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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

डीयू,100 फीसदी कट ऑफ और मेरिट का प्रश्न

दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज  ऑफ कॉमर्स ने बी.कॉम और बी. (अर्थशास्त्र) के कोर्स में नामांकन के लिये 100 फीसदी का कट-ऑफ घोषित किया है। इसी तरह कुछ और भी कॉलेज हैं जिन्होंने अलग-अलग कोर्सेज के लिए 100 फीसदी का कट-ऑफ घोषित किया है। यानी जिन विद्यार्थियों को बारहवीं की परीक्षा में शत प्रतिशत अंक आए होंगे वही इन विषयों की पढ़ाई यहाँ कर पाएंगे। अगर इसे सिर्फ सूचना के लिहाज से देखें तो ये कुछ तथ्य भर हैं जो नामांकन की 'कठिनाई' और 'श्रेष्ठता के स्तर' को बताती हैं और अगर इसका विश्लेषण करें तो यह घटना  विश्वविद्यालय के मूल उद्देश्य को ही खारिज करती नज़र आती है। इस निष्कर्ष तक पहुँचने के पहले हमें उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालय के विभिन्न संबंधों को देखना होगा।

एक विश्वविद्यालय का संचालन किस प्रकार होगा यह काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम इससे चाहते क्या हैं? अगर हमारी अपेक्षा बस इतनी है कि उच्च शिक्षा के ऑंकड़े बेहतर हो जाएँ तो इसे सिर्फ डिग्री बॉंटने वाले संस्थान के रूप में संचालित किया जा सकता है। अपवादों को छोड़कर तमाम राज्यों में कार्यरत डिग्री कॉलेज और राज्य विश्वविद्यालय को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। दूसरी ओर अगर हम एक ऐसे विश्वविद्यालय की कल्पना करें जो हर तरह की सुविधा से तो संपन्न हो किंतु उसका ढॉंचा राष्ट्रीय चरित्र को शामिल करने का न हो तो वो फिर वो लाखों की सालाना फीस वाले अत्यधिक महँगे निजी विश्वविद्यालयों के रूप प्रकट होगा। ये संस्थान  हैसियत के आधार पर एक आभिजात्यवादी व्यवस्था के रूप में संचालित होते हैं। एक अन्य व्यवस्था की कल्पना करें कि जिसका उद्देश्य न केवल संभावनाओं की बेहतर परवरिश करना हो बल्कि वो अपनी संरचना में राष्ट्रीय चरित्र को भी शामिल करता हो तो बीएचयू, डीयू, जेएनयू जैसे सरकारी संस्थान उभरते हैं। ये संस्थान उच्च कोटि की अकादमिक क्षमता तो रखते ही हैं, साथ ही वो यह कोशिश भी करते हैं इसका लाभ विविध पृष्ठभूमि के छात्रों को मिल सके। इस प्रकार ये संस्थान राष्ट्र निर्माण के सबसे महत्वपूर्ण उपकरणों में से एक होते हैं। इस बात की कल्पना ही कितनी भयावह है कि अगर इन संस्थाओं की विविधता नष्ट हो जाए तो? अब यहाँ से दिल्ली विश्वविद्यालय के सौ फीसदी वाले कट ऑफ की घटना को देखें और डीयू के मूल उद्देश्य से इसकी तुलना करें। 

दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान का मूल उद्देश्य ही है कि वो परिधि के छात्रों को मुख्यधारा में शामिल होने का अवसर दें, लेकिन बारहवीं के अंकों के आधार पर नामांकन लेना इस बुनियादी उद्देश्य को ही खारिज कर देती है। उसमें भी जब यह सौ फीसदी तक पहुँच जाए तो निश्चित ही यह सीमित लोगों के बीच का खेल बनकर रह जाता है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकारी संस्था को आभिजात्यवादी बना रही है। वस्तुतः, बोर्ड परीक्षा के अंक विद्यार्थी की अपनी प्रतिभा से तो जुड़ी हुई होती ही है साथ ही इसमें एक बड़ा हिस्सा उनके अभिभावक की आर्थिक-सामाजिक हैसियत का भी होता है। एक कमजोर पारिवारिक पृष्ठभूमि के विद्यार्थी और संपन्न विद्यार्थी की स्कूली शिक्षा में कितनी असमानता होती है, इसे अलग से लिखने की आवश्यकता नहीं है। पहली कोटि के बच्चों को वो परिवेश नहीं मिल पाता जहाँ वो वर्तमान की गति से कदमताल कर सके। वहीं, दूसरी कोटि के बच्चों की रफ्तार बिना उसके निजी प्रयास के भी तेज ही रहती है। ऊपर से अलग अलग बोर्ड के अंक निर्धारण की प्रक्रिया भी असमान है। उदाहरण के लिए बिहार या झारखंड बोर्ड का कोई विद्यार्थी कितना भी मेधावी क्यों न हो वो उतने अंक ला ही नहीं सकता जितने आईसीएसई या सीबीएसई का कोई विद्यार्थी ला सकता है। और अधिकांश गरीब और कमजोर आर्थिक हैसियत वाले विद्यार्थी ही इन राज्य बोर्डों के अधीन पढ़ाई करते हैं। तो क्या सिर्फ जन्म और पढ़ाई के माध्यम के संयोग के कारण गरीब किंतु मेधावी विद्यार्थियों को दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे सरकारी विश्वविद्यालयों में पढ़ने से वंचित होना जायज है? निश्चित ही नहीं। 

अब यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि फिर इसका विकल्प क्या है? आखिर कौन सी प्रक्रिया अपनाई जाए कि योग्य विद्यार्थियों का चुनाव भी हो और विविधता भी बनी रही। तो, ऐसा कोई आदर्श तरीका तो फिलहाल नहीं है लेकिन जो आदर्श के सबसे निकट है वो है 'एंट्रेस परीक्षा'। एक ऐसा प्रतिभाशाली विद्यार्थी जो अपनी पृष्ठभूमि की वजह से 'अपेक्षित' अंक नहीं ला पाया होता है, उसके पास यह अवसर होता है कि वो कि प्रवेश परीक्षा पास कर देश दुनिया के श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में दाखिला ले ले। वस्तुतः, बोर्ड अंकों के आधार पर नामांकन एक संकुचित व्यवस्था है जो एक खास पृष्ठभूमि वाले विद्यार्थियों को लाभ पहुँचाकर शेष को दरवाजे से ही लौटा देती है जबकि एंट्रेस परीक्षा अपेक्षाकृत अधिक उदार व समावेशी प्रक्रिया है। यह व्यवस्था श्रम से जन्म के संयोग को खारिज करने का विकल्प देती है। दूसरे, इससे मेधा का मान भी बना रहता है क्योंकि अंततः चयन उन्हीं का होगा जो बेहतर प्रदर्शन करेंगे। आदर्श व्यवस्था न होते हुए भी यह योग्यता और विविधता का काफी हद तक सम्मान करती है। इसलिए ही जेएनयू, बीएचयू जैसे संस्थानों में ऐसे विद्यार्थियों की बहुतायत होती है जिनको बोर्ड परीक्षाओं में बहुत अच्छे अंक नहीं आए होते हैं। आईआईटी और आईआईएम जैसे श्रेष्ठ संस्थानों में भी दाखिले की यही प्रणाली है तो फिर क्यों न दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक दाखिले में भी इसे अपनाया जाए! आखिरकार लोक के पैसे से चलने वाले शिक्षण संस्थान को लोकाभिमुख होना ही चाहिए। इसको सौ फीसदी अंक वाले विद्यार्थियों तक समेट देना सार्वजनिक शिक्षा के मूल मर्म को नष्ट करना है।

सन्नी कुमार

(लेखक इतिहास के अध्येता हैं तथा दृष्टि समूह में 'क्रिएटिव हेड' के रूप में कार्यरत हैं)

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