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विशेष : नीति आयोग ने जारी किया पहला राष्ट्रीय स्वास्थ्य सूचकांक: स्वस्थ राज्य, प्रगतिशील भारत

  • 12 Feb 2018
  • 25 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
नीति आयोग ने 9 फरवरी को देश की पहली व्यापक स्वास्थ्य सूचकांक रिपोर्ट जारी की, जो विश्व में अपनी तरह की पहली रिपोर्ट है। ‘स्वस्थ राज्य, प्रगतिशील भारत’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट से विभिन्न राज्यों में स्वास्थ्य क्षेत्र की स्थिति तथा प्रगति का आकलन करने में सहायता मिलेगी। 

नए भारत की नई स्वास्थ्य चुनौतियाँ
इस सूचकांक में स्वास्थ्य से जुड़े कुछ नए जोखिमों को शामिल नहीं किया गया है। आज देश में होने वाली कुल मौतों में से लगभग 62% की वज़ह गैर-संचारी रोग हैं अर्थात देश में रोगों का परिदृश्य तेज़ी से बदल रहा है। संक्रामक रोग बड़े पैमाने पर लोगों को अपना शिकार बना रहे हैं। मानसिक रोग भी तेज़ी से अपने पैर पसार रहे हैं। वित्तीय जोखिम सुरक्षा को भी इसमें शामिल नहीं किया गया है। स्वास्थ्य राज्यों का विषय है और यदि इस मोर्चे पर उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं होगा तो केंद्र प्रायोजित योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करवा पाने में कठिनाई होगी।

(टीम दृष्टि इनपुट) 

मूल्यांकन का आधार
राज्यों का मूल्यांकन इन दो आधारों पर किया गया:

  1. स्वास्थ्य क्षेत्र में समग्र प्रदर्शन: स्वास्थ्य क्षेत्र में  किसी राज्य की वर्तमान स्थिति 
  2. वार्षिक स्तर पर सर्वाधिक प्रगति:  पिछले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य क्षेत्र में किसी राज्य की प्रगति की रफ्तार 

स्वस्थ राज्य, प्रगतिशील भारत

  • नीति आयोग ने अपने इस व्यापक स्वास्थ्य सूचकांक रिपोर्ट का शीर्षक स्वस्थ राज्य, प्रगतिशील भारत (Healthy States, Progresive India) दिया। 
  • इस सूचकांक में स्वास्थ्य क्षेत्र में वार्षिक प्रगति तथा एक-दूसरे की तुलना में समग्र प्रदर्शन के आधार पर राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को विभिन्न श्रेणियों में रखा गया ।
  • राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को बड़े-छोटे तथा केंद्रशासित प्रदेशों की तीन श्रेणियों में रखा गया, ताकि एक समान राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के बीच तुलना  में कठिनाई न हो।

(टीम दृष्टि इनपुट) 

सूचकांक के प्रमुख स्वास्थ्य मानक 

  • यह सूचकांक 28 प्रमुख स्वास्थ्य मानकों और अन्य स्वास्थ्य व्यवस्था व सेवाओं की डिलीवरी के सूचकों के आधार पर तैयार किया गया है। 
  • इसमें नवजात मृत्यु दर (एनएमआर), 5 साल तक की उम्र में मृत्यु दर, कुल जन्म दर, जन्म के समय लिंगानुपात, क्षय रोग के मामलों की कुल दर, संस्थागत डिलीवरी की हिस्सेदारी, एचआईवी मरीज़ों का अनुपात, प्रमुख सचिव स्वास्थ्य, मिशन डायरेक्टर (राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन), निदेशक (स्वास्थ्य सेवाएँ) के पद पर नियुक्ति आदि प्रमुख हैं।  
  • सूचकांक के परिणाम स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के आँकड़े, विभिन्न राज्यों की रिपोर्ट और राज्यों व अन्य स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर निकाले गए हैं।
  • स्वास्थ्य सूचकांक रिपोर्ट के अनुसार, जिन राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों में विकास की शुरुआत निचले स्तर से हुई उन्हें उच्च स्वास्थ्य सूचकांक वाले राज्यों की तुलना में ज्यादा तेजी से प्रगति करने का लाभ मिला। 
  • जैसे कि केरल जहाँ समग्र प्रदर्शन के मामले में शीर्ष पर रहा, वहीं दूसरी ओर इसकी प्रगति की रफ्तार धीमी पड़ चुकी है, क्योंकि राज्य में नवजात शिशु मृत्यु दर, 5 वर्ष से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु दर, और रिप्लेसमेंट आधारित फर्टिलिटी की दर पहले से ही काफी घट चुकी है, जिससे इसमें और सुधार की संभावनाएँ सीमित हो गई हैं।
  • रिपोर्ट के प्रगतिशीलता मापकों से पता चलता है कि 2015 की तुलना में 2016 में लगभग एक तिहाई राज्यों के प्रदर्शन में गिरावट दर्ज की गई। यही कारण है कि डोमेन लक्षित हस्तक्षेपों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। 
  • अधिकांश राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिये आम चुनौतियों में कर्मचारियों के पदों को भरना, जिलों में हृदय रोगों के उपचार के लिये अलग इकाइयों की स्थापना, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता मान्यता और मानव संसाधन प्रबंधन सूचना प्रणाली को सुनियोजित करना शामिल है। इसके अतिरिक्त लगभग सभी बड़े राज्यों को जन्म के समय लिंग अनुपात में सुधार करने पर ध्यान देने की ज़रूरत भी बताई गई है।
  • स्वास्थ्य क्षेत्र के संदर्भ में डेटा प्रणाली को बेहतर बनाने, सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिये इनकी आवधिक उपलब्धता सुनिश्चित करने और निजी क्षेत्र की सेवाओं के पूर्ण वितरण में सुधार की तत्काल आवश्यकता जताई गई है। 

