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विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं का योगदान

हम से अधिकांश लोगों से जब क्रिकेट के किसी खिलाड़ी का नाम पूछा जाता है तो हम तुरंत बिना कुछ सोचे सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली या अन्य किसी पुरुष खिलाड़ी का नाम बता देते हैं; शायद बहुत कम या दशमलव मात्र लोग ही होंगे जो इस प्रश्न के जवाब में मिताली राज, झूलन गोस्वामी या अन्य किसी महिला खिलाड़ी का नाम लेंगे। इसी तरह, जब हम वैज्ञानिकों की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में स्टीफन हॉकिंग, आईजैक न्यूटन, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, सी.वी. रमन जैसे पुरुष वैज्ञानिकों की ही छवि उभर कर सामने आती है, न कि जानकी अम्माल, असीमा चटर्जी, अन्ना मणि जैसी महिला वैज्ञानिकों की। जी हां, भले ही आधुनिक युग में महिलाएँ धरती से आसमान तक हर जगह पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, लेकिन आज भी उच्च शिक्षा से लेकर शोध संस्थानों व कार्यक्षेत्र तक, हर जगह पर उनके योगदान को उतना महत्व नहीं दिया जाता जितना कि एक पुरुष के योगदान को दिया जाता है। तमाम तरह की चुनौतियों के बावजूद इसरो में चंद्रयान मिशन हो या फिर मंगल मिशन की सफलता, नासा से लेकर नोबेल पुरस्कार तक हर क्षेत्र में हमारी महिला वैज्ञानिकों ने अपना लोहा मनवाया है। तो चलिये जानते हैं विज्ञान की जादुई दुनिया में अपना परचम लहराने वाली कुछ महिला वैज्ञानिकों के बारे में और इस क्षेत्र में महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में-

जिस सदी में महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैद करके रखा जाता था, उसी समय में सामाजिक बेड़ियों को तोड़कर विज्ञान की दुनिया में कीर्तिमान स्थापित करने वाली कुछ महिला वैज्ञानिकों के नाम इस प्रकार हैं-

  • जानकी अम्माल : 4 नवंबर 1897 को केरल में जन्मी जानकी अम्माल वनस्पतिशास्त्र की वैज्ञानिक थीं। इन्होंने गन्नों की हाइब्रिड प्रजाति की खोज और क्रॉस ब्रीडिंग पर शोध किया था जिसे पूरी दुनिया में मान्यता मिली। वनस्पति शास्त्र में योगदान को देखते हुए साल 1957 में इन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। 7 फरवरी, 1984 को इनका निधन हो गया।
  • आनंदीबाई जोशी: इनका जन्म 31 मार्च 1865 को पुणे शहर में हुआ था। ये भारत की पहली महिला थीं जिन्होंने विदेश में डॉक्टर की डिग्री हासिल की। भारत लौटने के बाद इन्होंने चिकित्सा विज्ञान और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी काम किया। 26 फरवरी 1887 में महज 22 साल की उम्र में बीमारी के चलते इनका निधन हो गया।
  • असीमा चटर्जी: कैंसर चिकित्सा, मिर्गी और मलेरिया रोधी दवाओं के विकास के लिये प्रसिद्ध असीमा चटर्जी का जन्म 23 सितंबर 1917 को बंगाल में हुआ था। ये पहली भारतीय महिला थीं जिन्हें किसी भारतीय विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट ऑफ साइंस की उपाधि दी गई थी। 2006 में 90 साल की उम्र में इन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।
  • अन्ना मणि: मौसम वैज्ञानिक के तौर पर मशहूर अन्ना मणि का जन्म 23 अगस्त 1918 को केरल के त्रावणकोर में हुआ था। इन्होंने सौर विकिरण, ओजोन परत और वायु ऊर्जा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया। 16 अगस्त 2001 को इनकी जीवनलीला समाप्त हो गई।
  • किरण मजूमदार शा: किरण विज्ञान की दुनिया में किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अहम योगदान देने वाली किरण मजूमदार ने मधुमेह, कैंसर और आत्म प्रतिरोधी बीमारियों पर शोध के साथ ही एंजाइमों के निर्माण के लिये एकीकृत जैविक दवा कंपनी ‘बायोकॉन लिमिटेड’ की स्थापना की।

