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महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट्स की जिस्ट


जैव विविधता और पर्यावरण

सुरक्षित जलवायु

  • 24 Feb 2020
  • 40 min read

मानव अधिकारों और पर्यावरण पर विशेष प्रतिवेदक की एक रिपोर्ट:

यह रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन सहित सभी पर्यावरणीय मुद्दों पर मानवाधिकारों से संबंधित मानदंडों पर चर्चा करती है तथा उन तत्त्वों की एक श्रृंखला से संबंधित महत्त्वपूर्ण दायित्वों के बारे में भी स्पष्टता प्रदान करती है जो एक सुरक्षित, स्वच्छ, स्वस्थ एवं सतत् पर्यावरण के लिये आवश्यक हैं।

वर्तमान समय में मानव सभ्यता:

  • वर्तमान में मानव सभ्यता एक अभूतपूर्व पर्यावरणीय संकट से गुजर रही है। मानवीय गतिविधियाँ प्रदूषण, विलुप्ति एवं जलवायु परिवर्तन का कारण बन रही हैं। वायु प्रदूषण से प्रतिवर्ष लाखों लोगों की अकाल मृत्यु होती है, जिनमें पाँच वर्ष और उससे कम आयु वाले लाखों बच्चे शामिल हैं।
  • वन्यजीवों की लगातार कमी हो रही है एवं दस लाख प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है। सबसे चिंताजनक पर्यावरणीय जोखिम जलवायु परिवर्तन है, जो न केवल वायु प्रदूषण और जैव विविधता के नुकसान को बढ़ाता है, बल्कि जोखिमों की एक विस्तृत श्रृंखला को जन्म देता है, जिससे अरबों लोगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
  • कनाडा, फ्राँस और यूनाइटेड किंगडम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एवं उत्तरी आयरलैंड सहित कई राष्ट्रों ने वैश्विक जलवायु आपातकाल घोषित किया है।

मानव सभ्यता का उद्भव तथा पर्यावरण प्रदूषण:

  • 11,500 वर्ष पूर्व होलोसीन युग के दौरान विकसित मानव समाज विकसित हुआ, इस अवधि की जलवायु अपेक्षाकृत स्थिर थी।
  • मानवीय गतिविधियाँ जैसे जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस) का उपयोग, वनोन्मूलन तथा औद्योगिक कृषि पृथ्वी की जलवायु को परिवर्तित कर रही हैं एवं जलवायु प्रणाली को अस्थिर कर रही हैं।
  • औद्योगिक क्रांति के बाद से कार्बन डाइऑक्साइड की वायुमंडलीय सांद्रता में 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जो 280 भाग प्रति मिलियन (Parts Per Million-PPM) से 415 भाग प्रति मिलियन से अधिक हो गई है। इससे पहले कार्बन डाइऑक्साइड का उच्च स्तर 3 मिलियन वर्ष पूर्व प्लियोसीन युग के दौरान था जिसका अर्थ है कि मनुष्य प्रजातियों, होमो सेपियन्स ने कभी भी इस स्थिति का अनुभव नहीं किया है।
  • वर्तमान मानवीय सभ्यता ने एंथ्रोपोसिन (Anthropocene) युग के रूप में वृहद् प्रभावों, जोखिमों एवं अनिश्चितता के एक नए भू-वैज्ञानिक युग में प्रवेश किया है जिसमें मानवीय गतिविधियाँ पृथ्वी को परिवर्तित कर रही हैं।
  • समृद्ध राष्ट्रों में निरंतर आर्थिक विकास हो रहा है, ऊर्जा एवं संसाधनों की उच्च खपत हो रही है तथा वर्ष 2050 तक विश्व की जनसंख्या 9 बिलियन से अधिक होने का अनुमान है, अतः यह स्पष्ट है कि वैश्विक जलवायु संकट और गंभीर हो जाएगा।
  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि "ग्लोबल वार्मिंग को 1.5°C तक सीमित करने के लिये समाज के सभी पहलुओं में तीव्र, दूरगामी एवं अभूतपूर्व परिवर्तन की आवश्यकता होगी।"
  • 1.5°C के लक्ष्य को पूरा करने हेतु ‘तत्काल प्रभावी कार्रवाई’ को तुरंत लागू किया जाना चाहिये, वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 45 प्रतिशत तक कम करने के लिये इस सदी के मध्य काल तक जीवाश्म ईंधन के दहन को खत्म करना, वनोन्मूलन को रोकना होगा।
  • अल्प आय वाले देशों की सहायता के लिये सुभेद्य आबादी को सशक्त बनाने एवं सुरक्षा प्रदान करने हेतु वार्षिक रूप से 100 बिलियन डॉलर वित्तपोषण की आवश्यकता होगी अथवा नए स्रोतों से वित्त की आवश्यकता होगी।