कैसे बनाया गया यह सूचकांक? 

  • यह सूचकांक स्वास्थ्य क्षेत्र में देश के प्रदर्शन को विविधता तथा जटिलता के आधार पर वार्षिक स्तर पर आँकने के लिये एक व्यवस्थित पद्धति विकसित करने का प्रयास है।
  • नीति आयोग की ओर से यह सूचकांक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ परामर्श तथा विश्व बैंक के तकनीकी सहयोग से तैयार किया गया है।
  • स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत दिये जाने वाले प्रोत्साहन से इस सूचकांक को जोड़ा जाना इसके महत्त्व को रेखांकित करता है।
  • यह एक समग्र स्वास्थ्य सूचकांक है जो बड़े राज्यों के लिये तीन विभिन्न श्रेणियों (Domain) के तीन संकेतकों--1. स्वास्थ्य परिणाम-कुल 14 मानक-(75%), 2. शासन और सूचना-कुल 3 मानक  (7.5%), 3. प्रमुख आगत और प्रक्रियाओं-कुल 11 मानक (17.5%) पर आधारित है।  
  • इसमें प्रत्येक श्रेणी का निर्धारण उसके महत्त्व के आधार पर किया गया और इसके बाद एक मानक सूचकांक का प्रावधान किया गया, जिसमें उपलब्धियों के आधार पर शून्य से 100 तक अंक दिये गए।
  • नवजात मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर जैसे स्वास्थ्य संकेतकों के वर्ष 2015-16 के आँकड़ों के आधार पर इस सूचकांक में 21 बड़े राज्यों, 8 छोटे राज्यों और 7 केंद्रशासित प्रदेशों की तीन अलग-अलग श्रेणियों में रैंकिंग की गई। 
  • सूचकांक को बेहतर बनाने की प्रक्रिया में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र के विशेषज्ञों और विकास भागीदारों से मिले सुझाव शामिल किये गए। 
  • राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों की जाँच एक स्वतंत्र मान्यता प्राप्त एजेंसी द्वारा कराई गई थी, जिसके बाद वेब पोर्टल पर सूचकांक मूल्य और श्रेणियाँ बनाई गईं।
  • स्वास्थ्य चूँकि राज्यों का विषय है, इसलिये नीति आयोग ने राज्यों के बीच स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता, ज़िम्मेदारी और परस्पर प्रतियोगिता को बढ़ावा देने के लिये लगभग डेढ़ साल तक काम किया और उनके लिये रैंकिंग जारी की।  

कौन सा राज्य कहाँ रहा?

