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23 Jun 2025
सामान्य अध्ययन पेपर 1
भारतीय समाज
दिवस- 7: भारत जैसे बहुभाषी समाज में भाषा की गतिशीलता के प्रश्न प्रायः पहचान की अभिव्यक्ति और राष्ट्रीय एकीकरण के मध्य झूलते रहते हैं। हिंदी थोपने एवं क्षेत्रीय अस्मिता के हालिया वाद-विवादों के संदर्भ में इस स्थिति का परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- एक बहुभाषी राष्ट्र के रूप में भारत का संक्षेप में वर्णन कीजिये।
- विवेचना कीजिये कि भाषा एक सांस्कृतिक पहचान और एकीकरण का साधन दोनों है।
- हाल की बहसों के संदर्भ में इसका परीक्षण कीजिये।
- एक विवेकपूर्ण अवलोकन के साथ उचित निष्कर्ष कीजिये।
परिचय:
भारत असाधारण भाषाई विविधता का गढ़ है, जहाँ 22 अनुसूचित भाषाएँ, 100 से अधिक भाषाएँ हैं जिन्हें 10,000 से अधिक लोग बोलते हैं तथा वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 19,500 से अधिक बोलियाँ हैं। भारत में बहुभाषावाद, सांस्कृतिक समृद्धि का स्रोत होने के अतिरिक्त, राष्ट्रीय एकीकरण के साथ क्षेत्रीय पहचान को संतुलित करने में जटिल चुनौतियाँ भी प्रस्तुत करता है।
मुख्य भाग:
क्षेत्रीय पहचान के प्रतीक के रूप में भाषा
- सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक:
- क्षेत्रीय पहचान को आकार देने में भाषा की भूमिका की गहरी ऐतिहासिक और राजनीतिक जड़ें हैं।
- वर्ष 1953 में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग ने जब भाषायी आधार पर राज्यों के गठन की संस्तुति की थी, तब यह स्पष्ट किया था कि यह माँग केवल सांस्कृतिक पुनरुत्थान की नहीं, बल्कि विभिन्न भाषायी समूहों को राजनीतिक और आर्थिक न्याय दिलाने का एक व्यापक प्रयास है।
- चुनावी बयानबाजी:
- राजनीतिक क्षेत्र में भी भाषा एक प्रभावशाली अस्त्र रही है, जैसे तमिलनाडु में 'हिंदी साम्राज्यवाद' के विरुद्ध चुनावी नारों के रूप में इसे देखा गया।
- आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग:
- इसी तरह, भोजपुरी, तुलु, राजस्थानी और कोंकणी जैसी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की माँगें, केवल भाषिक मान्यता की नहीं, बल्कि संरक्षण, पहचान एवं सरकारी सहायता की आकांक्षा का प्रतिबिंब हैं।
- हालिया दावा आंदोलन:
- हाल के वर्षों में इस भाषायी अस्मिता की अभिव्यक्ति और भी मुखर हुई है। कर्नाटक में बेंगलुरु की सड़कों पर हिंदी संकेतों के विरुद्ध हुए विरोध और 'कन्नड़-प्रथम' नीति की माँग, या पश्चिम बंगाल में विद्यालयों तथा सरकारी आयोजनों में बंगला भाषा को अनिवार्य करने की पहल, ये सब क्षेत्रीय भाषाओं के स्वाभिमान को पुनर्स्थापित करने के प्रयास हैं।
- सामाजिक आंदोलन:
- पूर्वोत्तर भारत में, मिज़ो, मणिपुरी, खासी और नगामीज़ जैसी भाषाएँ न केवल संप्रेषण का साधन हैं, बल्कि जनजातीय पहचान एवं स्वायत्तता की धुरी भी हैं।
- मणिपुर में मैतेई भाषा को थोपे जाने के विरुद्ध हुए भाषायी विरोध इस बात को दर्शाते हैं कि इन भाषाओं के पीछे केवल सांस्कृतिक गौरव ही नहीं, बल्कि अधिकार और आत्मनिर्णय की भावना भी अंतर्निहित है।
हिंदी थोपे जाने और केंद्रीकरण को लेकर विमर्श
- संसदीय राजभाषा समिति (2022):
