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अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस

प्रतिवर्ष 1 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस के रूप में मनाया जाता है। दुनिया भर में वृद्धों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार, भेदभाव, उपेक्षा और अन्याय को रोका जा सके, इस हेतु लोगों के अंदर जागरूकता लाने के लिये यह दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाए जाने के पीछे एक उद्देश्य यह भी है कि वृद्धजनों के प्रति सामाजिक व्यवहार बेहतर हो सके।

संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने वृद्धों के हितों को ध्यान में रखते हुए 14 दिसंबर, 1990 को एक संकल्प पत्र (45/106) पेश किया जिसमें वृद्धों के प्रति वैश्विक स्तर पर हो रहे बुरे बर्ताव व भेदभाव को दूर करने की बात कही गई थी। इस प्रस्ताव के आम सहमति से पारित होने पर प्रति वर्ष 1 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस मनाया जाने लगा। पहली बार यह दिवस 1 अक्टूबर, 1991 को मनाया गया। इससे पूर्व ही इसकी विस्तृत पृष्ठभूमि निर्मित हो चुकी थी। जहाँ वर्ष 1982 में इससे संबंधित वियना अंतर्राष्ट्रीय कार्य योजना प्रस्तुत की जा चुकी थी वहीं वृद्धजनों की समस्याओं को लेकर विश्व सभा भी हो चुकी थी। इन सबने संयुक्त राष्ट्र में इसकी नींव रखी। वर्ष 1999 को अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन वर्ष के रूप में मनाया गया।

इस दिवस के आयोजन हेतु संयुक्त राष्ट्र प्रतिवर्ष एक थीम निर्धारित करता है। वर्ष 2020 जब कोविड महामारी वैश्विक स्तर पर आपदा का रूप ले चुकी थी और स्वास्थ्य उस एक अति महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया था, तब संयुक्त राष्ट्र ने इस दिवस के लिये ‘स्वस्थ युग के दशक में बहुआयामी दृष्टिकोण’ जैसी थीम को प्रस्तुत किया। वर्ष 2021 में इस दिवस की थीम ‘सभी उम्र के लिये डिजिटल इक्विटी’ थी जो कि तकनीकी रूप से पिछड़े हुए वृद्धों के लिये एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा। वर्ष 2022 में इस दिवस की थीम ‘बदलते विश्व में वृद्धजनों का समावेशन’ है। इस वर्ष यह न्यूयॉर्क, वियना और जिनेवा में ग़ैरसरकारी संगठनों द्वारा इस दिवस को मनाया जाना तय हुआ है जिसमें इस विषय से जुड़े अनेक योजनाओं पर चर्चाएँ शामिल हैं। इस वर्ष की कार्ययोजना में महिलाओं पर विशेष ध्यान देने का प्रयास किया गया है। यह समाज में महिलाओं के योगदान का एक स्मरणोत्सव भी है इसलिये विश्व स्तर पर उम्र व लिंग के आधार पर डेटा तैयार करने पर भी काफ़ी ज़ोर देने की कोशिश की गई है ताकि भविष्य की योजनाओं का प्रारूप इन आँकड़ों के आधार पर तैयार किया जा सके। इसमें सभी सदस्य देशों, संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं, संयुक्त राष्ट्र के महिला विभाग, सिविल सोसाइटी आदि को सम्मिलित कर योजना बनाना व समाज में लैंगिक असमानता आदि को दूर करने के लिये ठोस कदम उठाए जाने पर विचार किया जाना शामिल है।

