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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

संकट में धरती

किरिबाती देश के तरावा में रहने वाला तियाकारा का परिवार सुबह घर से दो किलोमीटर दूर कोरल रीफ उठाने लिए निकल जाता है। प्रशांत महासागर से उठने वाली लहरों से अपने आशियाने को बचाने के लिए कोरल रीफ से वह दीवार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति पर्यावरणीय संकटो का सामना कर रहे सभी समुद्री देशों की है। क्या समुद्र की इन बढ़ती लहरों के लिए तियाकारा का परिवार जिम्मेदार है तो जवाब होगा नहीं। यह स्थिति दुनियाँ में उनसे एक हज़ार किलोमीटर दूर बैठे यूरोप, चीन और अमेरिका जैसे देशों के लोगों द्वारा किए गए ग्रीन हॉउस गैसों के उत्सर्जन से उत्पन्न हुई है। तियाकारा जैसे हज़ारों परिवार अब 'पारिस्थितिकीय शरणार्थी' बनने को मजबूर हैं। मतलब साफ है करे कोई और भरे कोई और! यह एक तरह से पर्यावरणीय अन्याय है। ग्रोथ बनाम डेवलपमेंट की बहस में तियाकारा जैसे परिवार कहाँ आते हैं, यह सबसे अहम सवाल है। जलवायु परिवर्तन, युद्ध, मानवीय मूल्यों का क्षरण और बढ़ते उपभोक्तावाद जैसे कारकों ने धरती पर जीवन को दुर्लभ बना दिया है।

प्राचीन समय में मानव प्रकृति का उपासक होता था, जहाँ वह स्वयं को प्रकृति के दास के रूप में देखता था। इससे प्रकृतिवाद बना जिसमें दोहन का भाव नहीं था और जीवन पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर था। इसमें प्रकृति की पूजा करने के साथ उसकी श्रेष्ठता का भाव था। फिर प्रश्न उठता है कि असंतुलन शुरू कहाँ से हुआ ! इसका जवाब सोलहवीं शताब्दी में वैज्ञानिक मनोवृत्ति के विकास में छिपा है जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि मानव सर्वोच्च है और प्रकृति वस्तु की तरह है। यहीं से प्रकृति के प्रति हमारे संवेग, नैतिकता और मनोभावनाएं बदलने लगी। अब मनुष्य खुद को स्वामी और प्रकृति को दास समझने लगा। औद्यौगिक क्रांति, बाजारवाद, पूंजीवाद और उपभोक्तावाद ने मनुष्य की सुख प्राप्त करने की चाहत इस कदर बढ़ा दी जिससे धरती का कोई भी प्राणी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। और इसी अधांधुंध औद्योगिकीकरण का ही परिणाम है जलवायु परिवर्तन। विज्ञान ने इच्छाओं के जिस जिन्न को बाहर निकाला, उसका महत्तम क्या होगा इसका कुछ पता नहीं है।

पर्यावरण 1880 के दशक के बाद से शुरू हुए औधोगिकीकरण की मार झेल रहा है। मनुष्य से लेकर समुंद्र में रहने वाला एक झींगा कोई भी पर्यावरण के नुकसान से अछूता नहीं है। समुद्र में पड़ा हजारों टन कचरा और उससे विलुप्त हो रही प्रजातियाँ इसकी गवाही दे रहीं हैं। आज वाहनों और कारखानों से निकलने वाले धुएं से बड़े-बड़े शहर गैस चैंबर में तब्दील होते जा रहें हैं जिससे स्थिति विस्फोटक बनी हुई है। हर जीव अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। क्योंकि सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। और निर्भरता की इस नाजुक कड़ी को स्वार्थी मनुष्य ने तहस-नहस कर दिया है। उदाहरण के तौर पर- आज हर दिन तीस फुटबाल के मैदान के बराबर उष्ण कटिबंधीय वन काटे जा रहे हैं और हर रोज करीब बीस प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। मनुष्य के भोगने की लालसा उसे कहाँ ले जाकर छोड़ेगी इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है। कोविड महामारी इसका जीता-जागता उदाहरण हैं और शायद एक चेतावनी भी।

बढ़ती जनसंख्या धरती के संसाधनों पर बोझ बन गई है और विकसित और विकासशील देशों ने बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए कुछ खास प्रयास नहीं किए हैं। इतनी विशाल जनसंख्याके लिए संसाधन उपलब्ध कराना पृथ्वी के लिए संभव नहीं है। हम वर्ष भर में पृथ्वी के संसाधनों का जिस तरह से उपभोग कर रहे हैं उनके पुनर्निर्माण के लिए लगभग डेढ़ वर्ष चाहिए होंगे। इसके लिए वैश्विक संस्था ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क द्वारा हर साल 'अर्थ ओवरशूट डे' घोषित किया जाता है। यह वह अनुमानित तिथि होती है, जब मनुष्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग की मात्रा प्रकृति द्वारा उस वर्ष इन संसाधनों को पुन: उत्पादित करने की क्षमता से अधिक हो जाती है। परेशान करने वाली बात यह है कि हर साल यह तिथि निकट आती जा रही है। साल 1970 में जहाँ यह 29 दिसंबर को आई थी, वहीं साल 2022 में यह 28 जुलाई को ही आ गई। गांधी जी का यह कथन कि, ''प्रकृति हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिये है, लालचों के लिए नहीं'' अब इस रूप में प्रासंगिक होने लगा है कि प्रकृति सिर्फ हमारे लालचों को पूरा करने का माध्यम बनकर रह गयी है, जरूरतों से तो हमारा पेट कब का भर चुका है।

