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पेपर 1

भारतीय इतिहास

भारत में कंपनी शासन (वर्ष 1773-1858)

  • 13 Oct 2021
  • 14 min read

परिचय

  • कंपनी शासन की शुरुआत: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी वर्ष 1600 में एक व्यापारिक कंपनी के रूप में स्थापित हुई थी और वर्ष 1765 में एक शासकीय निकाय में बदल गई थी।
  • आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप: बक्सर की लड़ाई (वर्ष 1764) के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व एकत्र करने का अधिकार) मिला तथा धीरे-धीरे यह भारतीय मामलों में हस्तक्षेप करने लगी।
  • प्राप्त शक्ति द्वारा शोषण: वर्ष 1765-72 की अवधि में सरकार की व्यवस्था में द्वैत शासन देखा गया जहाँ कंपनी के पास अधिकार तो थे लेकिन कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी जबकि इसके भारतीय प्रतिनिधियों के पास सभी ज़िम्मेदारियाँ थीं लेकिन कोई अधिकार नहीं था। इसका परिणाम निम्नलिखित के रूप में देखा गया:
    • कंपनी के कर्मचारियों के बीच बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार।
    • अत्यधिक राजस्व संग्रह और किसानों का उत्पीड़न।
    • कंपनी का दिवाला, जबकि इसके अधिकारी फल-फूल रहे थे।
  • ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया: व्यवसाय को निश्चित दिशा देने के लिये ब्रिटिश सरकार ने कानूनों में क्रमिक वृद्धि के साथ कंपनी को विनियमित करने का निर्णय लिया।

