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'description' => '<p style="text-align: justify;">कोंकण तट पर स्थित गोवा एक प्राकृतिक बंदरगाह होने के साथ ही भारत के सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटन स्थलों में से एक है। यहाँ पर दर्शनीय समुद्र तट जैसे वेगाटर समुद्र तट, अंजना समुद्र तट के साथ समुद्र तटों की रानी कहा जाने वाला कैलंगयुत समुद्र तट स्थित है। अपनी प्राकृतिक खूबसूरती से इतर गोवा एक और चीज के लिए भी जाना जाता है; यहाँ पर ढेरों कसीनो है। रणनीतिक भौगोलिक अवस्थिति के साथ ही गोवा का एक रोचक अतीत भी है। गोवा का इतिहास तीसरी सदी ईसा पूर्व से शुरू होता है। यहाँ पर मौर्य वंश द्वारा शासन की स्थापना के पश्चात सातवाहन शासकों द्वारा राजकाज चलाया गया। इसके बाद 580 ईसवी से 750 ईसवी तक बादामी शासकों ने शासन संभाला। 1312 ईसवी में गोवा दिल्ली सल्तनत के अधीन आ गया। इसके कुछ समय बाद गोवा पर लगभग 100 वर्षों के लिए विजयनगर राज्य का शासन रहा। विजयनगर के पश्चात यहाँ पर बीजापुर के शासक आदिलशाह ने शासन कार्य शुरू किया।</p>
<p style="text-align: justify;">आदिलशाह ने गोवा वेल्हा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। इसी कालखंड में भारत मे पुर्तगालियों का आगमन हुआ। साम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया में पुर्तगालियो ने गोवा को भी अपने अधिकार क्षेत्र में शामिल किया। पुर्तगाली गवर्नर अल्फांसो डी अल्बुकर्क ने वर्ष 1510 में गोवा पर आक्रमण किया। बिना किसी संघर्ष के ही गोवा पर पुर्तगालियों ने कब्जा कर लिया। गोवा पर पुर्तगालियो का ये कब्जा लगभग 450 वर्षों तक रहा।</p>
<p style="text-align: justify;">शेष भारत पर जरूर ब्रिटिश आधिपत्य था लेकिन गोवा पर पुर्तगालियों का ही राज कायम रहा। गोवा पर पुर्तगाली साम्राज्य के कायम होने के लगभग 270 वर्षों बाद इस शासन से आजाद होने की कोशिशें की गईं। गोवा के एक गाँव कैंडोलिम में एक पादरी परिवार ने पुर्तग़ालियों द्वारा चर्च के उच्च पदों पर स्थानीय लोगों पर यूरोपीयों-पुर्तगालियों को तरजीह दिए जाने के विरुद्ध आवाज उठाई। पुर्तगाली प्रशासन जब न माना तो उन्होंने मैसूर के राजा टीपू सुल्तान के साथ मिलकर एक योजना बनाई।</p>
<p style="text-align: justify;">इस योजना के तहत पुर्तगाली सेना के खाने में जहर मिलाकर उन्हें मारना था और ठीक इसी समय टीपू सुल्तान हमला कर देता और गोवा पुर्तगालियों के राज्य से मुक्त हो जाता। खाने में जहर मिलाने का काम एक स्थानीय बेकरी वाले को दिया गया। लेकिन बेकरी वाले ने इस खबर को पुर्तगाली प्रशासन को बता दिया। इसके बाद पुर्तगाली प्रशासन ने अपने विरुद्ध उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए इस योजना के 15 षड्यंत्रकारियों को फाँसी पर चढ़ा दिया।</p>
<p style="text-align: justify;">वर्ष 1910 में पुर्तगाल में राजशाही का खात्मा हुआ। अब गोवावासियों में आजादी की एक नई उम्मीद जगी। इसी दरम्यान पुर्तगाल के पहले अखबार ओ हेराल्डो द्वारा वहाँ के शासन का जबरदस्त विरोध किया गया। इसके उपरांत वहाँ के स्थानीय प्रशासन ने वर्ष 1917 में जबरदस्त सख्तियाँ आरोपित कर दी। वर्ष 1930 में इन सख्तियों का दायरा बढ़ाते हुए पुर्तगाली उपनिवेशों में राष्ट्रीय सम्मेलनों और रैलियों पर पाबंदी लगा दी।</p>
<p style="text-align: justify;">1930 के दशक में ही गोवा में राजनीतिक गतिविधियों ने जोर पकड़ा। 1938 में गोवा कांग्रेस की स्थापना की गई। इसके अगले दशक में राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गोवा में आजादी के लिए सत्याग्रह शुरू हुआ। वर्ष 1946 में अनेक सत्याग्रही जेल भी गए। इसी कालखंड में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होता है और बदली हुई परिस्थितियों में पुर्तगाल के प्रधानमंत्री एंटोनियो डी ओलिवेरा सालाजार वहाँ पर अधिनायकवादी सत्ता की स्थापना करते है।</p>
<p style="text-align: justify;">द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पुर्तगाल नाटो का सदस्य बनता है। सालाजार गोवा को भी पुर्तगाल का हिस्सा बताते है; इससे वो गोवा की सुरक्षा के लिए नाटो की सुरक्षा छतरी का इंतज़ाम भी कर लेते है। भारत लगातार पुर्तगाली प्रशासन से गोवा की स्वतंत्रता की बातचीत की कोशिशें करता लेकिन पुर्तगाली प्रशासन कभी भी इस बाबत वार्ता की मेज पर आने को तैयार नहीं होता। इसी दरम्यान गोवा में आजाद गोमांतक दल और गोवा लिबरेशन आर्मी द्वारा सशस्त्र क्रांति की भी कोशिशें की जाती है। वर्ष 1954 में फ्रांसीसी कॉलोनी पुडुचेरी का शांतिपूर्वक विलय कर लिया जाता है। गोवा में भी आजादी की लड़ाई तेज हो जाती है। दक्षिणपंथी और वामपंथी; दोनों ही गुटों द्वारा गोवा की आजादी के लिए कोशिशें की जाती है। जनसंघ के नेता जगन्नाथ राव अपने 3000 लोगों के साथ गोवा में घुसने की कोशिश करते है। इन्हें रोकने के लिए पुर्तगाली प्रशासन द्वारा लाठीचार्ज कर दिया जाता है जिससे अनेक कार्यकर्ता घायल हो जाते है।</p>
<p style="text-align: justify;">पुर्तगाल अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में इस मसले को जोरशोर से उठाता है और इस मसले को अपनी आंतरिक संप्रभुता से खिलवाड़ बताता है। इस पर प्रधानमंत्री नेहरू कहते है कि सत्याग्रहियों के पीछे सेना नहीं लगाई जा सकती है। इस संबंध में नेहरू जी के जीवनीकार एस गोपाल द्वारा अपनी पुस्तक 'जवाहर लाल नेहरू- जीवनी' में नेहरू के हवाले से ये लिखा गया है-</p>
<p style="text-align: justify;">"सैन्य कार्रवाई कब और कैसे होगी? ये मैं नहीं कह सकता। लेकिन मुझे बिल्कुल शक नहीं होगा कि ऐसा हो जाए।"</p>
<p style="text-align: justify;">नेहरू जी की यह टिप्पणी इस ओर भी इशारा करती है कि यदि गोवा मुद्दे का समाधान बातचीत से न निकाला जा सका तो भारत सैन्य कार्रवाई के प्रयोग से भी पीछे नहीं हटेगा। इसी कालखंड में अमेरिका द्वारा भी गोवा पर पुर्तगाली दावे के समर्थन किया गया। अमेरिका के राज्य सचिव फॉस्टर डैलास ने गोवा को पुर्तगाल का हिस्सा बताया। इस पर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा टिप्पणी की गयी-</p>
<p style="text-align: justify;">"अमेरिका जितनी मदद देना चाहता है उससे ज्यादा नुकसान उसके इस बयान ने कर दिया।"</p>
<p style="text-align: justify;">वर्ष 1961 में वो घड़ी आ जाती है जब भारत इस मसले का हल सैन्य कार्रवाई के माध्यम से किये जाने को सुनिश्चित करता है। 17 दिसंबर 1961 को भारतीय सेना गोवा में प्रवेश करती है और महज 36 घण्टों में ही गोवा आजाद हो जाता है। 19 दिसम्बर को भारतीय मानचित्र पर गोवा, दमन और दीव नामक एक केंद्र प्रशासित क्षेत्र आकार लेता है। इसके बाद 30 मई 1987 को गोवा को एक राज्य के तौर पर मान्यता दी जाती है।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1674822510_Sankarshan-Shukla.png" style="display: block; margin-left: auto; margin-right: auto;" caption="false" width="257" /></td>
<td style="width: 80%;">
<h3><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> संकर्षण शुक्ला </strong></span></h3>
<p>संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।</p>
</td>
</tr>
<tr>
<td style="width: 20%; background-color: #fff7f7;" colspan="2">
<h3><strong><span style="font-size: 18px; color: #003366;"> स्रोत </span></strong></h3>
<p style="text-align: justify;">(1) <a href="https://www.tv9hindi.com/state/know-interesting-facts-about-goa-liberation-day-and-tourism-places-1048837.html/amp" target="_blank" rel="noopener">https://www.tv9hindi.com/state/know-interesting-facts-about-goa-liberation-day-and-tourism-places-1048837.html/amp</a></p>
<p style="text-align: justify;">(2) <a href="https://youtu.be/hwzW5rgQVag" target="_blank" rel="noopener">https://youtu.be/hwzW5rgQVag</a></p>
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<p style="text-align: center;">प्रस्तुत प्रसंग का वर्णन वीरेंद्र सिन्धु ने अपनी पुस्तक “शहीद भगत सिंह” में किया है।</p>
<p style="text-align: justify;">हमारे बीच में से अधिकांश लोग भगत सिंह को मात्र एक क्रांतिकारी की तरह ही मानते हैं परन्तु भगत सिंह मात्र एक क्रांतिकारी ही नहीं थे। भगत सिंह एक विचार है। एक दर्शन, जिसने क्रांतिकारी गतिविधियों को एक दार्शनिक आयाम दिया। भगतसिंह की जेल नोटबुक मिलने के बाद भगतसिंह के चिन्तनशील व्यक्तित्व की व्यापकता और गहराई पर और अधिक प्रकाश पड़ा है। यह सच्चाई भी पुष्ट हुई है कि भगतसिंह ने अपने अन्तिम दिनों में सुव्यवस्थित एवं गहन अध्ययन के बाद बुद्धिसंगत ढंग से मार्क्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाया था। हालांकि यह आश्चर्यजनक है कि किस प्रकार उन्होंने ब्रिटिश सेंसरशिप के बावजूद पठन हेतु पुस्तकें और सामग्री एकत्रित की और महज 23 वर्ष की छोटी सी उम्र में चिन्तन का जो स्तर उन्होंने हासिल कर लिया था, वह उनके युगद्रष्टा युगपुरुष होने का ही प्रमाण था। यह सोचना गलत नहीं है कि भगत को 23 वर्ष की अल्पायु में यदि फाँसी नहीं हुई होती तो राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का इतिहास और भारतीय सर्वहारा क्रान्ति का इतिहास शायद कुछ और ही ढंग से लिखा जाता। बहरहाल यह उतना ही दुखद है कि आज भी इस देश के शिक्षित लोगों का एक बड़ा हिस्सा भगत को एक ओर महान तो मानता है, पर यह नहीं जानता कि 23 वर्ष का वह युवा एक महान चिन्तक भी था।</p>
<p style="text-align: justify;">किसी भी महान व्यक्ति का अध्ययन तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। यदि भगत सिंह का झुकाव मार्क्सवाद की तरफ हुआ तो उसके पीछे भी कई कारण विद्यमान थे। दरअसल 1917 की रूस की क्रांति के बाद मार्क्सवाद और समाजवाद पूरी दुनिया में बूम कर गया था। सर्वहारा वर्ग द्वारा निरंकुश शासन पर विजय को हर जगह सराहना मिली और इसे सर्वहारा (शोषित) वर्ग के पक्ष में क्रांति कहा गया। दूसरी बात , 1920 के दशक में पूरे विश्व में समाजवाद की लहर दौड़ रही थी। यही वजह थी कि राष्ट्रीय आंदोलन के कई पुरोधा भी उस लहर से अछूते न रहे। सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरू भी समाजवाद के काफी प्रभावित थे। इसके अलावा, 1929-1930 के समय वैश्विक महामंदी के कारण पूंजीवाद की सर्वश्रेष्ठता का भ्रम टूटा और उसकी खामियां उभरकर सामने आई। इसी दौर में, दुनिया को समाजवाद पूंजीवाद के एक श्रेष्ठ विकल्प के रूप में दिखाई देने लगा। यहां तक कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी समाजवाद की लहर से अछूती ना रही।</p>
<p style="text-align: justify;">यही वो परिस्थितियां थी जिनके आलोक में भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी भी मार्क्सवाद और समाजवाद की तरफ आकर्षित हुए।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>आख़िर क्या था भगत सिंह का मार्क्सवादी समाजवाद?</strong></p>
<p style="text-align: justify;">अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भगत सिंह का मन वैयक्तिक हत्या तथा हिंसक गतिविधियों से विरक्त हो गया था। उनका प्रसिद्ध वक्तव्य था: “पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।” इस प्रकार वे मार्क्सवाद की तरफ प्रभावित हुए। उन्होंने कार्ल मार्क्स, व्लादिमीर लेनिन तथा लियोन त्रोत्सकी को पढ़ा। लेकिन वे मार्क्स से कहीं ज्यादा लेनिन के मार्क्सवाद से प्रभावित थे। अपने लेख “टू यंग पॉलिटिकल वर्कर्स” में उन्होंने अपने आदर्श को “नए अर्थात मार्क्सवादी आधार पर सामाजिक पुनर्निर्माण” के रूप में घोषित किया। भगत सिंह का मार्क्सवाद तथा समाज के सम्बन्ध में मार्क्स की वर्गीय अवधारणा में पूर्ण विश्वास था। वे कहते थे ‘किसानों और गरीबों को सिर्फ विदेशी शोषणकर्ताओं से ही मुक्त नहीं होना है अपितु उन्हें पूंजीपतियों और जमीदारों के चंगुल से भी मुक्त होना है।’ उन्होंने समाजवाद की धारणा को वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया, जिसका अर्थ था पूंजीवाद और वर्ग प्रभुत्व का पूरी तरह अंत। भगत सिंह पूंजीवाद की अवधारणा को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने पूंजीवाद की आलोचना सामाजिक और राजकीय दोनो परिप्रेक्ष्य में की। अपनी जेल डायरी में वे लिखते हैं,</p>
<p style="text-align: justify;"><em>“लोकतन्त्र सिद्धान्ततः राजनीतिक और कानूनी समानता की व्यवस्था है, किन्तु ठोस और व्यावहारिक रूप में यह झूठ है, क्योंकि जब तक आर्थिक सत्ता में भारी असमानता है, तब तक कोई समानता नहीं हो सकती, न राजनीति में और न कानून के सामने।…पूँजीवादी शासन में लोकतन्त्र की सारी मशीनरी शासक अल्पमत को श्रमिक बहुमत की यातनाओं के जरिये सत्ता में बनाये रखने के लिए काम करती है।”</em></p>
<p style="text-align: justify;">जेल में वह सारी मानवजाति के हित में अर्थव्यवस्था और प्राकृतिक संपदा पर वितरण हेतु विश्व समाजवादी क्रांति के विचार में लीन रहे। जेल डायरी के पृष्ठ 190 पर उन्होंने लिखा “समाजवादी व्यवस्था: प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार।” इस प्रकार भगत सिंह के विचारों में समाजवाद की ओर झुकाव काफी पहले से दिखाई देने लगा था। किंतु बाद में वे वैयक्तिगत हिंसा, हत्या और क्रान्तिकारी गतिविधियों से अरुचि से भरने लगे थे। उसके पश्चात वे मार्क्सवाद की और तेजी से झुकते हुए प्रतीत हुए। यही कारण था कि 1928 में उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम परिवर्तित कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) कर दिया। और क्रान्ति की पुनर्व्याख्या करते हुए एवं स्वतंत्र राष्ट्र के निमार्ण हेतु एक ठोस कार्ययोजना प्रस्तुत की। यही विचार उनके भारत नौजवान सभा के गठन के समय युवाओं को सशक्त करने में दिखाई देता है। यदि वह अधिक समय तक जीवित रहते तो उनमें वह प्रतिभा थी कि वह राष्ट्र के भविष्य को भी निर्धारित कर सकते थे।</p>
<p style="text-align: justify;">राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, तत्कालीन समाज विभिन्न समस्याओं से भी उलझ रहा था। भगत सिंह मार्क्सवाद में विश्वास रखने के साथ साथ सामाजिक समस्याओं पर चिंतन भी किया करते थे। जेल में उन्होंने चार पुस्तकें लिखीं थी, दुर्भाग्य से जिनकी पांडुलिपियां आज उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त ‘किरती’ और ‘वीर अर्जुन’ समेत कई पत्रिकाओं में उन्होंने लेख लिखे। इसी परिदृश्य में उन्होंने कुछ लेख लिखे। जोकि इस प्रकार हैं,</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>“अछूतो की समस्या” का हल</strong></p>
<p style="text-align: justify;">1920 के दशक में जब राष्ट्रीय आंदोलन अपने प्रवाह में चल रहा था और जन आंदोलन में तब्दील हो रहा था। अंबेडकर भी राजनीति में सक्रिय भूमिका में आ गए थे। और अछूत समस्या की गुत्थी सुलझाने के प्रयत्न प्रारंभ हो गए थे। इसी बीच भगत सिंह ने “किरती” नामक पंजाबी पत्रिका में ‘अछूत का सवाल’ लेख लिखा जोकि जून 1928 में प्रकाशित हुआ। इस लेख में श्रमिक वर्ग की शक्ति व सीमाओं का अनुमान लगाकर उसकी प्रगति के लिए ठोस सुझाव दिये गये थे। सिंध के श्री नूर मोहम्मद का संदर्भ देते हुए वो कहते हैं कि जब तुम एक इंसान को पीने के लिए पानी देने से इंकार करते हो, स्कूल में पढ़ने का अधिकार नहीं देते, भगवान के मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं देते और एक इंसान के समान अधिकार देने से इन्कार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए? वे कहते हैं कि एक कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है परंतु एक इंसान के स्पर्श मात्र से बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है। आखिर यह कैसी विडंबना है? इस समस्या ने निदान में वह कहते हैं कि सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इन्सान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य-विभाजन से। वे अछूत कौम को स्पष्ट रुप से संगठित होने का आह्वान करते हैं। भगत सिंह अछूतो और श्रमिको को असली सर्वहारा के रूप में घोषित करते हुए कहते हैं दूसरो की ओर मुंह न ताको, संगठित हो जाओ। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा करदो और राजनीतिक, आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>“सांप्रदायिक समस्या” का हल</strong></p>
<p style="text-align: justify;">असहयोग और खिलाफत आंदोलन की समाप्ति के बाद मुस्लिम लीग और कांग्रेस के रास्ते अलग अलग हो गए। और इसी दशक में देश में सांप्रदायिक दंगे भड़कने लगे। 1926 में कलकत्ता में एक भयानक दंगा हुआ। संयुक्त प्रांत में 1923 और 1927 के बीच लगभग 88 दंगे हुए, जिनके कारण हिंदू-मुस्लिम संबंध लगभग पूरी तरह भंग हो गए। इसी समस्या पर विचार हेतु भगत सिंह ने किरती पत्रिका में “सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज़” लेख लिखा। इस लेख में वे सांप्रदायिकता के आलोक में भारत के भविष्य पर प्रश्न उठते हैं। पहली बात, वे दंगों का इलाज भारत की आर्थिक दशा में सुधार को बताते हैं कि भारत के लोगो की आर्थिक हालत इतनी खराब है कि उन्हें एक दूसरे के खिलाफ भड़काना काफी आसान है। क्योंकि भूखा व्यक्ति अपने सिद्धांत ताक पर रख देता है। दूसरी बात, वे लोगो को परस्पर जोड़ने के लिए वर्ग-चेतना की समझ को आवश्यक बताते हैं। वर्ग चेतना की समझ से युक्त व्यक्ति धार्मिक दंगों में नही उलझता। तीसरी बात, वे धर्म को राजनीति से अलग करने पर बल देते हैं कि धर्म एक व्यक्तिगत मामला है, उसे राजनीति में शामिल नहीं करना चाहिए। भगत सिंह कहते हैं कि यदि सांप्रदायिकता को खत्म करना है तो हमें किसी भी व्यक्ति को ‘इन्सान’ के रूप में देखना होगा नाकी किसी ‘धर्म विशेष के व्यक्ति के रूप में’।</p>
<p style="text-align: justify;">सारतः भगत सिंह के संपूर्ण व्यक्तित्व को देखा जाए तो उन्हें मात्र क्रान्तिकारी संबोधित करना न्यायसंगत न होगा। अपितु वह एक सशक्त क्रांतिकारी होने के साथ साथ एक विचारक,चिंतक और बुद्धिजीवी व्यक्तित्व थे। वे अन्य क्रान्तिकारियों से विशिष्ट थे क्योंकि वे राष्ट्र निर्माण का वैकल्पिक विचार रखते थे। बाद में सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था, “भगत सिंह युवाओं में नई जागृति के प्रतीक बन गए थे।” अन्त में शहीद भगत सिंह की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात को विराम देता हूं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>“दिल से ना निकलेगी, मर कर भी वतन की उल्फत</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ऐ-वतन आएगी।”</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:</strong></p>
<ol>
<li style="text-align: justify;">स्वतंत्रता के लिए भारत का संघर्ष – बिपन चंद्र</li>
<li style="text-align: justify;">प्लासी से विभाजन तक और उसके बाद – शेखर बंदोपाध्याय</li>
<li style="text-align: justify;">रिवॉल्यूशनरी: द अदर स्टोरी ऑफ हाउ इंडिया वोन इट्स फ्रीडम – संजीव सान्याल</li>
<li style="text-align: justify;">मै नास्तिक क्यों हूं? – भगत सिंह</li>
<li style="text-align: justify;">जेल डायरी ऑफ भगत सिंह – भगत सिंह</li>
<li style="text-align: justify;">गांधी और भगत सिंह – वी. एन. दत्ता</li>
<li style="text-align: justify;">ऑनलाइन और अन्य आर्काइव्स स्त्रोत</li>
</ol>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1679571175_Ashu-Saini.jpeg" /></td>
<td style="width: 80%;">
<h3><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> आशू सैनी </strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">आशू सैनी, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले से हैं। इन्होंने स्नातक बी.एस.सी (गणित) विषय से और परास्नातक एम.ए (इतिहास) विषय से किया है। इन्होंने इतिहास विषय से तीन बार यू.जी.सी. नेट की परीक्षा पास की है। वर्तमान में इतिहास विषय में रिसर्च स्कॉलर (पी.एच-डी) हैं। पढ़ना, लिखना, सामजिक मुद्दों पर विचार-विमर्श करना और संगीत सुनना इनकी रुचि के विषय हैं। इनके कई लेख दैनिक जागरण और जनसत्ता में प्रकाशित हो चुके हैं।</p>
</td>
</tr>
</tbody>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">पंचतत्व जीवन के लिए आधार माने गए हैं। उसमें से एक तत्व जल भी है। अगर जल ही नहीं रहेगा तो जीवन की कल्पना कैसी और सृष्टि का निर्माण कैसा? जल का महत्व इस बात का भी परिचायक है कि दुनिया की बड़ी-बड़ी सभ्यताएँ और प्राचीन नगर नदियों के किनारे ही बसे और फले-फूले। लेकिन,आज विकास की अंधी दौड़ और विलासिता भरी जिंदगी में प्राकृतिक संसाधनों का तो जैसे कोई मोल नहीं रह गया है।</p>
<p style="text-align: center;"><strong>"बड़बोले पृथ्वी पर</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>मनुष्य की अन्यतम उपलब्धियों के</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>अंत की घोषणा कर चुके हैं</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>और अंत में बची है पृथ्वी</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>उनकी जठराग्नि से जल-जंगल-ज़मीन</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>खतरे में हैं</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>खतरे में हैं पशु-पक्षी-पहाड़</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>नदियाँ-समुद्र-हवा खतरे में हैं।"</strong></p>
