वेदों को सही ढंग से समझने के लिये वेदांगों की रचना हुई। इनकी संख्या कुल छ: है-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष। ये सभी गद्य में लिखे गए हैं।
कल्प का अर्थ है- कर्मकांड अर्थात् विधि, नियम। इसके तीन भाग हैं:
(i) श्रौत सूत्र (600 ई. पूर्व से 300 ई. पूर्व)
(ii) गृह्य सूत्र (600 ई. पूर्व से 300 ई. पूर्व)
(iii) धर्म सूत्र (500 ई. पूर्व से 200 ई. पूर्व)
धर्मसूत्र से सामाजिक व्यवस्था, जैसे- वर्णाश्रम, पुरुषार्थ आदि की जानकारी मिलती है। धर्मसूत्र के प्रणेता स्रोत आपस्तम्ब माने जाते हैं। प्रमुख सूत्रकार गौतम, आपस्तम्ब, बौधायन, वशिष्ठ, सांख्यायन, आश्वालायन आदि हैं, जिसमें गौतम का विशेष महत्त्व है।
क्षेत्र
रचयिता/विकास
शिक्षा
पाणिनी, कात्यायन
व्याकरण
अष्टाध्यायी (पाणिनी)
निरुक्त
(निघण्टु) यास्क
ज्योतिष
लगध, आर्यभट्ट, वराहमिहिर
छन्द
पिंगल
कल्प
गौतम, बौधायन, आपस्तम्ब
स्मृतियाँ हिंदू धर्म के कानूनी ग्रंथ हैं। ये अधिकांशत: पद्य में लिखी गई हैं-
सूत्र एवं स्मृति साहित्य एक ऐसे समाज का चित्र उपस्थित करते हैं जहाँ विभाजन का आधार जन्म हो गया तथा समाज में जटिलता आ गई। यह स्थिति छठी ई. पू. के पश्चात् प्रकट हुई।
प्रमुख स्मृतियाँ
रचना काल
मनुस्मृति
200 ई. पू. से 200 ई.
याज्ञवल्क्य स्मृति
100 ई. पू. से 300 ई.
नारद स्मृति
300 ई. पू. से 400 ई.
पाराशर स्मृति
300 ई. पू. से 500 ई.
बृहस्पति स्मृति
300 ई. पू. से 500 ई.
कात्यायन स्मृति
400 ई. पू. से 600 ई.
देवल स्मृति
पूर्व मध्यकालीन
महाकाव्य पुराण एवं शास्त्रीय संस्कृत साहित्य
महाकाव्य साहित्य के तौर पर वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण तथा वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत की गणना सर्वप्रमुख रूप से होती है।
महाभारत एक स्वच्छंद कृति है जिसमें चार-चार पंक्तियों के एक लाख श्लोक हैं। रामायण का आकार इससे लगभग एक-चौथाई ही है।
भगवद्गीता महाभारत का दार्शनिक विस्तार है जिसमें कर्म की प्रधानता तथा आत्मा की अमरता पर विशेष व्याख्यान दिया गया है।
पुराण का शाब्दिक अर्थ है प्राचीन आख्यान, इसके संकलनकर्त्ता महर्षि लोमहर्ष अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते हैं।
पुराणों की संख्या 18 मानी जाती है। इनमें वायु पुराण, मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण, भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि प्रमुख हैं। इनमें मत्स्य पुराण (अथवा वायु पुराण) सबसे प्राचीन है।
पुराण अपने वर्तमान रूप में संभवत: ईसा की तीसरी और चौथी शताब्दी में लिखे गए।
महाकाव्य के क्षेत्र में महानतम विभूति कालिदास (380 ई. सन् से 145 ई. सन् तक) थे। इन्होंने अपनी रचना हेतु मूल विषयवस्तु महाभारत तथा रामायण से ग्रहण किया।
कालिदास ने कई नाटकों की रचना की जिनमें कुमारसंभवम्, रघुवंशम्, अभिज्ञानशाकुंतलम् आदि प्रमुख हैं।
अन्य विशिष्ट कवियों यथा भारवि (550 ई. सन्) ने ‘किरातार्जुनीयम्’ की रचना की। श्री हर्ष और भट्टी जैसे अनेक कवि हैं जिन्होंने उत्तम रचनाएँ कीं।
काव्य और नाटक का मुख्य प्रयोजन पाठक या दर्शक के मनबहलाव या मनोरंजन (लोकरंजन) के साथ ही उनकी भावनाओं को प्रेरित करना व अंतत: उसे अपने जीवन के दर्शन को स्पष्ट करना है।
कालिदास से पूर्व ही अश्वघोष जैसे बौद्ध विद्वान ने ‘बुद्ध चरित’ तथा ‘सौन्दरानंद’ जैसे काव्य की रचना की।
भारवि और माघ जैसे कवियों ने काव्य की मुख्य विषयवस्तु भी महाभारत से ही ग्रहण की, परंतु दोनों में अंतर यह था कि भारवि ने अपने काव्य में जहाँ शिव को आराध्य बनाया वहीं माघ ने विष्णु को।
भारवि ने ‘किरातार्जुनीयम्’ तथा माघ ने शिशुपाल वध नामक महाकाव्य की रचना की।
आगे की रचनाओं में भटेनारायण की वेणीसंहार तथा परवर्ती कश्मीरी लेखक कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
12वीं शताब्दी में रचित ‘राजतरंगिणी’ एक इतिहास परक ग्रंथ है, जिसमें मौर्यकाल से लेकर 1148 ई. तक के कश्मीर के इतिहास की विश्वसनीय जानकारी मिलती है।
भर्तृहरि की गीतिमय, उपदेशात्मक, दार्शनिक सामग्री शृंगारशतक, नीतिशतक तथा वैराग्यशतक में विभाजित है।
