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भारतीय राजव्यवस्था

समान नागरिक संहिता: विधिक एकरूपता बनाम सामाजिक बहुलता

  • 19 Dec 2025
  • 133 min read

यह एडिटोरियल 17/12/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Uttarakhand Governor returns UCC and religious conversion amendment Bills” लेख पर आधारित है। लेख में राज्यों द्वारा UCC को अपनाकर समान व्यक्तिगत कानून उपलब्ध कराने के प्रयासों को दर्शाया गया है। यह संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के विरुद्ध है।

प्रिलिम्स के लिये: समान नागरिक संहिता (UCC), राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (DPSP), मूल अधिकार, तीन तलाक, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत), पंथनिरपेक्षता, संवैधानिक नैतिकता

मेन्स के लिये: समान नागरिक संहिता की आवश्यकता, लैंगिक न्याय, व्यक्तिगत कानून

उत्तराखंड के राज्यपाल ने तकनीकी तथा दंडात्मक विसंगतियों का हवाला देते हुए समान नागरिक संहिता एवं धार्मिक रूपांतरण संशोधन विधेयकों को वापस कर दिया है और इनके पुनः प्रारूपण तथा नये सिरे से विधायी अनुमोदन की आवश्यकता बताई है। राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के अनुच्छेद 44 के तहत परिकल्पित समान नागरिक संहिता का उद्देश्य विवाह, तलाक, विरासत, दत्तक ग्रहण और उत्तराधिकार को नियंत्रित करने वाले विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों को एक समान नागरिक कानूनों से प्रतिस्थापित करना है। कानून के समक्ष समानता और लैंगिक न्याय के आदर्शों पर आधारित, UCC धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक विविधता और संघवाद से संबंधित चिंताओं के कारण सबसे अधिक चर्चित संवैधानिक लक्ष्यों में से एक बना हुआ है। हाल के घटनाक्रमों ने इस बहस को पुनः जीवित कर दिया है, जिससे यह आकलन करने की आवश्यकता रेखांकित होती है कि क्या एकरूपता की खोज संवैधानिक मूल्यों को सुदृढ़ करती है या भारत के बहुलवादी संरचना को कमज़ोर करने का जोखिम उत्पन्न करती है। 

भारत में एक समान नागरिक संहिता को अपनाने की आवश्यकता क्यों है?

