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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

कितना व्यावहारिक है संभावित यौन अपराधियों की सूची तैयार करना?

  • 03 Nov 2017
  • 14 min read

भूमिका

  • जब मैं करीब आठ या नौ वर्ष का था तो हमारे यहाँ दो जोड़ी यानी चार बैल हुआ करते थे। इनमें से दो बड़े ही बिगडैल बैल थे, जो गाहे-बगाहे किसी को भी सिंग लगा दिया करते थे। अतः घर के सभी सदस्यों को उनकी इस प्रकृति के बारे इत्तला कर दी गई थी और लोग सावधान रहा करते थे। सूचना क्रांति के इस दौर में यौन-शोषण के विरुद्ध उठने वाली आवाज़ें मुखर हो उठीं हैं। ऐसे में क्या यह उचित नहीं होगा कि यौन उत्पीड़न के आरोपियों की एक सूची तैयार कर उसे पब्लिक डोमेन में रखा जाए, ताकि महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित किया जा सके?
  • गौरतलब है कि ऐसा ही एक प्रयास ‘राय सरकार’ नाम की एक छात्रा ने किया है। राय ने विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों के उन प्रोफेसरों की एक सूची बनाई है, जिन पर किसी न किसी छात्रा ने यौन-उत्पीड़न का आरोप लगाया है और साथ में राय ने अन्य पीड़ितों से भी आगे आकर आरोपियों का नाम बताने को कहा है।
  • जहाँ एक ओर राय के इस कदम की भूरी-भूरी प्रशंसा की जा रही है वहीं कुछ लोगों का यह भी मानना है कि केवल आरोपों के आधार पर ही किसी को अपराधी मानकर इस तरह से नाम उछालना उसकी गरिमा के विरुद्ध आचरण है। आज वाद-प्रतिवाद-संवाद के माध्यम से हम इस प्रयास की प्रासंगिकता का परीक्षण करेंगे।

वाद

  • पीड़िता की पहचान को गुप्त रखते हुए सोशल मीडिया में प्रसारित हो रही यह लिस्ट (सूची) अपने आप में एक नया कदम है, जिसकी सराहना होनी चाहिये।
  • विरोध करने वाले अधिकांश लोगों की दलील यह है कि इस तरह के प्रयास नैतिक रूप से सही नहीं हैं। ऐसे लोगों को समझना चाहिये कि किसी भी कार्य की नैतिकता का परीक्षण उसके विशेष समाजशास्त्रीय संदर्भ में होना चाहिये।
  • यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी) और ब्रिटिश काउंसिल द्वारा हालिया अध्ययन में यह पाया गया है कि देश में महिला कुलपतियों की कुल संख्या केवल 3% और महिला प्राध्यापकों की संख्या केवल 1.5% है।
  • हमारे विश्वविद्यालयों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का सामाजिक पक्ष यह है कि पुरुष सहकर्मियों की अधिकता के कारण महिला सशक्तीकरण की आवाज़ को दबा दिया जाता है।
  • गौरतलब है कि विश्वविद्यालयों में यौन उत्पीड़न की घटनाओं और विशाखा दिशा-निर्देश  के अनुपालन के संबंध में कोई प्रमाणिक डेटा उपलब्ध नहीं है। हालाँकि, यूजीसी ने 2016 के मध्य में इन आँकड़ों की मांग की थी।
  • पीड़िता की पहचान गुप्त रखने वाली इस लिस्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने के बजाय लोगों को इसकी प्रासंगिकता समझनी चाहिये।
  • दरअसल सच्चाई यह है कि विश्वविद्यालय प्रशासन यौन-उत्पीडन के आरोपी को तत्काल प्रभाव से पदमुक्त नहीं करता, बल्कि उनकी जाँच की बात करता है। ऐसे में पीड़िता की पहचान उज़ागर होने पर उसे धमकाया जाता है और मानसिक उत्पीडन झेलने को मजबूर किया जाता है।
  • चूँकि किसी का सार्वजनिक नामकरण न तो औपचारिक शिकायत है और न ही कानून का कोई निर्णय है| अतः इसे कानूनी तौर पर चुनौती देना आसान नहीं है।
  • जहाँ तक किसी की गरिमा के हनन का सवाल है तो इस लिस्ट को सुझाव के तौर पर लेना चाहिये और इस पर विश्वास करना न करना व्यक्तिगत पसंद होनी चाहिये। इसका लाभ यह होगा कि भविष्य में यौन-उत्पीड़न का शिकार हो सकने वाली महिलाएँ सचेत रह सकती हैं।
  • हम वर्षों से ‘कोई भी व्यक्ति दोषी साबित होने तक निर्दोष है’ के कानूनी सिद्धांत को सर्वोच्च प्राथमिकता देते आ रहे हैं। लेकिन यह सिद्धांत यौन-उत्पीडन के मामलों में पीड़िता के सर पर लटकते तलवार के जैसा है और इस बात का परिचायक है कि हम वास्तव में न्याय होने के बजाय बस न्याय होते देखना चाहते हैं।

