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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

संकट में नदियाँ

दुनिया की तमाम सभ्यताएँ नदियों के किनारे फली-फूली हैं। सदियों से विभिन्न उद्योग-धंधे नदियों के दम पर विकास की रफ़्तार भरते रहे हैं। परिवहन, पर्यटन, विभिन्न उद्योग, पशुपालन और कृषि के लिए नदियाँ वरदान साबित होती रही हैं। नदियाँ प्राचीन काल से ही मानव सभ्यता की केंद्र में रही हैं। पहले नदियों के साथ मानव सभ्यता क़ायदे से पेश आती थी, फिर हमने इतनी तरक्की कर ली कि हम नदियों पर मनमुताबिक आदेश थोपने लगे। “औद्योगीकरण के दौर में बेतरतीब विकास के कारण अब नदियों के प्रति हमारी राक्षसी प्रवृत्तियाँ साफ-साफ दिखती हैं।” नदियों को जीवनदायिनी कहा जाता है लेकिन आज हमलोग इन्हीं का जीवन समाप्त करने पर तुले हुए हैं। दरअसल नदियाँ संसाधन के अलावा भी कुछ हैं; कल-कल करती नदियाँ, बेपरवाह उफान भरती नदियाँ, एक-दूसरे से जुड़ती और स्वतंत्र होकर मुड़ती नदियाँ यानी अपने उदगम से लेकर गंतव्य तक खुद के अनुसार आगे बढ़ती नदियाँ कितनी अच्छी लगती हैं! नदियाँ अच्छी न लगे तो संकट के बादल न केवल नदियों पर मंडराते हैं बल्कि जलीय जीव और मानव-जगत भी खतरे की परिधि में आ जाते हैं, और शुरू होते हैं संपूर्ण इकोसिस्टम के बुरे दिन।

आपको क्या लगता है; प्रदूषित अथवा विलुप्त होती नदियाँ क्या सभ्य समाज की निशानी है? “सदियों से जिन मानव सभ्यता के लिए नदियाँ माँ की गोद की भाँति अपनी सेवा लगातार देती रही वही आज अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं।” नदियों के ऊपर संकट समय के साथ बढ़ता ही गया है। आनन-फ़ानन में किया गया विकास नदियों के साथ-साथ संपूर्ण जीव जगत के लिए धोखा है। स्थितियाँ ऐसी हैं कि या तो नदियों का जल ज़हर बन रहा है या फिर नदियाँ ही पूर्णतः नालियों में तब्दील हो रही हैं। कहीं-कहीं से नदियों के विलुप्त होने की भी ख़बरें आती रहती हैं। नदियों का सूखना आर्थिक विकास के ऊपर तमाचा नहीं तो क्या है!

“भारत यदि किसानों का देश है तो नदियों का भी देश है। भारत को भारत बनाने में नदियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।” भारत की नदियाँ भारत को विकासशील से विकसित बनाने में डटी हुई हैं। भारत में सैकड़ों छोटी-बड़ी नदियाँ हैं। सभी छोटी नदियाँ आठ प्रमुख बड़ी नदियों (सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, गोदावरी, कृष्णा और महानदी) के साथ मिलकर नदी प्रणाली बनाती हैं। भारत के प्रमुख शहर और उद्योग किसी न किसी नदी के किनारे विकास के आसमां को छू रहे हैं। एक ओर जहाँ हमारी नदियाँ हमें शीतल, सिंचित और संपन्न कर रही हैं वहीं दूसरी ओर अधिक लोभ के कारण हमारे विकास का पेट नहीं भर रहा है जिससे तस्वीर बद से बदतर हो रही है।