हमारी महिला वैज्ञानिकों ने केवल विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में अतुलनीय कार्य किए हैं, बल्कि गणित, अंतरिक्ष और खगोल शास्त्र के क्षेत्र में भी शानदार उपलब्धियाँ हासिल की हैं। अंतरिक्ष की दुनिया में दमदार प्रदर्शन करने वाली इन महिलाओं के बारे में आपको ज़रूर जानना चाहिए-

मुथैया वनिता: ये भारत में दूसरे चंद्रयान मिशन की प्रोजेक्ट डायरेक्टर थीं। मुथैया इसरो में इस स्तर का काम करने वाली पहली महिला वैज्ञानिक हैं। इन्होंने मैपिंग के लिये इस्तेमाल होने वाले पहले भारतीय रिमोट सेंसिंग उपग्रह कार्टोसैट-1 और दूसरे महासागर अनुप्रयोग उपग्रह ओशनसैट-2 मिशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साल 2006 में इन्हें सर्वश्रेष्ठ महिला वैज्ञानिक के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

रितु करिधल: चंद्रयान-1 मिशन में डिप्टी ऑपरेशंस डायरेक्टर रह चुकी रितु करिधल भारत के सबसे महत्वाकांक्षी मिशन चंद्रयान-2 की मिशन डायरेक्टर थीं। साल 2007 में इन्हें इसरो के यंग साइंटिस्ट ऑवार्ड से सम्मानित किया गया।

टेसी थॉमस: भारत की मिसाइल महिला और अग्निपुत्री के नाम से मशहूर टेसी थॉमस ने डीआरडीओ में अपने काम से सबका ध्यान आकर्षित किया। इन्होंने भारत की रक्षा प्रणाली को मजबूत करने में काफी योगदान दिया है।

कल्पना चावला: भारतीय मूल की अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला के बारे में छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक हर कोई जानता है। कल्पना अंतरिक्ष में जाने वाली भारतीय मूल की पहली महिला थीं। वह 376 घंटे 34 मिनट तक अंतरिक्ष में रहीं। इस दौरान उन्होंने धरती के 252 चक्कर लगाए थे। 1 फरवरी 2003 को हुई अंतरिक्ष इतिहास की एक मनहूस दुर्घटना में कल्पना चावला सहित सातों अंतरिक्ष यात्रियों की मौत हो गई।

सुनीता विलियम्स: सुनीता विलियम्स अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के जरिये अंतरिक्ष में जाने वाली भारतीय मूल की दूसरी महिला हैं। सुनीता विलियम्स ने एक अंतरिक्ष यात्री के रूप में 195 दिनों तक अंतरिक्ष में रहने का विश्व कीर्तिमान स्थापित किया।

क्या कहते हैं आँकड़े?

  • भारतीय परिप्रेक्ष्य में आँकड़ों पर नज़र डालें तो, वर्ष 2020 में किये गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) के 1,044 सदस्यों में से केवल 89 महिलाएँ हैं जो कुल संख्या का 9 फीसदी हैं। वहीं, साल 2015 में उनके प्रतिनिधित्व में और अधिक कमी देखी गई थी जिसमें 864 सदस्यों में मात्र 6 फीसदी महिला वैज्ञानिक शामिल थीं।

इसी प्रकार, इन्सा (INSA) के शासी निकाय में साल 2020 में कुल 31 सदस्यों में से केवल 7 महिलाएँ थीं, जबकि 2015 में इसमें कोई महिला सदस्य शामिल नहीं थी।