  • बड़े राज्यों में नवजात मृत्यु दर के मामले में केरल, पंजाब और तमिलनाडु शीर्ष तीन स्थानों पर रहे तथा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और ओडिशा सबसे कमज़ोर तीन राज्यों में रहे।
  • पाँच वर्ष से कम आयु में शिशु मृत्यु दर के मामले में केरल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र शीर्ष तीन स्थानों पर रहे तथा ओडिशा, असम और मध्य प्रदेश सबसे कमज़ोर तीन राज्यों में रहे।
  • जन्म के समय कम वज़न वाले शिशुओं के मामले में मणिपुर, नगालैंड और मिज़ोरम शीर्ष तीन स्थानों पर रहे तथा दादरा और नगर हवेली, राजस्थान, दमन और दीव तथा ओडिशा सबसे कमज़ोर तीन राज्यों में रहे। 
  • लिंगानुपात के मामले में तीन बड़े राज्यों में केरल, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल शीर्ष तीन स्थानों पर रहे तथा गुजरात, उत्तराखंड और हरियाणा सबसे कमज़ोर तीन राज्यों में रहे। 
  • संपूर्ण टीकाकरण के मामले में जम्मू-कश्मीर, मिज़ोरम और अंडमान निकोबार ने शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल किया, जबकि दादरा और नगर हवेली, मध्य प्रदेश और नगालैंड सबसे कमज़ोर राज्यों में रहे। 
  • संस्थागत प्रसव के मामले में बड़े राज्यों में गुजरात, केरल और आंध्र प्रदेश का अनुपात सबसे बेहतर है, जबकि उत्तराखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश सबसे कमज़ोर राज्य हैं। छोटे राज्यों में मिज़ोरम, त्रिपुरा और गोवा बेहतर हैं तो मेघालय, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश सबसे कमज़ोर राज्यों में रहे। केंद्रशासित प्रदेशों में चंडीगढ़ और पुद्दुचेरी ने शत-प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त किया है। 
  • बड़े राज्यों में समग्र प्रदर्शन के मामले में केरल, पंजाब और तमिलनाडु शीर्ष तीन स्थानों पर हैं।
  • 76.55  अंकों के साथ बड़े राज्यों में केरल का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ रहा, जबकि 33.69 अंकों के साथ उत्तर प्रदेश की सेहत सबसे बदहाल रही।
  • प्रदर्शन तेज़ी से सुधारने के मामले में प्रगति में बड़े राज्यों में  झारखंड (6.87 अंकों के सुधार) के साथ सबसे आगे रहा और इसके बाद जम्मू-कश्मीर तथा उत्तर प्रदेश का स्थान रहा। 
  • आधार और संदर्भ वर्ष के परिप्रेक्ष्य में झारखंड, जम्मू-कश्मीर और उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन नवजात मृत्यु दर, 5 वर्ष से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु दर, संपूर्ण टीकाकरण, संस्थागत प्रसव तथा एंटी रेट्रोवायरल थेरेपी पर निर्भर एचआईवी संक्रमित लोगों के स्वास्थ्य सुधार के मामले में सबसे अच्छा रहा। 
  • समग्र प्रदर्शन के मामले में छोटे राज्यों में मिज़ोरम (73.70 अंक) को पहला स्थान मिला है, जबकि मणिपुर दूसरे स्थान पर है। 
  • वार्षिक स्तर पर प्रगति के मामले में मणिपुर (7.18 अंकों का सुधार) को प्रथम और गोवा को दूसरा स्थान मिला। 
  • एंटी रेट्रोवायरल थेरेपी पर निर्भर एचआईवी संक्रमित लोगों के स्वास्थ्य सुधार, गर्भावस्था में देखभाल के लिये पंजीकरण, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की गुणवत्ता तथा एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम की बेहतर रिपोर्टिंग तथा राज्य स्तर पर स्वास्थ्य अधिकारियों की औसत संख्या के मामले में मणिपुर में सबसे ज़्यादा प्रगति देखी गई।  
  • केंद्रशासित प्रदेशों में स्वास्थ्य क्षेत्र में समग्र प्रदर्शन के साथ ही वार्षिक स्तर पर सबसे अधिक प्रगति के मामले में केंद्रशासित प्रदशों में लक्षद्वीप का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा।  संस्थागत प्रसव, तपेदिक के सफल उपचार और स्वास्थ्य योजनाओं को लागू करने वाली एजेंसियों को सरकारी खजाने से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कोष के धन के आवंटन के मामले में भी लक्षद्वीप ने बेहतर प्रदर्शन किया। लक्षद्वीप के 65.79 अंकों के बाद दूसरा स्थान चंड़ीगढ़ को मिला और देश की राजधानी दिल्ली तीसरे स्थान पर रही।

सूचकांक की सकारात्मक और नकारात्मक श्रेणियाँ 

  • सूचकांक की सकारात्मक श्रेणी में उन राज्यों को रखा गया है जहाँ नवजात मृत्यु दर कम है, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की सरल उपलब्धता है और मानव संसाधन की कमी नहीं है। इस श्रेणी के राज्यों को उनके कार्य निष्पादन के आधार पर अंक दिये गए।
  • सूचकांक की नकारात्मक श्रेणी में उन राज्यों को रखा गया है जहाँ नवजात मृत्यु दर अधिक है, पाँच साल तक के बच्चों की मृत्यु दर अधिक है और मानव संसाधन पर्याप्त नहीं हैं। इस श्रेणी के राज्यों को उनके कार्य निष्पादन के आधार पर शून्य अंक दिये गए।

क्या लाभ होगा इस सूचकांक से?