जलवायु परिवर्तन प्रभावों का अवलोकन

(Overview of Climate Change Impacts)

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  • जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य, आजीविका एवं मानवाधिकारों पर पहले से ही काफी प्रभाव पड़ रहा है।
  • वर्ष 2018 में जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल ने बताया कि चरम मौसम की घटनाओं, ग्लेशियरों और बर्फ के पिघलने, बढ़ते समुद्र स्तर, तूफान, जल का लवणीकरण, समुद्र अम्लीकरण, वर्षा में परिवर्तन, बाढ़, ग्रीष्म लहर, सूखा, जंगलों में आग, वायु प्रदूषण में वृद्धि, मरुस्थलीकरण, जल संकट, पारिस्थितिक तंत्र का विनाश, जैव विविधता का नुकसान तथा जल जनित एवं वेक्टर जनित रोगों की आवृति, तीव्रता एवं अवधि में अत्यधिक वृद्धि हो रही है।
  • जलवायु परिवर्तन से गरीबी, संघर्ष, संसाधन की कमी तथा अन्य कारणों से खाद्य असुरक्षा, आजीविका की हानि, बुनियादी अवसंरचना की क्षति एवं बिजली, जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य सामग्री जैसी आवश्यक सेवाओं की पहुँच में हानि जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से गरीब समाज अत्यधिक प्रभावित होता है जिसके कारण वर्ष 2030 तक 100 मिलियन लोग अत्यधिक गरीबी के गर्त में जा सकते हैं।
  • वर्ष 2018 में संपन्न देशों- ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, स्वीडन एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में उच्च तापमान, ग्रीष्म लहर तथा वनाग्नि की घटनाएँ रिकॉर्ड की गईं, यह दर्शाता है कि किसी भी राष्ट्र में वैश्विक जलवायु संकट के प्रभावों के प्रति प्रतिरक्षा उपस्थित नहीं है।
  • यह अनुमान है कि वर्ष 2050 तक 150 मिलियन या इससे अधिक लोग जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण विस्थापित हो सकते हैं, जिसमें चरम मौसमी घटनाएँ, धीमी गति से शुरु होने वाली घटनाएँ जैसे समुद्री जल स्तर में वृद्धि, मरुस्थलीकरण, उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों से स्थानांतरण (जैसे बाढ़ के क्षेत्र), दुर्लभ 2015-17संसाधनों के लिये संघर्ष आदि शामिल हैं।
  • इसके अतिरिक्त वर्ष 2050 तक 4 मिलियन लोग एवं आर्कटिक की बुनियादी अवसंरचना का लगभग 70 प्रतिशत भाग स्थायी तुषार के पिघलने से जोखिमपूर्ण होगा।
  • दीर्घावधि में कई राज्यों के निर्जन होने का खतरा है जिसमें किरिबाती (Kiribati), मालदीव (Maldives) और तुवालु (Tuvalu) शामिल हैं।
  • जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतर सरकारी विज्ञान-नीति मंच (Intergovernmental Science-Policy Platform on Biodiversity and Ecosystem Services) ने हाल ही में जैव विविधता के नुकसान में योगदान देने वाले तीसरे सबसे महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में जलवायु परिवर्तन की पहचान की है।

वैश्विक जलवायु संकट के कारण

(Causes of the global climate crisis):