<p style="text-align: justify;">लेखक दिनेश कुरावाहा की उपरोक्त पंक्तियाँ स्पष्टतः बताती हैं कि मनुष्य ने किस तरह प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है और अपने लिए खतरे की स्थिति उत्पन्न कर ली है। आज अधिकांश प्राकृतिक संसाधन समाप्ति की कगार पर हैं जिनमें से जल भी एक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि-</p>
<p style="text-align: center;"><strong>जल है तो जीवन है, जीवन है तो ये पर्यावरण है,</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>पर्यावरण से ये धरती है, और इस धरती से हम सब है।</strong></p>
<p style="text-align: justify;">लेकिन, पर्यावरण के साथ निरंतर खिलवाड़ का यह परिणाम हुआ कि आज दुनिया के अधिकांश देश अपनी आबादी को पीने का स्वच्छ पानी तक मुहैया नहीं करा पा रहे हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। तमाम रिपोर्टे इस बात को चीख-चीखकर कह रही हैं कि यदि आज हम जल-संसाधन का उचित प्रबंधन नहीं कर पाते हैं तो भावी पीढ़ी जल के एक-एक बूंद के लिए तरस जाएगी। एक शोध के मुताबिक आज जिस रफ्तार से जंगल खत्म हो रहे हैं उससे तीन गुना अधिक रफ्तार से जल के स्रोत सूख रहे हैं। नीति आयोग के <strong>'समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (Composite Water Management Index)'</strong> की माने तो भारत के लगभग 600 मिलियन से अधिक लोग गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। रिपोर्ट में इस बात का भी अंदेशा जताया गया है कि साल 2030 तक भारत में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति की तुलना में दोगुनी हो जाएगी। इसके अलावा भारत इस समय पेयजल के साथ-साथ कृषि उपयोग हेतु जल संकट से भी गुजर रहा है और यह संकट वैश्विक स्तर पर साफ दिख रहा है। <strong>'सक्रिय भूमि जल संसाधन मूल्यांकन रिपोर्ट 2022'</strong> के मुताबिक भारत में कुल वार्षिक भू-जल पुनर्भरण 437.60 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM) है, जबकि वार्षिक भू-जल निकासी 239.16 BCM है। इन आँकड़ों से एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि भारत विश्व में भू-जल का सबसे अधिक निष्कर्षण करता है। हालाँकि, भारत में निष्कर्षित भू-जल का केवल 8 फीसद ही पेयजल के रूप में उपयोग किया जाता है। जबकि, इसका 80 फीसद भाग सिंचाई में और शेष 12 प्रतिशत हिस्सा उद्योगों द्वारा उपयोग किया जाता है। ऐसे में देश में भू-जल की मात्रा में भी दिनों-दिन कमी आ रही है।</p>
<p style="text-align: justify;">लिहाजा, दुनियाभर के देशों को इस जल संकट को दूर करने की दिशा में ठोस कदम उठाने पर विचार करना चाहिए। इस संकट के निवारण हेतु हमें तीन स्तरों पर विचार करना होगा। पहला यह कि अब तक हम जल का उपयोग किस तरह से करते आ रहे थे? दूसरा यह कि भविष्य में इसका उपयोग कैसे करना है? और तीसरा एवं सबसे आखिरी यह कि जल संरक्षण हेतु क्या कदम उठाए जाने चाहिए?</p>
<p style="text-align: justify;">अब तक की पूरी स्थिति पर अगर नजर डालेंगे तो पायेंगे कि अभी तक हम पानी का उपयोग अनुशासित ढंग से नहीं करते आ रहें है। जरूरत से ज्यादा पानी का नुकसान करना तो जैसे हमारी आदत बन गई हो। ऐसे में हमारी भावी पीढ़ी के लिए भी जल की उपलब्धता सुनिश्चित हो, इसके लिए हमें कई कदम उठाने होंगे; जैसे कि-</p>
<ol>
<li style="text-align: justify;">घरेलू स्तर पर जल का उचित व संयमित उपयोग एवं उद्योगों में पानी के चक्रीय उपयोग जल संरक्षण में सहायक हो सकते हैं</li>
<li style="text-align: justify;">इस्तेमाल किये हुए पानी का फिर से शौचालयों अथवा बगीचों में फिर से इस्तेमाल और रिसाइकिलिंग करके</li>
<li style="text-align: justify;">जल का सदुपयोग कैसे करना है, इस दिशा में जन-जागरूकता बढ़ायी जाए</li>
<li style="text-align: justify;">वर्षा-जल का संग्रहण करके हम पानी को बचा सकते हैं</li>
<li style="text-align: justify;">विभिन्न जलाशयों का निर्माण करके उनमें जल संग्रह करना जल संसाधन का सबसे पुराना उपाय है, इसे आगे भी बढ़ाया जा सकता है</li>
<li style="text-align: justify;">भूमिगत जल संरक्षण के लिए भूमिगत जल का कृत्रिम रूप से पुनर्भरण किया जा सकता है</li>
<li style="text-align: justify;">टपकन टैंक/ड्रिप/स्प्रिंकल सिंचाई के उपयोग से सिंचाई जल के संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सकता है</li>
<li style="text-align: justify;">Catchment Area Protection (CAP) के माध्यम से जलग्रहण क्षेत्रों का संरक्षण करके जल के साथ-साथ मृदा का भी संरक्षण किया जा सकता है। यह विधि सामान्यतः पहाड़ी क्षेत्रों में प्रयोग में लायी जाती है</li>
<li style="text-align: justify;">फसल उगाने के तरीकों का प्रबंधन करके; जैसे कि कम जल क्षेत्रों में ऐसे पौधों का चयन करके जिनकी पैदावार के लिए कम पानी की जरूरत हो</li>
<li style="text-align: justify;">नहरों की तली व नालियों को पक्का करके नहरों-नालियों से बहने वाले अतिरिक्त जल को बचाया जा सकता है</li>
</ol>
<p style="text-align: justify;">अगर हम बात मौजूदा समय में भारत की जल जरूरत की बात करें तो इसके लगभग 1,100 बिलियन क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष होने का अनुमान है। इस उच्च आवश्यकता को पूरा करने के लिए, भारत सरकार भी विभिन्न साधनों और उपायों के जरिए जल निकायों की स्थिति और बेहतर उपचार प्रणालियों में सुधार करने की कोशिश कर रही है। इनमें से कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं, जिन्हें अपनाया गया है और आगे बढ़ाया गया है-</p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">जल की उपलब्धता, संरक्षण और गुणवत्ता में सुधार के उद्देश्य से 2019 में <strong>'जल शक्ति अभियान'</strong> शुरू किया गया।</li>
<li style="text-align: justify;">जल शक्ति मंत्रालय द्वारा राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को मॉडल बिल का वितरण ताकि वे इसके नियमन और विकास के लिए एक उपयुक्त <strong>'भूजल कानून'</strong> इनेक्ट कर सकें। इस कानून को अब तक 19 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा अपनाया जा चुका है।</li>
<li style="text-align: justify;">भूजल विकास और प्रबंधन के विनियमन और नियंत्रण के लिए 'पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986' के तहत <strong>'केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (CGWA)'</strong> का गठन किया गया।</li>
<li style="text-align: justify;">भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए 'सेंट्रल ग्राउण्ड वॉटर बोर्ड (CGWB)'द्वारा <strong>'मास्टर प्लान- 2020'</strong> तैयार किया गया है, जिसमें मानसूनी वर्षा के 185 बिलियन क्यूबिक मीटर का उपयोग करने के लिए देश में लगभग 1.42 करोड़ वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं के निर्माण की परिकल्पना की गई है</li>
<li style="text-align: justify;">जल संरक्षण की दिशा में प्रशिक्षण, सेमिनार, कार्यशालाएँ, प्रदर्शनियाँ, और चित्रकला प्रतियोगिता आदि जैसे जन-जागरूकता कार्यक्रमों का नियमित आयोजन किया गया।</li>
<li style="text-align: justify;">केंद्र सरकार द्वारा <strong>'प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना - वाटरशेड डेवलपमेंट कंपोनेंट (PMKSY-WDC)'</strong> के जरिए जल संचयन और संरक्षण कार्यों के निर्माण में सहायता प्रदान की जाती है।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>अटल भूजल योजना (ABHY)-</strong> भूजल प्रबंधन पर इस बड़ी योजना का शुभारंभ प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा 25 दिसंबर 2019 को किया गया। 6000 करोड़ रुपये की इस योजना में 50 फीसदी फंड विश्व बैंक का और 50 फीसदी भारत सरकार लगाएगी। इस योजना का मकसद देश के 7 चुनिंदा राज्यों के भूजल की कमी से जूझने वाले क्षेत्रों में बेहतर भूजल प्रबंधन करना है। इन राज्यों में गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल हैं।</li>
<li style="text-align: justify;">गंगा बेसिन की नदियों के संरक्षण के लिए जल शक्ति मंत्रालय की <strong>'नमामी गंगे पहल'</strong> और अन्य नदियों के संरक्षण के लिए <strong>'राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (NRCP)'</strong></li>
<li style="text-align: justify;">सरकार के 'जल समृद्ध भारत' के दृष्टिकोण को प्राप्त करने के लिए राज्यों, जिलों, व्यक्तियों, संस्थानों, संगठनों आदि द्वारा किए गए प्रयासों को पहचानने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए जल शक्ति मंत्रालय द्वारा 2018 में<strong> 'राष्ट्रीय जल पुरस्कारों'</strong> की शुरुआत</li>
<li style="text-align: justify;">जल संरक्षण के लिए लोगों के सहयोग से जन जागरुकता अभियान चलाने के लिए 2021 में <strong>'कैच द रैन अभियान'</strong> की शुरुआत</li>
<li style="text-align: justify;">ग्रामीण क्षेत्रों में जल संकट को दूर करने के लिये भारत के प्रत्येक ज़िले में कम-से-कम 75 अमृत सरोवरों के निर्माण के लिए 24 अप्रैल, 2022 को <strong>'अमृत सरोवर मिशन'</strong> का शुभांरभ; 15 अगस्त, 2023 तक इस मिशन का लक्ष्य 50,000 अमृत सरोवरों का निर्माण करना है</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;">निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ‘जल संरक्षण’ आज समूची दुनिया के लिए अहम चिंता का विषय है। प्रकृति हमें निरंतर वायु, जल, प्रकाश आदि शाश्वत गति से दे रही है लेकिन हम प्रकृति के इस नैसर्गिक संतुलन को बिगाड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। पानी को बचाने की दिशा में हमें पहले से चेत जाने की जरूरत है क्योंकि-</p>
<p style="text-align: center;"><strong>"रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥"</strong></p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1679553365_Karishma.png" caption="false" width="470" /></td>
<td style="width: 80%;">
<h3 style="text-align: justify;"><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong><span style="font-size: 18px; background-color: #003366;"> करिश्मा शाह </span></strong></span></h3>
<p>करिश्मा शाह, मूलत: बिहार के रोहतास जिले से हैं। इन्होंने समाजशास्त्र में एम. ए. और सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में एडवांस्ड डिप्लोमा (ADSE - Aptech). किया है। इन्होंने दृष्टि आई.ए.एस. संस्थान के मीडिया डिपार्टमेंट में बतौर 'कंटेन्ट राइटर' चार साल तक अपनी सेवाएँ दी हैं। इनके आर्टिकल 'दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण' और निबंध 'प्रतियोगिता दर्पण' में प्रकाशित हो चुके हैं। वर्तमान में यह सिविल सेवा परीक्षाओं के लिए अध्ययनरत् हैं।</p>
</td>
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<p></p>',
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'description' => '<p style="text-align: justify;">प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को सम्पूर्ण विश्व में अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस मनाया जाता है। यह दिवस जातिवाद, नस्लीय भेदभाव और नफरत की उफनती लहरों के विरुद्ध एकजुटता व समरसता के साथ आगे बढ़ने का आह्वान करता है। </p>
<p style="text-align: justify;">21 मार्च,1960 को पुलिस द्वारा दक्षिण अफ्रीका के शार्पविले में लोगों द्वारा रंगभेदी/नस्लभेदी कानून के विरुद्ध किए जा रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान फायरिंग व आगजनी के कारण 69 लोग मारे गए। जिसके चलते इस नरसंहार की याद में अक्टूबर 1966 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 मार्च को अंतरराष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। यह घोषणा दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति को समाप्त करने हेतु किए गए संघर्षों का भी प्रतीक है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लवाद:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">नस्लवाद का आशय ऐसी धारणा से है, जिसमे यह मान लिया जाता है कि हर नस्ल के लोगों में कुछ खास खूबियां होती हैं, जो उसे दूसरी नस्लों से कमतर या बेहतर बनाती है। नस्लवाद लोगों के बीच जैविक अंतर की सामाजिक धारणाओं में आधारित भेदभाव और पूर्वाग्रह दोनों होते हैं। और इस शब्द का प्रचलन राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक व कानूनी प्रणालियों में भी देखने व सुनने को मिलते है जो इसके आधार पर भेदभाव तथा धन, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा नागरिक अधिकारों के संदर्भ में नस्लीय असमानता को बढ़ावा देते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लवाद की वर्तमान स्थिति:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">इंटरनेट के बढ़ते प्रसार व इसकी व्यापक उपलब्धता ने नस्लवादी रूढ़ियों और गलत सूचनाओं के ऑनलाइन प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।</li>
<li style="text-align: justify;">वैश्विक महामारी के बाद उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार एशिया व एशियाई लोगों के विरुद्ध ऑनलाइन/ वेबसाइटों पर नफरती पोस्ट्स में 200% तक की वृद्धि दर्ज की गई है।</li>
<li style="text-align: justify;">नित नए तकनीकों के विकास व AI के बढ़ते उपयोग ने भी नस्लवाद को 'तकनीकी-नस्लवाद' के रूप में बढ़ावा दिया है। जिसके चलते किसी भी समुदाय के लोगों के साथ अनुचित व अन्यायपूर्ण व्यवहार करनें की संभावना काफी बढ़ गई है।</li>
<li style="text-align: justify;">वर्तमान समय में नस्लवाद का स्वरूप अत्यंत जटिल व अप्रकट हो चला है, जिसके चलते भेदभाव, आक्रामकता व अपमान की संरचनात्मक सूक्ष्मता में भी वृद्धि हुई है।</li>
<li style="text-align: justify;">कई समाजशास्त्री विशेषज्ञों का भी कहना है कि, पक्षपातपूर्ण व्यवहार व भेदभावपूर्ण कार्य सामाजिक असमानता को और बढ़ावा देतें है। जिसका उल्लेख 'द लांसेट' में प्रकाशित एक अध्ययन में भी किया गया है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>वैश्विक स्तर पर नस्लवाद:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे कई विकसित देशों में बहुतायत नस्लीय भेदभाव की घटनाएं देखी जा रही हैं जैसे- अमेरिका में जॉर्ज फ्लायड, ब्रियोना टेलर, एलिजा मैक्लेन, जियोना जॉनसन जैसे अश्वेत लोगों को अमेरिकी पुलिस की बर्बरता की वजह से अपना जीवन गंवाना पड़ा। वर्तमान ब्रिटिश pm ऋषि सुनक का खुले मंच से यह स्वीकारना कि उन्होंने भी नस्लवाद का दंश झेला है। जबकि पिछले ऑस्ट्रेलियाई दौरे पर भारतीय तेज गेंदबाज मोहम्मद सिराज को दर्शकों द्वारा काला बंदर कहकर संबोधित किया जाना, इंग्लैंड के पूर्व क्रिकेट कप्तान माइकल वान द्वारा एशियाई खिलाड़ियों के प्रति नस्लीय ट्वीट करना आदि घटनाएं प्रमुख है। जिसके चलते विकसित देशों पर यह दबाव पड़ने लगा है कि वे अपने राष्ट्रीय कानूनों में रंगभेद और नस्लभेद विरोधी कठोर प्रावधानों को निर्मित करे और उनके अनुपालन में भी सख्ती बरतें।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भारत की स्थिति:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15,16,29 के आधार पर कई रूपों में भेदभाव पर प्रतिबंध लगाया गया है तथा भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 153A भी 'नस्ल' को संदर्भित करती है। भारत ने वर्ष 1968 में ही नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन हेतु अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन(ICERD) की भी पुष्टि कर दी थी। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त प्रावधानों के बावजूद भी देश में कई स्थानों से जाति या फिर रंग के आधार पर भेदभाव करने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। ज्ञातव्य है कि पिछले कुछ वर्षों में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ बड़ी संख्या में मामले दर्ज किए गए है। जैसे- पूर्वोत्तर के लोगों के साथ दिल्ली व बंगलुरु में नस्लीय भेदभाव की घटनाएं बढ़ी है, यह हमारे देश की आंतरिक व्यवस्था के लिए चिंताजनक बात है।</p>
<p style="text-align: justify;">इस संदर्भ में किसी ने सच ही कहा है कि- "अपरिचय या अनजाने में यदि भेदभाव हो जाए तब तक कोई चिंता की बात नही, लेकिन जब नस्लीय आधार पर कोई पूर्वाग्रह के साथ भेदभाव करे तो स्थिति अलोकतांत्रिक हो जाती है।"</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लीय भेदभाव के कारण:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">प्रजातीय कारण- कुछ प्रजातियों द्वारा स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानना। जैसे- अमेरिकी गोरों द्वारा निग्रो जाति के लोगों को निम्नतम मानना।</li>
<li style="text-align: justify;">सामाजिक कारण- सामाजिक रूढ़ियों एवं कुप्रथाओं के चलते समाज में वर्गभेद जैसी समस्या उत्पन्न होती है और यही वर्गभेद नस्लवाद को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होता है।</li>
<li style="text-align: justify;">धार्मिक कारण- धर्म में पवित्रता एवं शुद्धि का महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसे में कई समाजों में निम्न व्यवसाय वालों को निम्न नस्ल का माना जाता है।</li>
<li style="text-align: justify;">इंटरनेट का प्रसार- नस्लीय भेदभाव को बढ़ाने में इंटरनेट वर्तमान समय में एक उर्वर भूमि के रूप में कार्य कर रहा है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लीय भेदभाव के लक्षण:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">जन्म के आधार पर सामाजिक हैसियत का निर्धारण होना।</li>
<li style="text-align: justify;">प्रत्येक व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण उसकी जाति, रंग, नस्ल आदि आधारों पर किया जाना।</li>
<li style="text-align: justify;">समाज में जाति, रंग एवं नस्ल के आधार पर ऊंच-नीच की भावना का उपस्थित होना।</li>
<li style="text-align: justify;">खान-पान एवं अंतःक्रिया अन्य जाति- बिरादरियों के बीच न होकर केवल अपनी जाति एवं नस्ल के बीच होना।</li>
<li style="text-align: justify;">अंतर्विवाह की नीति। जैसे- केवल अपनी ही जाति में विवाह की अनुमति।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लीय भेदभाव के प्रभाव:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">नस्लीय भेदभाव राष्ट्रीय व सामाजिक एकता में बाधक है। जिसके चलते सामुदायिक शत्रुता एवं घृणा जैसे भावों को बढ़ावा मिलता है।</li>
<li style="text-align: justify;">इसका प्रभाव आर्थिक विकास एवं आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पर भी पड़ता है, जैसे- नस्लवादी मानसिकता के लोग व्यतिगत व सार्वजनिक संपत्ति को तो नुकसान पहुंचाते ही है, साथ ही साथ सरकार के प्रगतिशील कार्यों में भी रुकावट का कारण बनते हैं।</li>
<li style="text-align: justify;">इसके चलते देश में वाह्य एवं आंतरिक सुरक्षा का भी खतरा उत्पन्न हो सकता है।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लवादी संघर्षों के दौरान असामाजिक तत्वों के कार्यों का प्रभाव सबसे ज्यादा बच्चों, महिलाओं एवं वृद्धों पर पड़ता है। जिसका प्रभाव व दंश कई दशकों तक उनके अंतर्मन में बना रहता है।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लीय भेदभाव लोगों को उनके आधारभूत जरूरतों जैसे- रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित कर देता है।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लीय भेदभाव के चलते औद्योगिक विकास एवं सांस्कृतिक विकास का सुचारू रूप से क्रियान्वयन नहीं हो पाता है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>वैश्विक स्तर पर नस्लवाद के विरुद्ध कुछ अन्य पहलें:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">डरबन डिक्लेरेशन एंड प्रोग्राम ऑफ एक्शन (2001)- इसे नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, जेनोफोबिया और संबंधित असहिष्णुता के खिलाफ विश्व सम्मेलन द्वारा अपनाया गया था।</li>
<li style="text-align: justify;">यूनेस्को न कोरिया गणराज्य के साथ साझेदारी के माध्यम से पेरिस में 22 मार्च, 2021 को 'ग्लोबल फोरम अगेंस्ट रेसिजम एंड डिस्क्रिमिनेशन' की मेजबानी की। इस फोरम के दौरान नस्लीय भेदभाव से निपटने के उद्देश्य से नीति-निर्माता, शिक्षा और अन्य हितधारक भी एकत्रित हुए।</li>
<li style="text-align: justify;">"ब्लैक लाइव्स मैटर" ने न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका बल्कि सम्पूर्ण विश्व में नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध लोगों को आंदोलित किया है। जिसके चलते वैश्विक स्तर पर नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध लोगों में एकजुटता देखी गई है।</li>
