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संसद टीवी संवाद

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

कितना आवश्यक है पेरिस समझौता?

  • 12 Jun 2017
  • 11 min read

सन्दर्भ
अमेरिका के पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते से पीछे हटने के बाद दुनिया भर में उसकी आलोचना हो रही है। जानकारों का कहना है कि ऐसे में विश्व समुदाय के सामने जलवायु परिवर्तन के खतरे से लड़ने की चुनौती बढ़ गई है। इसमें सभी पक्षों की अपनी-अपनी राय है। अब, यहाँ कई तरह के सवाल उठते हैं, जैसे कि क्या इस समझौते से अमेरिका का बाहर होना इसे मज़बूत करने का एक अवसर हो सकता है, या फिर इससे निपटने का कोई और उदारवादी तरीका भी हो सकता है? इस लेख में इसी मुद्दे के पक्ष और विपक्ष के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है, तथा उसकी  एक निष्पक्ष राय भी दी गई है।

वाद

  • अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति चुनाव से पहले जलवायु परिवर्तन समझौते को छलावा कहा था। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद वे जलवायु परिवर्तन विरोधी नीति का अनुपालन कर रहे हैं। ध्यातव्य है कि पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को अमेरिका द्वारा अपनी सुविधा के मुताबिक तैयार किया गया था। चूँकि वह जलवायु परिवर्तन से निपटने का पूरा उत्तरदायित्त्व अपने ऊपर नहीं लेना चाहता था, इसलिये उसने सोच-समझकर एक ऐसा कमज़ोर मसौदा तैयार किया था जो स्वैच्छिक, वैधानिक रूप से अबाध्यकारी तथा गैर-दंडात्मक प्रकृति का था। ऐसा इसलिये किया गया, क्योंकि बराक ओबामा इसे सीनेट से पारित नहीं करवाना चाहते थे। 
  • हालाँकि, कुछ लोगों का कहना है कि अगर डोनाल्ड ट्रंप की जगह अमेरिका का राष्ट्रपति कोइ और बनता तो शायद ऐसी स्थिति न बनती। लेकिन, हमें यह ध्यान रखना होगा कि अमेरिका का राष्ट्रपति चाहे कोई भी बनता, वह जलवायु परिवर्तन की समस्या को कम करने के लिये बहुत ठोस कार्य नहीं करता। चाहे डेमोक्रेट्स हों या रिपब्लिकन्स, अमेरिका का कोई भी पक्ष जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में वैश्विक समुदाय के साथ अपने उत्तरदायित्त्व का उचित एवं समान हिस्सा नहीं लेना चाहता है। दरअसल, अमेरिकियों की यह धारणा है कि जलवायु परिवर्तन पर वार्ता करना अमेरिकी जीवन-शैली पर वार्ता करने के बराबर है। यही कारण है कि जिस तरह बिल क्लिंटन की क्योटो संधि को जॉर्ज बुश ने नहीं माना, उसी तरह ओबामा के पेरिस समझौते को ट्रंप ने स्वीकार नहीं किया।
  • ऐतिहासिक तौर पर पर्यावरण प्रदूषण के लिये अमेरिका सबसे अधिक ज़िम्मेवार देश रहा है और वर्तमान में भी वह विश्व का दूसरा सबसे बड़ा प्रदूषक देश है। बिना अमेरिका के पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करना मुश्किल होगा। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि हमें आगे बढ़कर इस बोझ को साझा कर लेना चाहिये, परन्तु यह समस्या को देखने का साधारण तरीका है। चाहे कोई भी देश हो, जब तक वह अपनी जीवन-शैली को सुधार नहीं लेता, तब तक जलवायु परिवर्तन से जीतना संभव नहीं है।
  • हालाँकि, ट्रंप के इस निर्णय का एक अनैच्छिक परिणाम यह है कि इसने इस मुद्दे पर विश्व को एक कर दिया है जो इस कमज़ोर समझौते को मज़बूत करने का एक सुअवसर है। अमेरिका को अलग-थलग कर  अथवा मौजूदा समझौते को ही और अधिक कठोर एवं महत्त्वाकांक्षी बनाकर भी ऐसा किया जा सकता है। इसमें ऐसे प्रावधान जोड़े जा सकते हैं, ताकि कोई भी देश अपनी ज़िम्मेवारियों से पीछे न हट सके।  जब 1992 में UNFCCC पर हस्ताक्षर हुए थे, तब से अमेरिका ने अनुचित व्यवहार किया है, स्वयं कार्य करने की बजाय दूसरों पर उंगलियाँ उठता रहा है। उसके इसी व्यवहार का परिणाम है कि आज  दुनिया नाज़ुक मोड़ पर आ गई है। अतः सभी देशों को एकजुट होना पड़ेगा।   

