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मृत्युदंड-सही या गलत?

"मुझे विश्वास ही नहीं कि कोई भी सभ्य समाज मृत्यु का सेवक हो सकता है। मुझे नहीं लगता कि कोई मानव ही मानव की मौत का देवदूत बन सकता है" -हेलेन प्रेजेन, एक्टिविस्ट, नन और लेखिका.

डेड मैन वॉकिंग की लेखिका हेलेन के इस कथन से अलग बिल महेर (लेखक और कॉमेडियन) अपने अंदाज़ में कहते हैं -"मृत्युदंड बहुत बढ़िया दंड है। हर हत्यारा जिसे आप मारते हैं, फिर दोबारा किसी को नहीं मारता।" मृत्युदंड एक ऐसी सज़ा है जिसके बारे में सुन कर ही सोच सिहर उठती है। किसे, कब, कहां और क्यों मिल रही है यह सज़ा, मन सवालों के पीछे भागने लगता है। बेशक यह अब भी दुर्लभ है और दुर्लभतम मामलों में ही दी जाती है। विचार हो सकता है कि जो शहीद भगत सिंह को सज़ा-ए-मौत ना मिली होती तो यह 23 साल का जीनियस क्रांतिकारी भारत को जाने कौन-सी रौशनी से सराबोर कर सकता था। पहले माफी ना मांग कर गौरी हुकूमत को हिला देने वाली बहस की और फिर फिरंगियों ने इस क्रांतिकारी को बोलने ही नहीं दिया। उनके साथ सुखदेव और राजगुरु को भी गुपचुप फांसी पर लटका दिया गया। अगर जो हुकूमतें मृत्युदंड का विकल्प ही न रखें तब? तर्क अक्सर दिया जाता है कि जिसको आप पैदा ही नहीं कर सकते, उसे मारने का क्या नैतिक अधिकार आपके पास है? महात्मा गाँधी कहते हैं, आंख के बदले आंख की भावना पूरी दुनिया को अंधा बना देगी। क्या कोई भी हुक्मरां अपने कर्त्तव्य में 100 फ़ीसदी सही हो सकता है? इसी के साथ फिर यह सवाल भी उठता है कि अगर निर्भया के बलात्कारियों और हत्यारों को फांसी न दी जाती या उस आतंकवादी को जिसे मुंबई पुलिस ने ज़िदा पकड़ा था, ये समाज को किस परिवर्तन की ओर ले जाते? तब क्या शासक या सत्ता इस लक्ष्य को बिना फांसी पर लटकाए भी पा सकते हैं? कहने का तात्पर्य, क्या मृत्युदंड के बिना अपराधी को समाज से दूर रखना संभव नहीं है? आजीवन कारावास क्यों विकल्प नहीं हो सकता? रूसी लेखक अंतोन चेखव की कहानी का छोटा सा हिंसा शायद इसे समझने में मददगार हो सकता है।

चेखव की कहानी शर्त और मृत्युदंड

वह पतझड़ की रात थी। बूढ़ा बैंकर अपनी स्टडी में तेजी से इधर-उधर झूम रहा था और आज से पन्द्रह बरस पहले दी गयी दावत को याद कर रहा था। उस दावत में शहर के गणमान्य लोग मौजूद थे। दावत में अन्य विषयों के साथ-साथ मृत्युदंड पर भी गरमागरम बहस हुई थी। अधिकांश मेहमान जिसमें बुद्धिजीवी और पत्रकार भी थे, मृत्युदंड पर अपनी असहमति जता रहे थे। उनका मानना था कि रूस में मृत्युदंड एक क्रिश्चियन राज्य के लिए अनुपयुक्त और अनैतिक था। उनमें से कुछ का विचार था कि मृत्युदंड को आजीवन-कारावास में बदल देना चाहिए।

"मैं आपसे सहमत नहीं हूं।" मेज़बान ने कहा। हालांकि मेरा अनुभव ना मृत्युदंड का है और ना आजीवन-कारावास का। लेकिन अगर हम तार्किक दृष्टि से देखें, तो मृत्युदंड आजीवन-कारावास की तुलना में न्यायसंगत और मानवीय है। फांसी व्यक्ति की जान तुरंत ले लेती है, आजीवन-कारावास उसे किस्तों में मारता है। दोनों ही समान रूप से अनैतिक हैं।" किसी दूसरे मेहमान ने अपना मत व्यक्त किया, क्योंकि दोनों का उद्देश्य एक ही है-जीवन को समाप्त कर देना। राजसत्ता कोई भगवान नहीं। उसे यह अधिकार कतई नहीं है कि वह उस वास्तु को छीन ले, जिसे वह चाहे भी तो वापस नहीं दे सकती।"

