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द बिग पिक्चर : नगा समझौते का अनिश्चित भविष्य

  • 05 Feb 2018
  • 22 min read

संदर्भ 
हाल ही में असम के माइबोंग में चल रहे प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोली से तब दो लोग मारे गए, जब वहाँ दीमा हसाओ ज़िले का ग्रेटर नगालिम (असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के नगा बहुल क्षेत्र) में विलय करने के विरोध में प्रदर्शन चल रहा था। प्रदर्शनकारी भारत सरकार से यह स्पष्ट करने को कह रहे हैं कि दीमा हसाओ को ग्रेटर नगालिम में किसी भी हाल में शामिल नहीं किया जाएगा। इसके बाद नगालैंड में हुई एक सर्वदलीय बैठक में क्षेत्रीय दलों सहित भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों ने इसी माह 27 फरवरी को होने वाले नगालैंड विधानसभा चुनाव के बहिष्कार की घोषणा करते हुए ‘समाधान नहीं तो चुनाव नहीं’ पर सहमति जताई है। राजनीतिक दलों ने विधानसभा चुनाव से पहले नगा समस्या के समाधान की मांग की है। 

चुनाव का बहिष्कार 
नगालैंड में सत्तारूढ़ नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) सहित सभी प्रमुख राजनीतिक दल नगालैंड के शीर्ष आदिवासी संगठन नगा होहोकी विधानसभा चुनाव के बहिष्कार की इस मांग का समर्थन कर रहे हैं कि राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले नगा समस्या का समाधान किया जाए। इससे पहले नगालैंड के आदिवासी संगठनों ने राज्य में 27 फरवरी को होने वाले विधानसभा चुनाव टालने की मांग करते हुए कहा था कि चुनाव से पहले राज्य की सात दशक पुरानी नगा समस्या का समाधान ज़रूरी है। 

समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले कुल 11 दलों की ओर से कहा गया है कि कोई भी उम्मीदवार विधानसभा चुनाव के लिये नामांकन न करे और वे किसी भी उम्मीदवार को टिकट नहीं देंगे। 

पहले भी हुआ है बहिष्कार
इस बार नगालैंड में 27 फरवरी को 13वीं विधानसभा के लिये चुनाव होने वाले हैं। यह कोई पहली बार नहीं है जब आदिवासी संगठन नगा होहो ने चुनाव के बहिष्कार के लिये कहा है। इससे पहले 1998 में भी विधानसभा चुनाव के बहिष्कार की अपील की गई थी, लेकिन कांग्रेस ने अंतिम मौके पर नामांकन दायर कर दिये, जो कि उस समय सत्तारूढ़ पार्टी थी और उसने 60 में से 59 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

क्या है नगा समस्या? 
पूर्वोत्तर में स्थित नगा समुदाय और नगा संगठन ऐतिहासिक तौर पर नगा बहुल इलाकों को मिलाकर एक ग्रेटर नगालिम राज्य बनाने की लंबे समय से मांग कर रहे हैं। ‘नगालिम' या ग्रेटर नगा राज्य का उद्देश्य मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के नगा बहुल इलाकों का नगालिम में विलय करना है। यह देश की पुरानी समस्याओं में से एक है। प्रस्तावित ग्रेटर नगालिम राज्य के गठन की मांग के अनुसार मणिपुर की 60% ज़मीन नगालैंड में जा सकती है। मैतेई और कुकी ये दोनों समुदाय मणिपुर के इलाकों का नगालिम में विलय का विरोध करते हैं।

नगा संघर्ष की पृष्ठभूमि 

  • 826: ब्रिटिश द्वारा असम को अपने राज्य में मिला लिया गया।
  • 1881: नगा हिल्स ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना।।
  • 1918:  प्रतिरोध का पहला चिह्न; 'नगा क्लब' का गठन हुआ।
  • 1929: नगा क्लब द्वारा साइमन कमीशन से कहा गया कि वे स्वतंत्र रहना चाहते हैं।
  • 1946: फिजो के नेतृत्व में नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) का गठन किया गया।
  • 1947: नगालैंड एक स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया। एनएनसी ने  'संप्रभु नगा राज्य' की मांग  और मज़बूती से रखी।
  • 1951: एनएनसी ने एक 'जनमत संग्रह' कराया, जिसमें 99% प्रतिशत लोगों ने ‘स्वतंत्र नगालैंड’ का समर्थन किया।
  • 1952: फिजो ने एक भूमिगत संघीय नगा सरकार (Naga Federal Government) और नगा फेडरल आर्मी बनाई।
  • 1952: भारत सरकार ने विद्रोह को कुचलने के लिये सेना को भेजा।
  • 1958: नगालैंड अफस्पा लागू किया गया।

