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विशेष/पब्लिक फोरम: NavIC: भारत का अपना जीपीएस

  • 19 Apr 2018
  • 22 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
12 अप्रैल को पीएसएलवी-सी41 (PSLV-C41) के माध्यम से श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (Indian Space Research Organization-ISRO) द्वारा IRNSS-1-I नौवहन (Navigation) उपग्रह का सफल प्रक्षेपण किया गया। यह पीएसएलवी के 43 प्रक्षेपणों में से 41वाँ सफल प्रक्षेपण था। यह अभियान इसके एक्सएल (XL) वर्ज़न से प्रक्षेपित किया गया। IRNSS के सातों उपग्रहों से मिलकर ही NavIC बना है। IRNSS अर्थात् इंडियन रीजनल नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम (Indian Regional Navigation Satellite System-IRNSS) इसरो द्वारा विकसित पूर्णतया भारत सरकार के अधीन एक क्षेत्रीय स्वायत्त उपग्रह नौवहन प्रणाली है, जिसे NavIC नाम दिया गया है। 

क्या है IRNSS?

  • इससे पहले कुल सात IRNSS (1A से 1G तक) स्थापित किये जा चुके हैं और यह IRNSS-1-I इस प्रणाली का नौवाँ उपग्रह है। 
  • इस श्रृंखला का आठवाँ उपग्रह IRNSS-1H तकनीकी खराबी की वज़ह से असफल हो गया था।
  • इस श्रृंखला में पहले उपग्रह का प्रक्षेपण जुलाई 2013 में किया गया था।
  • यह प्रणाली स्वदेशी तकनीक पर आधारित है तथा IRNSS-1-I इसरो की NavIC प्रणाली का हिस्सा है। 

आत्मनिर्भरता के लिये स्वदेशी तकनीक का विकास 
भारत का NavIC अमेरिका के GPS (Global Positioning System), रूस के ग्लोनास, यूरोप के गलीलियो जैसा है। IRNSS-1-I उपग्रह की सफलता के साथ ही भारत का अपना न केवल उपग्रहों का जाल तैयार हो गया है, बल्कि देश के पास अपना GPS भी हो गया है। पूर्ण रूप से सक्रिय होने के बाद GPS के लिये भारत को दूसरे देशों पर निर्भर रहना नहीं पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि कारगिल घुसपैठ के समय भारत के पास ऐसा कोई सिस्टम मौजूद नहीं होने के कारण सीमापार से होने वाली  घुसपैठ का समय रहते पता नहीं लगाया जा सका। भारत ने अमेरिका से GPS सिस्टम से सहायता करने का अनुरोध किया गया था, लेकिन तब अमेरिका ने इनकार कर दिया था। उसके बाद से ही GPS की तरह ही स्वदेशी नेवीगेशन सेटेलाइट नेटवर्क के विकास पर ज़ोर दिया गया; और अब भारत ने खुद इसे विकसित कर बड़ी कामयाबी हासिल की है।

हार्डवेयर-सॉफ्टवेयर बदलने की चुनौती 

  • इसरो के वैज्ञानिकों ने जहाँ एक कठिन चुनौती को पूरा करते हुए GPS की अमेरिकी व्यवस्था को चुनौती देने वाला भारतीय सिस्टम तैयार तो कर लिया है, लेकिन इसका तुरंत आम लोगों तक पहुँचना आसान नहीं है। 
  • NavIC को आम लोगों के उपयोग में लाए जाने वाले उपकरणों में आने में लंबा समय लग सकता है क्योंकि इसके लिये मोबाइल फोन से ले कर नेवीगेशन सिस्टम तक के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर में बदलाव करना होगा।
  • जिन उपकरणों में इस सेवा का उपयोग होना है पहले उन्हें इसके लिये सक्षम बनाना होगा। अभी भारत में उपयोग हो रहे उपकरण केवल GPS को सपोर्ट करते हैं। 
  • अगर इन पर NavIC को  चलाना है तो हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों में ही बदलाव करना होगा। 
  • एक बड़ी समस्या यह है कि इनका उपयोग करने वाले लोग और इन्हें बनाने वाली कंपनियाँ पहले इंतजार करेंगे ताकि नई व्यवस्था पर आधारित सेवाएँ अधिक-से-अधिक उपलब्ध हों। 
  • विभिन्न एप्लीकेशन में NavIC के उपयोग को ले कर प्रयोग किये जा रहे हैं, लेकिन बाज़ार में इसके पूरी तरह सक्रिय होने में अभी कुछ वर्षों का समय और लग सकता है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