उस मंडली में एक वकील भी था। करीब पच्चीस साल का एक युवक। जब उससे उसकी राय के बारे में पूछा गया तब उसने कहा:-"मृत्युदंड और आजीवन-कारावास समान रूप से अनैतिक हैं; लेकिन मुझे किसी एक को चुनने के लिए कहा जाए तो निश्चित रूप से मैं आजीवन-कारावास को चुनूंगा। कैसे भी हालात में जीवित रहना जीवित न रहने से बेहतर है।"

76 फीसदी से ज्यादा गरीब और अशिक्षित

इस तरह कहानी में एक रोचक परिचर्चा प्रारम्भ हो गई थी जिसे चेख़ोव ने क्या आकार दिया यह तो कहानी के अंत में ही पता चलेगा, शायद इस ब्लॉग के भी। बहरहाल जहां तक भारत की बात है यहां सन् 2020 में 78 लोगों को और 2021 में 144 लोगों को अदालत ने फांसी की सजा दी। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक प्रोजेक्ट पर रिपोर्ट के मुताबिक दिसम्बर 2021 तक भारत में लगभग 488 लोग फांसी की सजा की वजह से जेलों में बंद हैं। रिपोर्ट के अनुसार इनमें से 76 फीसदी से ज्यादा लोग वंचित, गरीब और अशिक्षित वर्ग के हैं। क्या यह आंकड़ा कुछ कहता है? शायद यही कि यह वर्ग अपने लिए बेहतर वकील नहीं जुटा पाता। उसकी आवाज़ दबी हुई है। समाज में इनका रुतबा और रसूख ना होने से भी मामले की पैरवी आसान नहीं होती। व्यवस्था को अगर जो बलि का बकरा ढूंढ़ना हो तो वह भी इसी वर्ग से मिल जाता है।

केवल आतंकियों को मिले फांसी

विधि आयोग ने 2015 में एक रिपोर्ट दी थी जिसके अनुसार आतंकी मामलों को छोड़कर अन्य अपराधों के लिए फांसी की सजा का कानून खत्म हो जाना चाहिए। भारत में महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी के हत्यारों को मृत्युदंड दिया गया था। मुम्बई आतंकी हमले के आतंकवादी और निर्भया मामले में भी दोषियों को फांसी दी गई थी। निर्भया मामले में दोषियों के मृत्युदंड में देरी से आपराधिक न्याय प्रणाली सवालों के घेरे में आई थी। जिला अदालत से मृत्युदंड की सजा के बाद हाईकोर्ट का अनुमोदन जरूरी है। निर्भया मामले के बाद ही किशोर अपराधी की आयु सीमा को 18 से 16 किया गया। साल 2015 में तत्कालीन बाल एवं महिला विकास मंत्री मेनका गांधी ने जुवेनाइल जस्टिस बिल पेश किया जो बाद में कानून बना। ऐसा दुर्लभ मामलों के लिए ही होगा। मृत्युदंड में केस सुप्रीम कोर्ट तक जाता है। सुप्रीम कोर्ट की औपचारिक मान्यता मिलने में वक्त लग सकता है इसलिए भी ऐसे मामलों के फैसलों में विलम्ब बढ़ सकता है। मृत्युदंड के मामलों में अपराधी के मानवीय पहलू और अपराध शास्त्र के नियमों के पालन के साथ पीड़ित परिवारों के प्रति संवेदनशीलता का भाव रखने का संतुलन बनाया जाने की अपेक्षा भी न्याय व्यवस्था से होती है। तभी न्यायिक प्रक्रिया में लोगों का भरोसा भी बढ़ता है। मृत्युदंड की सजा सुनाने के बाद सुप्रीम कोर्ट भी अपने फैसले को बदल नहीं सकता जो यह सुनिश्चित करता है कि मृत्युदंड बेहद सोच-विचार कर दिया जाने वाला दंड है। उसके बाद केवल राष्ट्रपति के सामने दया याचिका की संवैधानिक प्रक्रिया है। राष्ट्रपति चाहे तो माफी दे सकता है।