  • पृथ्वी की जलवायु पर सबसे अधिक प्रभाव डालने वाली मानव गतिविधियों में जीवाश्म ईंधन और बायोमास का दहन, वनोन्मूलन एवं औद्योगिक कृषि है।
  • सत्तर प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन विद्युत एवं ऊष्मा उत्पादन (वैश्विक रूप से कुल 25 प्रतिशत), औद्योगिक प्रक्रियाओं (21 प्रतिशत), परिवहन (14 प्रतिशत) तथा अन्य अप्रत्यक्ष ऊर्जा उपयोग (10 प्रतिशत) तथा बायोमास के दहन से होता है।
  • कृषि, वनोन्मूलन तथा भूमि उपयोग में परिवर्तन के कारण 24 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है जबकि निर्माण कार्यों से 6 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है।
  • प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड (वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 76 प्रतिशत), मीथेन (16 प्रतिशत), नाइट्रस ऑक्साइड (6 प्रतिशत) तथा क्लोरोफ्लोरोकार्बन एवं हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (2 प्रतिशत) जैसी फ्लोराइड युक्त गैसें शामिल हैं।
  • ब्लैक कार्बन कुकस्टोव एवं डीज़ल इंजन में अपूर्ण दहन द्वारा उत्पन्न होता है। हिमालयी ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन जमा होने से इनके पिघलने में तेज़ी आ रही है जिससे दक्षिण एशिया के एक अरब से अधिक लोगों के जल स्रोत को जोखिम है।
  • विश्व की आधी (सबसे गरीब) आबादी अर्थात् 3.9 बिलियन लोग वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का केवल 10 प्रतिशत उत्पन्न करते हैं। इसके विपरीत सबसे समृद्ध 10 प्रतिशत लोग आधे वैश्विक उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी हैं। सबसे समृद्ध 1 प्रतिशत लोगों का कार्बन फुट प्रिंट सबसे गरीब 1 प्रतिशत लोगों से 2,000 गुना अधिक है।
  • वर्ष 1988 से औद्योगिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 71 प्रतिशत के लिये सिर्फ 100 व्यवसाय (जिन्हें Carbon Majors के रूप में जाना जाता है) ज़िम्मेदार हैं।
  • वर्ष 2000 से वर्ष 2015 तक प्रतिवर्ष औसतन 3.2 मिलियन हेक्टेयर वनीकरण किया गया। वर्तमान में जारी अधिकांश वनोन्मूलन उष्णकटिबंधीय वनों में हो रहा है जो कि महत्त्वपूर्ण स्तर पर कार्बन को अवशोषित करते हैं और अतिवृहद स्तर पर जैव विविधता का केंद्र हैं।

भविष्य की चुनौतियों का विस्तार

(Magnitude of the Challenges Ahead)

  • पेरिस समझौते के बावजूद ऊर्जा संबंधी कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में वर्ष 2011 के बाद से लेकर वर्ष 2018 में सबसे तीव्र दर से वृद्धि हुई।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन एवं भारत कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 85 प्रतिशत वृद्धि के लिये उत्तरदायी थे। कोयले के उपयोग में हालिया कमी की स्थिति भी परिवर्तित हो गई है। प्राकृतिक गैस के उपयोग द्वारा उत्सर्जन में 5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। वर्ष 2018 में ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावन में वनोन्मूलन में 14 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
  • अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार "वर्तमान रूझानों एवं पेरिस समझौते को पूरा करने की राह के मध्य असंतुलन में वृद्धि हो रही है।"
  • जलवायु संकट से निपटने हेतु पेरिस समझौते का उद्देश्य वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे रखना है जबकि तापमान वृद्धि को 1.5°C तक सीमित करने हेतु प्रयासरत है। वर्ष 2030 तक लागू की जाने वाली जलवायु क्रियाओं को इंगित करते हुए विभिन्न पक्षों ने राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान दर्ज़ किया।
  • इस रिपोर्ट के अनुसार उक्त चुनौतियों का सामना करने के लिये किये गए उपायों के कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं, उदाहरण के तौर पर--
    • पिछले कुछ समय में अक्षय ऊर्जा की लागत में तीव्र गिरावट आई है, जिससे स्वच्छ ऊर्जा के कार्यान्वयन में तेज़ी देखने को मिल रही है,
    • वर्ष 2010 के बाद से सौर ऊर्जा की लागत में प्रति वाट 75 प्रतिशत की गिरावट आई है,
    • कई देशों में पवन एवं सौर ऊर्जा अब जीवाश्म ईंधन से उत्पादित विद्युत ऊर्जा की तुलना में सस्ती हो गई है।
    • वैश्विक स्तर पर सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता अब 550 गीगावाट से अधिक हो गई है जो वर्ष 2000 की तुलना में 500 गुना अधिक है।
    • कुल पवन विद्युत ऊर्जा उत्पादन क्षमता वर्ष 2000 के 17 गीगावाट से बढ़कर 600 गीगावाट से अधिक हो गई है।

मानवाधिकारों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव

(Effects of Climate Change on the Enjoyment of Human Rights):

  • जलवायु परिवर्तन मानवाधिकारों के लिये भी जोखिम उत्पन्न करता है।
  • इन मानवाधिकारों में जीवन जीने का अधिकार, स्वास्थ्य, भोजन, जल एवं स्वच्छता, स्वस्थ वातावरण, जीवन के पर्याप्त मानक, आवास, संपत्ति, आत्मनिर्णय, विकास तथा संस्कृति के अधिकार शामिल हैं।
  • मानव अधिकारों के दृष्टिकोण से जलवायु परिवर्तन को देखना सार्वभौमिकता एवं गैर-भेदभाव के सिद्धांतों पर प्रकाश डालता है।
  • यह इस बात पर बल देता है कि कमज़ोर वर्गों सहित सभी व्यक्तियों के अधिकारों की गारंटी सुनिश्चित की जाती है। मानवाधिकार आधारित दृष्टिकोण एक स्वस्थ एवं धारणीय भविष्य प्राप्त करने हेतु त्वरित कार्रवाई के लिये एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकता है।

