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कैसे किया 1929 की आर्थिक महामंदी ने भारत को प्रभावित?

हम सभी ने साल 1929 में आई विश्वव्यापी आर्थिक महामंदी (द ग्रेट डिप्रेशन) के बारे में ज़रूर सुना होगा। इस दौरान दुनिया के अधिकतर हिस्सों में उत्पादन, आय, व्यापार और रोज़गार में भारी कमी आ गई थी, जिससे भारी संख्या में लोग भुखमरी और गरीबी का शिकार हो गये थे। इतना ही नहीं, उद्योग बंद होने से बड़े-बड़े उद्योगपति भी क़र्ज़ में डूब गए थे। आज भी जब देश की अर्थव्यवस्था चरमराने लगती है तो लोग महामंदी के उन काले दिनों को याद कर दहशत में आ जाते हैं। क्या आप भी इतिहास के पन्नों में दर्ज आर्थिक महामंदी जैसी महत्त्वपूर्ण घटना के बारे में जानते हैं? अगर नहीं, तो चलिये हम आपको बताते हैं कि विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने भारत और विश्व को किस तरह से प्रभावित किया था।

आर्थिक मंदी का अर्थ

महामंदी के कारणों और उसके प्रभावों पर चर्चा करने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि, आर्थिक मंदी का अर्थ क्या होता है? दरअसल, आर्थिक मंदी अर्थव्यवस्था का एक कुचक्र है जिसमें फंसकर आर्थिक वृद्धि रुक जाती है और देश के विकास कार्यों में बाधा आ जाती है। इस दौरान बाज़ार में वस्तुओं की भरमार होती है लेकिन खरीदने वाला कोई नहीं होता है। उत्पादों की आपूर्ति अधिक व मांग कम होने से अर्थव्यवस्था असंतुलित हो जाती है।

साल 1929 की वैश्विक महामंदी के कारण:

इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

अति उत्पादन की समस्या- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका और जापान में बड़े-बड़े कल कारखाने खोले गये थे। इन कारखानों में बड़ी मात्रा में उत्पादन होता था। इनमें युद्ध के दौरान जितनी वस्तुओं का निर्माण किया जाता था, उतनी ही वस्तुओं का निर्माण युद्ध के बाद भी जारी था। जिसका परिणाम यह हुआ कि, बाजा़र में वस्तुएं भरी पड़ी थीं लेकिन उन्हें खरीदने वाला कोई नहीं था।

यह समस्या कृषि के क्षेत्र में सबसे ज़्यादा थी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कृषि उपज के अति उत्पादन से अनाज की कीमतें बेहद निचले स्तर पर पहुंच गईं थी और किसानों की आय घट गई थी। अपनी आय के स्तर को बनाये रखने के लिये किसानों ने और अधिक उत्पादन करना शुरू कर दिया था। जिसके चलते ऐसी स्थिति आ गई थी कि बाज़ार में कृषि उपजों की आमद और बढ़ गई और कीमतें और भी कम हो गईं; लेकिन खरीदारों के न आने से अनाज पड़ा-पड़ा सड़ने लगा था।

अमेरिकी शेयर बाज़ार में गिरावट- 23 अक्टूबर 1929 को न्यूयार्क-स्टॉक एक्सचेंज में शेयरों का मूल्य अचानक से 50 अरब डॉलर गिर गया था। अमेरिकी सरकार और पूँजीपतियों के प्रयास से स्थिति कुछ ठीक हुई लेकिन अगले महीने यानी नवंबर में फिर से शेयरों की कीमत बहुत घट गई थी। शेयर बाज़ार के इस तरह से धड़ाम होने पर बड़े-बड़े निवेशकों का दिवाला निकल गया था। इसके बाद अमेरिका में जो फैसले लिये गए उनका प्रभाव अन्य देशों पर भी बहुत गहरा पड़ा था।