<li style="text-align: justify;">यूनेस्को द्वारा गठित " समावेशी एवं सतत शहरों का अंतरराष्ट्रीय गठबंधन" शहरी स्तर पर नस्लवाद के विरुद्ध संघर्ष में, बेहतर प्रथाओं को अपनाने के लिए एक मंच प्रदान करता है तथा अच्छे व्यवहारों को बढ़ावा देने हेतु एक प्रयोगशाला की भी भूमिका निभाता है।</li>
<li style="text-align: justify;">यूनेस्को शिक्षा, विज्ञान, सांस्कृतिक संचारों के माध्यम से नस्लवादी विचारों को कम करने हेतु प्रयासरत है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;">ऐसे में उपरोक्त प्रयासों के साथ-साथ कई मानवाधिकार संस्थाओं, सिविल सोसायटी आंदोलनों, वैश्विक संधियों के बावजूद भी कई देशों में ऐसा शिष्टाचार व संस्कृति नही विकसित हो पाई जो नस्लीय भेदभाव का उन्मूलन कर सके। यह कई परिवर्तनों के साथ आज भी अपनी निरंतरता बनाए हुए है, जो किसी एक या दो राष्ट्र के लिए नही बल्कि सम्पूर्ण विश्व एवं मानव जाति के लिए घातक है।</p>
<p style="text-align: justify;">ऐसे में वर्तमान समय में नस्लीय भेदभाव में हो रही वृद्धि के चलते यूनेस्को ने इस दिशा में जागरूकता को बढ़ावा देने का प्रयास किया है। इस संदर्भ में यूनेस्को ने मीडिया एवं इंटरनेट को सूचना साक्षरता रूपी औजार के रूप में विकसित किया है। इससे लोगों में विवेचनात्मक सोच, अंतरसांस्कृतिक संवाद एवं आपसी समझ को बढ़ावा मिला है।</p>
<p style="text-align: justify;">ऐसे में इसी इसी तरह कुछ नई पहलों को विकसित कर इस दिशा में सकारात्मक परिणाम प्राप्त किया जा सकता है। इस संदर्भ में निम्नलिखित सुझावों को भी अपनाया जा सकता है, जैसे-</p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">शिक्षा को बढ़ावा देकर, शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो मानवीय दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन ला सकता है।</li>
<li style="text-align: justify;">इस दिशा में जागरूकता कार्यक्रमों को बढ़ावा देकर जिससे शोषित होने पर लोग अपने हक के लिए आवाज उठा सके।</li>
<li style="text-align: justify;">सामाजिक सद्भाव व सद्भावना को बढ़ावा देने के साथ-साथ नस्लविरोधी कानूनों का भी सख्ती से क्रियान्वयन किया जाए।</li>
<li style="text-align: justify;">युवाओं एवं समुदायों में सहिष्णुता को बढ़ावा देने के साथ-साथ अंतर-सांस्कृतिक संवाद एवं सीखने, समझने के नए दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जाए तथा हानिकारक रूढ़ियों के उन्मूलन हेतु सामूहिक प्रयास किया जाए।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लवाद से पीड़ित लोगों को राज्य द्वारा मदद प्रदान की जानी चाहिए जिससे वे समाज की मुख्य धारा में पुनः लौट सकें।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;">इस प्रकार नस्लीय भेदभाव को समाप्त कर किसी भी व्यक्ति के गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार को प्रभावित होने से बचाया जा सकता है। इस संदर्भ में UN के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान का कथन- " हमारा उद्देश्य ज्ञान के साथ कट्टरता का त्याग करना और उदारता के साथ भेदभाव को दूर करना है।"</p>
<p style="text-align: justify;">नस्लवाद किसी भी स्थिति में और अवश्य ही समाप्त होना चाहिए। और हम सब मिलकर यह सुनिश्चित करें कि हर नस्ल, जाति, रंग, लिंग, पंथ में रुचि रखने वाले लोग एक-दूसरे से सुरक्षित और आपस में संबंधित है, जिससे कि हमारा आने वाला कल सौहार्दपूर्ण तथा समावेशी विकास को बढ़ावा देने वाला हो।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1679396970_Ankit-Singh.jpeg" caption="false" width="416" style="display: block; margin-left: auto; margin-right: auto;" /></td>
<td style="width: 80%; text-align: justify;">
<h3 style="text-align: justify;"><strong><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"> अंकित सिंह </span></strong></h3>
अंकित सिंह उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले से हैं। उन्होंने UPTU से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन में स्नातक तथा हिंदी साहित्य व अर्थशास्त्र में परास्नातक किया है। वर्तमान में वे दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क (DU) से सोशल वर्क में परास्नातक कर रहे हैं तथा सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग लिखते हैं।</td>
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'description' => '<p style="text-align: justify;"><em>बात 23 मार्च 1931 की शाम की है। भगत सिंह प्राणनाथ मेहता की लाई लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। अफसर ने दरवाजा खोला और कहा, “सरदार जी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है। तैयार हो जाइए।” भगत सिंह के हाथ में किताब थी, उससे नज़रे उठाए बिना ही उन्होंने कहा, “ठहरिये! एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।” कुछ और पंक्तियां पढ़कर उन्होंने किताब रखी और उठ खड़े होकर बोले, चलिए!...</em>और इस प्रकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को तय दिन से एक दिन पहले फांसी दे दी गई।</p>
<p style="text-align: center;">प्रस्तुत प्रसंग का वर्णन वीरेंद्र सिन्धु ने अपनी पुस्तक “शहीद भगत सिंह” में किया है।</p>
<p style="text-align: justify;">हमारे बीच में से अधिकांश लोग भगत सिंह को मात्र एक क्रांतिकारी की तरह ही मानते हैं परन्तु भगत सिंह मात्र एक क्रांतिकारी ही नहीं थे। भगत सिंह एक विचार है। एक दर्शन, जिसने क्रांतिकारी गतिविधियों को एक दार्शनिक आयाम दिया। भगतसिंह की जेल नोटबुक मिलने के बाद भगतसिंह के चिन्तनशील व्यक्तित्व की व्यापकता और गहराई पर और अधिक प्रकाश पड़ा है। यह सच्चाई भी पुष्ट हुई है कि भगतसिंह ने अपने अन्तिम दिनों में सुव्यवस्थित एवं गहन अध्ययन के बाद बुद्धिसंगत ढंग से मार्क्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाया था। हालांकि यह आश्चर्यजनक है कि किस प्रकार उन्होंने ब्रिटिश सेंसरशिप के बावजूद पठन हेतु पुस्तकें और सामग्री एकत्रित की और महज 23 वर्ष की छोटी सी उम्र में चिन्तन का जो स्तर उन्होंने हासिल कर लिया था, वह उनके युगद्रष्टा युगपुरुष होने का ही प्रमाण था। यह सोचना गलत नहीं है कि भगत को 23 वर्ष की अल्पायु में यदि फाँसी नहीं हुई होती तो राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का इतिहास और भारतीय सर्वहारा क्रान्ति का इतिहास शायद कुछ और ही ढंग से लिखा जाता। बहरहाल यह उतना ही दुखद है कि आज भी इस देश के शिक्षित लोगों का एक बड़ा हिस्सा भगत को एक ओर महान तो मानता है, पर यह नहीं जानता कि 23 वर्ष का वह युवा एक महान चिन्तक भी था।</p>
<p style="text-align: justify;">किसी भी महान व्यक्ति का अध्ययन तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। यदि भगत सिंह का झुकाव मार्क्सवाद की तरफ हुआ तो उसके पीछे भी कई कारण विद्यमान थे। दरअसल 1917 की रूस की क्रांति के बाद मार्क्सवाद और समाजवाद पूरी दुनिया में बूम कर गया था। सर्वहारा वर्ग द्वारा निरंकुश शासन पर विजय को हर जगह सराहना मिली और इसे सर्वहारा (शोषित) वर्ग के पक्ष में क्रांति कहा गया। दूसरी बात , 1920 के दशक में पूरे विश्व में समाजवाद की लहर दौड़ रही थी। यही वजह थी कि राष्ट्रीय आंदोलन के कई पुरोधा भी उस लहर से अछूते न रहे। सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरू भी समाजवाद के काफी प्रभावित थे। इसके अलावा, 1929-1930 के समय वैश्विक महामंदी के कारण पूंजीवाद की सर्वश्रेष्ठता का भ्रम टूटा और उसकी खामियां उभरकर सामने आई। इसी दौर में, दुनिया को समाजवाद पूंजीवाद के एक श्रेष्ठ विकल्प के रूप में दिखाई देने लगा। यहां तक कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी समाजवाद की लहर से अछूती ना रही।</p>
<p style="text-align: justify;">यही वो परिस्थितियां थी जिनके आलोक में भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी भी मार्क्सवाद और समाजवाद की तरफ आकर्षित हुए।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>आख़िर क्या था भगत सिंह का मार्क्सवादी समाजवाद?</strong></p>
<p style="text-align: justify;">अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भगत सिंह का मन वैयक्तिक हत्या तथा हिंसक गतिविधियों से विरक्त हो गया था। उनका प्रसिद्ध वक्तव्य था: “पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।” इस प्रकार वे मार्क्सवाद की तरफ प्रभावित हुए। उन्होंने कार्ल मार्क्स, व्लादिमीर लेनिन तथा लियोन त्रोत्सकी को पढ़ा। लेकिन वे मार्क्स से कहीं ज्यादा लेनिन के मार्क्सवाद से प्रभावित थे। अपने लेख “टू यंग पॉलिटिकल वर्कर्स” में उन्होंने अपने आदर्श को “नए अर्थात मार्क्सवादी आधार पर सामाजिक पुनर्निर्माण” के रूप में घोषित किया। भगत सिंह का मार्क्सवाद तथा समाज के सम्बन्ध में मार्क्स की वर्गीय अवधारणा में पूर्ण विश्वास था। वे कहते थे ‘किसानों और गरीबों को सिर्फ विदेशी शोषणकर्ताओं से ही मुक्त नहीं होना है अपितु उन्हें पूंजीपतियों और जमीदारों के चंगुल से भी मुक्त होना है।’ उन्होंने समाजवाद की धारणा को वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया, जिसका अर्थ था पूंजीवाद और वर्ग प्रभुत्व का पूरी तरह अंत। भगत सिंह पूंजीवाद की अवधारणा को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने पूंजीवाद की आलोचना सामाजिक और राजकीय दोनो परिप्रेक्ष्य में की। अपनी जेल डायरी में वे लिखते हैं,</p>
<p style="text-align: justify;"><em>“लोकतन्त्र सिद्धान्ततः राजनीतिक और कानूनी समानता की व्यवस्था है, किन्तु ठोस और व्यावहारिक रूप में यह झूठ है, क्योंकि जब तक आर्थिक सत्ता में भारी असमानता है, तब तक कोई समानता नहीं हो सकती, न राजनीति में और न कानून के सामने।…पूँजीवादी शासन में लोकतन्त्र की सारी मशीनरी शासक अल्पमत को श्रमिक बहुमत की यातनाओं के जरिये सत्ता में बनाये रखने के लिए काम करती है।”</em></p>
<p style="text-align: justify;">जेल में वह सारी मानवजाति के हित में अर्थव्यवस्था और प्राकृतिक संपदा पर वितरण हेतु विश्व समाजवादी क्रांति के विचार में लीन रहे। जेल डायरी के पृष्ठ 190 पर उन्होंने लिखा “समाजवादी व्यवस्था: प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार।” इस प्रकार भगत सिंह के विचारों में समाजवाद की ओर झुकाव काफी पहले से दिखाई देने लगा था। किंतु बाद में वे वैयक्तिगत हिंसा, हत्या और क्रान्तिकारी गतिविधियों से अरुचि से भरने लगे थे। उसके पश्चात वे मार्क्सवाद की और तेजी से झुकते हुए प्रतीत हुए। यही कारण था कि 1928 में उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम परिवर्तित कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) कर दिया। और क्रान्ति की पुनर्व्याख्या करते हुए एवं स्वतंत्र राष्ट्र के निमार्ण हेतु एक ठोस कार्ययोजना प्रस्तुत की। यही विचार उनके भारत नौजवान सभा के गठन के समय युवाओं को सशक्त करने में दिखाई देता है। यदि वह अधिक समय तक जीवित रहते तो उनमें वह प्रतिभा थी कि वह राष्ट्र के भविष्य को भी निर्धारित कर सकते थे।</p>
<p style="text-align: justify;">राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, तत्कालीन समाज विभिन्न समस्याओं से भी उलझ रहा था। भगत सिंह मार्क्सवाद में विश्वास रखने के साथ साथ सामाजिक समस्याओं पर चिंतन भी किया करते थे। जेल में उन्होंने चार पुस्तकें लिखीं थी, दुर्भाग्य से जिनकी पांडुलिपियां आज उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त ‘किरती’ और ‘वीर अर्जुन’ समेत कई पत्रिकाओं में उन्होंने लेख लिखे। इसी परिदृश्य में उन्होंने कुछ लेख लिखे। जोकि इस प्रकार हैं,</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>“अछूतो की समस्या” का हल</strong></p>
<p style="text-align: justify;">1920 के दशक में जब राष्ट्रीय आंदोलन अपने प्रवाह में चल रहा था और जन आंदोलन में तब्दील हो रहा था। अंबेडकर भी राजनीति में सक्रिय भूमिका में आ गए थे। और अछूत समस्या की गुत्थी सुलझाने के प्रयत्न प्रारंभ हो गए थे। इसी बीच भगत सिंह ने “किरती” नामक पंजाबी पत्रिका में ‘अछूत का सवाल’ लेख लिखा जोकि जून 1928 में प्रकाशित हुआ। इस लेख में श्रमिक वर्ग की शक्ति व सीमाओं का अनुमान लगाकर उसकी प्रगति के लिए ठोस सुझाव दिये गये थे। सिंध के श्री नूर मोहम्मद का संदर्भ देते हुए वो कहते हैं कि जब तुम एक इंसान को पीने के लिए पानी देने से इंकार करते हो, स्कूल में पढ़ने का अधिकार नहीं देते, भगवान के मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं देते और एक इंसान के समान अधिकार देने से इन्कार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए? वे कहते हैं कि एक कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है परंतु एक इंसान के स्पर्श मात्र से बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है। आखिर यह कैसी विडंबना है? इस समस्या ने निदान में वह कहते हैं कि सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इन्सान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य-विभाजन से। वे अछूत कौम को स्पष्ट रुप से संगठित होने का आह्वान करते हैं। भगत सिंह अछूतो और श्रमिको को असली सर्वहारा के रूप में घोषित करते हुए कहते हैं दूसरो की ओर मुंह न ताको, संगठित हो जाओ। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा करदो और राजनीतिक, आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>“सांप्रदायिक समस्या” का हल</strong></p>
<p style="text-align: justify;">असहयोग और खिलाफत आंदोलन की समाप्ति के बाद मुस्लिम लीग और कांग्रेस के रास्ते अलग अलग हो गए। और इसी दशक में देश में सांप्रदायिक दंगे भड़कने लगे। 1926 में कलकत्ता में एक भयानक दंगा हुआ। संयुक्त प्रांत में 1923 और 1927 के बीच लगभग 88 दंगे हुए, जिनके कारण हिंदू-मुस्लिम संबंध लगभग पूरी तरह भंग हो गए। इसी समस्या पर विचार हेतु भगत सिंह ने किरती पत्रिका में “सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज़” लेख लिखा। इस लेख में वे सांप्रदायिकता के आलोक में भारत के भविष्य पर प्रश्न उठते हैं। पहली बात, वे दंगों का इलाज भारत की आर्थिक दशा में सुधार को बताते हैं कि भारत के लोगो की आर्थिक हालत इतनी खराब है कि उन्हें एक दूसरे के खिलाफ भड़काना काफी आसान है। क्योंकि भूखा व्यक्ति अपने सिद्धांत ताक पर रख देता है। दूसरी बात, वे लोगो को परस्पर जोड़ने के लिए वर्ग-चेतना की समझ को आवश्यक बताते हैं। वर्ग चेतना की समझ से युक्त व्यक्ति धार्मिक दंगों में नही उलझता। तीसरी बात, वे धर्म को राजनीति से अलग करने पर बल देते हैं कि धर्म एक व्यक्तिगत मामला है, उसे राजनीति में शामिल नहीं करना चाहिए। भगत सिंह कहते हैं कि यदि सांप्रदायिकता को खत्म करना है तो हमें किसी भी व्यक्ति को ‘इन्सान’ के रूप में देखना होगा नाकी किसी ‘धर्म विशेष के व्यक्ति के रूप में’।</p>
<p style="text-align: justify;">सारतः भगत सिंह के संपूर्ण व्यक्तित्व को देखा जाए तो उन्हें मात्र क्रान्तिकारी संबोधित करना न्यायसंगत न होगा। अपितु वह एक सशक्त क्रांतिकारी होने के साथ साथ एक विचारक,चिंतक और बुद्धिजीवी व्यक्तित्व थे। वे अन्य क्रान्तिकारियों से विशिष्ट थे क्योंकि वे राष्ट्र निर्माण का वैकल्पिक विचार रखते थे। बाद में सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था, “भगत सिंह युवाओं में नई जागृति के प्रतीक बन गए थे।” अन्त में शहीद भगत सिंह की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात को विराम देता हूं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>“दिल से ना निकलेगी, मर कर भी वतन की उल्फत</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ऐ-वतन आएगी।”</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:</strong></p>
<ol>
<li style="text-align: justify;">स्वतंत्रता के लिए भारत का संघर्ष – बिपन चंद्र</li>
<li style="text-align: justify;">प्लासी से विभाजन तक और उसके बाद – शेखर बंदोपाध्याय</li>
<li style="text-align: justify;">रिवॉल्यूशनरी: द अदर स्टोरी ऑफ हाउ इंडिया वोन इट्स फ्रीडम – संजीव सान्याल</li>
<li style="text-align: justify;">मै नास्तिक क्यों हूं? – भगत सिंह</li>
<li style="text-align: justify;">जेल डायरी ऑफ भगत सिंह – भगत सिंह</li>
<li style="text-align: justify;">गांधी और भगत सिंह – वी. एन. दत्ता</li>
<li style="text-align: justify;">ऑनलाइन और अन्य आर्काइव्स स्त्रोत</li>
</ol>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1679571175_Ashu-Saini.jpeg" /></td>
<td style="width: 80%;">
<h3><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> आशू सैनी </strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">आशू सैनी, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले से हैं। इन्होंने स्नातक बी.एस.सी (गणित) विषय से और परास्नातक एम.ए (इतिहास) विषय से किया है। इन्होंने इतिहास विषय से तीन बार यू.जी.सी. नेट की परीक्षा पास की है। वर्तमान में इतिहास विषय में रिसर्च स्कॉलर (पी.एच-डी) हैं। पढ़ना, लिखना, सामजिक मुद्दों पर विचार-विमर्श करना और संगीत सुनना इनकी रुचि के विषय हैं। इनके कई लेख दैनिक जागरण और जनसत्ता में प्रकाशित हो चुके हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">पंचतत्व जीवन के लिए आधार माने गए हैं। उसमें से एक तत्व जल भी है। अगर जल ही नहीं रहेगा तो जीवन की कल्पना कैसी और सृष्टि का निर्माण कैसा? जल का महत्व इस बात का भी परिचायक है कि दुनिया की बड़ी-बड़ी सभ्यताएँ और प्राचीन नगर नदियों के किनारे ही बसे और फले-फूले। लेकिन,आज विकास की अंधी दौड़ और विलासिता भरी जिंदगी में प्राकृतिक संसाधनों का तो जैसे कोई मोल नहीं रह गया है।</p>
<p style="text-align: center;"><strong>"बड़बोले पृथ्वी पर</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>मनुष्य की अन्यतम उपलब्धियों के</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>अंत की घोषणा कर चुके हैं</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>और अंत में बची है पृथ्वी</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>उनकी जठराग्नि से जल-जंगल-ज़मीन</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>खतरे में हैं</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>खतरे में हैं पशु-पक्षी-पहाड़</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>नदियाँ-समुद्र-हवा खतरे में हैं।"</strong></p>
<p style="text-align: justify;">लेखक दिनेश कुरावाहा की उपरोक्त पंक्तियाँ स्पष्टतः बताती हैं कि मनुष्य ने किस तरह प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है और अपने लिए खतरे की स्थिति उत्पन्न कर ली है। आज अधिकांश प्राकृतिक संसाधन समाप्ति की कगार पर हैं जिनमें से जल भी एक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि-</p>
<p style="text-align: center;"><strong>जल है तो जीवन है, जीवन है तो ये पर्यावरण है,</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>पर्यावरण से ये धरती है, और इस धरती से हम सब है।</strong></p>
<p style="text-align: justify;">लेकिन, पर्यावरण के साथ निरंतर खिलवाड़ का यह परिणाम हुआ कि आज दुनिया के अधिकांश देश अपनी आबादी को पीने का स्वच्छ पानी तक मुहैया नहीं करा पा रहे हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। तमाम रिपोर्टे इस बात को चीख-चीखकर कह रही हैं कि यदि आज हम जल-संसाधन का उचित प्रबंधन नहीं कर पाते हैं तो भावी पीढ़ी जल के एक-एक बूंद के लिए तरस जाएगी। एक शोध के मुताबिक आज जिस रफ्तार से जंगल खत्म हो रहे हैं उससे तीन गुना अधिक रफ्तार से जल के स्रोत सूख रहे हैं। नीति आयोग के <strong>'समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (Composite Water Management Index)'</strong> की माने तो भारत के लगभग 600 मिलियन से अधिक लोग गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। रिपोर्ट में इस बात का भी अंदेशा जताया गया है कि साल 2030 तक भारत में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति की तुलना में दोगुनी हो जाएगी। इसके अलावा भारत इस समय पेयजल के साथ-साथ कृषि उपयोग हेतु जल संकट से भी गुजर रहा है और यह संकट वैश्विक स्तर पर साफ दिख रहा है। <strong>'सक्रिय भूमि जल संसाधन मूल्यांकन रिपोर्ट 2022'</strong> के मुताबिक भारत में कुल वार्षिक भू-जल पुनर्भरण 437.60 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM) है, जबकि वार्षिक भू-जल निकासी 239.16 BCM है। इन आँकड़ों से एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि भारत विश्व में भू-जल का सबसे अधिक निष्कर्षण करता है। हालाँकि, भारत में निष्कर्षित भू-जल का केवल 8 फीसद ही पेयजल के रूप में उपयोग किया जाता है। जबकि, इसका 80 फीसद भाग सिंचाई में और शेष 12 प्रतिशत हिस्सा उद्योगों द्वारा उपयोग किया जाता है। ऐसे में देश में भू-जल की मात्रा में भी दिनों-दिन कमी आ रही है।</p>