समय परिवर्तन के साथ जीवन जीने की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। विज्ञान, तकनीक व स्वास्थ्य सेवाओं के बेहतर होने से जीवन प्रत्याशा में वृद्धि दर्ज की गई है। वर्ष 1950 में जीवन प्रत्याशा 46 थी जो कि वर्ष 2010 में बढ़कर 68 हो गयी। वर्ष 2019 में पूरे विश्व में ऐसी जनसंख्या जिसकी उम्र 65 वर्ष से अधिक थी, 70 करोड़ से भी अधिक रही। यदि इन आँकड़ों पर क्षेत्रवार ध्यान केंद्रित किया जाए तो हम पाएँगे कि पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया में ही या आबादी छब्बीस करोड़ से अधिक हो चुकी है तथा वर्ष 2050 तक इसके 57 करोड़ से अधिक हो जाने का अनुमान लगाया गया है। यूरोप और उत्तरी अमेरिका में 20 करोड़ से ज़्यादा बुजुर्ग हैं। दक्षिण अफ़्रीका और पश्चिम एशिया में यह आबादी 29 करोड़ से अधिक रही जिसके वर्ष 2050 तक 96 करोड़ से अधिक हो जाने की उम्मीद है। कुल मिलाकर देखें तो वर्ष 2050 तक यह आबादी 150 करोड़ से भी अधिक होने वाली है। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि इसमें से अधिकांश आबादी (लगभग 80 प्रतिशत से भी अधिक आबादी) ऐसे देशों की है जो निम्न या मध्यम आय वाले देश माने जाते हैं। भारत भी वर्तमान में उच्च आय वाले देशों की श्रेणी में शामिल नहीं है इसलिये यहाँ बुजुर्गों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि चुनौतियों को जन्म देने वाली है।

वृद्ध हमारे समाज का महत्त्वपूर्ण आधार स्तंभ हैं। परंतु अवस्था ढल जाने के पश्चात् कई बार इन्हें समाज में गैर-ज़रूरी मान लिया जाता है। एक व्यक्ति जो आपके समाज में एक संसाधन के तौर पर कार्य कर रहा था अचानक ही समाज पर बोझ होने लगता है। भारतीय परिदृश्य में वृद्धों के समक्ष अनेक चुनौतियाँ विद्यमान हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सभी रूपों में दिखाई देती हैं। वर्तमान समय में ग्रामीण क्षेत्रों में वृद्धजनों की स्थिति बदतर होने के पीछे एक बड़ा कारण प्रवासन है। चूँकि ग्रामीण क्षेत्र व्यापाक रूप में रोज़गार सृजन में अक्षम हैं इसके चलते अधिकांश युवा रोज़गार की तलाश में बड़े शहरों की ओर पलायन करते हैं। परिणामस्वरूप उनके बूढ़े माता-पिता कई बार अकेले रह जाते हैं। इससे संबंधित एक अन्य पहलू यह भी है कि कई बार बच्चे अपने बुजुर्ग माता-पिता को अपने साथ शहर में ले आते हैं ताकि वे साथ रह सकें और उनकी अच्छी देखभाल हो सके। एक नज़रिये से यह बात ठीक मालूम होती है लेकिन ग्रामीण परिवेश में जीवन व्यतीत करने वाले ये लोग स्वयं को शहरी परिवेश के अनुकूल बनाने में अक्षम होते हैं और धीरे-धीरे मानसिक असहजता के शिकार बन जाते हैं। वे शहर में आ तो जाते हैं लेकिन यहाँ उनके साथ कोई बोलने या बात करने वाला नहीं होता है। इस तरह जीवन में अचानक एकाकीपन आना भी एक बड़ी समस्या है।

यदि सरकार के दृष्टिकोण से बात करें तो सरकारें बुजुर्गों को केंद्र में रखकर कोई बड़ी नीति बनाती हों ऐसा प्रायः देखने को नहीं मिलता है। सरकारी योजनाओं के केंद्र में फ़िलहाल युवा और महिलाएँ तो हैं लेकिन बुजुर्गों को अभी भी इस मामले में हाशिये पर ही रखा गया है। जब तक इन्हें योजनाओं के केंद्र में नहीं लाया जाएगा, उनके अनुसार योजनाएँ नहीं बनाई जाएँगी तब तक उनकी समस्याएँ समाप्त नहीं होंगी। बुजुर्गों को आर्थिक रूप से सबल बनाने के लिये सरकारों की ओर से दी जाने वाली वृद्धावस्था पेंशन सहायता राशि ऊँट के मुँह में जीरे के समान ही है। अपना पूरा जीवन सरकार को समर्पित करने वाले लोग जब सेवानिवृत्त होते हैं तो उनके पास अब आर्थिक सम्बल के रूप में पेंशन की कोई गारंटी भी नहीं रहती। ऐसे में वृद्धावस्था में अचानक उन लोगों पर आर्थिक निर्भरता की मज़बूरी सामने आ जाती है।