IRNSS-1I की विशेषताएँ

  • IRNSS-1-I को भू-समकालिक कक्षा में स्थापित किया गया है। 
  • इसका सबसे नज़दीकी बिंदु पृथ्वी के ऊपर 284 किमी. पर होगा, जबकि सबसे दूरतम बिंदु पृथ्वी के ऊपर 20,650 किमी. पर होगा।
  • इस श्रृंखला के अन्य उपग्रहों में से 3 भू-स्थिर कक्षा में और चार भू-समकालिक कक्षा में स्थापित किये गए हैं।
  • अन्य सभी IRNSS उपग्रहों की तरह IRNSS-1-I में भी दो पेलोड हैं--1. नेवीगेशन पेलोड, 2. रेंजिग पेलोड।
  • नेवीगेशन पेलोड का इस्तेमाल स्थिति, गति तथा समय के निर्धारण के लिये किया जाएगा।
  • रेंजिंग पेलोड का इस्तेमाल उपग्रह की आवृत्ति रेंज का निर्धारण करने के लिये किया जाएगा।
  • IRNSS-1-I उपग्रह IRNSS-1-A का स्थान ले सकता है जो उन 7 नेवीगेशन उपग्रहों में से एक है जो तकनीकी खामी (इसकी तीनों परमाणु घड़ियों ने काम करना बंद कर दिया था) के बाद निष्प्रभावी हो गया था।   

परमाणु घड़ियाँ क्या हैं?: GPS सैटेलाइट बहुत ही उन्नत तकनीक से डिज़ाइन की जाती है ताकि इससे प्राप्त  होने वाली कोई भी सूचना 100% सही हो। इसीलिये GPS सैटेलाइट में परमाणु घड़ियों (Rubidium Clocks) का इस्तेमाल होता है। यह घड़ी एक सेकेंड के 10 करोड़वें हिस्से की गणना करने की क्षमता रखती है और समय की इतनी सही गणना कई जगहों पर बेहद ज़रूरी हो जाती है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

  • अमेरिकी GPS संकेतों की सटीकता का स्तर भारत में लगभग 60-70% प्रतिशत है। IRNSS प्रणाली के पूर्ण रूप से सक्रिय होने के बाद संकेतों की सटीकता का स्तर 90-95% तक हो जाएगा। 
  • NavIC प्रणाली जब पूर्ण सुचारू तरीके से अपना काम करने लगेगी तो भारत की अमेरिकी GPS पर निर्भरता कम हो जाएगी। 
  • 1425 किलोग्राम वज़नी IRNSS-1-I उपग्रह का निर्माण इसरो के सहयोग से बंगलुरू की निजी कंपनी अल्फा डिज़ाइन टेक्नोलॉजीस ने किया है। निजी उद्यम द्वारा बनाया गया यह दूसरा उपग्रह है। 
  • उपग्रह बदलने के लिये यह प्रक्षेपण इसरो का दूसरा प्रयास है। इससे पहला उपग्रह IRNSS-1-H को कक्षा में स्थापित करने का पिछले वर्ष का प्रक्षेपण असफल रहा था। 
  • NavIC का उद्देश्य देश तथा देश की सीमा से 1500 किलोमीटर की दूरी तक के हिस्से (दक्षिण-पूर्व एशिया के बड़े हिस्से में) में सटीक स्थैतिक जानकारी उपलब्ध कराना है। 

कैसे काम करता है अमेरिका का GPS?