कई देशों में प्रतिबंधित है मृत्युदंड

दुनिया के कई देशों ने फांसी पर चढ़ाने की प्रक्रिया से किनारा कर लिया है। बेशक इस निर्णय में देश का समाज, सोच और धार्मिक नजरिया भी बड़ी भूमिका निभाता है। एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक लगभग दो तिहाई देशों ने अपने कानून से मृत्युदंड को हटा दिया है। दुनिया के लगभग 140 देशों में मौत की सजा नहीं है या फिर बीते दस सालों में वहां किसी को भी फांसी नहीं दी गई है। यह ट्रेंड लगातार बढ़त पर है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, नॉर्वे, स्वीडन, स्पेन जैसे देशों में किसी भी अपराध के लिए सज़ा-ए-मौत नहीं है। यूरोपियन यूनियन के अधिकांश सदस्य देश इस दंड को कानूनी व्यवस्था से निकाल चुके हैं। मामला आतंकवाद से जुड़ा हो तब भी इन देशों में आजीवन कारावास और कैद का ही प्रावधान है क्योंकि आतंकवाद से जुड़े मसलों में मौत की सजा काफी विवादित हो जाती है। मामला अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों और सीमा विवाद से भी जुड़ता है। फिर भी पॉलिसी बनाने वालों, कानूनविदों और मानव अधिकारों के पैरोकारों के बीच यह हमेशा बहस का मुद्दा रहा है।

धर्म और मृत्युदंड

यूं तो बाइबल मृत्युदंड को ख़ारिज नहीं करता है लेकिन इसकी ज़रूरत पर ज़ोर भी नहीं देता है। अगर किसी ने अन्यायपूर्वक हत्या की है तो उसे मृत्युदंड देना न्याय संगत है। जो लोग बाइबल को आधार बनाकर मृत्युदंड को अनैतिक बताते हैं उनके पास वह महत्वपूर्ण वाक्य है जो कहता है -"यू शल मर्डर नॉट।" यहां मर्डर का उल्लेख है 'किल' से नहीं है। किलिंग युद्ध के समय होती है जबकि मर्डर या हत्या पाप है। एक और वाक्य जिसको आधार बनाया जाता है वह है -"अगर कोई मनुष्य किसी की हत्या करता है तो उसे भी मारा जाना चाहिए।" यूं ईसाई धर्म की बुनियाद ही दया और करुणा पर रखी गई है। ईसा मसीह के इस कथन को कौन भूल सकता है कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा भी आगे कर दो। इस्लामी मान्यता में मौत को जीवन की समाप्ति के रूप में नहीं, बल्कि दूसरे रूप में जीवन की निरंतरता के रूप में देखा जाता है। सर्वशक्तिमान ने इस सांसारिक जीवन को परलोक के लिए एक परीक्षा और तैयारी का आधार बनाया है; और मृत्यु के साथ, यह सांसारिक जीवन समाप्त हो जाता है। सार्वजनिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न करने के बदले में मौत की सजा दी जा सकती है लेकिन हत्या में दंड ज़रूरी है लेकिन आवश्यक रूप से मृत्युदंड नहीं। यूं क़ुरान और हदीस दोनों में मृत्युदंड का ज़िक्र है। हिन्दू मान्यता की बुनियाद में भी अध्यात्म, नैतिकता, अहिंसा और दया का समावेश है। प्राचीन वेदों और धर्म शास्त्रों में मृत्युदंड के लिए कोई दिशा-निर्देश नहीं मिलते। आज भी विद्वान् क्षमा, पुनर्वास और आध्यात्मिक पुनरुत्थान को मृत्युदंड की बजाय ज़्यादा प्रभावी विकल्प मानते हैं। सबके मूल में यही सोच है कि एक बार जान लेने के बाद किसी भी परिस्थिति में उसे लौटाया नहीं जा सकता। तब क्या आधुनिक कानून व्यवस्था ने कभी गलत फैसले नहीं दिए हैं?

फैसले जो गलत हुए

इस कड़ी में निकोलो साको और वानजेट्टी नमक इटली के दो अप्रवासियों का नाम बहुत याद किया जाता है। उन पर आरोप था कि उन्होंने अमेरिका के मैसेचुसेट्स में एक जूतों की कंपनी में डकैती की और वहां के गार्ड और भुगतान लेने वालों की हत्या कर दी। इस घटना के सात साल बाद उन दोनों को 1927 में फांसी दे दी गई। बाद में पता चला की इन दोनों ने यह अपराध किया ही नहीं था। यह पूरी कानूनी प्रक्रिया पूर्वाग्रह, राजनीति और आधे-अधूरे गवाहों का नतीजा थी। इसी तरह कैमरून टॉड विल्लिंघम को 36 साल की उम्र में जानलेवा इंजेक्शन से 2004 अमेरिका (टैक्सस) में ही मौत की सजा दे दी गई। उस पर इलज़ाम था कि उसने अपनी तीन मासूम बेटियों की हत्या कर दी। टॉड की पत्नी जब क्रिसमस की शॉपिंग के लिए बाहर गई थी, उनके घर में आग लग गई थी। तीनों बेटियां आग में जल गईं और टॉड भी हल्का झुलस गया था। बाद में यह बात सामने आई कि टॉड अपनी बेटियों की हत्या का ज़िम्मेदार नहीं था। यह दुर्घटना थी जो एक ज्वलनशील द्रव की वजह से हुई थी। कानून का न्याय मानता है कि भले ही सौ गुनहगार छूट जाएं किंतु एक भी बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए।