नगालैंड में स्वतंत्रता के समय से ही अलगाववादी शक्तियाँ हावी रही हैं। उपरोक्त घटनाक्रम के अलावा 1980 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ने अलग होने की मांग को लेकर सशस्त्र आंदोलन छेड़ा था। 1988 में इसमें मतभेद उत्पन्न हो गए और एक गुट एनएससीएन (आईएम) व दूसरा एनएससीएन (के) कहलाने लगा। इन दोनों गुटों के बीच हिंसक संघर्ष चलता रहता है, जबकि दोनों ने ही केंद्र सरकार के साथ शांति समझौता कर रखा है। आईएम गुट ने 1997 में शांति समझौता किया और खपलांग गुट ने 2010 में उनका अनुसरण किया।

बहुत पुराना है समझौते का इतिहास
शांति-सुलह का सर्वप्रथम प्रयास जून 1947 में हुआ था, जब भारत सरकार व नगा विद्रोही नगा हिल्स में एक अंतरिम प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना को लेकर सहमत हुए थे। लेकिन यह व्यवस्था एक विवादास्पद सूत्र के चलते नहीं चल पाई, इसमें यह प्रावधान था कि भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर असम के राज्यपाल के पास 10 साल तक यह विशेष ज़िम्मेदारी होगी कि इस समझौते को लागू कराएँ। समय-सीमा के खत्म होने पर पर एनएनसी से यह पूछा जाएगा कि क्या उसे यह समझौता एक निश्चित समय के लिये बढ़ाना है या नगा लोगों के भविष्य को लेकर उसकी सहमति से फिर एक समझौता होगा। समझौते का यह सूत्र अस्पष्ट था, क्योंकि अलग-अलग लोगों के लिये इसका अलग-अलग मतलब निकलता था। जैसे ही 10 साल पूरे हुए, नगा विद्रोहियों ने इसकी व्याख्या अपनी आज़ादी के अधिकार के रूप में की, जबकि सरकार ने इसे कानून के अंतर्गत प्रशासनिक बदलाव के लिये सिर्फ सलाह का अधिकार बताया। 

1951 में हुआ था जनमत संग्रह
अंगमी जपू फिजो ने नगाओं के संघर्ष को धार देने के लिये नगा नेशनल काउंसिल का गठन किया जिसका उद्देश्य अलग नगा राष्ट्र कायम करना था। जून 1947 में इसका अंग्रेज़ों से 9-सूत्री समझौता हुआ, लेकिन इसका विरोध भी हुआ। अंग्रेज़ों के शासन के अंतिम दिन 14 अगस्त, 1947 को नगा नेशनल काउंसिल ने नगालैंड को स्वतंत्रता घोषित कर दिया। इसने मई 1951 में दावा किया कि अलग नागालैंड के लिये उसके द्वारा कराए गए जनमत संग्रह में 99% लोग उसके साथ
 है। भारत सरकार ने 1952 में जब यह दावा खारिज़ कर दिया, तो नगाओं ने भारत के खिलाफ छापामार युद्ध शुरू कर दिया, जिसे सरकार ने दबा दिया। बाद में फिजो लंदन भाग गया और वहीं से अपनी मृत्युपर्यंत विद्रोह को हवा देता रहा।

(टीम दृष्टि इनपुट)