इस असंतुलन ने असमय होने वाली बारिश, सूखा, चक्रवात, भूकंप और तूफानों को जन्म दिया है। नदियां,समुद्र और पहाड़ सब हमारे उपभोग की भेंट चढ़ रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक 200 साल बाद समुद्र का जल स्तर करीब 230 फीट बढ़ने की संभावना है और इससे समुद्र के किनारे बसे कई शहर डूब जाएंगे। इसका एक उदाहरण अमेरिका के न्यू आर्लीन्स शहर का है जिसके चारों तरफ से दीवार व बांधो से समुद्री दीवार बनाई जा रही है क्योंकि समुद्री जलस्तर में दो फीट की वृद्धि होने पर यह शहर पूरी तरह से डूब जाएगा, कुछ ऐसा ही हाल समुद्र के किनारे बसे अन्य शहरों का भी है। वहीं, हाल ही में तुर्किये में आए विनाशकारी भूकंप और उत्तराखंड के जोशीमठ में भूमि के धंसाव से उत्पन्न हुई स्थितियाँ हमें चेता रहीं हैं कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को अविष्कार मानने के परिणाम गंभीर होंगे। भलाई इसी में है कि

मानव गलतियों से सीखे, बहस के मुद्दे सिर्फ विकास के पूंजीवादी मॉडल तक ही सिमट कर न रह जाएँ बल्कि हम पर्यावरणीय सुधारों की तरफ गम्भीरतापूर्वक अपने कदम बढ़ाएँ।

अलग-अलग तरह के प्रदूषण से आज मानव सभ्यता बेहाल है। प्राणवायु दमघोंटू हो चली है। अमृत समान जल मौतों और रोगों की बड़ी वजह बन चुका है। जो नदियां जीवन दायिनी होती थी आज वो नाले में तब्दील हो गयी हैं जिससे पीने के पानी का संकट बढ़ रहा है। पृथ्वी की स्वाभाविक उर्वरा शक्ति को विषैले रसायन चाट चुके हैं। मौसम चक्र बदल और बिगड़ रहा है। समुद्र तल ऊपर उठ रहा है। सांस लेने के लिए स्वच्छ ऑक्सीजन सिलेंडर में मिल रही है। फसलों की उत्पादकता गिर रही है। प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और आकार में इजाफा हो रहा है। इतना सब होने पर भी कार्बन उत्सर्जन में कमी को हम रोक नहीं पा रहे हैं जिससे धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ोतरी होने की संभावना है। आज सारे देश अलग-अलग मंचों से ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए पेट्रोल और डीजल की जगह नवीकरणीय ऊर्जा व कार्बन क्रेडिट तंत्र के उपयोग की वकालत कर रहें हैं। मंचों से इतर हमें जमीनी स्तर की योजनाएं बनानी होंगी और उनके कार्यान्वयन के लिए युद्ध स्तर पर लगना होगा।

आज दुनिया के लोग तथाकथित विकास का खामियाजा भुगत रहे हैं, प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन के रूप में तथा पृथ्वी के विनष्ट हो जाने की आशंकाओं के रूप में। सतत और समावेशी विकाश के बारे में जोर देने के साथ पृथ्वी को संभावित विनाश से बचाने के लिए विभिन्न मंचों से इसके लिए प्रयास करने की बात की जा रही है। वहीं, विकसित देशों द्वारा औद्योगिकीकरण के तहत धरती की प्राकृतिक संपदा को निचोड़ लेने के बाद अब जब विकासशील देशों के विकसित होने की बारी है तो धरती को बचाने की प्रतिबद्धता उनपर थोपी जा रही है। विकसित देश पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए तैयार नहीं हैं। दोनों को सहमति के एक बिंदु पर पहुंचना ही होगा क्योंकि खतरा तो सब पर है। साथ ही हमें यह समझना होगा कि जब समस्या ग्लोबल लेवल की है तो उसका निदान लोकल वाला क्यों हो। सरकारों को जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानूनी उपाय करने के साथ 'रीसायकल, रिड्यूज और रियूज' की नीति को अपनाना होगा, जिससे संसाधनों की उपलब्धता के साथ संतुलन बना रहे। हमें यह समझना होगा कि धरती तो आगे भी रहेगी पर असली संकट तो मनुष्यों पर है। किसी ने ठीक ही कहा है ''जब आखिरी पेड़ काटा जाएगा, आखिरी नदी का पानी सूख जाएगा, आखिरी मछली का शिकार हो जाएगा तब इंसान को अहसास होगा कि वह पैसे नहीं खा सकता।'' हमें यह याद रखना होगा कि इस दशक की स्थितियाँ ही आगामी दशकों में हमारे जीवन को निर्धारित करेंगी।

अनुज कुमार वाजपेई

अनुज कुमार वाजपेई, उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के रहने वाले हैं। स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से करने के बाद इन्होंने IIMC DELHI से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा किया है। कई संस्थानों में काम करने के बाद आजकल ये अनुवादक का कार्य कर रहे हैं।

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