<p style="text-align: justify;">लिहाजा, दुनियाभर के देशों को इस जल संकट को दूर करने की दिशा में ठोस कदम उठाने पर विचार करना चाहिए। इस संकट के निवारण हेतु हमें तीन स्तरों पर विचार करना होगा। पहला यह कि अब तक हम जल का उपयोग किस तरह से करते आ रहे थे? दूसरा यह कि भविष्य में इसका उपयोग कैसे करना है? और तीसरा एवं सबसे आखिरी यह कि जल संरक्षण हेतु क्या कदम उठाए जाने चाहिए?</p>
<p style="text-align: justify;">अब तक की पूरी स्थिति पर अगर नजर डालेंगे तो पायेंगे कि अभी तक हम पानी का उपयोग अनुशासित ढंग से नहीं करते आ रहें है। जरूरत से ज्यादा पानी का नुकसान करना तो जैसे हमारी आदत बन गई हो। ऐसे में हमारी भावी पीढ़ी के लिए भी जल की उपलब्धता सुनिश्चित हो, इसके लिए हमें कई कदम उठाने होंगे; जैसे कि-</p>
<ol>
<li style="text-align: justify;">घरेलू स्तर पर जल का उचित व संयमित उपयोग एवं उद्योगों में पानी के चक्रीय उपयोग जल संरक्षण में सहायक हो सकते हैं</li>
<li style="text-align: justify;">इस्तेमाल किये हुए पानी का फिर से शौचालयों अथवा बगीचों में फिर से इस्तेमाल और रिसाइकिलिंग करके</li>
<li style="text-align: justify;">जल का सदुपयोग कैसे करना है, इस दिशा में जन-जागरूकता बढ़ायी जाए</li>
<li style="text-align: justify;">वर्षा-जल का संग्रहण करके हम पानी को बचा सकते हैं</li>
<li style="text-align: justify;">विभिन्न जलाशयों का निर्माण करके उनमें जल संग्रह करना जल संसाधन का सबसे पुराना उपाय है, इसे आगे भी बढ़ाया जा सकता है</li>
<li style="text-align: justify;">भूमिगत जल संरक्षण के लिए भूमिगत जल का कृत्रिम रूप से पुनर्भरण किया जा सकता है</li>
<li style="text-align: justify;">टपकन टैंक/ड्रिप/स्प्रिंकल सिंचाई के उपयोग से सिंचाई जल के संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सकता है</li>
<li style="text-align: justify;">Catchment Area Protection (CAP) के माध्यम से जलग्रहण क्षेत्रों का संरक्षण करके जल के साथ-साथ मृदा का भी संरक्षण किया जा सकता है। यह विधि सामान्यतः पहाड़ी क्षेत्रों में प्रयोग में लायी जाती है</li>
<li style="text-align: justify;">फसल उगाने के तरीकों का प्रबंधन करके; जैसे कि कम जल क्षेत्रों में ऐसे पौधों का चयन करके जिनकी पैदावार के लिए कम पानी की जरूरत हो</li>
<li style="text-align: justify;">नहरों की तली व नालियों को पक्का करके नहरों-नालियों से बहने वाले अतिरिक्त जल को बचाया जा सकता है</li>
</ol>
<p style="text-align: justify;">अगर हम बात मौजूदा समय में भारत की जल जरूरत की बात करें तो इसके लगभग 1,100 बिलियन क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष होने का अनुमान है। इस उच्च आवश्यकता को पूरा करने के लिए, भारत सरकार भी विभिन्न साधनों और उपायों के जरिए जल निकायों की स्थिति और बेहतर उपचार प्रणालियों में सुधार करने की कोशिश कर रही है। इनमें से कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं, जिन्हें अपनाया गया है और आगे बढ़ाया गया है-</p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">जल की उपलब्धता, संरक्षण और गुणवत्ता में सुधार के उद्देश्य से 2019 में <strong>'जल शक्ति अभियान'</strong> शुरू किया गया।</li>
<li style="text-align: justify;">जल शक्ति मंत्रालय द्वारा राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को मॉडल बिल का वितरण ताकि वे इसके नियमन और विकास के लिए एक उपयुक्त <strong>'भूजल कानून'</strong> इनेक्ट कर सकें। इस कानून को अब तक 19 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा अपनाया जा चुका है।</li>
<li style="text-align: justify;">भूजल विकास और प्रबंधन के विनियमन और नियंत्रण के लिए 'पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986' के तहत <strong>'केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (CGWA)'</strong> का गठन किया गया।</li>
<li style="text-align: justify;">भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए 'सेंट्रल ग्राउण्ड वॉटर बोर्ड (CGWB)'द्वारा <strong>'मास्टर प्लान- 2020'</strong> तैयार किया गया है, जिसमें मानसूनी वर्षा के 185 बिलियन क्यूबिक मीटर का उपयोग करने के लिए देश में लगभग 1.42 करोड़ वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं के निर्माण की परिकल्पना की गई है</li>
<li style="text-align: justify;">जल संरक्षण की दिशा में प्रशिक्षण, सेमिनार, कार्यशालाएँ, प्रदर्शनियाँ, और चित्रकला प्रतियोगिता आदि जैसे जन-जागरूकता कार्यक्रमों का नियमित आयोजन किया गया।</li>
<li style="text-align: justify;">केंद्र सरकार द्वारा <strong>'प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना - वाटरशेड डेवलपमेंट कंपोनेंट (PMKSY-WDC)'</strong> के जरिए जल संचयन और संरक्षण कार्यों के निर्माण में सहायता प्रदान की जाती है।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>अटल भूजल योजना (ABHY)-</strong> भूजल प्रबंधन पर इस बड़ी योजना का शुभारंभ प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा 25 दिसंबर 2019 को किया गया। 6000 करोड़ रुपये की इस योजना में 50 फीसदी फंड विश्व बैंक का और 50 फीसदी भारत सरकार लगाएगी। इस योजना का मकसद देश के 7 चुनिंदा राज्यों के भूजल की कमी से जूझने वाले क्षेत्रों में बेहतर भूजल प्रबंधन करना है। इन राज्यों में गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल हैं।</li>
<li style="text-align: justify;">गंगा बेसिन की नदियों के संरक्षण के लिए जल शक्ति मंत्रालय की <strong>'नमामी गंगे पहल'</strong> और अन्य नदियों के संरक्षण के लिए <strong>'राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (NRCP)'</strong></li>
<li style="text-align: justify;">सरकार के 'जल समृद्ध भारत' के दृष्टिकोण को प्राप्त करने के लिए राज्यों, जिलों, व्यक्तियों, संस्थानों, संगठनों आदि द्वारा किए गए प्रयासों को पहचानने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए जल शक्ति मंत्रालय द्वारा 2018 में<strong> 'राष्ट्रीय जल पुरस्कारों'</strong> की शुरुआत</li>
<li style="text-align: justify;">जल संरक्षण के लिए लोगों के सहयोग से जन जागरुकता अभियान चलाने के लिए 2021 में <strong>'कैच द रैन अभियान'</strong> की शुरुआत</li>
<li style="text-align: justify;">ग्रामीण क्षेत्रों में जल संकट को दूर करने के लिये भारत के प्रत्येक ज़िले में कम-से-कम 75 अमृत सरोवरों के निर्माण के लिए 24 अप्रैल, 2022 को <strong>'अमृत सरोवर मिशन'</strong> का शुभांरभ; 15 अगस्त, 2023 तक इस मिशन का लक्ष्य 50,000 अमृत सरोवरों का निर्माण करना है</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;">निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ‘जल संरक्षण’ आज समूची दुनिया के लिए अहम चिंता का विषय है। प्रकृति हमें निरंतर वायु, जल, प्रकाश आदि शाश्वत गति से दे रही है लेकिन हम प्रकृति के इस नैसर्गिक संतुलन को बिगाड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। पानी को बचाने की दिशा में हमें पहले से चेत जाने की जरूरत है क्योंकि-</p>
<p style="text-align: center;"><strong>"रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥"</strong></p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1679553365_Karishma.png" caption="false" width="470" /></td>
<td style="width: 80%;">
<h3 style="text-align: justify;"><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong><span style="font-size: 18px; background-color: #003366;"> करिश्मा शाह </span></strong></span></h3>
<p>करिश्मा शाह, मूलत: बिहार के रोहतास जिले से हैं। इन्होंने समाजशास्त्र में एम. ए. और सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में एडवांस्ड डिप्लोमा (ADSE - Aptech). किया है। इन्होंने दृष्टि आई.ए.एस. संस्थान के मीडिया डिपार्टमेंट में बतौर 'कंटेन्ट राइटर' चार साल तक अपनी सेवाएँ दी हैं। इनके आर्टिकल 'दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण' और निबंध 'प्रतियोगिता दर्पण' में प्रकाशित हो चुके हैं। वर्तमान में यह सिविल सेवा परीक्षाओं के लिए अध्ययनरत् हैं।</p>
</td>
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<p></p>',
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'description' => '<p style="text-align: justify;">प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को सम्पूर्ण विश्व में अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस मनाया जाता है। यह दिवस जातिवाद, नस्लीय भेदभाव और नफरत की उफनती लहरों के विरुद्ध एकजुटता व समरसता के साथ आगे बढ़ने का आह्वान करता है। </p>
<p style="text-align: justify;">21 मार्च,1960 को पुलिस द्वारा दक्षिण अफ्रीका के शार्पविले में लोगों द्वारा रंगभेदी/नस्लभेदी कानून के विरुद्ध किए जा रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान फायरिंग व आगजनी के कारण 69 लोग मारे गए। जिसके चलते इस नरसंहार की याद में अक्टूबर 1966 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 मार्च को अंतरराष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। यह घोषणा दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति को समाप्त करने हेतु किए गए संघर्षों का भी प्रतीक है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लवाद:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">नस्लवाद का आशय ऐसी धारणा से है, जिसमे यह मान लिया जाता है कि हर नस्ल के लोगों में कुछ खास खूबियां होती हैं, जो उसे दूसरी नस्लों से कमतर या बेहतर बनाती है। नस्लवाद लोगों के बीच जैविक अंतर की सामाजिक धारणाओं में आधारित भेदभाव और पूर्वाग्रह दोनों होते हैं। और इस शब्द का प्रचलन राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक व कानूनी प्रणालियों में भी देखने व सुनने को मिलते है जो इसके आधार पर भेदभाव तथा धन, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा नागरिक अधिकारों के संदर्भ में नस्लीय असमानता को बढ़ावा देते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लवाद की वर्तमान स्थिति:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">इंटरनेट के बढ़ते प्रसार व इसकी व्यापक उपलब्धता ने नस्लवादी रूढ़ियों और गलत सूचनाओं के ऑनलाइन प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।</li>
<li style="text-align: justify;">वैश्विक महामारी के बाद उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार एशिया व एशियाई लोगों के विरुद्ध ऑनलाइन/ वेबसाइटों पर नफरती पोस्ट्स में 200% तक की वृद्धि दर्ज की गई है।</li>
<li style="text-align: justify;">नित नए तकनीकों के विकास व AI के बढ़ते उपयोग ने भी नस्लवाद को 'तकनीकी-नस्लवाद' के रूप में बढ़ावा दिया है। जिसके चलते किसी भी समुदाय के लोगों के साथ अनुचित व अन्यायपूर्ण व्यवहार करनें की संभावना काफी बढ़ गई है।</li>
<li style="text-align: justify;">वर्तमान समय में नस्लवाद का स्वरूप अत्यंत जटिल व अप्रकट हो चला है, जिसके चलते भेदभाव, आक्रामकता व अपमान की संरचनात्मक सूक्ष्मता में भी वृद्धि हुई है।</li>
<li style="text-align: justify;">कई समाजशास्त्री विशेषज्ञों का भी कहना है कि, पक्षपातपूर्ण व्यवहार व भेदभावपूर्ण कार्य सामाजिक असमानता को और बढ़ावा देतें है। जिसका उल्लेख 'द लांसेट' में प्रकाशित एक अध्ययन में भी किया गया है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>वैश्विक स्तर पर नस्लवाद:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे कई विकसित देशों में बहुतायत नस्लीय भेदभाव की घटनाएं देखी जा रही हैं जैसे- अमेरिका में जॉर्ज फ्लायड, ब्रियोना टेलर, एलिजा मैक्लेन, जियोना जॉनसन जैसे अश्वेत लोगों को अमेरिकी पुलिस की बर्बरता की वजह से अपना जीवन गंवाना पड़ा। वर्तमान ब्रिटिश pm ऋषि सुनक का खुले मंच से यह स्वीकारना कि उन्होंने भी नस्लवाद का दंश झेला है। जबकि पिछले ऑस्ट्रेलियाई दौरे पर भारतीय तेज गेंदबाज मोहम्मद सिराज को दर्शकों द्वारा काला बंदर कहकर संबोधित किया जाना, इंग्लैंड के पूर्व क्रिकेट कप्तान माइकल वान द्वारा एशियाई खिलाड़ियों के प्रति नस्लीय ट्वीट करना आदि घटनाएं प्रमुख है। जिसके चलते विकसित देशों पर यह दबाव पड़ने लगा है कि वे अपने राष्ट्रीय कानूनों में रंगभेद और नस्लभेद विरोधी कठोर प्रावधानों को निर्मित करे और उनके अनुपालन में भी सख्ती बरतें।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भारत की स्थिति:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15,16,29 के आधार पर कई रूपों में भेदभाव पर प्रतिबंध लगाया गया है तथा भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 153A भी 'नस्ल' को संदर्भित करती है। भारत ने वर्ष 1968 में ही नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन हेतु अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन(ICERD) की भी पुष्टि कर दी थी। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त प्रावधानों के बावजूद भी देश में कई स्थानों से जाति या फिर रंग के आधार पर भेदभाव करने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। ज्ञातव्य है कि पिछले कुछ वर्षों में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ बड़ी संख्या में मामले दर्ज किए गए है। जैसे- पूर्वोत्तर के लोगों के साथ दिल्ली व बंगलुरु में नस्लीय भेदभाव की घटनाएं बढ़ी है, यह हमारे देश की आंतरिक व्यवस्था के लिए चिंताजनक बात है।</p>
<p style="text-align: justify;">इस संदर्भ में किसी ने सच ही कहा है कि- "अपरिचय या अनजाने में यदि भेदभाव हो जाए तब तक कोई चिंता की बात नही, लेकिन जब नस्लीय आधार पर कोई पूर्वाग्रह के साथ भेदभाव करे तो स्थिति अलोकतांत्रिक हो जाती है।"</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लीय भेदभाव के कारण:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">प्रजातीय कारण- कुछ प्रजातियों द्वारा स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानना। जैसे- अमेरिकी गोरों द्वारा निग्रो जाति के लोगों को निम्नतम मानना।</li>
<li style="text-align: justify;">सामाजिक कारण- सामाजिक रूढ़ियों एवं कुप्रथाओं के चलते समाज में वर्गभेद जैसी समस्या उत्पन्न होती है और यही वर्गभेद नस्लवाद को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होता है।</li>
<li style="text-align: justify;">धार्मिक कारण- धर्म में पवित्रता एवं शुद्धि का महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसे में कई समाजों में निम्न व्यवसाय वालों को निम्न नस्ल का माना जाता है।</li>
<li style="text-align: justify;">इंटरनेट का प्रसार- नस्लीय भेदभाव को बढ़ाने में इंटरनेट वर्तमान समय में एक उर्वर भूमि के रूप में कार्य कर रहा है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लीय भेदभाव के लक्षण:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">जन्म के आधार पर सामाजिक हैसियत का निर्धारण होना।</li>
<li style="text-align: justify;">प्रत्येक व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण उसकी जाति, रंग, नस्ल आदि आधारों पर किया जाना।</li>
<li style="text-align: justify;">समाज में जाति, रंग एवं नस्ल के आधार पर ऊंच-नीच की भावना का उपस्थित होना।</li>
<li style="text-align: justify;">खान-पान एवं अंतःक्रिया अन्य जाति- बिरादरियों के बीच न होकर केवल अपनी जाति एवं नस्ल के बीच होना।</li>
<li style="text-align: justify;">अंतर्विवाह की नीति। जैसे- केवल अपनी ही जाति में विवाह की अनुमति।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लीय भेदभाव के प्रभाव:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">नस्लीय भेदभाव राष्ट्रीय व सामाजिक एकता में बाधक है। जिसके चलते सामुदायिक शत्रुता एवं घृणा जैसे भावों को बढ़ावा मिलता है।</li>
<li style="text-align: justify;">इसका प्रभाव आर्थिक विकास एवं आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पर भी पड़ता है, जैसे- नस्लवादी मानसिकता के लोग व्यतिगत व सार्वजनिक संपत्ति को तो नुकसान पहुंचाते ही है, साथ ही साथ सरकार के प्रगतिशील कार्यों में भी रुकावट का कारण बनते हैं।</li>
<li style="text-align: justify;">इसके चलते देश में वाह्य एवं आंतरिक सुरक्षा का भी खतरा उत्पन्न हो सकता है।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लवादी संघर्षों के दौरान असामाजिक तत्वों के कार्यों का प्रभाव सबसे ज्यादा बच्चों, महिलाओं एवं वृद्धों पर पड़ता है। जिसका प्रभाव व दंश कई दशकों तक उनके अंतर्मन में बना रहता है।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लीय भेदभाव लोगों को उनके आधारभूत जरूरतों जैसे- रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित कर देता है।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लीय भेदभाव के चलते औद्योगिक विकास एवं सांस्कृतिक विकास का सुचारू रूप से क्रियान्वयन नहीं हो पाता है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>वैश्विक स्तर पर नस्लवाद के विरुद्ध कुछ अन्य पहलें:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">डरबन डिक्लेरेशन एंड प्रोग्राम ऑफ एक्शन (2001)- इसे नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, जेनोफोबिया और संबंधित असहिष्णुता के खिलाफ विश्व सम्मेलन द्वारा अपनाया गया था।</li>
<li style="text-align: justify;">यूनेस्को न कोरिया गणराज्य के साथ साझेदारी के माध्यम से पेरिस में 22 मार्च, 2021 को 'ग्लोबल फोरम अगेंस्ट रेसिजम एंड डिस्क्रिमिनेशन' की मेजबानी की। इस फोरम के दौरान नस्लीय भेदभाव से निपटने के उद्देश्य से नीति-निर्माता, शिक्षा और अन्य हितधारक भी एकत्रित हुए।</li>
<li style="text-align: justify;">"ब्लैक लाइव्स मैटर" ने न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका बल्कि सम्पूर्ण विश्व में नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध लोगों को आंदोलित किया है। जिसके चलते वैश्विक स्तर पर नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध लोगों में एकजुटता देखी गई है।</li>
<li style="text-align: justify;">यूनेस्को द्वारा गठित " समावेशी एवं सतत शहरों का अंतरराष्ट्रीय गठबंधन" शहरी स्तर पर नस्लवाद के विरुद्ध संघर्ष में, बेहतर प्रथाओं को अपनाने के लिए एक मंच प्रदान करता है तथा अच्छे व्यवहारों को बढ़ावा देने हेतु एक प्रयोगशाला की भी भूमिका निभाता है।</li>
<li style="text-align: justify;">यूनेस्को शिक्षा, विज्ञान, सांस्कृतिक संचारों के माध्यम से नस्लवादी विचारों को कम करने हेतु प्रयासरत है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;">ऐसे में उपरोक्त प्रयासों के साथ-साथ कई मानवाधिकार संस्थाओं, सिविल सोसायटी आंदोलनों, वैश्विक संधियों के बावजूद भी कई देशों में ऐसा शिष्टाचार व संस्कृति नही विकसित हो पाई जो नस्लीय भेदभाव का उन्मूलन कर सके। यह कई परिवर्तनों के साथ आज भी अपनी निरंतरता बनाए हुए है, जो किसी एक या दो राष्ट्र के लिए नही बल्कि सम्पूर्ण विश्व एवं मानव जाति के लिए घातक है।</p>
<p style="text-align: justify;">ऐसे में वर्तमान समय में नस्लीय भेदभाव में हो रही वृद्धि के चलते यूनेस्को ने इस दिशा में जागरूकता को बढ़ावा देने का प्रयास किया है। इस संदर्भ में यूनेस्को ने मीडिया एवं इंटरनेट को सूचना साक्षरता रूपी औजार के रूप में विकसित किया है। इससे लोगों में विवेचनात्मक सोच, अंतरसांस्कृतिक संवाद एवं आपसी समझ को बढ़ावा मिला है।</p>
<p style="text-align: justify;">ऐसे में इसी इसी तरह कुछ नई पहलों को विकसित कर इस दिशा में सकारात्मक परिणाम प्राप्त किया जा सकता है। इस संदर्भ में निम्नलिखित सुझावों को भी अपनाया जा सकता है, जैसे-</p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">शिक्षा को बढ़ावा देकर, शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो मानवीय दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन ला सकता है।</li>
<li style="text-align: justify;">इस दिशा में जागरूकता कार्यक्रमों को बढ़ावा देकर जिससे शोषित होने पर लोग अपने हक के लिए आवाज उठा सके।</li>
<li style="text-align: justify;">सामाजिक सद्भाव व सद्भावना को बढ़ावा देने के साथ-साथ नस्लविरोधी कानूनों का भी सख्ती से क्रियान्वयन किया जाए।</li>
<li style="text-align: justify;">युवाओं एवं समुदायों में सहिष्णुता को बढ़ावा देने के साथ-साथ अंतर-सांस्कृतिक संवाद एवं सीखने, समझने के नए दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जाए तथा हानिकारक रूढ़ियों के उन्मूलन हेतु सामूहिक प्रयास किया जाए।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लवाद से पीड़ित लोगों को राज्य द्वारा मदद प्रदान की जानी चाहिए जिससे वे समाज की मुख्य धारा में पुनः लौट सकें।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;">इस प्रकार नस्लीय भेदभाव को समाप्त कर किसी भी व्यक्ति के गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार को प्रभावित होने से बचाया जा सकता है। इस संदर्भ में UN के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान का कथन- " हमारा उद्देश्य ज्ञान के साथ कट्टरता का त्याग करना और उदारता के साथ भेदभाव को दूर करना है।"</p>