  • इस सूचकांक से राज्यों को अपनी स्वास्थ्य प्रणालियों और जनसंख्या के स्वास्थ्य सुधार लक्ष्यों को प्राप्त करने में दक्षता हासिल करने में आसानी होगी।  
  • स्वास्थ्य लक्ष्यों की  प्राप्ति में गति लाने के लिये सहकारिता और प्रतियोगी संघवाद का लाभ उठाने हेतु  इस स्वास्थ्य सूचकांक को एक उपकरण के रूप में विकसित किया गया है। 
  • यह राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों और केंद्रीय मंत्रालयों के लिये वार्षिक स्तर पर लक्ष्यों की प्राप्ति के आकलन हेतु एक 'उपकरण' के रूप में भी काम करेगा। 
  • सूचकांक के वार्षिक प्रकाशन और सार्वजनिक डोमेन पर इसकी उपलब्धता सभी हितधारकों को सतत विकास लक्ष्यों के लक्ष्य नंबर-3 की प्राप्ति के लिये चौकस रखेगी।
  • सरकार इस सूचकांक को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से राज्यों को मिलने वाले प्रोत्साहनों से जोड़ने पर विचार कर रही है।
  • नीति आयोग जून 2018 में अद्यतन आँकड़ों के साथ रिपोर्ट का दूसरा हिस्सा जारी करने पर काम कर रहा है, जिसमें देश के सभी 730 ज़िला अस्पतालों की रैंकिंग होगी। 

मेडिकल टूरिज़्म हब है भारत 
देश में स्वास्थ्य सेवाओं का एक और चेहरा है। जहाँ एक ओर देश की आम जनता स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से जूझ रही है, वहीं दूसरी ओर मेडिकल टूरिज़्म तेज़ी से अपना विस्तार कर रहा है। दुनियाभर से हज़ारों-लाखों मरीज़ हर साल सस्ता इलाज कराने के लिये भारत का रुख करते हैं। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि इन विदेशियों के लिये जो सस्ता है, वह आम देशवासियों के लिये बेहद महँगा और सपनों से भी परे है। इनमें मिलने वाली सुविधाएँ देश की दो-तिहाई आबादी की पहुँच से बाहर हैं। 

भारत में कई प्रतिष्ठित निजी चिकित्सा संस्थान विदेशियों को इलाज के लिये आकर्षित करते हैं, क्योंकि इनके द्वारा इलाज के लिये वसूली जाने वाली कीमत यूरोप या विकसित पश्चिमी देशों में आने वाली कीमत से काफी कम होती है और चिकित्सा तकनीक में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होती। इसके अलावा, ठहरने और खाने-पीने के सस्ते इंतज़ाम, उपकरणों की उपलब्धता और भाषा की सहूलियत के चलते आज भारत विदेशी मरीज़ों के लिये पसंदीदा गंतव्य बनता जा रहा है। मौजूदा समय में स्वास्थ्य क्षेत्र का कारोबार लगभग 10 हज़ार करोड़ डॉलर है, जिसमें वार्षिक 23% की दर से वृद्धि हो रही है। वर्ष 2030 तक इसके 27500 करोड़ डॉलर तक पहुँच जाने की संभावना है।

(टीम दृष्टि इनपुट) 

चिकित्सा कर्मियों की भारी कमी

  • देश की 130 करोड़ आबादी के लिये डॉक्टरों और अन्य चिकित्सा कर्मियों की बेहद कमी है। 
  • नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2017 के मुताबिक प्रति 10 हज़ार लोगों पर केवल एक सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध है। 
  • देश में कुल उपलब्ध एलोपैथिक डॉक्टरों में से केवल 10% सरकारी सेवा में हैं। 
  • देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के स्तर पर डॉक्टरों के कुल अनुमोदित पदों में से लगभग आधे खाली पड़े हैं।
  • आयुष डॉक्टरों की कुल उपलब्धता लगभग 8 लाख है। 
  • देश में और 7 लाख डॉक्टरों की आवश्यकता है, लेकिन हर साल केवल 30 हज़ार नए डॉक्टर ही निकल पाते हैं।
  • चिकित्सा क्षेत्र में मांग और आपूर्ति के मामले में ज़मीन-आसमान का अंतर है। 

