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भगत सिंह: एक विचार

बात 23 मार्च 1931 की शाम की है। भगत सिंह प्राणनाथ मेहता की लाई लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। अफसर ने दरवाजा खोला और कहा, “सरदार जी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है। तैयार हो जाइए।” भगत सिंह के हाथ में किताब थी, उससे नज़रे उठाए बिना ही उन्होंने कहा, “ठहरिये! एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।” कुछ और पंक्तियां पढ़कर उन्होंने किताब रखी और उठ खड़े होकर बोले, चलिए!...और इस प्रकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को तय दिन से एक दिन पहले फांसी दे दी गई।

प्रस्तुत प्रसंग का वर्णन वीरेंद्र सिन्धु ने अपनी पुस्तक “शहीद भगत सिंह” में किया है।

हमारे बीच में से अधिकांश लोग भगत सिंह को मात्र एक क्रांतिकारी की तरह ही मानते हैं परन्तु भगत सिंह मात्र एक क्रांतिकारी ही नहीं थे। भगत सिंह एक विचार है। एक दर्शन, जिसने क्रांतिकारी गतिविधियों को एक दार्शनिक आयाम दिया। भगतसिंह की जेल नोटबुक मिलने के बाद भगतसिंह के चिन्तनशील व्यक्तित्व की व्यापकता और गहराई पर और अधिक प्रकाश पड़ा है। यह सच्चाई भी पुष्ट हुई है कि भगतसिंह ने अपने अन्तिम दिनों में सुव्यवस्थित एवं गहन अध्ययन के बाद बुद्धिसंगत ढंग से मार्क्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाया था। हालांकि यह आश्चर्यजनक है कि किस प्रकार उन्होंने ब्रिटिश सेंसरशिप के बावजूद पठन हेतु पुस्तकें और सामग्री एकत्रित की और महज 23 वर्ष की छोटी सी उम्र में चिन्तन का जो स्तर उन्होंने हासिल कर लिया था, वह उनके युगद्रष्टा युगपुरुष होने का ही प्रमाण था। यह सोचना गलत नहीं है कि भगत को 23 वर्ष की अल्पायु में यदि फाँसी नहीं हुई होती तो राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का इतिहास और भारतीय सर्वहारा क्रान्ति का इतिहास शायद कुछ और ही ढंग से लिखा जाता। बहरहाल यह उतना ही दुखद है कि आज भी इस देश के शिक्षित लोगों का एक बड़ा हिस्सा भगत को एक ओर महान तो मानता है, पर यह नहीं जानता कि 23 वर्ष का वह युवा एक महान चिन्तक भी था।

किसी भी महान व्यक्ति का अध्ययन तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। यदि भगत सिंह का झुकाव मार्क्सवाद की तरफ हुआ तो उसके पीछे भी कई कारण विद्यमान थे। दरअसल 1917 की रूस की क्रांति के बाद मार्क्सवाद और समाजवाद पूरी दुनिया में बूम कर गया था। सर्वहारा वर्ग द्वारा निरंकुश शासन पर विजय को हर जगह सराहना मिली और इसे सर्वहारा (शोषित) वर्ग के पक्ष में क्रांति कहा गया। दूसरी बात , 1920 के दशक में पूरे विश्व में समाजवाद की लहर दौड़ रही थी। यही वजह थी कि राष्ट्रीय आंदोलन के कई पुरोधा भी उस लहर से अछूते न रहे। सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरू भी समाजवाद के काफी प्रभावित थे। इसके अलावा, 1929-1930 के समय वैश्विक महामंदी के कारण पूंजीवाद की सर्वश्रेष्ठता का भ्रम टूटा और उसकी खामियां उभरकर सामने आई। इसी दौर में, दुनिया को समाजवाद पूंजीवाद के एक श्रेष्ठ विकल्प के रूप में दिखाई देने लगा। यहां तक कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी समाजवाद की लहर से अछूती ना रही।

यही वो परिस्थितियां थी जिनके आलोक में भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी भी मार्क्सवाद और समाजवाद की तरफ आकर्षित हुए।

आख़िर क्या था भगत सिंह का मार्क्सवादी समाजवाद?