A. जीवन का अधिकार
(Right to Life):

  • जीवन के अधिकार को मानवाधिकार कानून में सार्वभौमिक रूप से मान्यता प्राप्त है। वर्ष 2018 में मानवाधिकार समिति ने भी कहा था कि "पर्यावरण क्षरण, जलवायु परिवर्तन एवं गैर धारणीय विकास वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के जीवन के अधिकार के प्रति सबसे अधिक दमनात्मक हैं।”
  • जीवन के अधिकार को बनाए रखने के लिये राष्ट्रों का दायित्व है कि वे जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिये प्रभावी कदम उठाएँ, कमजोर वर्ग की अनुकूलन क्षमता में वृद्धि करें तथा जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करें।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि वर्ष 2030 तक प्रतिवर्ष जलवायु परिवर्तन के कारण लगभग 250,000 मौतें सिर्फ गर्मी, मलेरिया, डायरिया और कुपोषण के कारण होंगी।

B. स्वास्थ्य का अधिकार
(Right to Health)

  • मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में स्वास्थ्य को जीवन के पर्याप्त मानक अधिकार के हिस्से के रूप में शामिल किया गया है।
  • आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र स्वास्थ्य के अधिकार को सुनिश्चित करता है और अपेक्षा करता है कि राष्ट्र इस अधिकार की पूर्ति हेतु कार्यवाही करें, इनमें पर्यावरण तथा औद्योगिक स्वच्छता के सभी पहलुओं में सुधार भी शामिल है।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों में न केवल असामयिक मौतें शामिल हैं बल्कि इसके कारण श्वसन रोग, हृदय रोग, कुपोषण, स्टंटिंग, दुर्बलता, एलर्जी, हीट स्ट्रोक, चोट, जल जनित एवं वेक्टर जनित रोगों तथा मानसिक रोगों की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है।
  • स्वास्थ्य एवं जलवायु परिवर्तन पर लैंसेट आयोग ने चेतावनी दी कि जलवायु परिवर्तन इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा वैश्विक स्वास्थ्य जोखिम है तथा यह वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य के क्षेत्र में पाँच दशकों में हासिल की गई प्रगति को विपरीत दिशा में ले जा सकता है।

C. भोजन का अधिकार
(Right to Food)

  • मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा एवं आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्र में भोजन को जीवन के लिये आवश्यक मानकों के अधिकार के हिस्से के रूप में शामिल किया गया है। प्रतिज्ञा पत्र में इसे “भूख से मुक्ति के मौलिक अधिकार” के रूप में संदर्भित किया है।
  • खाद्य उत्पादन और खाद्य सुरक्षा एवं भोजन के अधिकार का उपभोग वर्षा के पैटर्न, उच्च तापमान, चरम मौसम की घटनाओं, समुद्री बर्फ की स्थिति में परिवर्तन, सूखे, बाढ़, शैवाल प्रस्फुटन तथा लवणीकरण से प्रभावित होता है।
  • संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार, “वैश्विक भुखमरी में हालिया वृद्धि के पीछे जलवायु परिवर्तनशीलता एवं चरम जलवायु घटनाएँ प्रमुख वाहक हैं तथा ये विश्व में व्याप्त गंभीर खाद्य संकटों का प्रमुख कारण भी हैं।

D. जल एवं स्वच्छता का अधिकार
(Right to Water and Sanitation)

  • जल एवं स्वच्छता के मानवाधिकारों को संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 64/292 में मान्यता दी गई तथा इन्हें कई बार पुष्ट किया गया।
  • जलवायु परिवर्तन संपूर्ण विश्व में वर्षा के पैटर्न को प्रभावित कर रहा है, कुछ शुष्क क्षेत्रों में कम वर्षा तथा आर्द्र क्षेत्रों में तीव्र एवं अधिक वर्षा हो रही है। इसके चलते जल एवं स्वच्छता के अधिकार के चार प्रमुख तत्त्व- उपलब्धता, पहुँच, स्वीकार्यता एवं गुणवत्ता भी संकट में हैं।
  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल ने विशेष रूप से छोटे द्वीपीय विकासशील देशों और अफ्रीका, एशिया एवं लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्सों में जल संकट के प्रति उच्च संवेदनशीलता की चेतावनी दी।

