की संज्ञा दी जाती है। इसके अंतर्गत आर्थिक सुधारों का एक मुकम्मल खाका खींचा जाता है। आय कर को 40 फीसदी से घटाकर 30 फीसदी कर दिया गया जबकि कॉरपोरेट टैक्स से सरचार्ज अर्थात उपकर हटा लिया गया। इसके साथ ही आयकर के अंतर्गत स्लैब सिस्टम को प्रस्तुत किया गया। ये स्लैब सिस्टम वर्ष 2014-2015 तक चलता रहा जब तक कि तत्कालीन मोदी सरकार द्वारा इसमें बदलाव न कर दिया गया। वर्ष 1997-1998 के बजट में ही आय की स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना प्रस्तुत की गई। इज़के तहत लोगों से ये कहा गया कि वे अपनी अघोषित आय के बारे में जानकारी दे सकते है और सरकार को उस आय का 30 फीसदी कर के रूप में भुगतान करके इसे वैध बना सकते है।

इस तरह घोषित की गई आय पर विभिन्न कानूनों जैसे विदेशी विनिमय विनियमन अधिनियम, 1973, आयकर अधिनियम, 1961, संपत्ति कर, 1957 और कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत कोई मुकदमा नही चलाया जा सकता था। यह योजना काफी हद तक सफल रही। इसके अंतर्गत 35 लाख लोगों द्वारा अपने काले धन का रहस्योद्घाटन किया गया। इससे भारतीय राजकोष में 7.8 हजार करोड़ रूपया भी आया। हालांकि विभिन्न सरकारी संस्थाओं और न्यायपालिका द्वारा इस योजना की आलोचना भी की गई। कैग यानी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में इस योजना को ईमानदार करदाताओं को हतोत्साहित करने वाली कवायद बताया गया। उच्चतम न्यायालय ने भी सरकार को हिदायत दी कि भविष्य में ऐसी किसी भी योजना की पेशकश से बचाइए।

कर सुधारों की इस प्रक्रिया में जुलाई 2017 में लागू किये गए वस्तु एवं सेवा कर को मील का पत्थर माना जाता है। इसे आजादी के बाद अब तक का सबसे बड़ा कर सुधार कहा जाता है। इसके अंतर्गत 17 पुराने करों और 23 उपकरों को मिलाकर एक नवीन अप्रत्यक्ष कर यानी 'वस्तु एवं सेवा कर'(जीएसटी) का रूप दिया गया। वस्तु एवं सेवा कर घरेलू उपभोग के लिये बेचे जाने वाले अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं पर लगाया जाने वाला मूल्यवर्द्धित कर है। हालांकि पेट्रोलियम, मादक पेय और स्टांप शुल्क आदि अपवाद भी है जो अभी भी वस्तु एवं सेवा कर के अंतर्गत नहीं आते है। वस्तु एवं सेवा कर का भुगतान उपभोक्ताओं द्वारा किया जाता है, लेकिन यह वस्तुओं और सेवाओं को बेचने वाले व्यवसायों द्वारा सरकार को प्रेषित किया जाता है।

यदि वस्तु एवं सेवा कर की उपलब्धियों की बात की जाए तो इसने एक स्वचालित अप्रत्यक्ष कर पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया है। इसके तहत ई-वे बिल की शुरुआत के साथ-साथ नकली चालान पर कार्रवाई करने से जीएसटी राजस्व में बढ़ोतरी करने में मदद मिली है। इसके साथ ही करों के अनुपालन का सरलीकरण हुआ है। हालांकि इस कर सुधार के समक्ष अनेक चुनौतियाँ भी हैं जैसे राजकोषीय संघवाद के मुद्दे पर अक्सर केंद्र एवं राज्यों के बीच कर-बंटवारे को लेकर तनातनी रहती है। इसके साथ ही 15वें वित्त आयोग ने भी इस संबंध में कुछ मुद्दे रेखांकित किये है- जीएसटी शासन में कर दरों की बहुलता, पूर्वानुमान के मुकाबले जीएसटी संग्रह में कमी, जीएसटी संग्रह में उच्च अस्थिरता आदि।

  संकर्षण शुक्ला  

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।

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