प्रतिवाद

  • संभावित यौन उत्पीड़कों के नामों की यह लिस्ट कोई व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करती नज़र नहीं आती है। विदित हो कि यह लिस्ट यौन उत्पीड़न झेल चुकी महिला के साथ-साथ उनकी बातों के आधार पर भी बनाई गई है, जिन्होंने अपनी किसी मित्र या परिचित को उत्पीडन का शिकार बनते देखा है।
  • ज़ाहिर है व्यक्तिगत कारणों से झूठी शिकायतों के आधार पर भी इस लिस्ट में कई नामों को शामिल किया गया होगा, जो कि सरासर अनुचित है।
  • अपनी पहचान बताए बिना फेसबुक पर उत्पीड़कों के नाम बताना एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करता है जहाँ शिकायतकर्त्ता ही अज्ञात हैं। ऐसे में आरोपों का सत्यापन असंभव है।
  • जिस तरह से प्रचलित भावनाओं के प्रभाव में आकर लोग बिना ट्रायल के ही बलात्कार के आरोपियों को फाँसी की सज़ा देने की बात करते हैं, ठीक उसी तरह सोशल मीडिया में चलने वाले ट्रायल के आधार किसी को संभावित उत्पीड़क घोषित करना उचित नहीं कहा जा सकता।
  • सोशल मीडिया में चलाया जा रहा यह अभियान कई समस्याओं को भी जन्म दे सकता है| जिन प्रोफेसरों एवं शिक्षाविदों का नाम इस लिस्ट में है वे महिला विद्यार्थियों के प्रति असंवेदनशील भी हो सकते हैं, जिससे सीखने-पढ़ने की प्रक्रिया बाधित हो सकती है।
  • इस लिस्ट को बनाए जाने से पहले जिनका भी नाम इस लिस्ट में है उन्हें अपना पक्ष रखने का एक मौका दिया जाना चाहिये था।

संवाद

  • सोशल मीडिया के विकास के साथ ही महिला सरोकारों की आवाज़ और भी मज़बूत हुई है, इसका हालिया उदाहरण है ‘मी टू’ कंपेन जहाँ महिलाओं ने अपनी साथ हुए यौन-उत्पीडन की घटनाओं को सोशल मीडिया में शेयर किया था।
  • इस लिस्ट के साध्य तो अच्छे हैं लेकिन साधनों के बारे में भी यही बात नहीं कही जा सकती। दरअसल एक उचित प्रक्रिया का पालन करते हुये यह लिस्ट बनाई जानी चाहिये थी। क्योंकि आरोपी को भी यह जानने का आधिकार कि उसके खिलाफ किस तरह के आरोप लगाए गए हैं।
  • जिस तरह से पीड़ित महिला की पहचान गुप्त रखी गई है, आरोप तय करना मुश्किल तो है ही साथ में यह भी प्रमाणित करना मुश्किल है कि कौन सा व्यक्ति किस प्रकार के उत्पीडन में संलिप्त रहा है।
  • इसमें कोई शक नहीं कि शैक्षणिक संस्थानों में महिलाओं का यौन-उत्पीड़न एक गंभीर समस्या है और प्रशासक मंडल में महिलाओं की सीमित उपस्थिति के कारण इस समस्या की गंभीरता और भी बढ़ जाती है।
  • हालाँकि, इस बात की भी पूरी संभावना है कि इसमें कई नाम बदले की भावना से शामिल कराए गए होंगे। इस लिस्ट में किसी निर्दोष का नाम होना उसके गरिमापूर्ण जीवन जीने के मूल अधिकार का हनन होगा। 

