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Mains Marathon

  • 30 Jun 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस- 13: "भारत सरकार अधिनियम, 1935 वह प्रारूप था जिस पर स्वतंत्र भारत के संविधान का अधिकांश भाग आधारित है।" भारत की प्रशासनिक तथा संघीय संरचना में वर्ष 1935 के अधिनियम की स्थायी विरासतों का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत शासन अधिनियम, 1935 का संक्षेप में परिचय दीजिये।
    • अधिनियम के स्थायी प्रभाव का आकलन कीजिये।
    • एक विद्वत्तापूर्ण टिप्पणी के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    भारत शासन अधिनियम, 1935 को ब्रिटिशों द्वारा औपनिवेशिक भारत के लिये बनायी गयी सबसे व्यापक और विस्तृत विधिक दस्तावेज़ के रूप में जाना जाता है। यद्यपि इसे कभी पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया, फिर भी यह भारत के स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद संविधान की रचना के लिये एक आधारभूत कार्यढाँचा सिद्ध हुआ। यद्यपि भारतीय संविधान सभा ने औपनिवेशिक अधीनता को अस्वीकार करने का प्रयास किया, फिर भी प्रशासनिक उपयोगिता और संरचनात्मक संगति के कारण अधिनियम, 1935 की कई विशेषताओं को बनाए रखा गया।

    मुख्य भाग:

    प्रशासनिक कार्यढाँचे में स्थायी विरासतें

    • अखिल भारतीय सेवाएँ:
      • अधिनियम, 1935 ने ICS के माध्यम से केंद्रीकृत, पेशेवर सिविल सेवा की परंपरा को जारी रखा।
      • स्वतंत्रता के बाद, इस विरासत को IAS, IPS, और IFoS के सृजन के साथ आगे बढ़ाया गया, जिसमें प्रशासनिक निरंतरता एवं राष्ट्रीय एकता पर बल दिया गया।
    • राज्यपाल का कार्यालय:
      • अधिनियम, 1935 में प्रांतीय गवर्नरों की भूमिका को बरकरार रखा गया, यद्यपि इसे संवैधानिक, औपचारिक कार्यढाँचे के लिये अनुकूलित किया गया।
      • हालाँकि, राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकार आज भी एक विवादास्पद विरासत बने हुए हैं, जिन्हें प्रायः केंद्रीय अतिक्रमण के रूप में आलोचना का सामना करना पड़ता है।
    • प्रांतीय और केंद्रीय प्रशासन:
      • ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आरंभ की गई पदानुक्रमित, नियम-आधारित प्रशासनिक संस्कृति स्वतंत्रता के बाद के शासन में भी बनी रही, जिसने भारत के प्रशासनिक ढाँचे को 'स्टील फ्रेम' प्रदान किया।

    संघीय संरचना

    • विषयों की तीन सूचियाँ:
      • अधिनियम, 1935 ने शक्तियों का विभाजन संघीय, प्रांतीय और समवर्ती सूचियों में किया।
      • भारतीय संविधान ने इसे सातवीं अनुसूची के अंतर्गत—संघ, राज्य, और समवर्ती सूचियों के रूप में—अपनाया, जिससे भारतीय संघवाद की संरचनात्मक नींव बनी।
    • सशक्त केंद्र:
      • अधिनियम, 1935 की तरह, संविधान ने केंद्र को महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ प्रदान कीं— विशेष रूप से कानून, कराधान और आपातकालीन प्रावधानों के संबंध में।
      • भारत की राजनीति की अर्द्ध-संघीय प्रकृति इस स्थायी केंद्रीकरण को प्रतिबिंबित करती है।
    • आपातकालीन प्रावधान:
      • विशेष परिस्थितियों में केंद्र द्वारा नियंत्रण ग्रहण करने की अवधारणा, जो अधिनियम, 1935 में सम्मिलित थी, संविधान के अनुच्छेद 352–360 में और अधिक सुदृढ़ रूप में प्रस्तुत की गयी।

    अधिनियम, 1935 से महत्त्वपूर्ण विचलन

    • संप्रभु और उत्तरदायी सरकार:
      • अधिनियम, 1935 में सीमित स्वायत्तता की परिकल्पना की गई थी, जिसमें अंतिम अधिकार ब्रिटिश क्राउन के पास था।
      • भारतीय संविधान ने इसकी जगह संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की, जहाँ कार्यपालिका की विधायिका के प्रति उत्तरदायित्व मूलभूत है।
    • द्वैध शासन का उन्मूलन:
      • इस अधिनियम ने केंद्र में द्वैध शासन लागू किया था (विषयों को आरक्षित और स्थानांतरित रूप में विभाजित कर)।
      • संविधान ने इसे समाप्त कर दिया और संघ एवं राज्य दोनों स्तरों पर पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना की।
    • मूल अधिकार और न्यायपालिका:
      • अधिनियम, 1935 में मूल अधिकारों या न्यायिक समीक्षा का कोई उल्लेख नहीं था।
      • संविधान में न्यायोचित मूल अधिकार, स्वतंत्र न्यायपालिका और न्यायिक सक्रियता को शामिल किया गया है, जिससे अधिकार-आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था सुनिश्चित की गयी।

    निष्कर्ष:

    भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने एक संरचनात्मक आधार प्रदान किया, किंतु भारत के संविधान ने उसमें लोकतांत्रिक मूल्य, जनसत्ता और सामाजिक न्याय को समाहित किया। जैसा कि सुभाष सी. कश्यप लिखते हैं:

    "भारतीय संविधान मात्र ब्रिटिश शासन की विधिक प्रणाली की निरंतरता नहीं है, बल्कि यह जन-इच्छा की लोकतांत्रिक शासन की साहसिक उद्घोषणा है।"

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