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भगत सिंह का मन वैयक्तिक हत्या तथा हिंसक गतिविधियों से विरक्त हो गया था। उनका प्रसिद्ध वक्तव्य था: “पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।” इस प्रकार वे मार्क्सवाद की तरफ प्रभावित हुए। उन्होंने कार्ल मार्क्स, व्लादिमीर लेनिन तथा लियोन त्रोत्सकी को पढ़ा। लेकिन वे मार्क्स से कहीं ज्यादा लेनिन के मार्क्सवाद से प्रभावित थे। अपने लेख “टू यंग पॉलिटिकल वर्कर्स” में उन्होंने अपने आदर्श को “नए अर्थात मार्क्सवादी आधार पर सामाजिक पुनर्निर्माण” के रूप में घोषित किया। भगत सिंह का मार्क्सवाद तथा समाज के सम्बन्ध में मार्क्स की वर्गीय अवधारणा में पूर्ण विश्वास था। वे कहते थे ‘किसानों और गरीबों को सिर्फ विदेशी शोषणकर्ताओं से ही मुक्त नहीं होना है अपितु उन्हें पूंजीपतियों और जमीदारों के चंगुल से भी मुक्त होना है।’ उन्होंने समाजवाद की धारणा को वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया, जिसका अर्थ था पूंजीवाद और वर्ग प्रभुत्व का पूरी तरह अंत। भगत सिंह पूंजीवाद की अवधारणा को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने पूंजीवाद की आलोचना सामाजिक और राजकीय दोनो परिप्रेक्ष्य में की। अपनी जेल डायरी में वे लिखते हैं,

“लोकतन्त्र सिद्धान्ततः राजनीतिक और कानूनी समानता की व्यवस्था है, किन्तु ठोस और व्यावहारिक रूप में यह झूठ है, क्योंकि जब तक आर्थिक सत्ता में भारी असमानता है, तब तक कोई समानता नहीं हो सकती, न राजनीति में और न कानून के सामने।…पूँजीवादी शासन में लोकतन्त्र की सारी मशीनरी शासक अल्पमत को श्रमिक बहुमत की यातनाओं के जरिये सत्ता में बनाये रखने के लिए काम करती है।”

जेल में वह सारी मानवजाति के हित में अर्थव्यवस्था और प्राकृतिक संपदा पर वितरण हेतु विश्व समाजवादी क्रांति के विचार में लीन रहे। जेल डायरी के पृष्ठ 190 पर उन्होंने लिखा “समाजवादी व्यवस्था: प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार।” इस प्रकार भगत सिंह के विचारों में समाजवाद की ओर झुकाव काफी पहले से दिखाई देने लगा था। किंतु बाद में वे वैयक्तिगत हिंसा, हत्या और क्रान्तिकारी गतिविधियों से अरुचि से भरने लगे थे। उसके पश्चात वे मार्क्सवाद की और तेजी से झुकते हुए प्रतीत हुए। यही कारण था कि 1928 में उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम परिवर्तित कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) कर दिया। और क्रान्ति की पुनर्व्याख्या करते हुए एवं स्वतंत्र राष्ट्र के निमार्ण हेतु एक ठोस कार्ययोजना प्रस्तुत की। यही विचार उनके भारत नौजवान सभा के गठन के समय युवाओं को सशक्त करने में दिखाई देता है। यदि वह अधिक समय तक जीवित रहते तो उनमें वह प्रतिभा थी कि वह राष्ट्र के भविष्य को भी निर्धारित कर सकते थे।

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, तत्कालीन समाज विभिन्न समस्याओं से भी उलझ रहा था। भगत सिंह मार्क्सवाद में विश्वास रखने के साथ साथ सामाजिक समस्याओं पर चिंतन भी किया करते थे। जेल में उन्होंने चार पुस्तकें लिखीं थी, दुर्भाग्य से जिनकी पांडुलिपियां आज उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त ‘किरती’ और ‘वीर अर्जुन’ समेत कई पत्रिकाओं में उन्होंने लेख लिखे। इसी परिदृश्य में उन्होंने कुछ लेख लिखे। जोकि इस प्रकार हैं,

“अछूतो की समस्या” का हल

1920 के दशक में जब राष्ट्रीय आंदोलन अपने प्रवाह में चल रहा था और जन आंदोलन में तब्दील हो रहा था। अंबेडकर भी राजनीति में सक्रिय भूमिका में आ गए थे। और अछूत समस्या की गुत्थी सुलझाने के प्रयत्न प्रारंभ हो गए थे। इसी बीच भगत सिंह ने “किरती” नामक पंजाबी पत्रिका में ‘अछूत का सवाल’ लेख लिखा जोकि जून 1928 में प्रकाशित हुआ। इस लेख में श्रमिक वर्ग की शक्ति व सीमाओं का अनुमान लगाकर उसकी प्रगति के लिए ठोस सुझाव दिये गये थे। सिंध के श्री नूर मोहम्मद का संदर्भ देते हुए वो कहते हैं कि जब तुम एक इंसान को पीने के लिए पानी देने से इंकार करते हो, स्कूल में पढ़ने का अधिकार नहीं देते, भगवान के मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं देते और एक इंसान के समान अधिकार देने से इन्कार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए? वे कहते हैं कि एक कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है परंतु एक इंसान के स्पर्श मात्र से बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है। आखिर यह कैसी विडंबना है? इस समस्या ने निदान में वह कहते हैं कि सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इन्सान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य-विभाजन से। वे अछूत कौम को स्पष्ट रुप से संगठित होने का आह्वान करते हैं। भगत सिंह अछूतो और श्रमिको को असली सर्वहारा के रूप में घोषित करते हुए कहते हैं दूसरो की ओर मुंह न ताको, संगठित हो जाओ। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा करदो और राजनीतिक, आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो।