<p style="text-align: justify;">नस्लवाद किसी भी स्थिति में और अवश्य ही समाप्त होना चाहिए। और हम सब मिलकर यह सुनिश्चित करें कि हर नस्ल, जाति, रंग, लिंग, पंथ में रुचि रखने वाले लोग एक-दूसरे से सुरक्षित और आपस में संबंधित है, जिससे कि हमारा आने वाला कल सौहार्दपूर्ण तथा समावेशी विकास को बढ़ावा देने वाला हो।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
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<tr>
<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1679396970_Ankit-Singh.jpeg" caption="false" width="416" style="display: block; margin-left: auto; margin-right: auto;" /></td>
<td style="width: 80%; text-align: justify;">
<h3 style="text-align: justify;"><strong><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"> अंकित सिंह </span></strong></h3>
अंकित सिंह उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले से हैं। उन्होंने UPTU से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन में स्नातक तथा हिंदी साहित्य व अर्थशास्त्र में परास्नातक किया है। वर्तमान में वे दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क (DU) से सोशल वर्क में परास्नातक कर रहे हैं तथा सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग लिखते हैं।</td>
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<p style="text-align: justify;">यदि भारत के संदर्भ में राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी नीतियों और अवधारणाओं पर बात की जाए तो यह उतनी ही पुरानी है जितनी कि राज्य संचालन हेतु शासन-प्रशासन की पद्धति। महान कूटनीतिज्ञ चाणक्य के शब्दों में, किसी भी प्रकार के आक्रमण से अपनी प्रजा की रक्षा करना प्रत्येक राजसत्ता का सर्वप्रथम उद्देश्य होता है। इनके अनुसार, “प्रजा का सुख ही राजा का सुख और प्रजा का हित ही राजा का हित होता है।” चाणक्य ने अर्थशास्त्र में लिखा है कि एक राज्य को चार अलग-अलग प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ सकता है- आंतरिक खतरा, बाहरी खतरा, बाहरी सहायता प्राप्त आंतरिक खतरा आंतरिक रूप से सहायता प्राप्त बाहरी खतरा। कमोबेश यही चार खतरे वर्तमान में भी राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष मौजूद हैं, बस इनके स्वरूप में बदलाव हुआ है।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा की वर्तमान स्थिति पर यदि गौर करें तो केंद्र की अलग-अलग सरकारों ने इसके लिए तमाम इंतज़ाम किये हैं। वर्ष 1980 का राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, राष्ट्रीय सुरक्षा में बाधक तत्त्वों के निवारक निरोध की अनुमति देता है। यदि संबंधित सरकारी प्राधिकारी किसी व्यक्ति के संदर्भ में संतुष्ट हो जाएं कि यह कानून और व्यवस्था के लिए बाधक बन सकता है तो उन्हें तीन महीने तक निवारक निरोध के अंतर्गत निरुद्ध किया जा सकता है। इसके बाद भी व्यक्ति का कारावास जारी रखा जा सकता है यदि सलाहकार बोर्ड द्वारा इस सम्बंध में संस्तुति दे दी जाए। इसका लक्ष्य व्यक्ति को अपराध करने से रोकना है। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी व्यक्ति के निवारक निरोध के आधारों में शामिल हैं- भारत की रक्षा, विदेशी शक्तियों के साथ भारत के संबंधों या भारत की सुरक्षा के प्रतिकूल किसी भी तरीके से कार्य करना आदि।</p>
<p style="text-align: justify;">एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति या नीति, देश के नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं और सुरक्षा चिंताओं को पूरा करने और देश के लिए बाहरी और आंतरिक खतरों को दूर करने के लिए देश के लिए एक महत्वपूर्ण ढांचा है। भारतीय राज्य के पास एक व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का अभाव है जो देश की सुरक्षा के लिए चुनौतियों का व्यापक आकलन करती हो और उनसे प्रभावी ढंग से निपटने के लिए नीतियां बनाती हो। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में एक शीर्ष स्तरीय रक्षा योजना समिति की स्थापना वर्ष 2018 में की गई थी, जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति तैयार करनी थी लेकिन अब तक इस पर कोई प्रगति नहीं हो पाई है।</p>
<p style="text-align: justify;">इसके साथ ही भारत के पास अपना राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत भी नहीं है। राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत राजनेताओं को देश के भू-राजनीतिक हितों की पहचान करने और उन्हें प्राथमिकता देने में मदद करता है। इसमें देश की सैन्य, कूटनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों की समग्रता शामिल है जो देश के राष्ट्रीय सुरक्षा हितों की रक्षा और बढ़ावा देगी।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष चुनौतियों पर गौर करें तो भारत की भू-राजनीतिक स्थिति, इसके पड़ोसी कारक, विस्तृत एवं जोखिम भरी स्थलीय, वायु और समुद्री सीमा के साथ इस देश के ऐतिहासिक अनुभव इसे सुरक्षा की दृष्टि से अतिसंवेदनशील बनाते हैं। वर्तमान समय में भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष सबसे बड़ा खतरा आतंकवाद है। आतंकवाद ऐसे कार्यों का समूह होता है जिसमें हिंसा का उपयोग किसी प्रकार का भय व क्षति उत्पन्न करने के लिये किया जाता है। यदि भारत मे हुई बड़ी आतंकी घटनाओं की बात की जाएं तो वर्ष 2008 का मुंबई बम धमाका, वर्ष 2016 के पुलवामा हमले ने भारत को गहरे जख्म दिए है।</p>
<p style="text-align: justify;">आतंकवाद के अतिरिक्त संगठित अपराध भी आज राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख बड़ा खतरा है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक अथवा अन्य लाभों के लिये एक से अधिक व्यक्तियों का संगठित दल, जो गंभीर अपराध करने के लिये एकजुट होते हैं, संगठित अपराध की श्रेणी में आता है। गैर-पारंपरिक अथवा आधुनिक संगठित अपराधों में हवाला कारोबार, साइबर अपराध, मानव तस्करी, मादक द्रव्य व्यापार आदि शामिल हैं। यदि भारत मे बढ़ते हुए साइबर खतरों को समझना है तो इस संबंध में कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम की रिपोर्ट उल्लेखनीय है। भारत की कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पॉन्स टीम ने 2022 की अपनी इंडिया रैनसमवेयर रिपोर्ट में कहा था कि भारत में महत्वपूर्ण मूलभूत ढांचे समेत तमाम क्षेत्रों पर रैनसमवेयर के हमलों की संख्या में 51 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।</p>
<p style="text-align: justify;">इन समस्याओं के अतिरिक्त नक्सलवाद भी भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक प्रमुख खतरा है। नक्सलियों के हमलों में तमाम निर्दोष लोगों की जानें गई है। इसके अलावा नक्सलियों ने बहुमूल्य राष्ट्रीय अवसंरचनाओं को भी क्षतिग्रस्त किया है।</p>
<p style="text-align: justify;">धार्मिक कट्टरता एवं नृजातीय संघर्ष भी राष्ट्रीय सुरक्षा को चोट पहुँचा रहे हैं। विभिन्न अतिवादी संगठन अपने धर्म, भाषा या क्षेत्र की श्रेष्ठता का दावा प्रस्तुत करते हैं तथा विद्धेषपूर्ण मानसिकता का विकास करते हैं। इन्हीं के कारण स्वतंत्रता से लेकर अब तक भारत में अनेक साम्प्रदायिक दंगे भी हुए हैं। इन समस्याओं के अतिरिक्त मादक द्रव्यों की तस्करी भी भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को चोट पहुँचा रही है। भारत के पड़ोसी देशों में ‘स्वर्णिम त्रिभुज’ (म्यांमार, थाईलैंड और लाओस) व ‘स्वर्णिम अर्द्धचंद्राकार’ (अफगानिस्तान, ईरान एवं पाकिस्तान) क्षेत्रों की उपस्थिति के परिणामस्वरूप मादक द्रव्यों का बढ़ता व्यापार भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख प्रमुख समस्या बन कर उभरा है।</p>
<p style="text-align: justify;">काले धन को वैध बनाने की प्रकिया धन शोधन अर्थात मनी लांड्रिंग कहलाती है। इसमें शामिल धन का उपयोग राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए किया जाता है। मनी लांड्रिंग से उत्पन्न धन से मादक द्रव्यों की तस्करी, आतंकवाद का वित्तपोषण और हवाला कारोबार किया जाता है। इसके अतिरिक्त भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कुछ नीतिगत चिंताएं भी हैं जैसे अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों द्वारा प्रत्येक वर्ष परिस्थितियों के अनुसार अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांतो को संशोधित किया जाता है जबकि भारत में इस संबंध में स्पष्ट कार्ययोजना का अभाव है। इसके अतिरिक्त भारत के पास राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी दीर्घकालिक नीतियों के संबंध में भी अस्पष्टता है।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को वराह युद्ध नीति(Battle pig policy) की आवश्यकता है। इसे इस परिघटना के माध्यम से समझिये- मेगेरा(ग्रीस का एक शहर) की घेराबंदी के दौरान, मैसेडोनिया का राजा एंटीगोनस (द्वितीय) युद्ध क्षेत्र में भारतीय हाथियों को हमले में लाता है। इसके प्रतिउत्तर में एक रणनीति के तहत मेगेरिया की सेना युद्ध के मैदान में सुअरों को छोड़ देती है। इसके साथ ही वहाँ आग लगा दी जाती है और सुअरों को हाथियों के मध्य तितर-बितर कर दिया जाता है। सुअर आग की यातना से कराहते-चिल्लाते है और हाथियों के बीच जितना हो सके आगे की ओर उछलते है। इससे हाथियों का झुंड भ्रम और भय से अपनी श्रेणियों को तोड़ देता है, और अलग-अलग दिशाओं में भाग जाता है। यह कहानी बताती है कि युद्ध में विजय मजबूत सेना को नही बल्कि तीक्ष्ण बुद्धि और तार्किक निर्णय लेने वाली सेना को मिलती है।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए सबसे पहले एक सुस्पष्ट राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को सुपरिभाषित करना होगा। इसके साथ ही एक अलग मंत्रालय के रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों के मंत्रालय की स्थापना और राष्ट्रीय सुरक्षा प्रशासनिक सेवा नाम से एक केंद्रीय सेवा की स्थापना करनी चाहिए। इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में नीति निर्माण सम्बंधी स्पष्टता के साथ ही प्रभावी क्रियान्वयन की सुनिश्चितता भी संभव होगी।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
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<td style="width: 20%; text-align: center;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1678868464_Sankarshan-Shukla.png" caption="false" width="219" /></td>
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<h3><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong><span style="font-size: 18px; background-color: #003366;"> संकर्षण शुक्ला </span></strong></span></h3>
<p><span><span class="ui-provider vf b c d e f g h i j k l m n o p q r s t u v w x y z ab ac ae af ag ah ai aj ak" dir="ltr">संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।</span></span></p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">दुनिया की तमाम सभ्यताएँ नदियों के किनारे फली-फूली हैं। सदियों से विभिन्न उद्योग-धंधे नदियों के दम पर विकास की रफ़्तार भरते रहे हैं। परिवहन, पर्यटन, विभिन्न उद्योग, पशुपालन और कृषि के लिए नदियाँ वरदान साबित होती रही हैं। नदियाँ प्राचीन काल से ही मानव सभ्यता की केंद्र में रही हैं। पहले नदियों के साथ मानव सभ्यता क़ायदे से पेश आती थी, फिर हमने इतनी तरक्की कर ली कि हम नदियों पर मनमुताबिक आदेश थोपने लगे। “औद्योगीकरण के दौर में बेतरतीब विकास के कारण अब नदियों के प्रति हमारी राक्षसी प्रवृत्तियाँ साफ-साफ दिखती हैं।” नदियों को जीवनदायिनी कहा जाता है लेकिन आज हमलोग इन्हीं का जीवन समाप्त करने पर तुले हुए हैं। दरअसल नदियाँ संसाधन के अलावा भी कुछ हैं; कल-कल करती नदियाँ, बेपरवाह उफान भरती नदियाँ, एक-दूसरे से जुड़ती और स्वतंत्र होकर मुड़ती नदियाँ यानी अपने उदगम से लेकर गंतव्य तक खुद के अनुसार आगे बढ़ती नदियाँ कितनी अच्छी लगती हैं! नदियाँ अच्छी न लगे तो संकट के बादल न केवल नदियों पर मंडराते हैं बल्कि जलीय जीव और मानव-जगत भी खतरे की परिधि में आ जाते हैं, और शुरू होते हैं संपूर्ण इकोसिस्टम के बुरे दिन।</p>
<p style="text-align: justify;">आपको क्या लगता है; प्रदूषित अथवा विलुप्त होती नदियाँ क्या सभ्य समाज की निशानी है? “सदियों से जिन मानव सभ्यता के लिए नदियाँ माँ की गोद की भाँति अपनी सेवा लगातार देती रही वही आज अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं।” नदियों के ऊपर संकट समय के साथ बढ़ता ही गया है। आनन-फ़ानन में किया गया विकास नदियों के साथ-साथ संपूर्ण जीव जगत के लिए धोखा है। स्थितियाँ ऐसी हैं कि या तो नदियों का जल ज़हर बन रहा है या फिर नदियाँ ही पूर्णतः नालियों में तब्दील हो रही हैं। कहीं-कहीं से नदियों के विलुप्त होने की भी ख़बरें आती रहती हैं। नदियों का सूखना आर्थिक विकास के ऊपर तमाचा नहीं तो क्या है!</p>
<p style="text-align: justify;">“भारत यदि किसानों का देश है तो नदियों का भी देश है। भारत को भारत बनाने में नदियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।” भारत की नदियाँ भारत को विकासशील से विकसित बनाने में डटी हुई हैं। भारत में सैकड़ों छोटी-बड़ी नदियाँ हैं। सभी छोटी नदियाँ आठ प्रमुख बड़ी नदियों (सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, गोदावरी, कृष्णा और महानदी) के साथ मिलकर नदी प्रणाली बनाती हैं। भारत के प्रमुख शहर और उद्योग किसी न किसी नदी के किनारे विकास के आसमां को छू रहे हैं। एक ओर जहाँ हमारी नदियाँ हमें शीतल, सिंचित और संपन्न कर रही हैं वहीं दूसरी ओर अधिक लोभ के कारण हमारे विकास का पेट नहीं भर रहा है जिससे तस्वीर बद से बदतर हो रही है।</p>
<p style="text-align: justify;">दरअसल अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण नदी को माँ नहीं बल्कि संसाधन के रूप में देखा जाने लगा है। नदियों के अंधाधुंध उपभोग की प्रवृत्ति का आलम यह है कि आज हमारे देश की 70% से ज़्यादा नदियाँ प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण शोध संस्थान नागपुर के अनुसार “गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी सहित देश की 14 प्रमुख नदियों में देश का कुल 85% जल प्रवाहित होता है। ये सभी नदियाँ इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि देश की 66% बीमारियों का कारण बन रही हैं।” हमने नदियों में फैक्ट्रियों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों के रासायनिक दवा और उर्वरक तथा अस्पतालों के कचरे को छोड़ने में कोई कमी नहीं की है। नदियों को मानो कचरा-घर में तब्दील करने का हमारा लक्ष्य हो। मूर्तियाँ, पूजा के सामान, अधजले शव और मल-मूत्र से न सिर्फ नदियाँ परेशान हैं बल्कि जलीय इकोसिस्टम भी संतुलन खो रही है। एक अध्ययन में सामने आया है कि “दुनिया में केवल 17% नदियाँ ही ऐसी बची हैं जिनमें बह रहा पानी स्वच्छ और ताजा है।” आज हमारे देश की 223 नदियाँ ऐसी हैं जिनमें न तो आप स्नान कर सकते हैं और न ही उनका जल पीने योग्य है। यहाँ तक कि कुछ नदियों की मछलियों को खाना भी सेहत के लिए ठीक नहीं है। यानी उन नदियों में प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि वे जीवनदायिनी से जानलेवा में तब्दील हो चुकी हैं। साल 1970 के बाद इस तरह के नदियों के इकोसिस्टम में लगभग 84% जलीय जीवों की आबादी में कमी आई है। दरअसल हम नदियों में कैडमियम, कॉपर, क्रोमियम, पारा और सीसा जैसे भारी धातुएँ अपशिष्टों के माध्यम से छोड़ रहे हैं। इन्हें जलीय जीव ग्रहण करते हैं और जलीय जीव हमारे भोजन का हिस्सा होता है। अब आप ही बताइए- नदियों और जलीय जीव को संकट में डालकर क्या हम लोग संकटरहित हैं?</p>
<p style="text-align: justify;">कृत्रिम बाँध बनाना, धाराओं को जबरदस्ती मोड़ना, नदियों से मशीनों द्वारा बालू निकालना, नदियों के किनारे अवैध निर्माण कार्य करना और विभिन्न प्रकार के कचरों को नदियों में यूँ ही बहा देना- कुछ ऐसे असंवेदनशील क़दम हैं जिनसे कमोबेश सभी नदियाँ संकट से घिर रही हैं। पहाड़ी इलाकों में विकास योजनाओं के नाम पर बन रही सड़कें, टाउनशिप और सुरंगें जलस्रोत को समाप्त कर रही हैं। डायनामाइट से होने वाले धमाकों से पहाड़ दरक रहे हैं और पहाड़ में मौजूद धाराएँ खत्म हो रही हैं। यदि इन सभी गतिविधियों पर रोक नहीं लगाई गई तो अगले कुछ दशकों में सैकड़ों नदियों का अस्तित्व वैसा ही होगा जैसा हिंडन, यमुना, गोमती, वरुणा, असि, आमी, चंबल, बेतवा, तमसा, कल्याणी, तिलोदकी, पाँवधोई, गुंता, मनसयिता, ससुर खेदरी, केलो और काली नदियों का है। ये सभी नदियाँ लगभग मरणासन्न अवस्था में हैं। हमने इनका दोहन ऐसे किया है जैसे हमलोग ही इस मानव सभ्यता की अंतिम पीढ़ी हों! इन्हीं दोहन का नतीज़ा है कि भारत के कुल 254 जिले सुखाड़ और सैकड़ों जिले बाढ़ को झेलने के लिए विवश हैं। कावेरी, गोदावरी, गंगा, नर्मदा, कृष्णा, भरतपुजा, यमुना, मूसी, नोयल, गोमती, हिंडन और भीमा नदियों की इस सूची में और भी कई भारतीय नदियाँ हैं जिनका जल स्तर अपने प्राकृतिक रूप में नहीं है। नदियाँ एक सीमा तक तो बोझ अथवा प्रताड़ना झेल सकती हैं किंतु जब सीमा का उल्लंघन होने लगे तो खुद भी मिटती हैं और जीव-जगत को भी मिटाती हैं, आप अपने आसपास की ख़बरों अथवा घटनाओं से इस सत्यता को जाँच सकते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत में गंगा नदी को माँ का दर्जा दिया गया है। एक समय था जब इनकी पवित्रता देश-दुनिया में विख्यात थी। तब गंगा-जल तमाम मानकों पर फिट बैठता था। फिलहाल गंगा-जल इतना दूषित हो चुका है कि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कहना पड़ा कि “गंगा नदी का पानी पीने के लिए स्वच्छ नहीं है।” दरअसल गंगा में 30% से अधिक कचरा 1100 से अधिक फैक्ट्रियों से आता है। अब गंगा नदी के कुछ जगहों पर नहाना भी बीमारियों को आमंत्रित करने जैसा हो गया है; उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल को इस श्रेणी में रखा गया है। साल 2016 में बिहार में गंगा नदी इतनी ज़्यादा सूख गई थी कि लोग रिवर बेड पर चलने लगे थे और कुछ महीने बाद भयंकर बाढ़ ने रौद्र रूप दिखलाया था। देश की अन्य छोटी-बड़ी नदियाँ भी अलग-अलग प्रकार से संकट में हैं। साल 2015 में तेलंगाना की मंजीरा नदी के सूखने के बाद मगरमच्छ पानी की खोज में गाँवों में प्रवेश करने लगे थे। गुजरात में नर्मदा नदी समुद्र तक नहीं पहुँच पाती है, इसके कारण समुद्र आगे आ रहा है और परिणामस्वरूप मिट्टी का क्षरण खूब हो रहा है। गोदावरी नदी अलग-अलग जगहों पर सूख रही है। कावेरी नदी अपना 40% जल प्रवाह खो दी है। कृष्णा और नर्मदा में 60% पानी कम हो चुका है। स्थिति यह है कि बारहमासी नदियाँ भी धीरे-धीरे मौसमी बन रही हैं। जो नदियाँ दशकों पहले लहलहाती थीं आज वे दम तोड़ रही हैं उदाहरण के लिए केरल की भरतपुजा, कर्नाटक की काबिनी, तमिलनाडु की कावेरी, वैगाई और पलार, उड़ीसा की मुसल तथा मध्यप्रदेश की क्षिप्रा नदी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही हैं। उत्तराखंड के एक तिहाई मौसमी झरने विलुप्त हो गए हैं। इसके कारण यहाँ की नदियों का जल स्तर 65% से भी नीचा चला गया है। समय रहते यदि हमलोग सचेत न हुए तो न केवल नदियाँ विलुप्त होती चली जाएगी बल्कि मानव सभ्यता को भी भयंकर प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। नीति आयोग के अनुसार- “धाराओं के सूखने से केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि जंगल और वन्यजीव भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।”</p>
<p style="text-align: justify;">ऐसा नहीं है कि केवल हमारे देश की ही नदियाँ संकट में हैं। अमेरिका की कोलोराडो नदी का जल स्तर बहुत नीचे जा चुका है जिसके कारण कुल सात अमेरिकी राज्य और मैक्सिको देश आपस में पानी के लिए संघर्षरत रहते हैं। उत्तरी चीन की ह्वांगहो और पश्चिम अफ्रीका की नाइजर नदी के जलप्रवाह में भी गिरावट आई हैं। यही हाल अन्य देशों के नदियों का भी है। दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक इंडोनेशिया की सितारुम नदी आसपास के जीव-जंतुओं के लिए काल के समान है। गौरतलब है कि शहरीकरण, औद्योगीकरण और पूँजीवाद के कारण पूरी दुनिया एक अलग दौर से गुजर रही है। इस दौर की दौड़ इतनी खतरनाक है कि जलवायु परिवर्तन को बल मिल रहा है। फलतः मानव सभ्यता विस्तृत होती जा रही है जबकि नदियाँ सिकुड़ती जा रही हैं। लगता है आधुनिक मानव सभ्यता को चिल्ला-चिल्लाकर बताना ही होगा कि सिंधुघाटी सभ्यता का अंत नदियों ने ही किया था। “यदि नदियों को बदहाल कर हम खुशहाल रहने का दंभ पाल रहे हैं तो यह साजिश ज़्यादा दिनों तक काम आने वाली नहीं है। नदियाँ ज़रूर बदला लेती हैं; यदि हमलोग इनके साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो ये भी पलटवार करेंगी।” अख़बारों, पत्रिकाओं, टेलीविजन डिबेट्स और पर्यावरणविदों के कथन को डिकोड करने की कोशिश करें तो आप पाएंगे कि नदियों की मुश्किलें कई गुणा बढ़कर हमारी ही मुश्किलें बनती जा रही हैं। यदि संकट में नदियाँ हैं तो महासंकट में मानव सभ्यता भी है।</p>