दरअसल अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण नदी को माँ नहीं बल्कि संसाधन के रूप में देखा जाने लगा है। नदियों के अंधाधुंध उपभोग की प्रवृत्ति का आलम यह है कि आज हमारे देश की 70% से ज़्यादा नदियाँ प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण शोध संस्थान नागपुर के अनुसार “गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी सहित देश की 14 प्रमुख नदियों में देश का कुल 85% जल प्रवाहित होता है। ये सभी नदियाँ इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि देश की 66% बीमारियों का कारण बन रही हैं।” हमने नदियों में फैक्ट्रियों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों के रासायनिक दवा और उर्वरक तथा अस्पतालों के कचरे को छोड़ने में कोई कमी नहीं की है। नदियों को मानो कचरा-घर में तब्दील करने का हमारा लक्ष्य हो। मूर्तियाँ, पूजा के सामान, अधजले शव और मल-मूत्र से न सिर्फ नदियाँ परेशान हैं बल्कि जलीय इकोसिस्टम भी संतुलन खो रही है। एक अध्ययन में सामने आया है कि “दुनिया में केवल 17% नदियाँ ही ऐसी बची हैं जिनमें बह रहा पानी स्वच्छ और ताजा है।” आज हमारे देश की 223 नदियाँ ऐसी हैं जिनमें न तो आप स्नान कर सकते हैं और न ही उनका जल पीने योग्य है। यहाँ तक कि कुछ नदियों की मछलियों को खाना भी सेहत के लिए ठीक नहीं है। यानी उन नदियों में प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि वे जीवनदायिनी से जानलेवा में तब्दील हो चुकी हैं। साल 1970 के बाद इस तरह के नदियों के इकोसिस्टम में लगभग 84% जलीय जीवों की आबादी में कमी आई है। दरअसल हम नदियों में कैडमियम, कॉपर, क्रोमियम, पारा और सीसा जैसे भारी धातुएँ अपशिष्टों के माध्यम से छोड़ रहे हैं। इन्हें जलीय जीव ग्रहण करते हैं और जलीय जीव हमारे भोजन का हिस्सा होता है। अब आप ही बताइए- नदियों और जलीय जीव को संकट में डालकर क्या हम लोग संकटरहित हैं?

कृत्रिम बाँध बनाना, धाराओं को जबरदस्ती मोड़ना, नदियों से मशीनों द्वारा बालू निकालना, नदियों के किनारे अवैध निर्माण कार्य करना और विभिन्न प्रकार के कचरों को नदियों में यूँ ही बहा देना- कुछ ऐसे असंवेदनशील क़दम हैं जिनसे कमोबेश सभी नदियाँ संकट से घिर रही हैं। पहाड़ी इलाकों में विकास योजनाओं के नाम पर बन रही सड़कें, टाउनशिप और सुरंगें जलस्रोत को समाप्त कर रही हैं। डायनामाइट से होने वाले धमाकों से पहाड़ दरक रहे हैं और पहाड़ में मौजूद धाराएँ खत्म हो रही हैं। यदि इन सभी गतिविधियों पर रोक नहीं लगाई गई तो अगले कुछ दशकों में सैकड़ों नदियों का अस्तित्व वैसा ही होगा जैसा हिंडन, यमुना, गोमती, वरुणा, असि, आमी, चंबल, बेतवा, तमसा, कल्याणी, तिलोदकी, पाँवधोई, गुंता, मनसयिता, ससुर खेदरी, केलो और काली नदियों का है। ये सभी नदियाँ लगभग मरणासन्न अवस्था में हैं। हमने इनका दोहन ऐसे किया है जैसे हमलोग ही इस मानव सभ्यता की अंतिम पीढ़ी हों! इन्हीं दोहन का नतीज़ा है कि भारत के कुल 254 जिले सुखाड़ और सैकड़ों जिले बाढ़ को झेलने के लिए विवश हैं। कावेरी, गोदावरी, गंगा, नर्मदा, कृष्णा, भरतपुजा, यमुना, मूसी, नोयल, गोमती, हिंडन और भीमा नदियों की इस सूची में और भी कई भारतीय नदियाँ हैं जिनका जल स्तर अपने प्राकृतिक रूप में नहीं है। नदियाँ एक सीमा तक तो बोझ अथवा प्रताड़ना झेल सकती हैं किंतु जब सीमा का उल्लंघन होने लगे तो खुद भी मिटती हैं और जीव-जगत को भी मिटाती हैं, आप अपने आसपास की ख़बरों अथवा घटनाओं से इस सत्यता को जाँच सकते हैं।