  • GPS एक बहुउपयोगी अंतरिक्ष-आधारित रेडियो नेवीगेशन सिस्टम है जो अमेरिकी सरकार के स्वामित्व में है और वहाँ की वायु सेना द्वारा संचालित किया जाता है। 
  • अमेरिका ने अपनी नौसेना की मिसाइलों को ले जाने वाली पनडुब्बियों को ट्रैक करने के लिये 1960 के दशक के मध्य में इस GPS  प्रणाली का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। 
  • अमेरिकी रक्षा विभाग ने 1970 की शुरुआत में एक मजबूत, स्थिर उपग्रह नेवीगेशन सिस्टम को सुनिश्चित करने के लिये उपग्रहों का उपयोग करने का निर्णय लिया था।
  • इसके बाद अमेरिका ने 1978 में Timing and Ranging (NAVSTAR) उपग्रह के साथ अपना पहला नेवीगेशन सिस्टम लॉन्च किया।
  • 24 उपग्रहों का यह  सिस्टम 1993 में पूरी तरह से चालू हो गया और और इसमें अधिकतम 32 उपग्रह शामिल किये जा सकते हैं।
  • GPS सीधे उपग्रह से जुड़ा होता है और उपग्रहों द्वारा भेजे गए संदेशों के आधार पर काम करता है। 
  • GPS उपकरण उपग्रह से प्राप्त संकेतों की सहायता से उस जगह को मैप में दर्शाता रहता  है। 
  • वर्तमान में GPS तीन प्रमुख क्षेत्रों से मिलकर बना हुआ है--स्पेस सेगमेंट, कंट्रोल सेगमेंट और यूज़र सेगमेंट।
  • GPS रिसीवर अपनी स्थिति का आकलन पृथ्वी के ऊपर स्थित उपग्रहों द्वारा भेजे जाने वाले संकेतों के आधार पर करता है। 
  • प्रत्येक उपग्रह निरंतर संकेत प्रसारित करता रहता है और रिसीवर प्रत्येक संकेत का ट्रांजिट समय नोट करता है और प्रत्येक उपग्रह से दूरी की गणना करता है। 
  • बेहतर गणना के लिये रिसीवर चार उपग्रहों का इस्तेमाल करता है। इससे यूज़र की 3-डी स्थिति (अंक्षाश, देशांतर रेखा और उन्नतांश) के बारे में पता चल जाता है। 
  • स्थिति का पता चलने के बाद GPS यूनिट स्पीड, ट्रैक, ट्रिप, दूरी, जगह से दूरी, सूर्योदय और सूर्यास्त के समय के बारे में जैसी अन्य जानकारियाँ एकत्र कर लेता है। 

अमेरिकी सेना का है इस पर नियंत्रण
बेशक हमारे-आपके स्मार्टफोन में GPS की सुविधा है, लेकिन व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाली GPS की सुविधा पर नियंत्रण अमेरिकी सेना का है। फोन में गूगल मैप्स से लेकर वाहनों के गार्मिन (Garmin)  की GPS प्रणाली पर अमेरिकी सेना का नियंत्रण है। इस अमेरिकी प्रणाली में 24 उपग्रह पृथ्वी के 26 हज़ार 600 किमी. की ऊँचाई से दुनियाभर में चप्पे-चप्पे पर नज़र रखते हैं। 

  • GPS का ऐसे कई कामों के लिये भी उपयोग किया जाता है, जिनके लिये इसे डिज़ाइन नहीं किया गया था...
  • GPS से किसी लोकेशन को ट्रैक करना इसका मुख्य और सबसे आम उपयोग है। 
  • किसी दुर्घटना या इमरजेंसी के समय तत्काल सहायता पहुँचाने के लिये वर्तमान लोकेशन का पता लगाने हेतु।
  • गाड़ी में GPS ट्रैकर लगा है तो चोरी हो जाने पर उसे ढूंढना आसान हो जाता है।
  • मैपिंग और सर्वेक्षण के कार्यों में इसका उपयोग किया जा सकता है। 
  • अपराधियों का पीछा करने में पुलिस और जांचकर्त्ताओं द्वारा भी इसका उपयोग किया जा सकता है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

NavIC के प्रमुख अनुप्रयोग

  • सैन्य और कूटनीतिक दृष्टि से होने वाले फायदों के अलावा NavIC के कई व्यावसायिक और सामाजिक लाभ भी होंगे। 
  • आस-पड़ोस के देशों को GPS सुविधा दी जा सकती है जिससे पड़ोसी देशों को मौसम संबंधी पूर्वानुमान, मैंपिग जैसी सुविधाएँ देकर सरकार को आय हो सकती है। 
  • देश के दूर-दराज के इलाकों पर GPS की मदद से नज़र रखी जा सकेगी। 
  • देश के अलग-अलग इलाकों में चल रही अवसंरचना परियोजनाओं की रीयल टाइम मैंपिग की जा सकती सकेगी। 
  • सड़क और रेल यातायात पर भी GPS सिस्टम का अच्छा असर पड़ेगा। सड़क पर लगे ट्रैफिक जाम का पहले से जानकारी लेकर वैकल्पिक मार्ग सुझाए जा सकते हैं और देर से चल रही ट्रेनों की रीयल टाइम ट्रैकिंग की जा सकती है। 
  • व्यवसायिक रूप से लंबी दूरी तय करने वाले भारतीय मालवाहक जहाज़ों को भी इससे फायदा होगा, क्योंकि इसकी मदद से ज़्यादा सुरक्षित सफर को पहले चुना जा सकता है। 
  • आपदाओं के समय मलबे में दबे लोगों का पता लगाया जा सकता है। 