<p style="text-align: justify;">एक ओर जहाँ तृतीय महायुद्ध के कारणों में सबसे बड़ा कारण जल का महासंकट लगता है तो दूसरी ओर मानव-जगत जल के महत्वपूर्ण स्रोत नदियों के साथ ऐसे व्यवहार कर रही है जैसे इनके नाश होने अथवा न होने से कोई फर्क ही न पड़ेगा। हमें याद रखना चाहिए कि “नदी है तो जल है और जल है तो जीवन है।” हमलोग नदियों को बचाकर ही आधुनिक मानव सभ्यता को सुरक्षित रख सकते हैं। हमें टिकाऊ विकास की राह पर चलकर ही वे तमाम विकास के कार्य करने चाहिए जो मानव और प्रकृति के हित में हो। वह विकास असली विकास हो ही नहीं सकता जो संकट को न्योता दे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते हैं-</p>
<p style="text-align: justify;">“पृथ्वी, सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है किन्तु उनके लालच की पूर्ति के लिए नहीं।”</p>
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<h3><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> राहुल कुमार </strong></span></h3>
<p>राहुल कुमार, बिहार के खगड़िया जिले से हैं। इन्होंने भूगोल, हिंदी साहित्य और जनसंचार में एम.ए., हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा तथा बीएड किया है। इनकी दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये IIMC से पत्रकारिता सीखने के बाद लगातार लेखन कार्य कर रहे हैं।</p>
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<p style="text-align: justify;">भारतीय समाज की नारी की स्थिति को बखूबी बयां करती निर्मला पुतुल की ये पंक्तियाँ पूरे समाज की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं। भले ही आज हम यह कहकर अपनी पीठ थपथपा लें कि आजादी के 75 सालों में हमारी महिलाएँ चाँद पर पहुँच गई हैं, फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं, ओलंपिक में पदक जीत रही हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियाँ चला रही हैं या राष्ट्रपति बनकर देश की बागडोर संभाल रही हैं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो यह संख्या महिलाओं की आबादी का अंशमात्र ही है। हमारे समाज की महिलाओं का एक बड़ा तबका आज भी सामाजिक बंधनों की बेड़ियों को पूरी तरह से तोड़ नहीं पाया है; उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है या यूँ कहें कि हमारा पितृसत्तात्मक समाज उन्हें जन्म से ही ऐसे साँचे में ढालने लगता है कि वे अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिये पुरुषों का सहारा ढूँढती हैं। वहीं यह भी सत्य है कि ''जब-जब कोई स्त्री अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है तब-तब न जाने कितने रीति-रिवाजों, परंपराओं, पौराणिक आख्यानों की दुहाई देकर उसे गुमनाम जीवन जीने पर विवश कर दिया जाता है।'' इसलिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि तेजी से विकास के पथ पर अग्रसर भारत में शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक स्तर पर महिलाओं ने अब तक कितनी दूरी तय की है-</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>कितनी बढ़ी महिलाओं की साक्षरता दर?</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भारत में आज भी बहुत सी लड़कियाँ ऐसी हैं, जो शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। वहीं, पढ़ाई-लिखाई के दौरान बीच में ही स्कूल छोड़ देने वाली लड़कियों की संख्या भी लड़कों की संख्या से बहुत ज़्यादा है क्योंकि लड़कियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे घर के कामकाज में मदद करें। वहीं, उच्च शिक्षा की बात करें तो बहुत सी लड़कियाँ सिर्फ इसलिए उच्च शिक्षा से वंचित रह जाती हैं क्योंकि उनके परिवार वाले पढ़ाई के लिये उन्हें घर से दूर नहीं भेजते हैं, जिसके चलते उनका अधिकतर समय घरेलू कामों में खर्च होता है और महिलाओं व पुरुषों के बीच समानता का अंतराल बढ़ता चला जाता है। इससे इस मिथक को बढ़ावा मिलता है कि, शिक्षा-दीक्षा लड़कियों के किसी काम की नहीं है क्योंकि अंत में उन्हें प्राथमिक रूप से घर ही संभालना है, शादी करनी है और पति व बच्चों की सेवा करनी है। इतना ही नहीं, लड़कियों को शादी कब करनी है, किससे करनी है, बच्चे कब पैदा करने हैं? ये सब कुछ भी हमारी पितृसत्ता तय करती है।</p>
<p style="text-align: justify;">आँकड़ों पर नजर डालें तो, साल 1951 में भारत की साक्षरता दर केवल 18.3 फीसदी थी जिसमें से महिलाओं की साक्षरता दर 9 फीसदी से भी कम थी। वहीं, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) के डाटा के अनुसार साल 2021 में देश की औसत साक्षरता दर 77.70 प्रतिशत थी जिसमें पुरुषों की साक्षरता दर 84.70 प्रतिशत, जबकि महिलाओं की साक्षरता दर 70.30 प्रतिशत थी। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि आजादी के बाद से अब तक महिलाओं की साक्षरता दर में वृद्धि हुई है, लेकिन अभी भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। निम्नलिखित पंक्तियाँ देश की बेटियों को एक बार फिर से उठ खड़े होने का ज़ज्बा प्रदान करती हैं-</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><strong><em>आओ उड़ाने भरें</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>पंख भी हैं, खुला आकाश भी है</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>फिर ये न उड़ पाने की मज़बूरी कैसी</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>लगता है, आत्मा पर जंग लगे संस्कारों की</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>कील ठोंक दी गई है</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>कि पंख बस</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>यूं ही फड़फड़ाएं और रह जाएं</em></strong></span></p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>रसोई में केवल महिलाएँ ही क्यों?</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भारत के रसोइघरों से महिलाओं की सामाजिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज भी घर की बेटी, बहू, माँ व पत्नी चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी क्यों न हो; कितने ही बड़े पद पर काम क्यों न कर रही हो; घर के सभी सदस्यों के लिये खाना पकाने व परोसने की उम्मीद सिर्फ महिला सदस्य से ही की जाती है। इसी वजह से भारतीय समाज में लड़कियों को बचपन से ही रसोईघर के काम सिखाने शुरू कर दिए जाते हैं, जबकि लड़कों को रसोई से दूर रखा जाता है। जिससे आगे चलकर वे लड़के, जिनसे कभी रसोई के काम नहीं करवाए गए; जिन्होंने कभी अपने पिता को माँ के साथ खाना बनाते या अन्य घरेलू कामों में मदद करते नहीं देखा, वे भी अपने बच्चों को वैसा ही बनाते हैं जैसा उन्होंने अपने परिवार में देखा होता है। जिससे पितृसत्ता की विचारधारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में बिना किसी रुकावट के स्थानांतरित होती रहती है और अधिकांश महिलाएँ पूर्ण रूप से देश के विकास में अपना योगदान नहीं दे पाती हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">यहाँ पर इस बात पर भी विचार करना ज़रूरी है कि, महिलाएँ घर के पुरुषों को खाना खिलाने के बाद अंत में खाना खाती हैं। घर का कोई पुरुष इस बारे में नहीं सोचता कि उन्हें भी हमारे साथ बैठकर खाने का अधिकार है। इसका यह मतलब नहीं कि सभी पुरुष क्रूर और हिंसक है। इसका मतलब यह है कि, पितृसत्ता ने हमें ऐसा बना दिया है कि हम उससे परे जाकर सोच नहीं पाते हैं। जिसमें बदलाव की ज़रूरत है। इस संदर्भ में निर्मला पुतुल की निम्नलिखित पंक्तियाँ बेहद प्रासंगिक हैं-</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><em><strong>तन के भूगोल से परे</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>एक स्त्री के</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>मन की गाँठें खोलकर</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>कभी पढ़ा है तुमने</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>उसके भीतर का खौलता इतिहास?</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>X X X X </strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>अगर नहीं!</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>तो फिर जानते क्या हो तुम</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>रसोई और बिस्तर के गणित से परे</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>एक स्त्री के बारे में...?</strong></em></span></p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>धर्मों में भी महिलाओं का स्थान निम्न</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश में शिक्षा, मीडिया, कानूनी संस्थाएँ, आर्थिक संस्थाएँ, राजनीतिक संस्थाएँ सभी पूरी तरह से पितृसत्तात्मक हैं। यहाँ तक कि, सभी धर्म भी पितृसत्तात्मक हैं। अधिकांश धर्म महिला को अपना मुख्य आराध्य नहीं मानते। चूंकि धर्मों में पितृसत्ता को सर्वोच्च दिखाया गया है इसलिए महिलाओं को हमेशा से धर्म के नाम पर दबाने का प्रयास किया जाता है, और महिलाएँ बिना बराबरी का अधिकार माँगे अपने पति को परमेश्वर, स्वामी मानने लगती हैं। वह इस बात पर ज़रा भी विचार नहीं करतीं कि पति-पत्नी में अगर एक मालिक है तो दूसरा कौन होगा? वह आसानी से अपने आपको गुलाम मान लेती हैं क्योंकि उनका प्राइमरी स्कूल जो कि उनका परिवार होता है, में उन्हें बचपन से ही ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>आर्थिक रूप से कितनी सक्षम हैं भारतीय महिलाएँ</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">आज भी महिलाओं की अधिकांश समस्याओं का कारण आर्थिक रूप से परनिर्भरता है। यह बेहद चिंताजनक है कि देश की कुल आबादी में 48 फीसदी महिलाएँ हैं जिसमें से मात्र एक तिहाई महिलाएँ रोजगार में संलग्न हैं। इसी वजह से भारत की जीडीपी में महिलाओं का योगदान केवल 18 फीसदी है।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि परिवार के भीतर और बाहर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभावों को समाप्त कर पुरुषों के समान अर्थव्यवस्था में भागीदारी करने के अवसर प्रदान किए जाएं तो अन्य महिलाएँ भी गीता गोपीनाथ, इंद्रा नुई, किरण मजूमदार शॉ की तरह सशक्त होंगी, साथ ही देश भी आर्थिक मोर्चे पर तेजी से प्रगति करेगा। सभी महिलाओं को इन चार पंक्तियों को ज़रूर आत्मसात करना चाहिये-</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><em><strong>न रहो कभी किसी की आश्रिता,</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>खुद बनकर स्वावलंबी बनो हर्षिता</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>हमें खुद अपना संबल बनना है</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>हमें परजीवी लता नहीं बनना है॥</strong></em></span></p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>सत्ता व न्यायालयों में महिलाओं की भागीदारी</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आज के समय में महिलाएँ घर की चारदीवारी से निकलकर सत्ता की बागडोर संभाल रही हैं, और न केवल संभाल रही हैं बल्कि कुशल संचालन कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ममता बनर्जी, प्रियंका गाँधी, स्मृति ईरानी, मेनका गाँधी, मायावती को देखा जा सकता है। लेकिन देश में महिलाओं की आबादी के अनुसार देखें तो राजनीति में महिलाओं की संख्या अभी भी काफी कम है। भारतीय संसद में केवल14 फीसदी महिलाएँ हैं, जबकि संसद में महिलाओं की वैश्विक औसत भागीदारी 25 फीसदी से ज़्यादा है। इसके अलावा, ग्रामीण अंचलों में पंचायत स्तर पर अधिकांश महिलाओं को केवल मुखौटे की तरह इस्तेमाल किया जाता है यानी चुनाव तो महिला जीतती है लेकिन सत्ता से संबंधित सभी निर्णय उसके परिवार के पुरुष सदस्य करते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">वहीं, न्यायालय में भी महिलाओं की संख्या संतोषजनक नहीं है। आपको जानकर हैरानी होगी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय सहित उच्च न्यायालयों में मौजूद न्यायाधीशों में महज 11 प्रतिशत महिलाएँ हैं। समय की माँग है कि अब महिलाएँ जाग्रत हों और अपनी क्षमता को पहचान कर, परंपरागत रूढ़ियों को खंडित कर देश की मुख्यधारा में अधिक से अधिक योगदान दें।</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><em><strong>ऐ शक्ति स्वरूपा</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>ऐ भावी पीढ़ी की निर्माता</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>मानवता तुम्हे प्रणाम करे</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>आओ! उड़ान भरें</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>आओ! हम सब मिलकर इस पार</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>बादलों के उस पार</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>लंबी-ऊंची उड़ान भरें</strong></em></span></p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>निष्कर्ष</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">रूप में हम कह सकते हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक भारत में महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में एक लंबा रास्ता तय किया है, परंतु अभी भी मंजिल से मीलों दूर हैं। तेजी से भागते समय के इस पहिये के साथ हमारी रफ्तार बहुत धीमी है, और इस रफ्तार को तभी बढ़ाया जा सकता है जब भारतीय समाज पितृसत्तात्मक मानसिकता से ऊपर उठकर महिलाओं को भी पुरुषों के समान बराबरी के अधिकार प्रदान करेगा। हालाँकि हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिए गए हैं लेकिन यहाँ का समाज अपने नियमों के अनुसार, महिलाओं को संचालित करता है, जिसमें बदलाव की सख्त ज़रूरत है।</p>
<p style="text-align: justify;">साथ ही, इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिये कि हमें नारीशक्ति का उद्धारक नहीं, वरन् उनका सहायक बनना है। भारतीय महिलाएँ भी संसार की अन्य महिलाओं की तरह अपनी समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखती हैं। आवश्यकता बस इतनी है कि उन्हें उपयुक्त अवसर प्रदान किए जाएँ; उनका वस्तुकरण करने की बजाय उन्हें मनुष्य समझा जाए। बेहतरीन कवयित्री अनामिका ने स्त्रियों को गहराई से समझने की गुजारिश करते हुए लिखा है-</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><em><strong>सुनो, हमें अनहद की तरह</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>और समझो जैसे समझी जाती है</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>नई-नई सीखी हुई भाषा।</strong></em></span></p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
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<h3><strong><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"> शालिनी बाजपेयी </span></strong></h3>
<p style="text-align: justify;">शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।</p>
</td>
</tr>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">अनादि काल से भारत में विज्ञान की परम्परा विद्यमान रही है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से मिले साक्ष्य इस बात का प्रमाण हैं कि उन लोगों में विज्ञान की समझ थी। प्राचीन काल में भारत में विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धियों में महर्षि सुश्रुत के द्वारा खोजी गई शल्य चिकित्सा है, दुनिया आज उन्हें ‘फादर ऑफ सर्जरी‘ मानती है। नागार्जुन ने रसायन विज्ञान को जन्म दिया। मनुष्य और विज्ञान का विकास एक साथ होता है। वेबर कहते हैं कि- ‘ दर्शन के बिना विज्ञान वैसा है जैसे एकता या संगठन के बिना कोई समूह, आत्मा के बिना शरीर, इसी प्रकार विज्ञान के बिना दर्शन ऐसा है, जैसे शरीर के बिना आत्मा।‘ धातु विज्ञान ,वस्त्र निर्माण, भवन निर्माण और परिवहन व्यवस्था का विकास सिन्धु सभ्यता के समय हो चुका था। भारत की प्राचीनकाल की उपलब्धियों से लेकर चन्द्रयान के प्रक्षेपण तक सफलताओं का एक लम्बा इतिहास रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में भारत अपनी अनगिनत उपलब्धियों के चलते ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2022 में 40वें स्थान पर है। अमेरिका के ‘नेशनल साइंस फाउंडेशन‘ के साइंस एंड इंजीनियरिंग इंडिकेटर्स 2022 की रिपोर्ट के अनुसार भारत वैज्ञानिक प्रकाशन के क्षेत्र में विश्व में तीसरे स्थान पर है। भारत ने विज्ञान के सभी क्षेत्रों में कृतिमान स्थापित किया है लेकिन आज हम विज्ञान की जिन प्रमुख उपलब्धियों पर बात करेगें वे कुछ इस प्रकार हैं:</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>रक्षा के क्षेत्र में उपलब्धियाँ:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">आधुनिक युग में सबसे शक्तिशाली देश वह है जिसने अपने रक्षा क्षेत्र को मजबूत किया है। स्वीडन स्थित थिंक टैंक ‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट’ (सिप्री) के अनुसार दुनिया में नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं जिसमें भारत भी शामिल है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ सैन्य क्षेत्र में सबसे ज़्यादा ख़र्च करने वाला अमेरिका, चीन के बाद भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। भारतीय वायु सेना दुनिया की चौथी सबसे बड़ी वायु सेना है। वायु सेना के लड़ाकू विमानों में राफेल, तेजस, सुखोई मिग-29 और मिग-21 शामिल हैं। भारत की थल सेना की बात करें तो ग्लोबल फायरपावर रैंकिंग में विश्व की सबसे ताकतवर सेना की सूची में शामिल 133 देशों में भारत चौथे नंबर पर है। किसी भी देश की सुरक्षा और व्यापार का रास्ता समुद्र से होकर गुजरता है इस लिहाज से नौसेना की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। भारतीय नौसेना दक्षिण एशिया की सबसे ताकतवर सेना है। भारत वैश्विक शांति और समृद्धि के सामूहिक लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयास से अपने मित्र राष्ट्रों का सहयोग भी करता है। भारत की तीनों सेनाएँ अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, नेपाल ,ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से युद्ध – अभ्यास भी करती रहती हैं। रक्षा मंत्रालय ने भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए अग्निपथ योजना प्रारम्भ की है। आज भारत रक्षा क्षेत्र में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो गया है और सभी प्रकार की चुनौतियों से निपटने में सक्षम है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>चिकित्सा के क्षेत्र में उपलब्धियाँ:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">भारत में प्राचीन काल से चिकित्सा के क्षेत्र में वैज्ञानिकों की अग्रणी भूमिका रही है। यहाँ पर शल्य चिकित्सा वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर की जाती थी। भारत के चिकित्सा वैज्ञानिकों ने शारीरिक इलाज के साथ मस्तिष्क इलाज की तकनीकी विकसित की थी। बिना मस्तिष्क इलाज के शारीरिक इलाज पूरी तरह से सम्भव नहीं हो सकता है। पेल्टो ने कहा था ‘ डॉक्टर सबसे बड़ी गलती यह करते हैं कि वे मस्तिष्क का इलाज किये बगैर सिर्फ शरीर का इलाज करने की कोशिश करते हैं, जबकि मस्तिष्क और शरीर आपस में जुड़े हुये हैं और उनका अलग-अलग इलाज नहीं किया जाना चाहिए।‘ आज दुनिया के कई देश साइकोसोमैटिक (मनोदैहिक) चिकित्सा का विकास कर रहे हैं जबकि भारत में इस तरह के चिकित्सा का विकास प्राचीन काल में हो गया था। भारत ने मानव चिकित्सा के साथ पशु चिकित्सा पर ध्यान दिया है। भारत में गम्भीर से गम्भीर बीमारियों के इलाज सम्भव हैं। हमने चेचक, हैजा, येलो फीवर, कैंसर और पोलियों जैसी गम्भीर बीमारी को जड़ से खत्म कर दिया है। कोरोना के समय में वैश्विक स्तर पर भारत के चिकित्सा वैज्ञानिकों ने दुनिया को राह दिखाने का काम किया है। भारत का मेडिकल टूरिज्म सेक्टर 18 फीसद की वार्षिक वृद्धि कर रहा है। अन्य देशों की अपेक्षा भारत में इलाज 65 से 90 फीसद सस्ता और क्वालिटी ट्रीटमेंट दिया जाता है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>सूचना – संचार के क्षेत्र में उपलब्धियाँ:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">21वीं सदी को सूचनाओं का युग कहना कोई जल्दबाजी नहीं होगा । भारत के वैज्ञानिकों ने संचार के क्षेत्र में कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं। बात ऑप्टिकल फाइबर की हो, वाईफाई अथवा 5जी की या फिर सुपर कंप्यूटर ,क्वांटम कम्प्यूटिंग की; आज सूचना- संचार के विकास से भारत ई -प्रशासन, डिजिटल इकोनॉमी, ई -लार्निंग, मौसम पूर्वानुमान में अव्वल है। संचार के विकास ने रोजगार सृजन के द्वारा खोल दिया है। भारत का आईटी सेक्टर दुनिया को राह दिखा रहे हैं। सूचना संचार ने मनुष्य को आपस में जोड़ने के साथ सामाजिक, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>कृषि के क्षेत्र में उपलब्धियाँ:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। भारत में कृषि के क्षेत्र में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के उपयोग से उल्लेखनीय प्रगति हुई है। भारत ने आज कृषि के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर खुद को स्थापित किया है। वर्तमान में भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर के साथ अनाज निर्यातक देशों में एक है। भारत विश्व में दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में प्रथम, दाल खेती योग्य भूमि में प्रथम और कपास के संकर किस्मों को विकसित करने में पहला स्थान रखता है। भारत विश्व में कुल उर्वरक उपयोग में चौथा स्थान रखता है। परजीवी खेती, फर्टिगेशन, कृत्रिम बीज,अनुवांशिक संवर्धित बीज को बढ़ाने में विज्ञान ने महत्तपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत आज पूरी तरह से जैविक खेती की ओर बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों ने भारतीय कृषि को रोजगार के साथ जोड़ दिया है। आज कृषि के क्षेत्र में रोजगार की अपार संभावनाएँ हैं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>अंतरिक्ष के क्षेत्र में उपलब्धियाँ:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">आकाश में उड़ना और धरातल पर बात करना किसे पसंद नहीं है, इन्हीं ख्यालों को पूरा करने के लिए हमारे देश के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने क्या कुछ नहीं किया है। भारत एशिया का पहला ऐसा देश है जिसने मंगल ग्रह की कक्षा में पहुंचने में सफलता प्राप्त की है। भारत दुनिया के लगभग 70 देशों के उपग्रहों को लॉन्च किया है। भारत के पास पीएसएलवी और जीएसएलवी जैसे अत्यंत सफल प्रक्षेपण यान हैं। भारत ने उपग्रह को धुव्रीय कक्ष में स्थापित करके कीर्तिमान कायम किया है। भारत ने रोहिणी, एप्पल जैसे उपग्रह को स्थापित किया है। भारत का उपग्रह प्रक्षेपण के मामले में विश्व में चौथा स्थान है। भारत के अंतरिक्ष प्रोग्रामों की प्राथमिकता देश को विकसित करना और आत्मनिर्भर बनाना है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>निष्कर्ष:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">21वीं सदी में देश को विकसित राष्ट्र बनाने का एकमात्र विकल्प विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी है। विज्ञान हमारे समाज एवं संस्कृति का हिस्सा है। मनुष्य ने विज्ञान के माध्यम से कठिन से कठिन कार्य को सरल बना लिया है। आज देश की तरक्की के पैमाने का निर्धारण विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर निर्भर करता है। जो देश विज्ञान के क्षेत्र में जितना उन्नति करेगा उसकी अर्थव्यवस्था उतनी ही मजबूत होगी। विज्ञान को पृथक कर किसी समाज या राष्ट्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी रोजगार सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