E. बच्चों के अधिकार
(Rights of the Child)

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  • स्वास्थ्य के अधिकार का वर्णन करने में इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिये कि राष्ट्र बच्चों के सर्वोत्तम हित में कार्य करें तथा पर्यावरण प्रदूषण के खतरों एवं जोखिमों पर विचार करें।
  • जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं के प्रति बच्चे विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं जिनमें वेक्टर जनित रोग, कुपोषण, तीव्र श्वसन संक्रमण, डायरिया एवं अन्य जल जनित बीमारियाँ शामिल हैं।

F. स्वच्छ वातावरण का अधिकार
(Right to a healthy environment)

  • इस अधिकार के मूल तत्त्वों में एक सुरक्षित जलवायु, स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल और पर्याप्त स्वच्छता, सेहतमंद एवं धारणीय पद्धति से उत्पादित भोजन एवं रहने, काम करने, अध्ययन करने, खेलने हेतु स्वच्छ वातावरण व अच्छी जैव विविधता तथा पारिस्थितिक तंत्र शामिल हैं।
  • इन तत्त्वों को अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संधियों के तहत की गई प्रतिबद्धताओं के रूप में सूचित किया जाता है जैसे कि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन जिसमें राष्ट्रों ने “जलवायु प्रणाली के साथ खतरनाक मानवजनित हस्तक्षेप को रोकने” या दूसरे शब्दों में कहें तो सुरक्षित जलवायु बनाए रखने का संकल्प लिया।

G. सुभेद्य जनसंख्या
(Vulnerable Populations)

  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार, जो लोग सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, संस्थागत या अन्य तौर से हाशिये पर हैं, वे विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील हैं।
  • हालाँकि ये लोग जलवायु संबंधी समस्याओं के समाधान में योगदान देने की क्षमता रखते हैं अगर ऐसा करने हेतु इन्हें सशक्त बनाया जाए।
  • वर्ष 2018 में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन संबंधी समिति ने माना कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव जिनमें आपदाएँ भी शामिल हैं, महिलाओं पर विषमतापूर्वक ढंग से प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
  • महिलाओं को अपने घरों, समुदायों और देश में निर्णय लेने का कम अधिकार है। इसके साथ-साथ उनके पास वित्त और अन्य संसाधनों की भी कमी होती है तथा सूचना की पहुँच का भी स्तर निम्न होता है।
  • महिलाएँ भी समस्या से निपटने के लिये नेतृत्व एवं प्रतिनिधित्व कर रही हैं और अपने ज्ञान तथा संसाधनों के अधिकतम उपयोग से परिवारों को अनुकूलन क्षमता विकसित करने में सहायता कर रही हैं।
  • जलवायु परिवर्तन की समस्या में अल्प योगदान के बावज़ूद संपूर्ण विश्व में लगभग 400 मिलियन स्थानीय लोग जलवायु परिवर्तन के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील हैं क्योंकि प्रकृति एवं वन्यजीवों से उनका गहरा संबंध है और वे भोजन, दवा एवं सांस्कृतिक आवश्यकताओं के लिये पौधों एवं स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर हैं।
  • दूसरी ओर स्थानीय लोग पारंपरिक ज्ञान, कानूनी प्रणालियों एवं संस्कृति के माध्यम से समस्या के समाधान में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं जो वनों, भूमि, जल, जैव विविधता तथा पारिस्थितिकी तंत्रों के संरक्षण में प्रभावी साबित हुए हैं।

जलवायु परिवर्तन से संबंधित मानवाधिकार प्रतिबद्धताएँ

(Human Rights Obligations relating to Climate Change)