क़र्ज़ की समस्या- महामंदी का दूसरा कारण युद्धकालीन क़र्ज़ था। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तत्कालीन यूरोपीय राष्ट्रों ने अमेरिका से बहुत बड़ी राशि क़र्ज़ के रूप में ली थी। यहाँ तक कि, ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली देश भी अमेरिकी क़र्ज़ के बोझ तले दबे हुये थे। शुरुआत में अमेरिका युद्ध में शामिल नहीं हुआ था लेकिन वह अपने मित्रराष्ट्रों को लगातार क़र्ज़ दे रहा था। पर जब अमेरिकी उद्यमियों को संकट के संकेत मिले तो उनके होश उड़ गए और अमेरिका ने साल 1929 की शरद ऋतु में यह घोषणा कर दी कि अब वह किसी भी देश को क़र्ज़ नहीं देगा। इस घोषणा का मुख्य कारण स्वयं अमेरिका में मूल्यपात (Slump) था।

यह भी जानना ज़रूरी है कि, वर्ष 1928 के पहले छह माह तक विदेशों में अमेरिका का क़र्जा़ एक अरब डॉलर था, जो कि साल भर के भीतर घटकर केवल चौथाई रह गया था। जो देश अमेरिकी क़र्जे़ पर अधिक निर्भर थे उन पर गहरा संकट मंडराने लगा था। साथ ही, पूरी दुनिया की क्रयशक्ति घट गई थी।

इतना ही नहीं, अमेरिका की इस घोषणा से यूरोप के बड़े-बड़े बैंक धराशायी हो गये थे; ब्रिटेन समेत कई देशों की मुद्राओं की कीमतें बुरी तरह से गिर गईं थी; लैटिन अमेरिका एवं अन्य स्थानों पर कृषि उत्पादों और कच्चे मालों की कीमतों में भी कमी आ गई थी।

उच्च कर- अमेरिकी सरकार ने अपनी अर्थव्यवस्था को इस महामंदी से बचाने के लिये आयातित उत्पादों पर सीमा शुल्क बढ़ाकर दो गुना कर दिया था। इस फैसले ने वैश्विक व्यापार को बुरी तरह प्रभावित किया था।

धन का असमान वितरण- उस दौरान अमेरिका में 3-4% लोगों के पास करीब 50 फीसदी धन था और वही अमीर लोग अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रहे थे। धन का समान वितरण न होने से अधिकांश लोग गरीब थे।

महामंदी का विश्व पर प्रभाव

दुनिया के अधिकांश देश इस महामंदी की चपेट में आ गये थे। बात करें औद्योगिक देशों की, तो अमेरिका को इस आर्थिक महामंदी की सबसे ज़्यादा मार झेलनी पड़ी थी। अमेरिका की अर्थव्यवस्था जितनी तेजी से समृद्ध हो रही थी, उतनी ही तेजी से लुढ़क भी गई थी।

मंदी के चलते अमेरिकी बैंकों ने घरेलू क़र्जे़ देना बंद कर दिया था और जो क़र्जे़ पहले दिये जा चुके थे,उनकी वसूली शुरू कर दी थी। लेकिन कीमतों में कमी के कारण किसान से लेकर उद्योगपति तक, सभी आर्थिक संकट का सामना कर रहे थे और कई परिवार क़र्जे़ चुकाने में असमर्थ थे। ऐसे में उन परिवारों के मकानों और कारों समेत सभी ज़रूरी चीजें कुर्क कर ली गईं थी।

हज़ारों बैंक क़र्जे़ वसूल न कर पाने, ग्राहकों की जमा पूंजी न लौटा पाने और निवेश की गई धनराशि में लाभ न मिलने पर दिवालिया हो गये थे और उन्हें बंद कर दिया गया था। इस प्रकार अमेरिकी बैंकिंग प्रणाली भी ध्वस्त हो गई थी। आंकड़ों की बात करें तो, साल 1933 तक 4000 से ज़्यादा बैंक बंद हो चुके थे और साल 1929 से 1932 के बीच करीब 1,10,000 कंपनियाँ नष्ट हो गईं थी। इतनी बड़ी संख्या में बैंक और कंपनियाँ बंद होने से तेजी से बेरोज़गारी बढ़ी और लोग काम की तलाश में दूर-दूर तक जाने लगे।

महामंदी का भारत पर प्रभाव

विश्वव्यापी महामंदी के संकट से भारत भी अछूता नहीं रहा। महामंदी का प्रभाव निम्नलिखित पर अधिक रहा-