NavIC की कार्यप्रणाली 

  • NavIC के उपग्रह दो माइक्रोवेव फ्रीक्वेंसी बैंड पर सिग्नल देते हैं, जो L5 और S के नाम से जाने जाते हैं। 
  • यह स्टैंडर्ड पोजीशनिंग सर्विस तथा रिस्ट्रिक्टेड सर्विस की सुविधा प्रदान करता है। 
  • इसकी 'स्टैंडर्ड पोजीशनिंग सर्विस' सुविधा भारत में किसी भी क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति की स्थिति बता सकती है।
  • इसकी 'रिस्ट्रिक्टेड सर्विस' सेना तथा महत्त्वपूर्ण सरकारी कार्यालयों के लिये सुविधाएं प्रदान करने का काम करती है।
  • सेटेलाइट रेंजिंग और निगरानी, जेनरेशन और नेवीगेशन मानदंड के प्रसारण के लिये कुछ ज़मीनी सुविधाएँ बहाल करनी होती हैं। इस तरह की सुविधाएँ देश भर में 18 जगहों पर स्थापित की जा रही हैं।
  • भारत के आगामी महत्त्वपूर्ण अंतरिक्ष अभियान 

भारत के आगामी महत्त्वपूर्ण अंतरिक्ष अभियान 
आने वाले वर्षों में इसरो के वैज्ञानिकों ने उपग्रह प्रक्षेपण की श्रृंखला तैयार कर रखी है:

मिशन चंद्रयान-2: अगली प्रमुख परियोजना भारत का चंद्रमा पर दूसरा अन्वेषण मिशन, चंद्रयान-2 भेजना है। इसके चंद्रमा की धरती का खनिज विज्ञान संबंधी और तात्त्विक अध्ययन करने की उम्मीद है। इसे 2018 के अंत तक छोड़ने की तैयारी है। चंद्रयान-2 एक चुनौतीपूर्ण मिशन है, क्योंकि इसमें एक ऑर्बिटर, एक लैंडर और एक रोवर को चंद्रमा पर ले जाना है। चंद्रयान-2 का कुल भार 3290 किलोग्राम है। लॉन्च होने के एक से दो महीनों में यह यान चंद्रमा की कक्षा तक पहुँच जाएगा। उल्लेखनीय है कि भारत ने 10 वर्ष पूर्व चंद्रयान-1 सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया था। चंद्रमा की कक्षा तक पहुँचने के बाद लैंडर ऑर्बिटर से अलग हो जाएगा और चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव के पास लैंडिंग करेगा। लैंडर के अंदर लगे 6 पहिए वाले रोवर अलग हो जाएंगे और चंद्रमा की सतह पर आगे बढ़ेंगे। रोवर को इस तरह से डिज़ाइन किया गया है कि यह चंद्रमा की सतह पर 14 दिन तक रह पाएगा और 150-200 किमी. तक चलने में सक्षम होगा। रोवर चंद्रमा की सतह का परीक्षण करेगा और वहां से 15 मिनट में तस्वीरें धरती पर भेजेगा। 14 दिनों के बाद रोवर स्लीप मोड पर चला जाएगा और सूर्य का प्रकाश पड़ने पर दोबारा काम करने लगेगा। 

आदित्य-L1: इसरो की अगली बड़ी योजना सौर प्रभामंडल (कोरोनाग्राफ के साथ–एक टेलीस्कोप), फोटोस्फेयर, वर्णमंडल (सूर्य की तीन प्रमुख बाहरी परतें) और सौर वायु का अध्ययन करने के लिये सूर्य में वैज्ञानिक मिशन भेजना है। श्रीहरिकोटा से पीएसएलवी-एक्सएल द्वारा इसे 2020 में छोड़ा जाना प्रस्तावित है। आदित्य-L1 उपग्रह कक्षा से सूर्य का अध्ययन करेगा जो पृथ्वी से करीब 1.5 मिलियन किलोमीटर दूर है। आदित्य-L1 मिशन इस बात की जाँच करेगा कि क्यों सौर चमक और सौर वायु पृथ्वी पर संचार नेटवर्क और इलेक्ट्रॉनिक्स में बाधा पहुँचाती है। इसरो की उपग्रह से प्राप्त उन आँकड़ों का इस्तेमाल करने की योजना है ताकि वह गर्म हवा और चमक से होने वाले नुकसान से अपने उपग्रहों का बेहतर तरीके से बचाव कर सके।