विशाखा दिशा-निर्देश 

  • ‘विशाखा बनाम राजस्थान राज्य’ मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ‘ऐसा कोई भी अप्रिय हाव-भाव, व्यवहार, शब्द या कोई पहल जो यौन प्रकृति की हो, उसे यौन उत्पीड़न माना जाएगा। 
  • अपने इस निर्णय में न्यायालय ने एक अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार विधि ‘दि कन्वेंशन ऑन दि एलिमिनेशन ऑफ ऑल फॉर्म्स ऑफ डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वुमन’ (सीएडीएडब्ल्यू) का संदर्भ लेते हुए कार्यस्थलों पर महिला कर्मियों की सुरक्षा को मद्देनज़र रखते हुए कुछ दिशा-निर्देश जारी किये, जिन्हें विशाखा दिशा-निर्देश के नाम से जाना जाता है, जो इस प्रकार हैं: 

♦ प्रत्येक रोज़गारप्रदाता का यह दायित्व होगा कि यौन उत्पीड़न से निवारण के लिये वह कंपनी की आचार संहिता में एक नियम शामिल करे।
♦ संगठनों को अनिवार्य रूप से एक शिकायत समिति की स्थापना करनी चाहिये, जिसकी प्रमुख कोई महिला होनी चाहिये।
♦ नियमों के उल्लंघनकर्त्ता के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिये और पीड़िता के हितों की रक्षा की जानी चाहिये।
♦ महिला कर्मचारियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया जाना चाहिये। 

  • वस्तुतः इस ऐतिहासिक फैसले में न्यायालय ने माना कि यौन उत्पीड़न की कोई भी घटना संविधान में अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत दिये गए मौलिक अधिकारों तथा अनुच्छेद 19 (1) के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है। 
  • उल्लेखनीय है कि विशाखा दिशा-निर्देशों के अनुसरण में ही नवंबर 2010 में ‘कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध महिला सुरक्षा विधेयक’ अस्तित्व में आया।
  • कार्यस्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा के माध्यम से देश में महिला सशक्तीकरण की दिशा में विशाखा दिशा-निर्देशों का उल्लेखनीय महत्त्व है।

    (टीम दृष्टि इनपुट) 

निष्कर्ष

  • इस तरह से रैंडम लिस्ट बनाने के बजाय यौन अपराधियों को पंजीकृत किये जाने का विचार ज़्यादा उचित जान पड़ता है। महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों को नियंत्रण में लाने के लिये एक अलग तरह की पहल करते हुए यौन अपराधियों का 'पंजीकरण' करना चाहिये।
  • गौरतलब है कि यह पंजीकरण यौन शोषण के आरोपियों, पीछा करने वालों, छेड़छाड़ करने वालों और बार-बार यह अपराध दोहराने वाले अपराधियों के नामों की एक ‘पब्लिक डायरी’ होनी चाहिये।
  • इस पहल से महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन हिंसा में कमी आने की संभावना है। हमारे समाज में बलात्कार के अनेक मामले केवल इसलिये दर्ज़ नहीं कराए जाते, क्योंकि लोगों को लगता है कि इससे उनके परिवार का नाम ख़राब हो जाएगा।
  • इन परिस्थितियों में अपराधी बार-बार यह कृत्य दोहराता रहता है। यदि वह पकड़ा भी गया तो जेल से बाहर आते ही वह पुनः यौन अपराधों में संलिप्त पाया जाता है। अतः बार-बार यौन अपराध करने वालों के नामों को सार्वजानिक रूप से प्रदर्शित किया जाना ज़्यादा उचित है।
  • विदित हो इस वर्ष के आरंभ में सरकार ने यौन अपराधियों के लिये राष्ट्रीय पंजीकरण नीति बनाए जाने की बात कही थी। दरअसल, यौन अपराधियों के पंजीकरण की यह व्यवस्था अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों में पहले से ही लागू है।
  • इस तरह के पंजीकरण के बाद पुलिस का काम होता है कि वह समय-समय पर यौन अपराधियों के निवास स्थान, कार्यस्थल एवं अन्य गतितिधियों की जानकारी लेती रहे। सार यह है कि आम जनता को भी यौन अपराधियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का पूरा अधिकार होना चाहिये।
  • यदि किसी की आवाज़ सदियों से दबी हुई हो तो बोलने का मौका पाते ही वह शांति से वार्तलाप करने के बजाय बड़े ही ज़ोर से चिल्लाता है। किसी प्रक्रिया का पालन किये बिना इस तरह के लिस्ट बनना इसी चिल्लाहट की परिणिति है।
  • लेकिन इसे उग्र नारीवाद का नाम देने के बजाय सकारात्मक तौर पर लिया जाना चाहिये और उनके इस असंतोष के कारणों की पहचान करते हुए समाधान के उपाय भी किये जाने चाहिये।
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