- वर्ष 2022 में, आधिकारिक भाषा पर संसदीय समिति ने केंद्रीय संस्थानों में शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी की अनुशंसा की, जिससे कई गैर-हिंदी भाषी राज्यों में असंतोष फैल गया।
- तमिलनाडु, केरल और मिज़ोरम जैसे राज्यों के नेताओं ने इसे संविधान विरोधी एवं विघटनकारी बताते हुए व्यापक आलोचना की।
- शिक्षा और नई शिक्षा नीति- 2020 से जुड़ी चिंताएँ:
- भाषाई विविधता को बढ़ावा देने हेतु प्रस्तावित त्रिभाषा सूत्र को कई लोग हिंदी के परोक्ष प्रोत्साहन के रूप में देखते हैं।
- उदाहरणस्वरूप, तमिलनाडु इस नीति को आज भी नहीं अपनाता और अपने 'द्विभाषी सिद्धांत' (तमिल और अंग्रेज़ी) पर अडिग है।
- न्यायपालिका तथा संसदीय कार्यों में हिंदी के विस्तार का प्रस्ताव:
- न्यायालयों और संसद में हिंदी के व्यापक प्रयोग के प्रस्तावों का भी गैर-हिंदी भाषी राज्यों में विरोध हो रहा है। इनका तर्क है कि इससे न्याय और प्रतिनिधित्व तक समान पहुँच बाधित हो सकती है।
भाषा और राष्ट्रीय एकता
- इन तनावों के बावजूद, शासन, शिक्षा और राष्ट्रीय एकता के लिये एक संपर्क भाषा आवश्यक है।
- यद्यपि हिंदी लगभग 44% भारतीयों द्वारा बोली जाती है (जनगणना 2011), अंग्रेज़ी अभी भी एक तटस्थ और आकांक्षात्मक भाषा के रूप में काम करती है, विशेष रूप से उच्च शिक्षा और वैश्विक जुड़ाव में।
- संविधान में कई सुरक्षा उपाय प्रदान किये गये हैं:
- अनुच्छेद 343-351 भारत की आधिकारिक भाषा नीति को परिभाषित करते हैं तथा भाषाई बहुलवाद को संरक्षित करते हुए हिंदी को बढ़ावा देते हैं।
- अनुच्छेद 351 अन्य भाषाओं को कमतर आँके बिना हिंदी के विकास को प्रोत्साहित करता है।
- अनुच्छेद 29 और 30 भाषाई अल्पसंख्यकों की रक्षा करते हैं।
- राजभाषा अधिनियम (वर्ष 1963) संघ स्तर पर हिंदी के साथ-साथ अंग्रेज़ी के निरंतर प्रयोग की अनुमति देता है।
- राज्यों को राज्य सूची के अंतर्गत अपनी स्वयं की आधिकारिक भाषा अपनाने का अधिकार भी है, जो भारत के भाषाई संघवाद को सुदृढ़ करता है।
आगे की राह
- भारत की भाषाई विविधता को प्रतिबिंबित करने के लिये नीति और शिक्षा में बहुभाषिकता को प्रोत्साहन देना चाहिये।
- 'त्रि-भाषा सूत्र' को सख्त ढाँचे के रूप में लागू करने की अपेक्षा राज्यों के लिये उनके सामाजिक-भाषाई संदर्भों के अनुसार लचीलापन सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
- सभी अनुसूचित भाषाओं में न्याय, सेवाओं तथा विधि के लिये एक मज़बूत अनुवाद-संरचना विकसित की जानी चाहिये।
- साहित्य, शिक्षा और डिजिटल सामग्री के लिये वित्त पोषण के साथ क्षेत्रीय भाषाओं का समर्थन करना। क्षेत्रीय भाषाओं को साहित्य, शिक्षा और डिजिटल कंटेंट के क्षेत्र में वित्तीय सहयोग दिया जाना चाहिये।
- डिजिटल गवर्नेंस में भाषाई समावेशन को बढ़ावा दिया जाना चाहिये तथा ऐप्स, पोर्टल और सेवाओं को भाषा-अनुकूल बनाया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
समाजशास्त्री पॉल ब्रास ने उचित ही कहा है— "भारत में भाषाई आंदोलनों का उद्देश्य अलगाव नहीं, बल्कि एकता होना चाहिये, बशर्ते उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से संभाला जाये।"
वास्तव में, भारत की शक्ति उसकी भाषायी विविधता को उत्सव की तरह अपनाने में है, जो ऐसी एकता में निहित है जो थोपी न जाये, बल्कि संवाद और संघीय सहयोग के माध्यम स्वाभाविक रूप से विकसित हो।