गाँव-कस्बों में झोलाछाप डॉक्टर

  • देश में खुद को एलोपैथिक डॉक्टर बताने वालों में से एक-तिहाई केवल 12वीं पास हैं।
  • प्रैक्टिस करने वाले 57% डॉक्टरों के पास मेडिकल की कोई डिग्री नहीं है।
  • कई डिग्रीधारियों को बुनियादी चिकित्सा और बीमारियों की जानकारी तक नहीं होती।
  • डॉक्टरों के अलावा पैरा-मेडिकल स्टाफ, नर्सों और तकनीशियनों की भी भारी कमी है।
  • आबादी के लिहाज़ से देश के अस्पतालों में 18 लाख बेड कम हैं।
  • देश में स्वास्थ्य क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये 8600 करोड़ डॉलर की आवश्यकता है।
  • भारत अपनी जीडीपी का मात्र 1.2% ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है, जबकि अमेरिका जैसे देश इस मद में अपनी जीडीपी का लगभग 18% तक खर्च करते हैं और फ्रांस में यह 11.2% तथा स्विट्जरलैंड में 10.7% है। 
  • हमारे देश में केवल 15% आबादी स्वास्थ्य बीमा के दायरे में आती है।

स्वास्थ्य के मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट
इस सूचकांक से पता चलता है कि स्वास्थ्य के अधिकांश मानकों पर देश की स्थिति अच्छी तो नहीं ही कही जा सकती। इसके अलावा, हाल ही में विश्व बैंक ने भी एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें कहा गया कि गाँवों में लोगों का इलाज कर रहे हर पाँच में से एक डॉक्टर के पास ही प्रैक्टिस के लिये जरूरी योग्यता होती है। 57.3% के पास तो किसी तरह की योग्यता ही नहीं होती। देश में स्वास्थ्य सेवा भी शिक्षा की तरह दो भागों में बँट गई है। जो संपन्न वर्ग है, उसके लिये निजी क्षेत्र की बेहतर सेवा उपलब्ध है, लेकिन जो गरीब हैं, वे छोटी-छोटी बीमारियों से भी बर्बाद होते जा रहे हैं। हालात बेकाबू होने पर वे सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिये जाते हैं, लेकिन ये भी उनकी पहुँच से दूर ही होते हैं।

(टीम दृष्टि इनपुट) 

निष्कर्ष: स्वस्थ रहना मानव जीवन की बुनियादी ज़रूरत है...स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। स्वस्थ लोग अपने-अपने क्षेत्र में ज़्यादा अंशदान कर पाते हैं और अच्छा स्वास्थ्य लोगों को ज़्यादा कमाने, ज़्यादा बचत करने और देश की प्रगति में ज़्यादा भागीदारी निभाने का अवसर देता है।  इसके अलावा बीमारी का अपना अर्थशास्त्र है, जिसमें महँगी दवाइयाँ, महँगा इलाज और गंभीर बीमारी की लंबी अवधि किसी भी खाते-पीते परिवार की आर्थिक हालत खस्ता बनाने के लिये पर्याप्त हैं। परिवार पर तो इसका प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता ही है, साथ ही कार्यबल (Workforce) की क्षमता भी इससे प्रभावित होती है। बीमारियों से लोगों की उत्पादकता कम हो जाती है और प्रति व्यक्ति रखरखाव का खर्च बढ़ जाता है। 

लेकिन हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता या पहुँच का बुनियादी ढाँचा बिखरे स्वरूप में नज़र आता रहा है। देश के अधिकांश सुदूरवर्ती क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता के लिये सक्षम कर्मचारी और बेहतरीन बुनियादी सुविधाओं की बेहद कमी है। केंद्र सरकार राज्यों के सहयोग से इस असंतुलन को दूर करने के प्रयासों के तहत कई कदम उठा रही है। जनस्वास्थ्य राज्य का विषय होने के कारण इसके कार्यान्वयन की प्राथमिक ज़िम्मेदारी राज्यों की है। इसके बावजूद केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को उनकी स्वास्थ्य परिचर्या प्रदानगी प्रणाली के सुदृढ़ीकरण हेतु आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।

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