फैसला जो पलट गया

नियमानुसार अपराध की जांच के बाद पुलिस जिला अदालत में आरोपी के खिलाफ चार्जशीट फाइल करती है। सीआरपीसी और साक्ष्य अधिनियम के तहत अदालत सबूतों के आधार पर बचाव और अभियोजन पक्षों को सुनने के बाद आरोपी को दोषी करार देती है। कानून के अनुसार उसके बाद सजा सुनाने के लिए नई बहस होती है। कानून की दुनिया में ऐसा अक्सर होता है कि फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया जाता है लेकिन इससे उलट बेहद कम। 2018 में बिलासपुर छत्तीसगढ़ के जिला न्यायालय ने संदीप जैन को अपने ही माता-पिता की गोली मारकर हत्या करने के जुर्म में मृत्युदंड की सजा सुनाई थी। जिसे बाद में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने उम्र कैद में बदल दिया। अपनी सफाई में संदीप ने पिता का रूढ़िवादी होना बताया था। बिहार के एक जज ने अभी हाल ही में बच्चे के रेप मामले में चार दिन के भीतर ही आरोपी को फांसी की सजा सुना दी थी। उन्होंने पॉक्सो (बच्चों से जुड़ा यौन उत्पीड़न) के दूसरे मामले में एक दिन के भीतर ही सुनवाई पूरी करके अभियुक्त को आजीवन कारावास की सजा सुना दी। उनकी इस जल्दबाजी के लिए उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कारवाई पर फिलहाल रोक लग गयी है।

बचाव का मिलता है पूरा मौका

यूं मृत्युदंड में सुप्रीम कोर्ट के जजों के अनुसार दोषी करार देने के बाद भी फांसी की सजा सुनाने से पहले बचाव पक्ष को पूरा मौका मिलता है। भारत में मुंबई आतंकी हमले के दोषी आतंकवादी अजमल कसाब को फांसी से पहले ट्रायल का पूरा मौका दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार मृत्युदंड के बाद जजों के फैसले को बदला नहीं जा सकता है इसलिए ऐसे मामलों में रेयरेस्ट ऑफ रेयर (दुर्लभ से दुर्लभतम) को निर्धारित करने के लिए कानूनी प्रक्रिया का सख्ती से पालन होना चाहिए। सीआरपीसी कानून की धारा-235 (2) के तहत दोषी व्यक्ति को फांसी की सजा से बचाव के लिए अदालत में नए तरीके से पक्ष रखने का अधिकार है। फिलहाल यह विचार जारी है कि फांसी की सजा देने के लिए क्या परिस्थितियां हों और सज़ा की गम्भीरता को किन मामलों में कम किया जा सकता है। इस बारे में संविधान पीठ गाइडलाइंस तय करेगी, जिसके अनुसार देश की सभी अदालतों के जज फांसी की सजा के निर्धारण में एकरुप तरीके से कानून का पालन कर सकें। इससे सही अर्थों में पीड़ितों को न्याय मिलने के साथ न्यायिक प्रक्रिया में एकरूपता भी आएगी।

चेखव की कहानी पर लौटते हैं। कहानी में वकील एक शर्त लगाता है। बैंकर उसे आजीवन कारावास बतौर पंद्रह साल जेल में पूरा करने के एवज में मोटी रकम देता है। कारावास में वह दुनिया के तमाम धर्म ग्रंथों, इतिहास व संस्कृति इत्यादि का अध्ययन करता है। उसकी सोच पूरी तरह बदल जाती है। कोई चाहत शेष नहीं रह जाती और बेहद निर्लिप्त भाव से जब वह बाहर निकलता है, तो पूरी तरह से बदल चुका होता है।

  वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा  

(लेखिका वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा ढाई दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ये दैनिक भास्कर, नईदुनिया, पत्रिका टीवी, राजस्थान पत्रिका, जयपुर में डिप्टी न्यूज़ एडिटर पद पर काम कर चुकी हैं। इन्हें संवेदनशील पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाले लाडली मीडिया अवार्ड के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।)
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