मिशन वीनस: भारत पहली बार शुक्र ग्रह का अन्वेषण करने की भी तैयारी कर रहा है। इस योजना के तहत शुक्र पर भेजे जाने वाले ऑर्बिटर को पहले उसकी दीर्घ वृत्ताकार कक्षा में स्थापित किया जाएगा और इसके बाद उसे शुक्र ग्रह के करीब लाया जाएगा। शुरुआती योजना के अनुसार 175 किलोग्राम वज़नी एक वैज्ञानिक उपकरण यान के साथ भेजा जाएगा, जो 500 वॉट ऊर्जा से चालित होगा। इसके बाद मिशन पर विस्तृत अध्ययन होगा। 

1963 में अमेरिका ने मैरीनर-2 रोबोटिक स्पेस प्रोब भेजा था तथा उसके बाद 1970 में सोवियत संघ का अंतरिक्ष यान वेनेरा-7शुक्र की सतह पर उतरा और काफी आँकड़े पृथ्वी पर भेजे। 1978 में नासा की शुक्र पर पायनियर वीनस परियोजना से भी शुक्र के बारे में काफी जानकारियाँ मिली। 1980-90 के बीच शुक्र पर कई फ्लाई-बाई मिशन भेजे गए। अप्रैल 2006 में यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने शुक्र पर दीर्घावधि मिशन के तहत वीनस एक्सप्रेस भेजा। वहीं, इससे पहले 2015 में जापान ने अपना मिशन अकात्सुकी भेजा।

मंगल मिशन-2 (MOM-2): भारत संभवतः 2021-2022 के दौरान दूसरे मंगल ऑर्बिटर मिशन के साथ लाल ग्रह पर दुबारा कदम रखने की तैयारी कर रहा है। इससे पहले इसरो ने वर्ष 2013 में केवल 450 करोड़ रुपए की लागत से मंगल ग्रह पर मिशन भेजा था, जो अभी भी इस लाल ग्रह की कक्षा में चक्कर लगा रहा है। इसरो का मंगल मिशन-2 पूर्णतः वैज्ञानिक मिशन होगा, जबकि पहला मंगल अभियान भारत की शानदार इंजीनियरिंग उपलब्धि थी, जिसने भारत को यह सिखाया कि लाल ग्रह तक कैसे पहुँचना है और वहाँ से करोड़ों किलोमीटर दूर पृथ्वी पर उसके आँकड़े कैसे प्राप्त करने हैं। इस दूसरे मंगल मिशन में उपग्रह को मंगल की 200x200 किलोमीटर वाली कक्षा में स्थापित करने की योजना है। इसे जीएसएलवी प्रक्षेपण यान से भेजा जाएगा ताकि उपग्रह को उन्नत और तीक्ष्ण उपकरणों से लैस किया जा सके। यह मिशन बेहतर प्रयोगों को अंजाम देगा।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: कम संसाधनों और कम बजट के बावजूद भारत आज अंतरिक्ष में कीर्तिमान स्थापित करने में लगा हुआ है। भारतीय प्रक्षेपण रॉकेटों की विकास लागत ऐसे ही विदेशी प्रक्षेपण रॉकेटों की विकास लागत का लगभग एक-तिहाई है। अंतरिक्ष में लंबे समय से चला आ रहा अमेरिका और चीन का दबदबा टूट चुका है तथा चीन और भारत इस मैदान के नए खिलाड़ी बनकर उभरे हैं। भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में तब कीर्तिमान बनाया था जब उसने अपने मंगल अभियान को पहली ही बार में सफलतापूर्वक पूरा किया। इस उपलब्धि के बाद भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ की एजेंसी के बाद चौथी ऐसी एजेंसी बन गई जिसने यह सफलता हासिल की। चंद्रयान और मंगलयान की सफलता के बाद इसरो के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में दुनियाभर में भारत की धाक तो जमा ही दी है, इसके साथ ही NavIC के पूर्ण रूप से कार्यरत होने बाद देश के करोड़ों लोगों की रोज़मर्रा की जिंदगी भी बदल जाएगी।

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