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<h3><strong><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"> अजय प्रताप तिवारी </span></strong></h3>
<p>अजय प्रताप तिवारी, यूपी के गोंडा जिले के निवासी हैं। इन्होंने विज्ञान और इतिहास में पढ़ाई करने के बाद देश के प्रतिष्ठित अखबारों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेखन कार्य किया है। इसके साथ ही इन्हें साहित्य और दर्शन में रुचि है।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">कर एक अनिवार्य शुल्क या वित्तीय शुल्क है जो किसी भी सरकार द्वारा किसी व्यक्ति या संगठन पर सार्वजनिक कार्यों जैसे; सर्वोत्तम सुविधाएं और बुनियादी ढांचा के निर्माण हेतु आवश्यक राजस्व की पूर्ति हेतु लगाया जाता है। स्वतंत्र भारत में यदि वित्तीय व्यवस्था के अंतर्गत कर संरचना की बात करें तो कर को दो प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है- प्रत्यक्ष कर, अप्रत्यक्ष कर।</p>
<p style="text-align: justify;">प्रत्यक्ष कर एक ऐसा कर है जो एक व्यक्ति या संगठन द्वारा प्रत्यक्ष यानी सीधे तौर पर उस संस्था को दिया जाता है जिसने इसे अधिरोपित किया है। उदाहरण के लिये एक व्यक्तिगत करदाता, आयकर, वास्तविक संपत्ति कर, व्यक्तिगत संपत्ति कर सहित विभिन्न उद्देश्यों के लिये सरकार को प्रत्यक्ष कर का भुगतान करता है। यदि अप्रत्यक्ष करों की बात की जाए तो यह एक ऐसा कर है जिसे वस्तुओं और सेवाओं पर उस ग्राहक तक पहुँचने से पहले अधिरोपित किया जाता है जो अंततः खरीदे गए सामान या सेवा के बाज़ार मूल्य के हिस्से के रूप में अप्रत्यक्ष कर का भुगतान करता है। उदाहरण के लिये वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), आयात शुल्क।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत में प्रचलित वर्तमान कराधान प्रणाली की आरम्भिक जड़ें जेम्स विल्सन द्वारा वर्ष 1860 में प्रस्तुत किये गए प्रथम भारतीय बजट में खोजी जा सकती है। इस बजट में पहली बार विल्सन ने कर कानूनों और कागज की मुद्रा के प्रचलन की बात कही। विल्सन द्वारा प्रस्तुत किये गए कर संबंधी कानूनों का तीखा विरोध भी हुआ।</p>
<p style="text-align: justify;">ब्रिटिश भारत के प्रशासनिक अफसर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने द वीक नामक अखबार में अपनी बात रखते हुए कहा कि राज्य उन लोगों पर कर कैसे लगा सकता है जिनका सरकार में कोई प्रतिनिधित्व नही है। ट्रेवेलियन द्वारा सरकार में हिस्सेदारी के संबंध उठाया गया ये सवाल बाद में गठित हुई राजनीतिक संस्थाओं जैसे इंडियन एसोसिएशन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वारा जोरशोर से उठाया गया। यदि भारत की स्वतंत्रता से पहले प्रमुख कर सुधारों की बात करें तो वर्ष 1935 के भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत वस्तुओं की बिक्री पर कर अधिरोपण को राज्य सूची में शामिल किया गया था। अधिनियम के इसी प्रावधान के आधार पर सबसे पहले मद्रास में वर्ष 1939 में बिक्री कर संबंधी कानून बने। इसके बाद 1941 में पंजाब व अन्य राज्यों में भी बिक्री कर सम्बन्धी प्रावधान लाए गए।</p>
<p style="text-align: justify;">भारतीय स्वतंत्रता के एक दशक बाद यानी वर्ष 1957-1958 के वित्तीय वर्ष हेतु प्रस्तुत किए गए बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री टी.टी.कृष्णामचारी ने सक्रिय आय और निष्क्रिय आय के मध्य अंतर बताते हुए सक्रिय आय के तहत नौकरियों और व्यापार को रखा जबकि निष्क्रिय आय के तहत किराये पर दी गई संपत्तियों और ब्याज को रखा। इसके साथ ही किसी भी किस्म के आयात हेतु लाइसेंस को जरूरी कर दिया गया। संपत्ति कर भी लगाया गया व सीमा एवं उत्पाद शुल्कों को 400 फीसदी तक बढ़ा दिया गया।</p>
<p style="text-align: justify;">कर सुधार की प्रक्रिया में वर्ष 1974 में एल के झा समिति गठित की गई। इन्होंने उत्पादों पर मूल्यवर्धित कर अर्थात वैट लगाने की संस्तुति दी। वैट एक अवधारणा है और इसे बिक्री कर के समुच्चय के अंतर्गत रखा जा सकता है। दरअसल एक वस्तु विभिन्न चरणों जैसे फैक्ट्री, वितरक, थोक विक्रेता, खुदरा दुकानदार से होते हुए अंतिम खरीदार तक पहुँचती है। ऐसे में ये सभी हितधारक अपना-अपना मुनाफा भी लेते है। वैट इन्हीं मुनाफों पर लगने वाला एक कर है।</p>
<p style="text-align: justify;">वर्ष 1976 में तत्कालीन वित्त मंत्री द्वारा कर सुधारों के अंतर्गत कर दरों को कम किया गया। यहाँ पर स्रोत आधारित करों की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया। इन कर सुधारों का प्रभाव अगले 30 सालों तक बना रहा। वोडाफोन और कर अधिकारियों के मध्य कर संबंधी विवाद के लिए हुई लड़ाई इसका एक उदाहरण है। दरअसल वोडाफोन द्वारा भारतीय टेलीकॉम कंपनियों में किये गए अप्रत्यक्ष अधिग्रहण को कर अधिकारियों द्वारा कराधान की परिधि में लाया गया था। इस करारोपण के विरुद्ध वोडाफोन सुप्रीम कोर्ट गई। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने फैसला वोडाफोन के पक्ष में ही सुनाया।</p>
<p style="text-align: justify;">आपातकाल के बाद 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बनते हैं। इनकी सरकार में वित्त मंत्री हीरुभाई एम पटेल द्वारा वित्त वर्ष 1978-1979 के लिए बजट प्रस्तुत किया जाता है। इसके अंतर्गत विदेशी कंपनियों के लिए ये अनिवार्य किया जाता है कि वे किसी भारतीय कंपनी के साथ मिलकर ही यहां बिजनेस करें। इसके बाद विदेशी कंपनी और भारतीय कंपनी के संयुक्त नामों वाली कंपनियां सामने आती हैं। मारुती सुजुकी, हीरो-होंडा इसी के उदाहरण हैं। कोका कोला द्वारा इस शर्त को नहीं माना गया था इसी कारण उस दौर में उनका अस्तित्व समाप्त हो गया था।</p>
<p style="text-align: justify;">इसके बाद अर्थव्यवस्था में उन कर सुधारों को प्रस्तुत किया जाता है जिनकी बदौलत भारत आज विश्व की पाँच शीर्षस्थ अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। वर्ष 1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा प्रस्तुत किये गए बजट में आर्थिक उदारीकरण की एक नई इबारत गढ़ी जाती है। इसके अंतर्गत भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के विचारों को शामिल किया जाता है। हालांकि वित्त संबंधी मामलों के विशेषज्ञ इन आर्थिक सुधारों के पीछे विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा लाइसेंस राज को खत्म करने को मानते हैं। इसी सुधार के बरक्स भारत मे सोने की तस्करी में गिरावट आई क्योंकि अब सोने का दाम पहले की अपेक्षा काफी ज्यादा गिर चुका था।</p>
<p style="text-align: justify;">उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण सुधारों के दौरान ही कर सुधारों के लिए वर्ष 1991-1992 में राजा चेलैया कर सुधार समिति गठित की गई। इसी समिति की संस्तुतियों के आधार पर वर्ष 1994 में सेवा शुल्क अर्थात सर्विस टैक्स की अवधारणा लाई गई। इसके बाद वित्त वर्ष 1997-1998 में वित्त मंत्री द्वारा बजट प्रस्तुत किया जाता है और इसे ड्रीम बजट की संज्ञा दी जाती है। इसके अंतर्गत आर्थिक सुधारों का एक मुकम्मल खाका खींचा जाता है। आय कर को 40 फीसदी से घटाकर 30 फीसदी कर दिया गया जबकि कॉरपोरेट टैक्स से सरचार्ज अर्थात उपकर हटा लिया गया। इसके साथ ही आयकर के अंतर्गत स्लैब सिस्टम को प्रस्तुत किया गया। ये स्लैब सिस्टम वर्ष 2014-2015 तक चलता रहा जब तक कि तत्कालीन मोदी सरकार द्वारा इसमें बदलाव न कर दिया गया। वर्ष 1997-1998 के बजट में ही आय की स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना प्रस्तुत की गई। इज़के तहत लोगों से ये कहा गया कि वे अपनी अघोषित आय के बारे में जानकारी दे सकते है और सरकार को उस आय का 30 फीसदी कर के रूप में भुगतान करके इसे वैध बना सकते है।</p>
<p style="text-align: justify;">इस तरह घोषित की गई आय पर विभिन्न कानूनों जैसे विदेशी विनिमय विनियमन अधिनियम, 1973, आयकर अधिनियम, 1961, संपत्ति कर, 1957 और कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत कोई मुकदमा नही चलाया जा सकता था। यह योजना काफी हद तक सफल रही। इसके अंतर्गत 35 लाख लोगों द्वारा अपने काले धन का रहस्योद्घाटन किया गया। इससे भारतीय राजकोष में 7.8 हजार करोड़ रूपया भी आया। हालांकि विभिन्न सरकारी संस्थाओं और न्यायपालिका द्वारा इस योजना की आलोचना भी की गई। कैग यानी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में इस योजना को ईमानदार करदाताओं को हतोत्साहित करने वाली कवायद बताया गया। उच्चतम न्यायालय ने भी सरकार को हिदायत दी कि भविष्य में ऐसी किसी भी योजना की पेशकश से बचाइए।</p>
<p style="text-align: justify;">कर सुधारों की इस प्रक्रिया में जुलाई 2017 में लागू किये गए वस्तु एवं सेवा कर को मील का पत्थर माना जाता है। इसे आजादी के बाद अब तक का सबसे बड़ा कर सुधार कहा जाता है। इसके अंतर्गत 17 पुराने करों और 23 उपकरों को मिलाकर एक नवीन अप्रत्यक्ष कर यानी 'वस्तु एवं सेवा कर'(जीएसटी) का रूप दिया गया। वस्तु एवं सेवा कर घरेलू उपभोग के लिये बेचे जाने वाले अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं पर लगाया जाने वाला मूल्यवर्द्धित कर है। हालांकि पेट्रोलियम, मादक पेय और स्टांप शुल्क आदि अपवाद भी है जो अभी भी वस्तु एवं सेवा कर के अंतर्गत नहीं आते है। वस्तु एवं सेवा कर का भुगतान उपभोक्ताओं द्वारा किया जाता है, लेकिन यह वस्तुओं और सेवाओं को बेचने वाले व्यवसायों द्वारा सरकार को प्रेषित किया जाता है।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि वस्तु एवं सेवा कर की उपलब्धियों की बात की जाए तो इसने एक स्वचालित अप्रत्यक्ष कर पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया है। इसके तहत ई-वे बिल की शुरुआत के साथ-साथ नकली चालान पर कार्रवाई करने से जीएसटी राजस्व में बढ़ोतरी करने में मदद मिली है। इसके साथ ही करों के अनुपालन का सरलीकरण हुआ है। हालांकि इस कर सुधार के समक्ष अनेक चुनौतियाँ भी हैं जैसे राजकोषीय संघवाद के मुद्दे पर अक्सर केंद्र एवं राज्यों के बीच कर-बंटवारे को लेकर तनातनी रहती है। इसके साथ ही 15वें वित्त आयोग ने भी इस संबंध में कुछ मुद्दे रेखांकित किये है- जीएसटी शासन में कर दरों की बहुलता, पूर्वानुमान के मुकाबले जीएसटी संग्रह में कमी, जीएसटी संग्रह में उच्च अस्थिरता आदि।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
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<h3><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> संकर्षण शुक्ला </strong></span></h3>
<p>संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">असम में पुलिस द्वारा बाल विवाह के अभियुक्तों पर की जा रही कार्रवाई के कारण बाल विवाह का मुद्दा चर्चा के केंद्र में आ गया है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार असम में मातृ और शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है और इसकी सबसे प्रमुख वजह बाल विवाह है। इसी के बाद असम में बाल विवाह करने और प्रोत्साहन देने वालों के विरुद्ध पुलिस की कार्रवाई को तेज कर दिया गया। 14 साल के कम उम्र की बालिका के साथ विवाह करने पर पाॅक्सो एक्ट के तहत कार्रवाई की जा रही है। इसके साथ ही 14 से 18 साल तक की लड़कियों से विवाह करने वालों के खिलाफ बाल विवाह रोकथाम अधिनियम, 2006 के तहत मामला दर्ज किया गया है। इस कार्रवाई में गिरफ्तार होने वालों में बाल विवाह कराने वाले धर्मगुरु भी शामिल हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">असम में शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर को कम करने और ग्रामीण क्षेत्रों में बाल विवाह की रोकथाम के लिए राज्य सरकार ने सभी ग्राम पंचायत सचिवों को बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के तहत 'बाल विवाह रोकथाम (निषेध) अधिकारी' के रूप में नामित करने का भी निर्णय लिया है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>बाल विवाह की परिभाषा</strong></p>
<p style="text-align: justify;">यूनिसेफ के अनुसार किसी लड़की या लड़के की शादी 18 साल की उम्र से पहले होना बाल विवाह कहलाता है। भारत के बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 के अनुसार विवाह के लिए एक लड़की की आयु 18 साल और लड़के की आयु 21 साल की होनी चाहिए। यूनिसेफ के ही आंकड़े के अनुसार भारत में प्रत्‍येक वर्ष, 18 साल से कम उम्र में करीब 15 लाख लड़कियों की शादी हो जाती है जिसके कारण भारत में दुनिया की सबसे अधिक बाल वधुओं की संख्या है, जो विश्व की कुल संख्या का तीसरा भाग है। 15 से 19 साल की उम्र की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियाँ शादीशुदा हैं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>बाल विवाह के कारण क्या हैं?</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>बाल विवाह के लिये कई उत्तरदायी कारक हैं:</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>शिक्षा का अभाव:</strong> कई बार शिक्षा के अभाव के कारण माता-पिता बाल विवाह के दुष्परिणामों के प्रति जागरूक नहीं हो पाते हैं और अपने बच्चों का विवाह कम उम्र में ही कर देते हैं। छोटी उम्र और शिक्षा के अभाव के कारण ही बाल विवाह के शिकार बच्चे भी इसका विरोध करने की स्थिति में नहीं रहते। साथ ही इन्हें बाल विवाह के निरोध के लिये मौजूद नियमों के बारे में भी जानकारी नहीं रहती।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>गरीबी:</strong> गरीबी भी बाल विवाह के लिये एक प्रमुख उत्प्रेरक कारक है। गरीबी और दहेज जैसी कुप्रथा की मौजूदगी के कारण अभिभावक लड़कियों को बोझ समझने लगते हैं और इस प्रयास में रहते हैं कि जल्द से जल्द उनका विवाह करके अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएँ।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>लैंगिक भेदभाव:</strong> भारत के अधिकांश हिस्सों में आज भी लड़कियों को हीन भावना के साथ देखा जाता है। माता-पिता द्वारा अपनी संतान के रूप में बेटा पाने की इच्छा रखना इसका प्रमुख उदाहरण है। पालन-पोषण और शिक्षा के साथ ही जीवन के हर क्षेत्र में यह भेदभाव स्पष्ट रूप में दिखता है जिसका एक परिणाम बाल विवाह के रूप में सामने आता है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>सामाजिक दबाव:</strong> भारतीय समाज में एक उम्र की सीमा पार करते ही लड़कियों पर विवाह न करने को लेकर सवाल उठने लगते हैं, भले ही वह उस समय शिक्षा ही क्यों न ग्रहण कर रही हो। ऐसे में कई बार माता-पिता सामाजिक दबाव के कारण भी अपनी बेटियों का विवाह कम उम्र में ही कर देते हैं। हालाँकि इस दबाव के शिकार लड़के भी होते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त सामाजिक परंपराएँ, धार्मिक मान्यताएँ, जागरूकता का अभाव, कानूनी प्रक्रिया का सही से लागू न होना, लड़कियों के भविष्य और सुरक्षा की चिंता इत्यादि कारणों से भी बाल विवाह को प्रोत्साहन मिलता है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>बाल विवाह के दुष्परिणाम</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>बाल विवाह की कुप्रथा अपने साथ कई आजीवन चलने वाले दुष्परिणाम भी लेकर आती है:</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ:</strong> बाल विवाह से लड़कियों में बहुत कम उम्र में ही गर्भधारण करने की संभावना बनी रहती है जबकि उनका शरीर अभी इसके लिये पर्याप्त तैयार नहीं होता है। इसके परिणामस्वरूप शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर में वृद्धि देखने को मिलती है। इसके अतिरिक्त समय से पहले प्रसव होने और बच्चे के कुपोषित होने का भी पर्याप्त खतरा बना रहता है। यूनिसेफ के आंकड़े के अनुसार भारत में 7 प्रतिशत महिलाएँ पहली बार 15 से 19 वर्ष की आयु में ही गर्भवती हुईं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>शिक्षा में बाधा:</strong> बाल विवाह के कारण लड़कियों को अपनी शिक्षा पूरी करने का भी अवसर नहीं मिल पाता जिसकी हानि उन्हें आजीवन उठानी पड़ती है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>घरेलू हिंसा का शिकार होना:</strong> बाल विवाह के कारण शिक्षा तथा जागरूकता के लाभों से वंचित महिला अक्सर घरेलू हिंसा का शिकार हो जाती है और कई बार तो यह इस स्तर तक होती है कि इसका अंत उसके जीवन के अंत के साथ ही होता है। कम उम्र और शिक्षा के कारण वह इस शोषण को समझने व उससे निपटने में भी अक्षम होती है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>गरीबी का दुष्चक्र:</strong> यूनिसेफ के शब्दों में बाल विवाह का अर्थव्‍यवस्‍था पर भी नकारात्‍मक प्रभाव पड़ता है और यह पीढ़ी दर पीढ़ी लोगो को गरीबी की ओर धकेलता है। जिन लड़कियों और लड़कों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है, उनके पास अपने परिवार की गरीबी दूर करने और देश के सामाजिक व आर्थिक विकास में योगदान देने के लिए कौशल, ज्ञान और नौकरियां पाने की क्षमता कम होती है। जल्‍दी शादी करने से बच्‍चे भी जल्‍दी होते हैं और जीवनकाल में बच्चो की संख्या भी ज्यादा होती है, जिससे घरेलू खर्च का बोझ बढ़ता है।</p>
<p style="text-align: justify;">इस प्रकार संक्षेप में कह सकते हैं कि बाल विवाह एक महिला से जीवन में आगे बढ़ने की हर संभावना को छीन लेता है साथ ही यह समानता के अधिकार, पढ़ाई का अधिकार तथा नौकरी करने के अधिकार इत्यादि के शत्रु के रूप में भी सामने आता है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>बाल विवाह पर नियंत्रण के उपाय</strong></p>
<p style="text-align: justify;">1- बाल विवाह के विरुद्ध गाँवों के स्तर तक व्यापक जागरूकता अभियान चलाया जाए। इसमें प्रभावशाली व्यक्तियों, धर्मगुरुओं, नेताओं, टीवी, रेडियो जैसे माध्यमों का अधिक प्रभावी तरीके से प्रयोग किया जाए।</p>
<p style="text-align: justify;">2- बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष बल दिया जाए और स्कूलों में भी उन्हें इस कुप्रथा के विरुद्ध जागरूक बनाया जाए ताकि वे खुलकर इसका विरोध कर सकें।</p>
<p style="text-align: justify;">3- जबरन बाल विवाह करने तथा करवाने वालों के विरुद्ध कठोर विधिक कार्रवाई की जाए।</p>