  • संविधान के छठे अनुच्छेद के तहत भारत सरकार सीमित स्वायत्तता देने को तैयार थी, जिसे नगा विद्रोहियों ने खारिज कर दिया। उन्होंने 1951-52 के पहले आम चुनाव का बहिष्कार किया, जिससे आने वाले साल में एनएनसी पर प्रतिबंध लगा। 
  • असम अशांत क्षेत्र अधिनियम, 1955 को लागू करने के साथ ही 1956 में नगा हिल को 'अशांत क्षेत्र' घोषित कर दिया गया। 
  • बाद में, सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून, 1958 को इसकी जगह लाया गया। इसमें सशस्त्र बल के जवानों को 'अशांत क्षेत्र' में कार्रवाई के लिये 'कुछ विशेषाधिकार' मिले हुए हैं।

1957 में नगा पीपुल्स कन्वेंशन (एनपीसी) के तहत एक बड़ी राजनीतिक इकाई के गठन का प्रस्ताव सामने आया, जिसमें नगा हिल के ज़िले और तब की नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी के त्वेनसांग मंडल को शामिल करने का प्रस्ताव था। केंद्र सरकार ने इसे सहज स्वीकार कर लिया और इस तरह से नगा हिल्स-त्वेनसांग क्षेत्र का गठन हुआ। बाद में, एनपीसी ने एक अलग राज्य की प्रस्तावना रखी। इसे भी स्वीकार किया गया। इसे 1960 का 16-सूत्री समझौता कहा गया। 1963 में नगा हिल्स-त्वेनसांग क्षेत्र एक राज्य बना। लेकिन इसके बाद भी नगा नेशनल काउंसिल ने अपना  आंदोलन को जारी रखा, क्योंकि वे 'भारत नियंत्रित नगालैंड' के विरुद्ध थे।

शिलांग समझौता
इसके बाद नगालैंड में दो सरकारों के गिरने से 1970 के दशक में राजनीतिक अस्थिरता आ गई और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा। इसी दौरान एक और समझौता हुआ, जिसे शिलांग समझौता कहा जाता है। 1975 में एनएनसी गुट की तरफ से छह नेताओं और भारत सरकार के प्रतिनिधि एल.पी. सिंह के बीच यह समझौता हुआ। ये छह नेता संविधान मानने और हथियार छोड़ने को सहमत हुए। इस पर भी सहमति बनी कि अन्य विवादास्पद मुद्दों को सुलझाने के लिये उन्हें पर्याप्त समय दिया जाएगा। लेकिन दूसरे एनएनसी गुट ने इस समझौते को मानने से इनकार  कर दिया। 

शिलांग समझौते के विरोध में एनएनसी से जु इसाक चिशी स्वू, टी. मुइवा और एस.एस. खपलांग ने एनएनसी से नाता तोड़कर होकर 1 जनवरी, 1980 को एनएससीएन का गठन किया था, लेकिन बाद में एक बार फिर भारत सरकार से बातचीत के मुद्दे पर इस संगठन में दरार पड़ गई और खपलांग ने 30 अप्रैल, 1988 को अपना अलग गुट बना लिया। अब ये दोनों संगठन पूर्वोत्तर में असम, मणिपुर व अरुणाचल प्रदेश के नगाबहुल इलाकों को लेकर ग्रेटर नगालैंड या नगालिम के गठन की मांग करते रहे हैं।

(टीम दृष्टि इनपुट)

क्या कहते हैं ग्रेटर नगालिम के पक्षधर?

  • नगालैंड कहता रहा है कि ‘16-पॉइंट एग्रीमेंट’ में यह बात शामिल है कि नगा क्षेत्रों को वापस नगालैंड को लौटा दिया जाएगा। विदित हो कि इस समझौते के तहत 1960 में नगालैंड भारत का राज्य बना था।
  • असम कहता है कि नगालैंड द्वारा उसके भू-भाग में अतिक्रमण किये जाते हैं, जबकि नगालैंड का तर्क यह है कि ऐतिहासिक तौर पर नगाओं की भूमि असम के कब्ज़े में है। असम और नगालैंड के बीच सीमा विवाद को लेकर हिंसा होती रहती है जिसमें सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं।
  • मणिपुर का जहाँ तक सवाल है तो वहाँ घाटी में रहने वाली आबादी पहाड़ी आबादी की तुलना में ज़्यादा है। नगा जनजातियाँ ईसाई धर्म को मानती हैं तो घाटी में रहने वाले अधिकतर लोग हिंदू हैं जो मैतेयी समुदाय के हैं। पहाड़ों पर रहने वाली नगा जनजातियों और मैतेयी समुदाय के बीच व्याप्त अविश्वास कई बार हिंसा का रूप ले चुका है।