प्रतिवाद

  • एक दृष्टि से देखें तो ट्रंप का निर्णय सही है। दरअसल, उनके इस निर्णय से फिलहाल वैश्विक तापमान में वृद्धि नहीं होने जा रही है, बल्कि अल्प-अवधि में राजनितिक और आर्थिक स्वतंत्रता अवश्य कमज़ोर होगी, साथ ही अमेरिका में उत्पन्न संरक्षणवाद एवं राष्ट्रवाद का रोग दुनिया के अन्य देशों में भी फैलेगा। दरअसल, राज्य अब तक अपने शक्ति के बल पर नागरिकों को उनके आचरण के लिये अनुशासित करते रहे हैं, ट्रंप उसके विपरीत दिशा में चलना चाहते हैं।
  • प्रदूषण कोई जानबूझकर नहीं करता है। यह अज्ञानता के कारण फैलता है। उदाहरण के लिये, आज सबसे अधिक वाहन प्रदूषण या  ट्रैफिक जाम की समस्या उन विकासशील  देशों में है, जहाँ विकसित देशों की तुलना में वाहन कम हैं, जैसे भारत, चीन इत्यादि। क्यों? क्योंकि यह सरकारों एवं नियामकों की विफलता का परिणाम है, जो बदलती आर्थिक हकीकतों तथा तकनीकी संभावनाओं के अनुरूप स्वयं को ढाल नहीं पाए हैं। 
  • यदि बाज़ार को मौका मिला होता तो वह प्रदूषण और उत्सर्जन जैसे कारकों को कम करने एवं उनकी गुणवत्ता को उन्नत बनाने का कार्य करता। पर्यावरण की गुणवत्ता मूल्य-वर्द्धित उत्पाद की तरह होती है। लोग जैसे–जैसे अमीर होते जाते हैं, पर्यावरण उनके लिये उतना ही वहनीय होता जाता है। भारत और चीन ने अपने बाज़ारों को प्रतिस्पर्द्धा के लिये खोलकर ही अपनी ऊर्जा दक्षता को बढ़ाया है न कि इसके लिये कोई लक्ष्य तय करके। मुक्त बाज़ार व्यवस्था के कारण ही आज हम सामान्य बल्ब से CFL और LED के दौर में आ पहुँचे हैं। 
  • लोग गरीबी के कारण प्राकृतिक आपदा के प्रति अधिक सुभेद्द (vulnerable) होते हैं। मुक्त एवं प्रतिस्पर्द्धी बाज़ार व्यवस्था उनको इस दुर्दशा से निकालकर सुरक्षित एवं बेहतर जीवन प्रदान कर सकती है।
  • आज से हज़ारों साल पहले तक कोयले का तथा 150 साल पहले तक पेट्रोल का कोई उपयोग नहीं था, परन्तु आज आवश्यकताओं ने इनके उपयोग को कितना बढ़ा दिया है, हो सकता कल इसका भी कोई अन्य विकल्प आ जाए। इतने बड़े बदलाव आर्थिक योजनाकार नहीं करते बल्कि बाज़ार के अदृश्य हाथ ही करते हैं। बाज़ार व्यवस्था स्वयं नई चीज़ों को बनाती और पुरानी चीज़ों को हटा देती है।
  • इस तरह संपत्ति का अधिकार, कानून का शासन एवं मुक्त बाज़ार व्यवस्था एक प्रतिस्पर्द्धी वातावरण तैयार कर पर्यावरण को स्वच्छ रखने में योगदान देते हैं। भारत को पेरिस की ओर भागने व नए लक्ष्यों को तय करने की बजाय उद्यमशीलता तथा मुक्त व्यापार को महत्त्व देना चाहिये।

संवाद

  • अगर हम तटस्थ हो कर अवलोकन करें तो ट्रंप का निर्णय पेरिस समझौते के लिये एक गहरा झटका है। यह एक गंभीर खतरे को अनदेखा करने जैसा है। 1997 में क्योटो संधि को अस्वीकार करने के बाद एक नए समझौते तक पहुँचने में दुनिया को 18 वर्ष लग गए। ट्रंप का यह कदम निष्क्रियता तथा डोमिनो प्रभाव उत्पन्न कर सकता है। फलस्वरूप यू.के., ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, रूस इत्यादि देश इस राह पर चल सकते हैं। इसके कूटनीतिक परिणाम तो होंगे ही, अमेरिका को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
  • पेरिस समझौते में इस समस्या से निपटने के लिये सामूहिक प्रयास की जगह स्वैच्छिक कार्य की बात कही गई है। हालाँकि, विकसित देशों के लिये कुछ बाध्यकारी प्रतिबद्धताएँ तय की गई थीं। वैसे तो इस समझौते में पहले से ही अनेक कमियाँ थी, और अब ट्रंप के निर्णय से तापमान को औद्योगीकरण से पूर्व के स्तर से 2 डिग्री से ज़्यादा न बढ़ने देने के लक्ष्य को हासिल करना और भी कठिन होगा। विश्व के सबसे बड़े प्रदूषण उत्सर्जनकर्त्ता को समझौते से बाहर करने इसके लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। 
  • इसका प्रभाव भारत और जी-77 देशों के विकास पर पड़ेगा। जो लोग बाज़ार की पैरवी करते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि धरती को व्यवसाइयों के दान-दक्षिणा (जैसा कि एक अरबपति व्यवसायी-राजनेता माइकल ब्लूमबर्ग ने अपनी अकूत संपत्ति का कुछ हिस्सा जलवायु कार्यों में दान करने की घोषणा की है) से नहीं बचाया जा सकता, बल्कि इसके लिये सामूहिक प्रयासों की ज़रूरत है।

निष्कर्ष 
पृथ्वी के भविष्य को मात्र नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता, बल्कि सभी देशों को मिलकर कुछ ठोस एवं प्रभावी कदम उठाने होंगे।

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