“सांप्रदायिक समस्या” का हल

असहयोग और खिलाफत आंदोलन की समाप्ति के बाद मुस्लिम लीग और कांग्रेस के रास्ते अलग अलग हो गए। और इसी दशक में देश में सांप्रदायिक दंगे भड़कने लगे। 1926 में कलकत्ता में एक भयानक दंगा हुआ। संयुक्त प्रांत में 1923 और 1927 के बीच लगभग 88 दंगे हुए, जिनके कारण हिंदू-मुस्लिम संबंध लगभग पूरी तरह भंग हो गए। इसी समस्या पर विचार हेतु भगत सिंह ने किरती पत्रिका में “सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज़” लेख लिखा। इस लेख में वे सांप्रदायिकता के आलोक में भारत के भविष्य पर प्रश्न उठते हैं। पहली बात, वे दंगों का इलाज भारत की आर्थिक दशा में सुधार को बताते हैं कि भारत के लोगो की आर्थिक हालत इतनी खराब है कि उन्हें एक दूसरे के खिलाफ भड़काना काफी आसान है। क्योंकि भूखा व्यक्ति अपने सिद्धांत ताक पर रख देता है। दूसरी बात, वे लोगो को परस्पर जोड़ने के लिए वर्ग-चेतना की समझ को आवश्यक बताते हैं। वर्ग चेतना की समझ से युक्त व्यक्ति धार्मिक दंगों में नही उलझता। तीसरी बात, वे धर्म को राजनीति से अलग करने पर बल देते हैं कि धर्म एक व्यक्तिगत मामला है, उसे राजनीति में शामिल नहीं करना चाहिए। भगत सिंह कहते हैं कि यदि सांप्रदायिकता को खत्म करना है तो हमें किसी भी व्यक्ति को ‘इन्सान’ के रूप में देखना होगा नाकी किसी ‘धर्म विशेष के व्यक्ति के रूप में’।

सारतः भगत सिंह के संपूर्ण व्यक्तित्व को देखा जाए तो उन्हें मात्र क्रान्तिकारी संबोधित करना न्यायसंगत न होगा। अपितु वह एक सशक्त क्रांतिकारी होने के साथ साथ एक विचारक,चिंतक और बुद्धिजीवी व्यक्तित्व थे। वे अन्य क्रान्तिकारियों से विशिष्ट थे क्योंकि वे राष्ट्र निर्माण का वैकल्पिक विचार रखते थे। बाद में सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था, “भगत सिंह युवाओं में नई जागृति के प्रतीक बन गए थे।” अन्त में शहीद भगत सिंह की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात को विराम देता हूं।

“दिल से ना निकलेगी, मर कर भी वतन की उल्फत

मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ऐ-वतन आएगी।”

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:

  1. स्वतंत्रता के लिए भारत का संघर्ष – बिपन चंद्र
  2. प्लासी से विभाजन तक और उसके बाद – शेखर बंदोपाध्याय
  3. रिवॉल्यूशनरी: द अदर स्टोरी ऑफ हाउ इंडिया वोन इट्स फ्रीडम – संजीव सान्याल
  4. मै नास्तिक क्यों हूं? – भगत सिंह
  5. जेल डायरी ऑफ भगत सिंह – भगत सिंह
  6. गांधी और भगत सिंह – वी. एन. दत्ता
  7. ऑनलाइन और अन्य आर्काइव्स स्त्रोत

  आशू सैनी  

आशू सैनी, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले से हैं। इन्होंने स्नातक बी.एस.सी (गणित) विषय से और परास्नातक एम.ए (इतिहास) विषय से किया है। इन्होंने इतिहास विषय से तीन बार यू.जी.सी. नेट की परीक्षा पास की है। वर्तमान में इतिहास विषय में रिसर्च स्कॉलर (पी.एच-डी) हैं। पढ़ना, लिखना, सामजिक मुद्दों पर विचार-विमर्श करना और संगीत सुनना इनकी रुचि के विषय हैं। इनके कई लेख दैनिक जागरण और जनसत्ता में प्रकाशित हो चुके हैं।

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