ग्रेटर नगालिम के विरोधियों का पक्ष

  • यदि असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों के भौगोलिक एकीकरण को मंज़ूरी दी गई तो यहाँ सांप्रदायिक संघर्ष आरंभ हो सकता है।
  • नगालिम के गठन से राष्ट्रीय एकता और अखंडता को चोट तो पहुँचेगी ही, साथ में राज्यों की परियोजनाओं और योजनाओं को आगे बढ़ाने में बाधाएँ भी आ सकती हैं।
  • यदि नगालिम के गठन की मांग मान ली जाती है तो यह देश के अन्य राज्यों को भौगोलिक एकीकरण की मांग करने के लिये प्रोत्साहित करने का भी काम करेगा।
  • नगा विद्रोह को खत्म करने के लिये कोई भी समाधान नगालैंड राज्य तक ही सीमित नहीं होना चाहिये, बल्कि अन्य राज्यों की चिंताओं को भी ध्यान में रखना चाहिये।
  • केंद्र को किसी विशेष समुदाय को 'व्यवस्थित' करने के प्रयास नहीं करने चाहिये, क्योंकि नगालैंड की सीमा से लगे राज्य मणिपुर में 30 से अधिक विभिन्न जातीय समूह निवास करते हैं। किसी एक समुदाय को महत्त्व देना भी हिंसा बढ़ाने का काम करेगा।

बेहद संवेदनशील है मुद्दा
शांति प्रक्रिया जिस तरीके से आगे बढ़ रही है उसके मद्देनज़र नगा समस्या का समाधान दिखाई तो देता है, लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि जब तक राज्य की ज़मीनी हकीकत में बदलाव नहीं आता, तब तक इलाके में शांति बहाल होना संभव नहीं है। सबसे बड़ी बाधा वही है, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। नगा बहुल इलाकों का एकीकरण नहीं हुआ तो नगा संगठन किसी समझौते को कबूल नहीं करेंगे और यदि ऐसा किया गया तो पड़ोसी राज्यों में हिंसा फैलने का अंदेशा है। 

इसके अलावा नगाओं के लिये अलग संविधान की मांग पर भी सहमति नहीं बनी है। नगा नेताओं का कहना है कि अलग संविधान की मांग पर कोई समझौता नहीं हो सकता। नगा लोग कभी भारतीय संविधान स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि नगा हितों की सुरक्षा के लिये अलग संविधान ज़रूरी है। 
ऐसे में केंद्र सरकार के सामने आगे कुआँ पीछे खाई वाली स्थिति बनी हुई है, जबकि इन चारों ही राज्यों में भाजपा सरकार में शामिल है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

1997 से चल रही है बातचीत 
यह संगठन इलाके के उन कई संगठनों में शामिल है जो चीन, म्यांमार, बांग्लादेश और भूटान से लगी सीमा के क्षेत्रों में सक्रिय हैं। ग्रेटर नगालिम की मांग को लेकर एनएससीएन-आईएम नगा होमलैंड की मांग करता रहा है जिसमें पूर्वोत्तर के कई राज्यों के इलाकों के अलावा पड़ोसी म्यांमार के कुछ इलाके भी शामिल होंगे। यह संगठन 1997 से भारत सरकार के साथ बातचीत कर रहा है। 