<p style="text-align: justify;">4- बालिकाओं के कल्याण के लिये अन्य कल्याणकारी योजनाओं पर बल दिया जाए ताकि वे अपनी शिक्षा को पूर्ण कर सकें और आत्मनिर्भर बन सकें।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भारत में बाल विवाह की वर्तमान स्थिति</strong></p>
<p style="text-align: justify;">देश में बाल विवाह के 50 प्रतिशत से अधिक मामले केवल 5 राज्यों से संबंधित हैं जिनमें उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है। शेष चार राज्यों में बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल हैं। वर्तमान में भारत में बाल विवाह के लगभग 23 प्रतिशत मामले हैं जो कि लगातार कम हो रहे हैं। इसके प्रमुख कारणों में महिलाओं में साक्षरता और जागरूकता का बढ़ना, शिक्षा के प्रसार के कारण लड़कियों के प्रति अभिभावकों की सोच में परिवर्तन आना, शहरीकरण में वृद्धि तथा कठोर कानूनों की उपस्थिति को माना जा सकता है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>निष्कर्ष</strong></p>
<p style="text-align: justify;">बाल विवाह जैसी कुप्रथा को रोकने के लिये केवल सरकारी प्रयास ही काफी नहीं हैं। आवश्यकता इस बात की है कि समाज का प्रत्येक वर्ग, गैर सरकारी संगठन, राजनीतिक दल, मीडिया इत्यादि साथ आकर इसके विरुद्ध अभियान चलाएँ ताकि भारत मानवाधिकारों का हनन करने वाली इस बुराई से बाहर निकल सके।</p>
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<td style="width: 80%;">
<h3 style="text-align: justify;"><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> अमित सिंह </strong></span></h3>
<p>अमित सिंह उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले से हैं। उन्होंने अपनी पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की है। वर्तमान में वे दिल्ली में रहकर सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">जिस भाषा में इंसान सबसे पहले बोलना सीखता है वही उसकी मातृभाषा होती है यानी माँ की गोद की भाषा को मातृभाषा कहते हैं। दादी-नानी के द्वारा सुनाई जानी वाली लोरियों की भाषा और बाल्यावस्था के दौरान मित्र समूहों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। भारतीय संविधान में मात्र 22 भाषाओं का जिक्र है जबकि मात्र छह भाषाओं (तमिल, संस्कृत, कन्नड़, तेलुगू, मलयालम और ओडिया) को शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त है। हमारे देश की विविधता के कारण ही किसी भी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं दिया गया है। भाषा के महत्व को देखते हुए ही वर्ष 1964–66 में कोठारी आयोग ने ‘त्रि-भाषा सूत्र’ दिया था।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत न केवल भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से विविधता को समेटे हुए है बल्कि भाषाई दृष्टिकोण से भी काफी समृद्ध है। वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में लगभग 1652 भाषाएँ थीं। शायद इसीलिए मातृभाषा पर एक कहावत खूब प्रचलित हुई “कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी।” लेकिन कभी-कभी लगता है कि वैश्वीकरण ने पहनावा-ओढ़ावा, खान-पान, साहित्य-सिनेमा के साथ-साथ भाषाई तौर पर भी हमें एकरूपता की तरफ जबरदस्ती धकेला है। अंग्रेजी अथवा अन्य अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं की वैश्विक पटल पर मौजूदगी किसी से छिपी हुई नहीं है।</p>
<p style="text-align: justify;">वैश्वीकरण ने मातृभाषा के लिए कई चुनौतियाँ खड़ी की हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मशीन की भाषा ही आजकल उद्योग जगत को पसंद है। ऑनलाइन युग में अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं का बोलबाला है। शोध, अनुसंधान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उन भाषाओं को सबसे ज्यादा तवज्जो दी जा रही है जो मशीन और तकनीक के लिए अनुकूल हैं। नौकरी की भाषा भी मातृभाषा से शिफ्ट होकर अंग्रेजी हो चुकी है। अंग्रेजी से कोई घृणा नहीं है किंतु यदि मातृभाषा में ही नौकरी के कौशल सीख लिए जाए तो कितना अच्छा होगा!</p>
<p style="text-align: justify;">वैश्वीकरण के कारण मातृभाषा पर संकट मंडराने की खबर कोई नहीं है; वर्ष 1961 में भारत में भाषाओं की कुल संख्या आधिकारिक रूप से 1652 थीं लेकिन 1971 में यह घटकर मात्र 808 रह गई। भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण 2013 के आँकड़े को मानें तो पिछले 50 वर्षों में 220 भाषाएँ लुप्त हो गई हैं और 197 भाषाएँ लुप्त होने की कगार पर हैं। व्यक्तिवाद, उपभोक्तावाद, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों में बदलाव, पारंपरिक बसावट में कमी और पूँजीवाद के दौर में रोज़गार के प्रारूप में परिवर्तन ने मातृभाषाओं को पतन की ओर ले गया है। इसके बावजूद यदि मातृभाषा की चमक कायम है तो कुछ तो बात है कि इसकी हस्ती मिटती नहीं है!</p>
<p style="text-align: justify;">मौलिक चिंतन और रचनात्मक लेखन अधिकांशतः मातृभाषा में ही संभव हो पाता है। यही कारण है कि विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य और सिनेमा आए दिन सुर्खियाँ बटोरते रहते हैं। दरअसल अर्जित भाषाओं में कल्पना करना और उन कल्पनाओं को लिपिबद्ध करना मातृभाषाओं की तुलना में कठिन है। मातृभाषा को लोकभाषा इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि यह जन-जन से सीधे जुड़ी हुई होती है। यह वह धरोहर है जिसका कोई विकल्प नहीं है। मातृभाषा में संवाद स्थापित करके संप्रेषण को प्रभावपूर्ण बनाना कोई नई कला नहीं है। नेल्सन मंडेला कहते हैं कि "यदि आप किसी से ऐसी भाषा में बात करें, जो वह समझ सकता है तो वह उसके मस्तिष्क में जाती है। लेकिन यदि आप उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं, तो वह सीधे उसके हृदय को छूती है।" इसलिए आजकल मातृभाषा अथवा स्थानीय भाषा में टीचिंग-लर्निंग पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। बच्चे जिस भाषा में बचपन को जीता है उसी भाषा में वह पढ़ाई को भी एन्जॉय करेगा। पढ़ाई कोई बोझिल कार्य न लगे इसके लिए मातृभाषा को टीचिंग-लर्निंग की भाषा के रूप में स्वीकारा जा रहा है।</p>
<p style="text-align: justify;">दरअसल भाषा पुल का कार्य करती है; जानकारी, अवधारणा और ज्ञान को एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क में पहुँचाती है। जिस प्रकार यदि पुल मजबूत न हो तो दुर्घटना की संभावना बढ़ जाती है उसी प्रकार यदि भाषा पर पकड़ मजबूत न हो तो विषयों पर मास्टरी हासिल नहीं हो पाती है। अर्थ का अनर्थ तभी होता है जब भाषा पर पकड़ कमजोर होती है। यह सर्वज्ञात है कि सबकी अपनी-अपनी मातृभाषा पर पकड़ मजबूत होती है। इसलिए भारत की नई शिक्षा नीति 2020 में इसका प्रावधान किया गया है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जाए। इससे बच्चों के सर्वांगीण विकास का रास्ता आसान हो जाएगा।</p>
<p style="text-align: justify;">गौरतलब है कि मातृभाषा में अध्ययन का सकारात्मक प्रभाव विद्यार्थियों के संज्ञानात्मक विकास पर पड़ता है। पढ़ाई में रूचि, अमूर्त विषयों को मूर्त रूप में तब्दील करने की शक्ति, विषयवस्तुओं को याद रखने की क्षमता, आत्मविश्वास का विकास, कक्षा में विद्यार्थियों की अच्छी उपस्थिति और विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास का संबंध मातृभाषा से है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने भी इस बात को स्वीकार किए हैं कि मातृभाषा से ही शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन होगा।</p>
<p style="text-align: justify;">अतः विभिन्न कोशिशों के बाद मातृभाषा को टीचिंग-लर्निंग की भाषा के रूप में स्वीकारा जा रहा है। क्योंकि करके सीखने की प्रक्रिया में मातृभाषा का खूब योगदान है। शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में मातृभाषा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मातृभाषा में पढ़ते हुए विद्यार्थियों को कमतर नहीं आँकना चाहिए। तकनीकी शिक्षा भी मातृभाषा में देनी चाहिए। मातृभाषा का विस्तार इंटरनेट की भाषा के रूप में होनी चाहिए। मातृभाषा को सभी विद्यार्थी लर्निंग की भाषा के रूप में स्वीकार करे, इसके लिए मातृभाषा में रोजगार के अवसर भी सृजित होने चाहिए। और शिक्षण के दौरान शिक्षकों को मातृभाषा अथवा स्थानीय भाषा में संवाद स्थापित करते हुए हीन भावना से ग्रसित नहीं होना चाहिए। अब तो कुछ इंजीनियरिंग कॉलेज, मैनेजमेंट संस्थान और मेडिकल कॉलेज भी हिंदी में टीचिंग-लर्निंग कार्य कर रहे हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत जैसे विशाल उपभोक्ता वाले देश में अब मातृभाषा को संसाधन के रूप में देखा जा रहा है। इंटरनेट की दुनिया से लेकर साहित्य, मनोरंजन और पत्रकारिता की दुनिया तक में लोकभाषा में विभिन्न प्रकार के मौलिक कंटेंट मुहैया कराए जा रहे हैं। कुछ नया कहने, लिखने और दिखाने की भाषा के रूप में जन-जन की भाषा का प्रभावशाली उपयोग हो रहा है। इससे रोजगार के अवसर भी पैदा हो रहे हैं और मातृभाषा का उत्थान भी हो रहा है। क्षेत्रीय भाषाओं के सिनेमा का डंका खूब बज रहा है। अनेकों न्यूज़ चैनल क्षेत्रीय भाषाओं में ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे हैं। यानी संप्रेषण की असल खुशबू मातृभाषा से आती है। जुड़ाव, लगाव और अपनापन का भाव अपनी ही भाषा में महसूस होता है।</p>
<p style="text-align: justify;">मातृभाषा को टिकाऊ बनाए रखने के लिए इस भाषा में शोध कार्य किए जाने की आवश्यकता है। वैश्वीकरण को अवसर के रूप में देखते हुए मातृभाषा का दरवाजा विज्ञान, कला, शोध, पत्रकारिता, शिक्षा और मनोरंजन के लिए खोल देना चाहिए। ध्यान इस बात की रखना है कि अंतर्राष्ट्रीय भाषा मातृभाषा को कहीं निगल न जाए! हमें अतीत से सचेत होना चाहिए और सधा हुआ कदम बढ़ाकर विभिन्न मातृभाषाओं को विलुप्त होने से बचाना चाहिए। एक भाषा का विलुप्त होना अनेकों बहुमूल्य धरोहरों का विलुप्त होने जैसा है। मानव सभ्यता में विभिन्न प्रकार की विविधताएँ दुनिया को रंग-बिरंगी बनाती हैं। मातृभाषाओं का गायब हो जाना इंद्रधनुष का बेरंग हो जाना है। महात्मा गांधी कहते हैं कि "राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा में नहीं बल्कि किसी अन्य भाषा में शिक्षा पाते हैं, वे आत्महत्या करते हैं। इससे उनका जन्मसिद्ध अधिकार छिन जाता है।"</p>
<p style="text-align: justify;">तकनीकी शिक्षा को मातृभाषा में प्रदान करके ही शिक्षा को असल में समावेशी बनाया जा सकता है। अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करके जापान, फ्रांस तथा जर्मनी ने विकसित देश का तमगा कैसे हासिल किया यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। भारत को अपनी मातृभाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए इन देशों द्वारा अपनाए गए तरीकों और नीतियों से सीखना चाहिए। वैसे आजकल कुछ इंजीनियरिंग कॉलेज, मैनेजमेंट संस्थान और मेडिकल कॉलेज में हिंदी में अध्ययन-अध्यापन शुरू हो गया है। इसका दूरगामी सकारात्मक प्रभाव भविष्य में ज़रूर देखने को मिलेगा।</p>
<p style="text-align: justify;">समय की माँग है कि मातृभाषा का न सिर्फ एक विषय के रूप में प्रचार प्रसार करें बल्कि प्रशासन और न्यायालयों सहित सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में मातृभाषाओं के प्रयोग को प्रोत्साहित करें। दरअसल एक लोकतंत्र के रूप में यह जरूरी है कि शासन में आम नागरिकों की भागीदारी हो। वह तभी होगा जब शासन की भाषा उनकी अपनी मातृभाषा होगी। यदि न्यायपालिका की कार्यवाही भारतीय भाषाओं में होगी तो लोग न्यायपालिका को अपना पक्ष अपनी भाषा में समझा सकेंगे और उसके निर्णयों को पूरी तरह समझ सकेंगे। इससे न्याय तक सबकी पहुँच संभव हो सकेगी।</p>
<p style="text-align: justify;">लोकतंत्र में नागरिकों की भागीदारी, बच्चों का सर्वांगीण विकास, समावेशी शिक्षा और विभिन्न विविधताओं का संरक्षण लोकभाषा से संभव हो सकेगा। लोक भावनाएं, लोक कला, लोक साहित्य और लोक संस्कृति जैसे मुद्दों का सीधा जुड़ाव लोकभाषा यानी मातृभाषा से है। भारत में गुलामी के दौरान से मातृभाषाओं का दमन शुरू हो गया था। अंग्रेजों की नितियाँ भारतीयता को खत्म करने की थी। भारतीयता से यहाँ आशय संस्कार, मौलिकता, मातृभूमि से प्रेम और सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को बनाए रखने से है, इसमें मातृभाषा पुल का कार्य करती है। इसलिए अंग्रेज इस पुल को नेस्तनाबूद करने में डटे रहे। आज़ादी के बाद भी स्थितियाँ बहुत नहीं बदली हैं। एक भारतीय के रूप में यह हमारी असफलता ही है कि हम अपनी मातृभाषाओं को शासन, प्रशासन और राष्ट्रीय जीवन में उचित स्थान न दिला पाए। भारतीय भाषाओं को रोजगार और आजीविका से जोड़कर मातृभाषा को ताकत दे सकते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;"></p>
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<h3><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong><span style="font-size: 18px; background-color: #003366;"> राहुल कुमार </span></strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">राहुल कुमार, बिहार के खगड़िया जिले से हैं। इन्होंने भूगोल, हिंदी साहित्य और जनसंचार में एम.ए., हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा तथा बीएड किया है। इनकी दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये IIMC से पत्रकारिता सीखने के बाद लगातार लेखन कार्य कर रहे हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">कोंकण तट पर स्थित गोवा एक प्राकृतिक बंदरगाह होने के साथ ही भारत के सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटन स्थलों में से एक है। यहाँ पर दर्शनीय समुद्र तट जैसे वेगाटर समुद्र तट, अंजना समुद्र तट के साथ समुद्र तटों की रानी कहा जाने वाला कैलंगयुत समुद्र तट स्थित है। अपनी प्राकृतिक खूबसूरती से इतर गोवा एक और चीज के लिए भी जाना जाता है; यहाँ पर ढेरों कसीनो है। रणनीतिक भौगोलिक अवस्थिति के साथ ही गोवा का एक रोचक अतीत भी है। गोवा का इतिहास तीसरी सदी ईसा पूर्व से शुरू होता है। यहाँ पर मौर्य वंश द्वारा शासन की स्थापना के पश्चात सातवाहन शासकों द्वारा राजकाज चलाया गया। इसके बाद 580 ईसवी से 750 ईसवी तक बादामी शासकों ने शासन संभाला। 1312 ईसवी में गोवा दिल्ली सल्तनत के अधीन आ गया। इसके कुछ समय बाद गोवा पर लगभग 100 वर्षों के लिए विजयनगर राज्य का शासन रहा। विजयनगर के पश्चात यहाँ पर बीजापुर के शासक आदिलशाह ने शासन कार्य शुरू किया।</p>
<p style="text-align: justify;">आदिलशाह ने गोवा वेल्हा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। इसी कालखंड में भारत मे पुर्तगालियों का आगमन हुआ। साम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया में पुर्तगालियो ने गोवा को भी अपने अधिकार क्षेत्र में शामिल किया। पुर्तगाली गवर्नर अल्फांसो डी अल्बुकर्क ने वर्ष 1510 में गोवा पर आक्रमण किया। बिना किसी संघर्ष के ही गोवा पर पुर्तगालियों ने कब्जा कर लिया। गोवा पर पुर्तगालियो का ये कब्जा लगभग 450 वर्षों तक रहा।</p>
<p style="text-align: justify;">शेष भारत पर जरूर ब्रिटिश आधिपत्य था लेकिन गोवा पर पुर्तगालियों का ही राज कायम रहा। गोवा पर पुर्तगाली साम्राज्य के कायम होने के लगभग 270 वर्षों बाद इस शासन से आजाद होने की कोशिशें की गईं। गोवा के एक गाँव कैंडोलिम में एक पादरी परिवार ने पुर्तग़ालियों द्वारा चर्च के उच्च पदों पर स्थानीय लोगों पर यूरोपीयों-पुर्तगालियों को तरजीह दिए जाने के विरुद्ध आवाज उठाई। पुर्तगाली प्रशासन जब न माना तो उन्होंने मैसूर के राजा टीपू सुल्तान के साथ मिलकर एक योजना बनाई।</p>
<p style="text-align: justify;">इस योजना के तहत पुर्तगाली सेना के खाने में जहर मिलाकर उन्हें मारना था और ठीक इसी समय टीपू सुल्तान हमला कर देता और गोवा पुर्तगालियों के राज्य से मुक्त हो जाता। खाने में जहर मिलाने का काम एक स्थानीय बेकरी वाले को दिया गया। लेकिन बेकरी वाले ने इस खबर को पुर्तगाली प्रशासन को बता दिया। इसके बाद पुर्तगाली प्रशासन ने अपने विरुद्ध उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए इस योजना के 15 षड्यंत्रकारियों को फाँसी पर चढ़ा दिया।</p>
<p style="text-align: justify;">वर्ष 1910 में पुर्तगाल में राजशाही का खात्मा हुआ। अब गोवावासियों में आजादी की एक नई उम्मीद जगी। इसी दरम्यान पुर्तगाल के पहले अखबार ओ हेराल्डो द्वारा वहाँ के शासन का जबरदस्त विरोध किया गया। इसके उपरांत वहाँ के स्थानीय प्रशासन ने वर्ष 1917 में जबरदस्त सख्तियाँ आरोपित कर दी। वर्ष 1930 में इन सख्तियों का दायरा बढ़ाते हुए पुर्तगाली उपनिवेशों में राष्ट्रीय सम्मेलनों और रैलियों पर पाबंदी लगा दी।</p>
<p style="text-align: justify;">1930 के दशक में ही गोवा में राजनीतिक गतिविधियों ने जोर पकड़ा। 1938 में गोवा कांग्रेस की स्थापना की गई। इसके अगले दशक में राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गोवा में आजादी के लिए सत्याग्रह शुरू हुआ। वर्ष 1946 में अनेक सत्याग्रही जेल भी गए। इसी कालखंड में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होता है और बदली हुई परिस्थितियों में पुर्तगाल के प्रधानमंत्री एंटोनियो डी ओलिवेरा सालाजार वहाँ पर अधिनायकवादी सत्ता की स्थापना करते है।</p>
<p style="text-align: justify;">द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पुर्तगाल नाटो का सदस्य बनता है। सालाजार गोवा को भी पुर्तगाल का हिस्सा बताते है; इससे वो गोवा की सुरक्षा के लिए नाटो की सुरक्षा छतरी का इंतज़ाम भी कर लेते है। भारत लगातार पुर्तगाली प्रशासन से गोवा की स्वतंत्रता की बातचीत की कोशिशें करता लेकिन पुर्तगाली प्रशासन कभी भी इस बाबत वार्ता की मेज पर आने को तैयार नहीं होता। इसी दरम्यान गोवा में आजाद गोमांतक दल और गोवा लिबरेशन आर्मी द्वारा सशस्त्र क्रांति की भी कोशिशें की जाती है। वर्ष 1954 में फ्रांसीसी कॉलोनी पुडुचेरी का शांतिपूर्वक विलय कर लिया जाता है। गोवा में भी आजादी की लड़ाई तेज हो जाती है। दक्षिणपंथी और वामपंथी; दोनों ही गुटों द्वारा गोवा की आजादी के लिए कोशिशें की जाती है। जनसंघ के नेता जगन्नाथ राव अपने 3000 लोगों के साथ गोवा में घुसने की कोशिश करते है। इन्हें रोकने के लिए पुर्तगाली प्रशासन द्वारा लाठीचार्ज कर दिया जाता है जिससे अनेक कार्यकर्ता घायल हो जाते है।</p>
<p style="text-align: justify;">पुर्तगाल अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में इस मसले को जोरशोर से उठाता है और इस मसले को अपनी आंतरिक संप्रभुता से खिलवाड़ बताता है। इस पर प्रधानमंत्री नेहरू कहते है कि सत्याग्रहियों के पीछे सेना नहीं लगाई जा सकती है। इस संबंध में नेहरू जी के जीवनीकार एस गोपाल द्वारा अपनी पुस्तक 'जवाहर लाल नेहरू- जीवनी' में नेहरू के हवाले से ये लिखा गया है-</p>
<p style="text-align: justify;">"सैन्य कार्रवाई कब और कैसे होगी? ये मैं नहीं कह सकता। लेकिन मुझे बिल्कुल शक नहीं होगा कि ऐसा हो जाए।"</p>
<p style="text-align: justify;">नेहरू जी की यह टिप्पणी इस ओर भी इशारा करती है कि यदि गोवा मुद्दे का समाधान बातचीत से न निकाला जा सका तो भारत सैन्य कार्रवाई के प्रयोग से भी पीछे नहीं हटेगा। इसी कालखंड में अमेरिका द्वारा भी गोवा पर पुर्तगाली दावे के समर्थन किया गया। अमेरिका के राज्य सचिव फॉस्टर डैलास ने गोवा को पुर्तगाल का हिस्सा बताया। इस पर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा टिप्पणी की गयी-</p>
<p style="text-align: justify;">"अमेरिका जितनी मदद देना चाहता है उससे ज्यादा नुकसान उसके इस बयान ने कर दिया।"</p>
<p style="text-align: justify;">वर्ष 1961 में वो घड़ी आ जाती है जब भारत इस मसले का हल सैन्य कार्रवाई के माध्यम से किये जाने को सुनिश्चित करता है। 17 दिसंबर 1961 को भारतीय सेना गोवा में प्रवेश करती है और महज 36 घण्टों में ही गोवा आजाद हो जाता है। 19 दिसम्बर को भारतीय मानचित्र पर गोवा, दमन और दीव नामक एक केंद्र प्रशासित क्षेत्र आकार लेता है। इसके बाद 30 मई 1987 को गोवा को एक राज्य के तौर पर मान्यता दी जाती है।</p>
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<h3><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> संकर्षण शुक्ला </strong></span></h3>
<p>संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।</p>
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<h3><strong><span style="font-size: 18px; color: #003366;"> स्रोत </span></strong></h3>
<p style="text-align: justify;">(1) <a href="https://www.tv9hindi.com/state/know-interesting-facts-about-goa-liberation-day-and-tourism-places-1048837.html/amp" target="_blank" rel="noopener">https://www.tv9hindi.com/state/know-interesting-facts-about-goa-liberation-day-and-tourism-places-1048837.html/amp</a></p>
<p style="text-align: justify;">(2) <a href="https://youtu.be/hwzW5rgQVag" target="_blank" rel="noopener">https://youtu.be/hwzW5rgQVag</a></p>
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