भारत में गंगा नदी को माँ का दर्जा दिया गया है। एक समय था जब इनकी पवित्रता देश-दुनिया में विख्यात थी। तब गंगा-जल तमाम मानकों पर फिट बैठता था। फिलहाल गंगा-जल इतना दूषित हो चुका है कि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कहना पड़ा कि “गंगा नदी का पानी पीने के लिए स्वच्छ नहीं है।” दरअसल गंगा में 30% से अधिक कचरा 1100 से अधिक फैक्ट्रियों से आता है। अब गंगा नदी के कुछ जगहों पर नहाना भी बीमारियों को आमंत्रित करने जैसा हो गया है; उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल को इस श्रेणी में रखा गया है। साल 2016 में बिहार में गंगा नदी इतनी ज़्यादा सूख गई थी कि लोग रिवर बेड पर चलने लगे थे और कुछ महीने बाद भयंकर बाढ़ ने रौद्र रूप दिखलाया था। देश की अन्य छोटी-बड़ी नदियाँ भी अलग-अलग प्रकार से संकट में हैं। साल 2015 में तेलंगाना की मंजीरा नदी के सूखने के बाद मगरमच्छ पानी की खोज में गाँवों में प्रवेश करने लगे थे। गुजरात में नर्मदा नदी समुद्र तक नहीं पहुँच पाती है, इसके कारण समुद्र आगे आ रहा है और परिणामस्वरूप मिट्टी का क्षरण खूब हो रहा है। गोदावरी नदी अलग-अलग जगहों पर सूख रही है। कावेरी नदी अपना 40% जल प्रवाह खो दी है। कृष्णा और नर्मदा में 60% पानी कम हो चुका है। स्थिति यह है कि बारहमासी नदियाँ भी धीरे-धीरे मौसमी बन रही हैं। जो नदियाँ दशकों पहले लहलहाती थीं आज वे दम तोड़ रही हैं उदाहरण के लिए केरल की भरतपुजा, कर्नाटक की काबिनी, तमिलनाडु की कावेरी, वैगाई और पलार, उड़ीसा की मुसल तथा मध्यप्रदेश की क्षिप्रा नदी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही हैं। उत्तराखंड के एक तिहाई मौसमी झरने विलुप्त हो गए हैं। इसके कारण यहाँ की नदियों का जल स्तर 65% से भी नीचा चला गया है। समय रहते यदि हमलोग सचेत न हुए तो न केवल नदियाँ विलुप्त होती चली जाएगी बल्कि मानव सभ्यता को भी भयंकर प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। नीति आयोग के अनुसार- “धाराओं के सूखने से केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि जंगल और वन्यजीव भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।”

ऐसा नहीं है कि केवल हमारे देश की ही नदियाँ संकट में हैं। अमेरिका की कोलोराडो नदी का जल स्तर बहुत नीचे जा चुका है जिसके कारण कुल सात अमेरिकी राज्य और मैक्सिको देश आपस में पानी के लिए संघर्षरत रहते हैं। उत्तरी चीन की ह्वांगहो और पश्चिम अफ्रीका की नाइजर नदी के जलप्रवाह में भी गिरावट आई हैं। यही हाल अन्य देशों के नदियों का भी है। दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक इंडोनेशिया की सितारुम नदी आसपास के जीव-जंतुओं के लिए काल के समान है। गौरतलब है कि शहरीकरण, औद्योगीकरण और पूँजीवाद के कारण पूरी दुनिया एक अलग दौर से गुजर रही है। इस दौर की दौड़ इतनी खतरनाक है कि जलवायु परिवर्तन को बल मिल रहा है। फलतः मानव सभ्यता विस्तृत होती जा रही है जबकि नदियाँ सिकुड़ती जा रही हैं। लगता है आधुनिक मानव सभ्यता को चिल्ला-चिल्लाकर बताना ही होगा कि सिंधुघाटी सभ्यता का अंत नदियों ने ही किया था। “यदि नदियों को बदहाल कर हम खुशहाल रहने का दंभ पाल रहे हैं तो यह साजिश ज़्यादा दिनों तक काम आने वाली नहीं है। नदियाँ ज़रूर बदला लेती हैं; यदि हमलोग इनके साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो ये भी पलटवार करेंगी।” अख़बारों, पत्रिकाओं, टेलीविजन डिबेट्स और पर्यावरणविदों के कथन को डिकोड करने की कोशिश करें तो आप पाएंगे कि नदियों की मुश्किलें कई गुणा बढ़कर हमारी ही मुश्किलें बनती जा रही हैं। यदि संकट में नदियाँ हैं तो महासंकट में मानव सभ्यता भी है।

एक ओर जहाँ तृतीय महायुद्ध के कारणों में सबसे बड़ा कारण जल का महासंकट लगता है तो दूसरी ओर मानव-जगत जल के महत्वपूर्ण स्रोत नदियों के साथ ऐसे व्यवहार कर रही है जैसे इनके नाश होने अथवा न होने से कोई फर्क ही न पड़ेगा। हमें याद रखना चाहिए कि “नदी है तो जल है और जल है तो जीवन है।” हमलोग नदियों को बचाकर ही आधुनिक मानव सभ्यता को सुरक्षित रख सकते हैं। हमें टिकाऊ विकास की राह पर चलकर ही वे तमाम विकास के कार्य करने चाहिए जो मानव और प्रकृति के हित में हो। वह विकास असली विकास हो ही नहीं सकता जो संकट को न्योता दे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते हैं-

“पृथ्वी, सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है किन्तु उनके लालच की पूर्ति के लिए नहीं।”

  राहुल कुमार  

राहुल कुमार, बिहार के खगड़िया जिले से हैं। इन्होंने भूगोल, हिंदी साहित्य और जनसंचार में एम.ए., हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा तथा बीएड किया है। इनकी दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये IIMC से पत्रकारिता सीखने के बाद लगातार लेखन कार्य कर रहे हैं।

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