हालिया समझौता
अगस्त 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में भारत सरकार और नगाओं के प्रतिनिधियों के बीच एक नए समझौते पर हस्ताक्षर हुए। समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले विद्रोही नगा नेता थे टी. मुइवा, जो ‘स्वतंत्र संप्रभु ग्रेटर नगालिम राष्ट्र’ (राज्य नहीं) की मांग को लेकर भारत की आजादी के समय से ही हिंसक संघर्ष चला रहे हैं। नगालैंड में इनकी अपनी भूमिगत ‘संघीय नगालिम सरकार’ है और वह इसके स्वयंभू प्रधानमंत्री हैं। वह नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (एनएससीएन) के महासचिव हैं तथा इसके संस्थापक इशाक चिशी स्वू अध्यक्ष हैं, जो अपनी ‘सरकार’ के स्वयंभू राष्ट्रपति भी हैं। 1997 में भारत सरकार से हुए संघर्ष विराम समझौते के बाद से 80 दौर की बेनतीजा वार्ताओं में भी ये नगा नेता ने अपने को इसी रूप में पेश करते रहे हैं। नगालैंड में स्थिति यह है कि ‘नगालिम सरकार’ बाकायदा टैक्स वसूलती है और उसकी अपनी ‘पुलिस’ भी है।

क्यों लागू नहीं हो पाता नगा शांति समझौता
नगा संगठनों को सरकार बता चुकी है कि उनकी मांगों का समाधान नगालैंड की सीमा के भीतर ही होगा और इसके लिये पड़ोसी राज्यों की सीमाओं को बदलने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। असम सरकार कहती रही है कि किसी भी कीमत पर राज्य का नक्शा नहीं बदलने दिया जाएगा और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा हर हाल में की जाएगी। मणिपुर की सरकार का यह मत रहा है कि नगा समस्या के समाधान से राज्य की शांति भंग नहीं होनी चाहिये। अरुणाचल प्रदेश सरकार ने भी साफ कर दिया है कि उसे ऐसा कोई समझौता मंजूर नहीं होगा जिससे राज्य की सीमा प्रभावित हो। दूसरी ओर, क्षेत्रीय एकीकरण अर्थात् नगा इलाकों का एकीकरण नहीं होने की स्थिति में नगा विद्रोही गुट किसी प्रकार का समझौता करने के इच्छुक नहीं हैं। विभिन्न नगा समूहों में तीखे मतभेद भी रहे हैं, इसलिये किसी समझौते को आगे बढ़ाने में कठिनाई आती है, अतीत में बार-बार ऐसा देखने को मिला है। इसके अलावा पूर्वोत्तर राज्यों में नगा-बहुल क्षेत्रों को एक करने की मांग को दूसरे समुदायों से चुनौती मिल सकती है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: नगालैंड में देश की आज़ादी के बाद से विद्रोह और समझौते, दोनों की ही कोशिशें लगातार चलती रही हैं। आज़ादी के तुरंत बाद स्वतंत्र नगालैंड बनाने की मांग पर नगाओं ने भारत सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया था और तभी से कई विद्रोही गुट सक्रिय हैं। इनसे निपटने के लिये केंद्र सरकार कभी सियासी सुलह का रास्ता पकडती है, तो कभी सैन्य बलों का इस्तेमाल किया जाता है और कभी विकास कार्यक्रमों के ज़रिये इस समस्या को सुलझाने के असफल प्रयास भी चलते रहते  हैं।

भारत के पूर्वोत्तर में स्थित नगा समुदाय एवं नगा संगठन नगा बहुल इलाकों को लेकर एक ग्रेटर नगालिम राज्य बनाने की लंबे समय से मांग करते रहे हैं। इस विषय पर उनकी केंद्र सरकार से कई दौर की बातचीत भी हो चुकी है। साथ ही नगा नेता प्राय: इस बात पर भी ज़ोर देते रहे हैं कि नगाओं का गौरवशाली इतिहास रहा है, कि वे कभी किसी के अधीन नहीं रहे, इसलिये कोई सम्मानजनक समझौता तभी होगा जब भारत सरकार इस बात को नज़रअंदाज़ न करे। नगा संगठन के स्थायी शांति समझौते की प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती रही है, लेकिन इसके लिये कोई समय-सीमा नहीं तय की गई है, जो कि मौजूदा हालात में संभव भी नहीं है। केंद्र सरकार इस समझौते को अंतिम स्वरूप देने से पहले सभी प्रमुख नगा संगठनों की राय जानना चाहती है, क्योंकि इसके बिना कोई भी समाधान स्थायी नहीं हो सकता।

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