शारीरिक रूप से निर्बल बुजुर्ग कई बार अकेले रहने की वज़ह से चोरी-डकैती के दौरान हमलों के शिकार भी बन जाते हैं। एक सभ्य समाज के रूप में हम उन्हें सुरक्षा मुहैया करा पाने में अक्षम रहे हैं। आए दिन बड़े शहरों में ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं।

वृद्धजनों तथा वर्तमान पीढ़ी के बीच वैचारिक अंतराल भी एक समस्या के रूप में सामने आया है। दोनों का ही सोचने का अपना अलग नज़रिया है। ऐसे में कई बार ये लोग पारिवारिक रूप से उपेक्षित भी महसूस करते हैं। ऐसे संवेदनशील विषयों पर गंभीरता से विचार कर समाधान निकालने की कोशिश करनी होगी।

देश में वृद्धाश्रम लगातार बढ़ते जा रहे हैं। पहले वृद्धाश्रमों को हमारे समाज में बड़े ही नकारात्मक रूप में देखा जाता था और लोग यह मानते थे कि इनके खुलने से पुत्र-पुत्रियाँ अपनी ज़िम्मेदारियों से और ज़्यादा भागेंगे परंतु तब के समय में वृद्धों के साथ ऐसी संवेदनहीनता की स्थिति नहीं थी। शहरी मध्यवर्ग की लालसाओं का विकराल रूप भूमंडलीकरण के बाद अधिक मुखर हुआ है। जब समस्याएँ बढ़ीं तो धीरे-धीरे वृद्धाश्रमों की स्वीकार्यता भी बढ़ी। लेकिन देश में बेसहारा वृद्धों के लिये वर्ष 2018 तक 718 में से 488 जनपदों में एक भी वृद्धाश्रम नहीं था। देश में कुल वृद्धाश्रमों की संख्या 400 से कुछ अधिक रही लेकिन केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय अब हर जनपद में एक वृद्धाश्रम खोलने पर काम कर रही है।

वृद्धों का समाज हमारे समाज के लिये पारंपरिक ज्ञान का विशाल भंडार होता है। हमें उस पारंपरिक ज्ञान को वर्तमान संदर्भों के साथ उपयोग करना सीखना चाहिये। इससे उनकी उपयोगिता लगातार बनी रहेगी और वे उपेक्षित महसूस नहीं करेंगे। जिस क्षेत्र में उनकी विशेषता है उन क्षेत्रों में उनसे मदद ली जानी चाहिये। सरकार को इस स्तर पर एक योजना तैयार करनी चाहिये जहाँ वे ग्राम स्तर से शहरी मुहल्लों तक यानी सबसे छोटी इकाई तक एक योजना बनाकर सभी क्षेत्रों में अपनी विशेज्ञता से समाज के लिये कुछ कर सकें। पुरानी व नई पीढ़ी के मध्य नैतिक मूल्यों का संतुलन साध कर बुजुर्गों को सम्मानजनक जीवन दिया जा सकता है। जिस उम्र में उन्हें संवेदना की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, उस उम्र में उन्हें कोई सुनने वाला तक नहीं होता, यह बड़ा संकट है। जीवन के अंतिम क्षणों में एक वृद्ध को जिस लगाव, स्नेह और अपनेपन की आवश्यकता होती है, उसे यह सब उसका अपना परिवार ही दे सकता है। वृद्धाश्रम में वे रह तो लेंगे लेकिन वह मानसिक सुख वहाँ नहीं मिलेगा। इसलिये सरकार को इस ओर कदम बढ़ाना चाहिये ताकि परिवारों में अपने घर के बुजुर्गों के प्रति नैतिक दायित्व का विकास हो सके।

अनुराग सिंह

अनुराग सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय में सहायक आचार्य के रूप में कार्यरत हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक व साहित्यिक मुद्दों पर इनके लेख दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला आदि हिंदी के प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।

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