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  • पेरिस समझौते में पक्षकारों ने स्वीकार किया कि उन्हें जलवायु परिवर्तन के लिये कार्यवाही करते समय मानवाधिकारों, स्वास्थ्य का अधिकार, स्थानीय लोगों के अधिकार, कमज़ोर स्थिति में व्याप्त स्थानीय समुदायों, प्रवासियों, बच्चों, विकलांग व्यक्तियों के अधिकार, विकास के अधिकार के साथ-साथ लैंगिक समानता, महिला सशक्तीकरण तथा अंतर पीढ़ीगत समता के प्रति अपने संबंधित दायित्वों को सम्मान करने, बढ़ावा देने पर विचार करना चाहिये।
  • पेरिस समझौते ने सुरक्षित जलवायु की अवधारणा को भी परिष्कृत किया है जिसमें वैश्विक तापमान वृद्धि को 2ºC तक सीमित करने तथा आदर्शात्मक रूप से इसे 1.5ºC तक सीमित करने की चर्चा की गई है।
  • जलवायु परिवर्तन से संबंधित मानवाधिकार प्रतिबद्धताओं पर मानवाधिकार परिषद, विशेष प्रक्रियाओं, संधि निकायों, सरकारों, मानवाधिकारों के अंतर-अमेरिकी न्यायालय और कई अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा चर्चा की गई है।
  • वर्ष 2008 की शुरुआत में मानवाधिकार परिषद ने उन संकल्पों की एक श्रृंखला को अपनाया जिनमें चिंताएँ व्यक्त की गईं कि जलवायु परिवर्तन ने संपूर्ण विश्व के लोगों एवं समुदायों के लिये एक तत्काल तथा दूरगामी खतरा उत्पन्न किया है।
  • संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संधियों के कार्यान्वयन की निगरानी के लिये बनाए गए संधि निकायों ने सिफारिशें की हैं जो जलवायु परिवर्तन के लिये मानवाधिकारों की प्रतिबद्धताओं की प्रासंगिकता पर बल देती हैं।
  • संधि निकायों के समापन अवलोकन में जलवायु परिवर्तन के संदर्भों की संख्या वर्ष 2008 के सिर्फ 1 से बढ़कर वर्ष 2018 में 30 से अधिक हो गई।
  • महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन पर समिति ने इस क्षेत्र में नेतृत्व का प्रदर्शन किया है जिससे तीन चौथाई राष्ट्रों की जलवायु संबंधी सिफारिशों की समीक्षा की।

अन्य समस्याएँ:

  • जलवायु परिवर्तन पहले से ही अरबों लोगों को नुकसान पहुँचा रहा है, मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहा है और असमानता को बढ़ावा दे रहा है।
  • पेरिस समझौते के पक्षकार अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की राह में प्रभावी रूप से कार्यान्वित नहीं हैं। वैश्विक उत्सर्जन कम होने के बजाय बढ़ रहा है।
  • जीवाश्म ईंधन को प्रतिस्थापित करने के बजाय प्रतिवर्ष कई राष्ट्र एवं बैंक खरबों डॉलर की राशि सब्सिडी एवं वित्तपोषण के रूप में प्रदान करते हैं।
  • अभी भी कोयले से चलने वाले नए बिजली संयंत्रों का निर्माण किया जा रहा है। वनीकरण के बजाय वनोन्मूलन जारी है।
  • तय किये गए वित्तपोषण में प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर की कमी आई है। वर्ष 2015 एवं वर्ष 2018 के मध्य हरित पर्यावरण कोष को कुल प्रतिबद्धताओं में केवल 10.3 बिलियन डॉलर की राशि ही प्राप्त हुई है तथा संयुक्त राज्य अमेरिका ने 2 बिलियन डॉलर का भुगतान करने से इंकार कर दिया जिसकी उसने प्रतिबद्धता की थी।
  • अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफलता प्रथम दृष्टया नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिये राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन है। जैसे-जैसे वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि होती है और भी अधिक लोगों के अधिकारों का उल्लंघन होता है एवं भयावह जलवायु अराजकता में वृद्धि हो जाती है। वैश्विक जलवायु आपातकाल की गंभीरता से निपटने के लिये जो किया जा रहा है और जो करना चाहिये उसके मध्य एक बहुत बड़ा अंतर है।

आगे की राह:

जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करना

(Addressing Society’s Addiction to Fossil Fuels):

जीवाश्म ईंधन के लिये समाज की आसक्ति को दूर करने के लिये सभी राष्ट्रों को निम्नलिखित उपाय करने चाहिये:

  • स्वच्छ रसोई ईंधन के कार्यक्रमों के अलावा सभी जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी को तुरंत समाप्त करना।
  • कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों का निर्माण करना बंद करना जब तक कि ये कार्बन कैप्चर एवं स्टोरेज तकनीक से लैस न हो तथा मौजूदा कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को कार्बन कैप्चर और स्टोरेज तकनीक से लैस करने को आवश्यक बनाना या वर्ष 2030 तक उच्च आय वाले देशों में, मध्यम आय वाले देशों में वर्ष 2040 तक और अन्यत्र जगह वर्ष 2050 तक इन्हें बंद करना (पहले से ही 30 देश ऐसा करने हेतु अपनी प्रतिबद्धताएँ व्यक्त कर चुके हैं)।
  • जीवाश्म ईंधन के व्यापार और उनके औद्योगिक संघों को जलवायु, ऊर्जा एवं पर्यावरणीय नीतियों को प्रभावित करने से सीमित करना जैसा कि यह सर्वविदित है कि अधिकांश उत्सर्जन में इनका योगदान होता है व ये उत्सर्जन के वैज्ञानिक प्रमाणों को नकारते हैं। यह तंबाकू नियंत्रण पर WHO फ्रेमवर्क कन्वेंशन का एक प्रमुख तत्त्व है जो स्वास्थ्य नीति में तंबाकू कंपनियों की भागीदारी को सीमित करता है।
  • सभी नए प्राकृतिक गैस विद्युत संयत्रों में कार्बन कैप्चर और स्टोरेज प्रोद्योगिकी का उपयोग करना आवश्यकता बनाना तथा मौजूदा गैस विद्युत संयत्रों को कार्बन कैप्चर और स्टोरेज टेक्नोलॉजी के साथ रुपांतरित करने को आवश्यक बनाना।
  • जीवाश्म ईंधन आधारित अवसंरचना के विस्तार को रोकना।
  • सर्वाधिक प्रदूषणकारी और पर्यावरणीय रूप से विनाशकारी जीवाश्म ईंधन निष्कर्षण के विस्तार पर प्रतिबंध लगाना जिसमें हाइड्रोलिक फ्रैक्चरिंग (फ्रैकिंग), ऑइल सैंड, आर्कटिक या अत्यंत गहरे जल निकायों से उत्पन्न तेल और गैस शामिल हैं।

अन्य न्यूनीकरण कार्यवाहियों को त्वरित करना

(Accelerating other Mitigation Actions):

  • राष्ट्रों को निम्नलिखित न्यूनीकरण प्राथमिकताओं पर भी विचार करना चाहिये:
    • अल्पावधि में प्रति वर्ष लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर का नवीकरणीय, बिजली भंडारण और ऊर्जा दक्षता में निवेश करना तथा वर्ष 2050 तक इसे बढ़ाकर 3 ट्रिलियन डॉलर करना;
    • वर्ष 2020 तक वनोन्मूलन को समाप्त करने के लिये प्रतिबद्ध होना एवं एक ट्रिलियन वृक्षों के माध्यम से पुनर्वनीकरण तथा वनीकरण कार्यक्रम शुरू करना;
    • वर्ष 2025 तक हानिकारक एकल उपयोग प्लास्टिक के उत्पादन और उपयोग को चलन से बाहर करना क्योंकि प्लास्टिक उत्पादन से उच्च मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है;
    • विमानन और समुद्री परिवहन से होने वाले उत्सर्जन को कम करने के लिये मज़बूत कदम उठाना;
    • जैव ईंधन के खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव और उत्सर्जन पर अनिश्चित प्रभाव के मद्देनज़र जैव ईंधन पर सब्सिडी और इनका समर्थन करने वाली नीतियों और कार्यक्रमों पर पुनर्विचार करना;
    • पादप आधारित आहार को बढ़ावा देना जो कम भूमि, संसाधन और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन गहन हैं;
    • खाद्य अपशिष्ट को कम करने के लिये कार्रवाई करना।

सुभेद्य लोगों की सुरक्षा के लिये अनुकूलन

(Adaptation to Protect Vulnerable People):

  • राष्ट्रों को प्रभावी अनुकूलन कार्यवाहियों को त्वरित करने एवं क्रियान्वित करने के लिये निम्नलिखित उपाय अपनाने चाहिये:
    • राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाओं और/अथवा कार्रवाई के राष्ट्रीय अनुकूलन कार्यक्रमों को लागू करना जो चरम मौसमी आपदाएँ तथा मंद प्रभावों वाली घटनाओं से निपटने हेतु जलवायु अनुकूल बुनियादी अवसंरचना के निर्माण या उन्नयन (जैसे कि जल, स्वच्छता, स्वास्थ्य एवं शिक्षा सुविधाएँ) को संबोधित करते हैं।
    • सेंदाई फ्रेमवर्क के अनुरूप वर्ष 2015-2030 तक आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये आपदा जोखिम में कमी और प्रबंधन रणनीति, पूर्व चेतावनी प्रणाली एवं आपातकालीन प्रतिक्रिया योजना विकसित करना, आपदा में राहत व मानवीय सहायता प्रदान करना।
    • जलवायु से संबंधित आपदाओं के प्रति सुभेद्यता को कम करने के लिये सामाजिक सुरक्षा तंत्र प्रदान करना ताकि लोग अधिक सहनशील बन सकें।
    • प्रकृति आधारित अनुकूलन कार्यवाहियों को प्राथमिकता देना क्योंकि पारिस्थितिकी प्रणालियों की सुरक्षा और पुनर्स्थापना से सुभेद्यता कम हो सकती है।
    • ये चरम मौसम की आपदाओं और मंद प्रभाव की घटनाओं के प्रभाव को कम कर सकती है तथा पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में वृद्धि कर सकती हैं जिसमें स्वच्छ जल, स्वच्छ वायु, उपजाऊ मिट्टी, कीट नियंत्रण एवं परागण शामिल हैं।