कृषि क्षेत्र में- भारत की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी इसलिये यहाँ पर कृषि उपजों का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता था। महामंदी से पहले भारत ने कृषि उत्पादों का निर्यात करना और तैयार मालों का आयात करना शुरू कर दिया था। इस संदर्भ में यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि उस समय भारत, ब्रिटेन का उपनिवेश था। महामंदी के दौरान जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में उत्पादों के दाम घटने लगे तो यहाँ की फसलों के दाम भी बहुत कम हो गये थे। परिणाम यह हुआ कि, साल 1928 से 1934 के बीच भारत में गेहूँ की कीमत 50 फीसदी तक कम हो गई थी और आयात-निर्यात घटकर करीब आधा रह गया था।

किसानों और काश्तकारों की स्थिति अधिक खराब- इस दौरान किसानों और काश्तकारों पर दोहरी मार पड़ी थी। अनाज की कीमतों के निचले स्तर पर चले जाने से उनकी आय तो कम हुई, साथ ही सरकार की तरफ से लगान वसूली में भी कोई छूट नहीं दी गई थी। सबसे ज़्यादा खराब स्थिति तो उन काश्तकारों की थी जो वैश्विक बाज़ार के लिये उपज का उत्पादन करते थे।

इतना ही नहीं, जब भारत से निर्यात घट गया तो पटसन (जूट) की कीमतों में 60 फीसदी से अधिक की गिरावट आ गई थी। जिससे बंगाल के वे काश्तकार जिन्होंने अच्छी आमदनी की उम्मीद में कच्चे पटसन का उत्पादन कार्य शुरू किया था, वे क़र्ज़ के बोझ से दब गये थे। आय का साधन न होने के कारण धीरे-धीरे उनकी सारी बचत भी खत्म हो गई थी।

सोने का निर्यात- महामंदी के दौरान किसान और काश्तकारों सहित अनिश्चित आय वाले सभी लोगों के सामने खाने के लाले पड़ गये थे। उनके पास दो जून की रोटी के लिये भी पैसा नहीं था। ऐसे में उन्होंने अपने खर्चे चलाने के लिये घर के गहने-ज़ेवर बाज़ार में बेचना शुरू कर दिया था। बाज़ार में भारी मात्रा में सोना पहुंचने लगा;और ब्रिटेन ने लोगों की इस मज़बूरी का भरपूर फायदा उठाया था। अब भारत से सोने जैसी कीमती धातुओं का निर्यात शुरू कर दिया गया था, जिससे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था तो सुधरी लेकिन भारतीय किसानों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ था। साल 1931 में मंदी अपने चरम पर थी और भारत में लोगों के बीच भारी असंतोष और उथल-पुथल मची हुई थी।

शहरी भारत पर नहीं पड़ा था ज़्यादा प्रभाव- शहर में रहने वाले वेतनभोगी कर्मचारियों और वे ज़मींदार जिनकी आय निश्चित थी, उन पर आर्थिक महामंदी का ज़्यादा असर नहीं देखा गया था। आय का निश्चित साधन होने के कारण उन्हें अन्य लोगों की तरह भयानक संकट का सामना नहीं करना पड़ा था।

तो हमने जाना कि महामंदी के दौरान दुनिया के अधिकतर भागों में व्यापार,आय और उत्पादन के क्षेत्र में भयानक गिरावट आ गई थी। कृषि क्षेत्रों पर इस मंदी का सबसे ज़्यादा असर पड़ा था क्योंकि औद्योगिक उत्पादों की तुलना में कृषि उत्पादों की कीमतें लंबे समय तक निचले स्तर पर बनी थीं। हालांकि साल 1935 तक अधिकतर औद्योगिक देशों में इस महामंदी से उबरने के संकेत दिखाई पड़ने लगे थे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स का मानना था कि भारत से सोने के निर्यात ने भी वैश्विक अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने में बहुत मदद की थी। भले ही सभी देशों की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर आ गई थी लेकिन लोगों के दिमाग पर जो बुरा असर पड़ा, वह ज़ल्दी खत्म होने वाला नहीं था।

स्रोत

1- कक्षा-10 के लिये NCERT की इतिहास की पाठ्यपुस्तक

2- डॉक्टर दीनानाथ वर्मा द्वारा लिखित किताब ‘आधुनिक यूरोप का इतिहास’

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