ब्रिटिश सरकार द्वारा पेश किये गए अधिनियम

  • रेगुलेटिंग अधिनियम, 1773:
    • अधिकार कंपनी के पास सुरक्षित: इस अधिनियम ने कंपनी को भारत में अपनी क्षेत्रीय संपत्ति बनाए रखने की अनुमति दी, लेकिन कंपनी की गतिविधियों और कामकाज को विनियमित करने की मांग की।
    • भारतीय मामलों पर नियंत्रण: इस अधिनियम के माध्यम से पहली बार ब्रिटिश कैबिनेट को भारतीय मामलों पर नियंत्रण रखने का अधिकार दिया गया था।
    • गवर्नर-जनरल का परिचय: इसने बंगाल के गवर्नर के पद को बदलकर "बंगाल के गवर्नर-जनरल" कर दिया।
      • बंगाल में प्रशासन गवर्नर-जनरल और 4 सदस्यों वाली एक परिषद द्वारा चलाया जाना था।
      • वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का पहला गवर्नर-जनरल बनाया गया था।
      • बॉम्बे और मद्रास के गवर्नर अब बंगाल के गवर्नर-जनरल के अधीन कार्य करते थे।
    • सुप्रीम कोर्ट की स्थापना: बंगाल (कलकत्ता) में एक सुप्रीम कोर्ट ऑफ ज्यूडिचर की स्थापना की जानी थी, जिसमें अपीलीय क्षेत्राधिकार शामिल थे, जहाँ सभी मामलों के निवारण की मांग की जा सकती थी।
      • इसमें एक मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीश शामिल थे।
      • वर्ष 1781 में अधिनियम में संशोधन किया गया था और गवर्नर-जनरल, परिषद तथा सरकार के कर्मचारियों को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय यदि कोई कृत्य करते हैं तो उन्हें अधिकार क्षेत्र से छूट प्रदान की गई थी।
  • पिट्स इंडिया एक्ट, 1784:
    • दोहरी नियंत्रण प्रणाली: इसने ब्रिटिश सरकार और ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियंत्रण की दोहरी प्रणाली की स्थापना की।
      • कंपनी, राज्य का एक अधीनस्थ विभाग बन गई और भारत में इसके द्वारा अधिकृत क्षेत्रों को 'ब्रिटिश संपत्ति' कहा गया।
      • हालाँकि इसने वाणिज्य और दिन-प्रतिदिन के प्रशासन पर नियंत्रण बनाए रखा।
    • निदेशक मंडल और नियंत्रण बोर्ड की स्थापना:
      • नागरिक, सैन्य और राजस्व मामलों पर नियंत्रण रखने के लिये कंपनी के एक बोर्ड ऑफ कंट्रोल का गठन किया गया था। इसमें शामिल थे:
        • राजकोष के चांसलर
        • राज्य का एक सचिव
      • प्रिवी काउंसिल के चार सदस्य (क्राउन द्वारा नियुक्त)
    • महत्त्वपूर्ण राजनीतिक मामले, ब्रिटिश सरकार के सीधे संपर्क में तीन निदेशकों (निदेशकों के न्यायालय) की एक गुप्त समिति के लिये आरक्षित थे।
    • गवर्नर-जनरल और कमांडर-इन-चीफ: गवर्नर-जनरल की परिषद को कमांडर-इन-चीफ सहित तीन सदस्यों तक सीमित कर दिया गया था।
    • वर्ष 1786 में लॉर्ड कॉर्नवालिस को गवर्नर-जनरल और कमांडर-इन-चीफ दोनों की शक्ति प्रदान की गई थी।
    • यदि वह निर्णय की ज़िम्मेदारी लेता है तो उसे परिषद के निर्णय को ओवरराइड करने की अनुमति दी गई थी।
  • चार्टर अधिनियम, 1793:
    • गवर्नर-जनरल की शक्तियों का विस्तार: इस अधिनियम ने लॉर्ड कार्नवालिस को उनकी परिषद पर जो शक्ति प्रदान की उन्हीं शक्तियों का विस्तार भविष्य के सभी गवर्नर-जनरलों और प्रेसीडेंसी के गवर्नरों को किया गया।
    • वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति: गवर्नर-जनरल, गवर्नर और कमांडर-इन-चीफ की नियुक्ति के लिये शाही अनुमोदन अनिवार्य था।
    • कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों को बिना अनुमति के भारत छोड़ने पर रोक लगा दी गई थी, ऐसा करना इस्तीफे के रूप में माना जाता था।
    • अधिकारियों का भुगतान: इसने निर्धारित किया कि नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों और उनके कर्मचारियों को भारतीय राजस्व से भुगतान किया जाए (यह वर्ष 1919 तक जारी रहा)।
    • कंपनी को सालाना 5 लाख पाउंड का भुगतान ब्रिटिश सरकार को (इसके आवश्यक खर्चों का भुगतान करने के बाद) करने के लिये भी कहा गया था।
  • चार्टर अधिनियम, 1813:
    • अंग्रेज़ व्यापारियों की मांग: अंग्रेज़ व्यापारियों ने भारतीय व्यापार में हिस्सेदारी की मांग की।
      • यह मांग विशेष रूप से नेपोलियन बोनापार्ट की महाद्वीपीय प्रणाली के कारण व्यापार के नुकसान के मद्देनज़र की गई थी, जिसने इंग्लैंड को व्यावसायिक रूप से बेहद नुकसान पहँचाया था।
    • कंपनी के एकाधिकार का अंत: इसके द्वारा कंपनी अपने वाणिज्यिक एकाधिकार से वंचित हो गई और ईस्ट इंडिया कंपनी, जो इससे पूर्व क्राउन की तरफ से अधिकार पूर्वक शासन कर रही थी, की शक्तियों में कमी आई।
      • हालाँकि कंपनी को चीन के साथ व्यापार और चाय के व्यापार का एकाधिकार प्राप्त था।
    • शिक्षित मूल निवासियों को सहायता: साहित्य के पुनरुद्धार, विद्वानों, भारतीय मूल निवासियों के बीच प्रोत्साहन और भारतीयों के मध्य वैज्ञानिक ज्ञान को बढ़ावा देने के लिये सालाना 1,00,000 रुपए की राशि प्रदान की गई।
    • यह शिक्षा प्रदान करने की राज्य की ज़िम्मेदारी के सिद्धांत को स्वीकार करने की दिशा में पहला कदम था।

चार्टर अधिनियम, 1833:

  • कंपनी की व्यापारिक स्थिति: कंपनी को प्रदान की गई 20 साल की लीज (चार्टर एक्ट, 1813 के तहत), जिसमें प्रदेशों पर अधिकार एवं राजस्व संग्रह शामिल था, को आगे बढ़ा दिया गया था।
    • हालाँकि चीन के साथ और चाय के व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो गया।
  • यूरोपीय आप्रवासन: यूरोपीय आप्रवासन और भारत में संपत्ति के अधिग्रहण पर सभी प्रतिबंध हटा दिये गए जिससे भारत में यूरोपीय उपनिवेशीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ।
  • भारत के गवर्नर-जनरल का परिचय: बंगाल के गवर्नर-जनरल को अब  ‘भारत का गवर्नर-जनरल’ बना दिया गया था।
    • उसे नागरिक और सैन्य मामलों के अधीक्षण, नियंत्रण और निर्देशन जैसी कंपनी की सभी शक्तियाँ दी गई थीं।
    • समस्त राजस्व उसके अधिकार के तहत वसूले जाते थे और खर्च पर भी उसका पूरा नियंत्रण था।