  • वहीं, विश्व स्तर पर बात करें तो जेंडर इन साइंस, इनोवेशन, टेक्नोलॉजी एंड इंजीनियरिंग (Gender In SITE), इंटर एकेडमी पार्टनरशिप (IAP) और इंटरनेशनल साइंस काउंसिल (ISC) द्वारा संयुक्त रूप से किये गए एक अध्ययन के मुताबिक उच्च अकादमियों में महिलाओं की निर्वाचित सदस्यता में मामूली सी वृद्धि देखने को मिली। ये संख्या वर्ष 2015 में 13 फीसदी थी जो कि वर्ष 2020 में बढ़कर 16 फीसदी हो गई।

आखिर क्या है वैज्ञानिक जगत में महिलाओं की कम भागीदारी की वजह

उपर्युक्त आँकड़ों को देखने के बाद हम यह सोचकर खुश हो सकते हैं कि पिछले सालों के मुकाबले महिलाओं की संख्या साल दर साल बढ़ रही है, लेकिन इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि इसकी रफ़्तार बहुत धीमी है। महिलाओं की भागीदारी को कम करने वाले कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

  • विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की कमी का एक प्रमुख कारण रूढ़िवादी लैंगिक धारणा है। लोगों के बीच यह मान्यता व्याप्त है कि अधिक परिश्रम व अधिक ज्ञान वाले कार्यों को पुरुष ही बेहतर तरीके से कर सकते हैं। महिलाएँ घर के कार्यों के लिये बनी हैं और इसलिए उन्हें घर के कार्य करने चाहिए या ऐसा व्यवसाय चुनना चाहिए जिसे घर के कार्यों के साथ-साथ आसानी से संभाला जा सके।
  • महिलाओं को काम पर रखने या फेलोशिप और अनुदान आदि देने में पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण पर ज़ोर दिया जाता है।
  • महिला रोल मॉडलों की कमी
  • गर्भावस्था के दौरान संस्थागत ढाँचे का सहायक न होना और कार्यस्थल में सुरक्षा-संबंधी समस्याएँ महिलाओं को इस क्षेत्र से बाहर रहने को मज़बूर करती हैं।
  • इन क्षेत्रों में महिलाओं की कम संख्या के लिये न केवल सामाजिक मानदंड बल्कि गुणवत्ताहीन शिक्षा भी ज़िम्मेदार है।

महिलाओं को प्रोत्साहन देने हेतु शुरू की गई पहल

  • देश में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) के क्षेत्रों में महिलाओं को करियर बनाने हेतु प्रोत्साहित करने के लिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) द्वारा 2019 से ‘विज्ञान ज्योति योजना’ चलाई जा रही है।
  • इसके साथ ही, महिला वैज्ञानिकों को शैक्षणिक और प्रशासनिक स्तर पर अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से साल 2014-15 में ‘किरण योजना’ की शुरुआत की गई।
  • स्टेम (STEM) के क्षेत्र में लैंगिक समानता का आकलन करने के लिये ‘जेंडर एडवांसमेंट फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंस्टीट्यूशंस (GATI)’ कार्यक्रम शुरू किया गया।

कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि समय के साथ-साथ विज्ञान के क्षेत्र में भी महिलाओं ने मेहनत और लगन से अपनी एक अलग पहचान बनाई है; उनके आविष्कारों व प्रयोगों ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उन्नति में चार चांद लगाए हैं लेकिन सरपट भाग रही इस विज्ञान की दुनिया में उनकी रफ्तार का पहिया अभी धीमा है। इसलिए यथास्थिति में तेजी से बदलाव लाने के लिये हमारे परिवार, शैक्षणिक संस्थानों, कंपनियों और सरकारों, सभी को साथ मिलकर कार्य करना होगा। साथ ही, वैज्ञानिक जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाली महिलाओं की सफलता की कहानियाँ जन-जन तक पहुँचानी होंगी जिससे संकीर्ण मानसिकता वाले तबके की सोच में बदलाव लाया जा सके और देश की बेटियाँ बढ़-चढ़कर विज्ञान के क्षेत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें।

  शालिनी बाजपेयी  

शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।

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