जलवायु वित्त को बढ़ावा देना

(Ramping up Climate Finance):

  • समृद्ध राष्ट्रों को अल्प विकसित देशों और छोटे द्वीपीय विकासशील राष्ट्रों की प्राथमिकता के साथ विकासशील राष्ट्रों की तत्काल न्यूनीकरण एवं अनुकूलन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये वर्ष 2020 तक प्रतिवर्ष कम से कम 100 बिलियन डॉलर वित्त जुटाने की अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करना होगा।
  • न्यूनीकरण की तुलना में अनुकूलन को विशेष रूप से कम वित्तपोषित किया गया है। अनुकूलन की पूरी लागत को पूरा करने के लिये वर्ष 2025 तक वित्तपोषण में वृद्धि की आवश्यकता है जो वर्ष 2030 तक प्रति वर्ष 140 बिलियन डॉलर से 300 बिलियन डॉलर होना अनुमानित है।

क्षति एवं नुकसान का वित्तपोषण

(Financing Loss and Damage):

  • राष्ट्रों को नुकसान एवं क्षति की अवधारणा की एक आम परिभाषा पर सहमत होना चाहिये जिसमें आर्थिक नुकसान (जैसे-फसलों, इमारतों और बुनियादी अवसंरचना को पहुँचने वाला नुकसान) तथा गैर-आर्थिक क्षति (जैसे कि जीवन, आजीविका, क्षेत्र, संस्कृति, आवास या प्रजाति की क्षति) शामिल हैं।
  • राष्ट्रों को एक या एक से अधिक नए वित्तपोषण तंत्र स्थापित करने होंगे जो जलवायु परिवर्तन के कारण कमज़ोर विकासशील देशों और छोटे विकासशील द्वीपीय देश के नुकसान एवं क्षति के लिये धन का भुगतान करने के लिये राजस्व अर्जित करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र संस्थानों को सशक्त बनाना

(Empowering United Nations institutions):

  • जलवायु परिवर्तन से संबंधित राष्ट्रों द्वारा अपनी मानवाधिकारों से संबंधित प्रतिबद्धताओं को किस स्तर तक पूरा किया जा रहा है, इस पर लगातार रिपोर्ट करना।
  • जलवायु परिवर्तन से संबंधित मानवाधिकारों के उत्तरदायित्वों का सम्मान करने के लिये व्यवसायों को प्रोत्साहित करना।
  • विशेषज्ञता या संसाधनों की कमी वाले देशों जैसे- अल्प विकसित देशों और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों के लिये तकनीकी सहायता एवं संसाधन उपलब्ध कराने हेतु राज्यों को प्रोत्साहित करना ताकि ये देश जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को प्राथमिकता दे सकें तथा उनको संबोधित कर सकें।

निष्कर्ष

एक सुरक्षित जलवायु स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है और मानव जीवन और कल्याण के लिये नितांत आवश्यक है। आज के वैश्विक जलवायु आपातकाल में, मानवाधिकारों के सम्मान, सुरक्षा और पूर्ति संबंधी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने से उन विनाशकारी परिवर्तनों को दूर करने में सहायता मिल सकती है जिनकी तत्काल आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन की कठिन चुनौती को सफलतापूर्वक संबोधित करने के लिये मज़बूत कदम उठाने की आवश्यकता है। विश्व में कई ज़मीनी स्तर के जलवायु संबंधित संस्थान हैं लेकिन इस चुनौती पर आवाज़ उठाने के लिये अधिक राजनीतिक एवं कॉर्पोरेट नेताओं की आवश्यकता है। स्वीडिश लेखिका ग्रेटा थुनबर्ग जिन्होंने लाखों बच्चों को जलवायु कार्रवाई हेतु स्कूल में विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के लिये प्रेरित किया और कहा कि- “मैं चाहती हूँ कि आप इस प्रकार कार्य करें जैसे कि आग हमारे घर में लग गई हो या लगने वाली है।"

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