विलियम बेंटिक भारत के पहले गवर्नर-जनरल बने।

  • विधि आयोग: इस अधिनियम के तहत भारतीय कानूनों के समेकन और संहिताकरण के लिये इसकी स्थापना की गई थी।
  • इसने भारत के लिये गवर्नर-जनरल की परिषद में एक चौथा कॉमन सदस्य जोड़ा, जो एक कानूनी विशेषज्ञ था।
  • लॉर्ड मैकाले चौथे कॉमन सदस्य के रूप में नियुक्त होने वाले पहले व्यक्ति थे।
  • चार्टर अधिनियम, 1853:
    • कंपनी की व्यापारिक स्थिति: जब तक संसद कोई और आदेश प्रदान नहीं करती है, तब तक क्षेत्रों पर कंपनी का अधिकार जारी रखना था।
      • सिविल सेवाओं पर कंपनी का संरक्षण भंग कर दिया गया था; सेवाओं को अब एक प्रतियोगी परीक्षा के ज़रिये सबके लिये खोल दिया गया था।
    • चौथा कॉमन सदस्य: कानून से जुड़े एक सदस्य को गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद का पूर्णकालिक सदस्य बनाया गया।
    • भारतीय विधान परिषद: भारतीय विधायिका में स्थानीय प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया गया था। इस विधायी विंग को भारतीय विधान परिषद के रूप में जाना जाने लगा।
      • हालाँकि किसी ऐसे कानून की घोषणा के लिये गवर्नर-जनरल की सहमति आवश्यक थी जो विधान परिषद के किसी भी विधेयक को वीटो कर सके।
  • भारत सरकार अधिनियम, 1858:
    • वर्ष 1857 के विद्रोह के परिणाम: 1857 के विद्रोह ने प्रशासन में कंपनी की सीमा को उजागर कर दिया था।
    • विद्रोह ने कंपनी द्वारा कब्ज़ा किये गए क्षेत्र पर अधिकार के विभाजन की मांग के रूप में अवसर प्रदान किया।
    • कंपनी के शासन का अंत: पिट्स इंडिया एक्ट द्वारा शुरू की गई दोहरी प्रणाली का अंत हो गया। अब भारत को राज्य के सचिव और 15 सदस्यों की एक परिषद के माध्यम से क्राउन के नाम पर शासित किया जाने लगा।
      • यह परिषद प्रकृति में सिर्फ सलाहकार थी।
    • वायसराय का परिचय: भारत के गवर्नर-जनरल की उपाधि को वायसराय से बदल दिया गया, जिसने इस पद की प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया।
      • वायसराय को सीधे ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता था।
      • भारत के प्रथम वायसराय लॉर्ड कैनिंग थे।

कंपनी शासन के दौरान गवर्नर-जनरल द्वारा किये गए सुधार:

  • लॉर्ड कॉर्नवालिस (गवर्नर-जनरल, वर्ष 1786-93): वह सिविल सेवाओं को अस्तित्व में लाने और व्यवस्थित करने वाले पहले व्यक्ति थे।
    • उन्होंने ज़िला फौजदारी न्यायालयों को समाप्त कर दिया और कलकत्ता, ढाका, मुर्शिदाबाद तथा पटना में सर्किट अदालतों की स्थापना की।
    • कॉर्नवालिस कोड: इस कोड के तहत किये गए कार्य हैं: 
      • राजस्व और न्याय प्रशासन का पृथक्करण।
      • यूरोपीय विषयों को भी अधिकार क्षेत्र में लाया गया।
      • सरकारी अधिकारी अपनी आधिकारिक क्षमता में किये गए कार्यों के लिये दीवानी अदालतों में जवाबदेह थे।
      • कानून की संप्रभुता का सिद्धांत स्थापित किया गया।
  • विलियम बेंटिक (गवर्नर-जनरल, वर्ष 1828-33): उन्होंने चार सर्किट अदालतों  को समाप्त कर दिया और उनके कार्य कलेक्टर को हस्तांतरित कर दिये गए।
    • उच्च प्रांतों के लोगों की सुविधा के लिये इलाहाबाद में एक सदर दीवानी अदालत और एक सदर निजामत अदालत की स्थापना की।
    • अंग्रेज़ी भाषा ने अदालतों की आधिकारिक भाषा फारसी का स्थान लिया।
    • इसके अलावा मुकदमा करने वाले को अब अदालतों में फारसी या स्थानीय भाषा का उपयोग करने का विकल्प प्रदान किया गया था।
    • एक नागरिक प्रक्रिया संहिता (वर्ष 1859), एक भारतीय दंड संहिता (वर्ष 1860) और एक आपराधिक प्रक्रिया संहिता (वर्ष 1861) कानूनों के संहिताकरण के परिणामस्वरूप तैयार की गई थी।
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