विल्हण ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘विक्रमांकदेवचरित’ में तथा जयदेव ने अपनी रचना ‘गीत गोविन्द’ में गीतात्मक शैली का प्रयोग किया है।
गद्य उपन्यास को संस्कृत भाषा में लोकप्रिय बनाने में दंडी, सुबन्धु तथा बाणभट्ट का नाम प्रमुख है।
उत्तरकालीन गद्य उपन्यासों में माद्यवानल, कामकंदला तथा तिलकमंजरी का नाम प्रमुख है, जिसमें सरल संस्कृत गद्य के बीच-बीच में प्राकृत और संस्कृत के पद्य भी समाहित किये गए हैं।
प्राचीन भारत में कुछ शिक्षाप्रद संस्कृत साहित्यों की रचना हुई, जैसे- पंचतंत्र, हितोपदेश आदि।
इसका उद्देश्य बालक राजकुमारों को राजनीतिक तथा व्यावहारिक मामलों की उपयोगी शिक्षा प्रदान करना था ताकि वे कहानियों के अंदर भरी गई लोकोक्तियाँ व हिन्दू नैतिकतापरक शिक्षा से अवगत हो सकें।
प्राचीन काल में चिकित्सा अथवा शल्य शास्त्र पर लिखे गए प्रारंभिक ग्रंथों में ‘चरक संहिता’, ‘सुश्रुत संहिता’ प्रमुख हैं। इनमें से पहला मेडिसिन तथा दूसरा सर्जरी पर आधारित ग्रंथ है। ये दोनों ही ग्रंथ ईसा की दूसरी शताब्दी में लिखे गए।
600 ई. में वाग्भट ने ‘अष्टांगहृदय’ की रचना की।
गणितीय विज्ञान के क्षेत्र में वैदिक ग्रंथ शुल्व सूत्र से ही लेखन का प्रारंभ हो जाता है। आगे आर्यभट्ट, वराहमिहिर आदि के ग्रंथों का नाम लिया जा सकता है।
भारतीय ज्योतिष तथा खगोल विज्ञान के संस्थापक आर्यभट्ट ने ही अपने ग्रंथ आर्यभट्टीयम् में सबसे पहले बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
छठी शताब्दी के महान ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर ने ‘पंच सिद्धांतक’ की रचना महाकाव्य शैली में की।
आगे सातवीं सदी में ब्रह्मगुप्त ने अपने ‘ब्रह्मस्फुटिक सिद्धांतक’ की रचना महाकाव्य शैली में की।
इस ज्योतिष परंपरा की अंतिम कड़ी भास्कराचार्य (12वीं सदी) हैं जिन्होंने ‘सिद्धांत शिरोमणि’ नामक ग्रंथ की रचना की।
पालि और प्राकृत में साहित्य
वैदिक युग के पश्चात् पालि और प्राकृत भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ थीं। व्यापक रूप से देखने पर प्राकृत ऐसी किसी भी भाषा को इंगित करती थी जो मानक भाषा संस्कृत से किसी रूप में निकली हो, पालि एक अप्रचलित प्राकृत है।
बौद्ध धर्म का वैधानिक साहित्य पालि में है जिसे त्रिपिटक कहते हैं। तीन पिटकों में हैं-विनय पिटक, सुत्त पिटक तथा अभिधम्म पिटक।
विनय पिटक में बौद्धों के अनुशासन के नियम संगृहीत किये गए हैं, तो सुत्त पिटक में उपदेशात्मक आख्यान शामिल किये गए हैं, जबकि अभिधम्म पिटक बौद्ध धर्म की दार्शनिक व्याख्या करता है।
जातक कथा भी इन्हीं पिटक साहित्य का एक भाग है।
ये कहानियाँ बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करती हैं तथा संस्कृत एवं पाली दोनों में उपलब्ध हैं।
वास्तव में जातक भारतीय जनमानस की साझी विरासत पर आधारित है।
बौद्धों की गीता नाम से प्रसिद्ध ‘धम्मपद’ का संबंध भी सुत्त पिटक नामक दूसरे बौद्ध महाग्रंथ से है।
संस्कृत में बौद्ध साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जिसमें अश्वघोष (78 ई. सन्) द्वारा रचित महान महाकाव्य ‘बुद्धचरितम्’ शामिल है।
आचार्य नागसेन द्वारा दार्शनिक संकाय की विषयवस्तु पर आधारित मिलिन्दपण्हो पिटकेतर साहित्य में सर्वश्रेष्ठ है।
प्राकृत भाषा में जैनों का प्रचुर साहित्य लेखन हुआ जिसे जैन आगम कहते हैं। जैनों के आगम में 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छांदसूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र तथा नंदिसूत्र की गणना की जाती है।
आगम साहित्य को श्वेताम्बर जैन अनुयायी स्वीकार करते हैं, जबकि दिगम्बरों का मानना है कि जैनों के प्राचीन ग्रंथ अप्राप्य हैं।
प्राकृत को ‘हाल’ (300 ई. सन्) द्वारा रचित गाथासप्तशती (700 श्लोक) के लिये भली-भाँति जाना जाता है।
पहाई, महावी, रीवा, रोहा और शशिप्पलहा जैसी कुछ कवयित्रियों को गाथासप्तशती के काव्यसंग्रह में शामिल किया गया है।
जैन आचार्य हेमचंद्र (11वीं सदी) ने कोशकला तथा व्याकरण के बारे में बड़ी संख्या में प्राकृत में रचनाएँ दी हैं। इनकी प्रसिद्ध रचना प्राकृत पैंगलम है।
राजशेखर की कर्पूरमंजरी आदि भी महत्त्वपूर्ण प्राकृत ग्रंथ हैं।