  • लैंगिक न्याय और महिलाओं के अधिकारों को आगे बढ़ाना: कई व्यक्तिगत कानूनों में अभी भी ऐसे प्रावधान मौजूद हैं जो विरासत, तलाक, भरण-पोषण, अभिभावकत्व और दत्तक ग्रहण के मामलों में महिलाओं को प्रतिकूल स्थिति में रखते हैं।
    • उदाहरण के लिये, असमान उत्तराधिकार अधिकार, एकतरफा तलाक या सीमित भरण-पोषण जैसी प्रथाओं ने ऐतिहासिक रूप से सभी समुदायों की महिलाओं को प्रभावित किया है। शाह बानो मामले (1985) जैसे न्यायिक हस्तक्षेपों ने इन असमानताओं एवं सुधार की आवश्यकता को उजागर किया है। 
    • एक समान नागरिक संहिता लैंगिक-तटस्थ विधिक संरचना प्रदान कर सकती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि नागरिक अधिकार धार्मिक पहचान के बजाय नागरिकता से प्राप्त होते हैं। 
      • गोवा की नागरिक संहिता जैसे राज्य स्तरीय कानून यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार एकसमान व्यक्तिगत कानून धार्मिक स्वतंत्रता के साथ-साथ मौजूद रह सकते हैं, साथ ही महिलाओं के लिये अपेक्षाकृत समान अधिकारों को सुनिश्चित कर सकते हैं।
  • विधि के समक्ष समानता को बनाए रखना: विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों का सहअस्तित्व नागरिकों के साथ केवल धर्म या समुदाय के आधार पर भिन्न विधिक व्यवहार को जन्म देता है, जो संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत समानता के सिद्धांत पर प्रश्न खड़ा करता है।
    • उदाहरण के लिये, विवाह विच्छेद या उत्तराधिकार जैसी समान नागरिक स्थितियों में व्यक्तियों को उनके धर्म के आधार पर अलग-अलग विधिक मानकों द्वारा शासित किया जाता है। 
    • UCC का उद्देश्य समान नागरिक दायित्वों और अधिकारों को स्थापित करना है, जो इस संवैधानिक सिद्धांत को सुदृढ़ करता है कि सभी नागरिक विधि के समक्ष समान हैं। 
      • सरला मुद्गल (1995) जैसे मामलों में देखी गई न्यायिक व्याख्या के माध्यम से कानूनों का क्रमिक सामंजस्य, इस संवैधानिक आकांक्षा को दर्शाता है।
  • नागरिक न्याय प्रणाली को सरल बनाना: भारत की बहुल व्यक्तिगत विधि व्यवस्था विधिक प्रणाली में जटिलता उत्पन्न करती है, जिसके परिणामस्वरूप दीर्घकालिक मुकदमेबाज़ी, परस्पर विरोधी व्याख्याएँ तथा अधिकार-क्षेत्र संबंधी भ्रम उत्पन्न होते हैं।
    • न्यायालयों को वैधानिक कानून के साथ-साथ धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या करनी होती है, जिससे अस्पष्टता और असंगति की संभावना बढ़ जाती है।
      • वर्तमान में भारत भर में 950 से अधिक कार्यरत पारिवारिक न्यायालय हैं। अपनी विशिष्ट प्रकृति के बावजूद, नए दायर किये गए मामलों (संस्थाओं) की संख्या प्रायः निपटारे की संख्या से अधिक होती है।
    • एक सामान्य नागरिक संहिता स्पष्ट, पंथनिरपेक्ष और संहिताबद्ध नियमों का एक समूह प्रदान करके नागरिक न्यायनिर्णय को सुव्यवस्थित करेगी, विधिक निश्चितता को बढ़ाएगी एवं न्यायिक बोझ को कम करेगी। 
      • गोवा जैसे राज्यों के अनुभव यह प्रदर्शित करते हैं कि पारिवारिक विधियों का संहिताकरण नागरिकों के लिये अभिगम्यता तथा पूर्वानुमेयता को बेहतर बना सकता है।
  • सामाजिक प्रथाओं पर संवैधानिक नैतिकता को सुदृढ़ करना: UCC संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत में निहित है, जिसके अनुसार कानूनों और शासन को भेदभावपूर्ण रीति-रिवाजों या सामाजिक पदानुक्रमों के बजाय संविधान में निहित मूल्यों द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिये। 
    • कुछ पारंपरिक प्रथाएँ, भले ही वे सांस्कृतिक रूप से कितनी भी गहरी जड़ें जमा चुकी हों, गरिमा, स्वतंत्रता और समानता के संवैधानिक आदर्शों के साथ अंतर्विरोध उत्पन्न कर सकती हैं।
    • व्यक्तिगत अधिकारों और विधिक समता को प्राथमिकता देकर, एक UCC नागरिक कानूनों को संवैधानिक मूल्यों के साथ संरेखित करने का प्रयास करता है। 
      • सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि जब सामाजिक प्रथाएँ मूल अधिकारों का उल्लंघन करती हैं, तो संवैधानिक नैतिकता को ही प्राथमिकता मिलनी चाहिये।

भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने में प्रमुख चिंताएँ क्या हैं?

  • धार्मिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक स्वायत्तता के बीच असंगतता: भारत में व्यक्तिगत कानून धार्मिक मान्यताओं, अनुष्ठानों और सांस्कृतिक पहचान से गहराई से जुड़े हुए हैं। कई समुदायों के लिये विवाह, विरासत और उत्तराधिकार जैसे मामले केवल विधि व्यवस्थाएँ नहीं हैं, बल्कि आस्था एवं परंपरा की अभिव्यक्ति हैं।
    • अतः, एक कठोर या जल्दबाज़ी में लागू की गई समान नागरिक संहिता को संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के रूप में देखा जा सकता है, जो सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता एवं स्वास्थ्य की सीमाओं के अधीन धर्म को मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने का अधिकार सुनिश्चित करता है।
    • न्यायिक निर्णयों, जिनमें शिरूर मठ (1954) जैसे मामलों में की गई टिप्पणियाँ शामिल हैं, ने आवश्यक धार्मिक प्रथाओं का सम्मान करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है, जो व्यक्तिगत कानूनों में सुधार में शामिल संवैधानिक संवेदनशीलता को रेखांकित करता है।
  • समुदायों के भीतर और उनके बीच रीति-रिवाजों की विविधता: भारत की सामाजिक विविधता धर्मों के बीच के अंतर से कहीं अधिक व्यापक है; समुदायों के भीतर क्षेत्रों, जातियों और जनजातियों के बीच महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ मौजूद हैं। 
    • उदाहरण के लिये, जनजातीय समुदायों में प्रचलित उत्तराधिकार प्रथाएँ संहिताबद्ध व्यक्तिगत कानूनों से काफी भिन्न होती हैं। 
      • यद्यपि भारत का अधिकांश भाग हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत पितृसत्तात्मक उत्तराधिकार प्रणाली का पालन करता है, वहीं मेघालय की खासी, जयंतिया और गारो जनजातियों में मातृवंशीय प्रणाली विद्यमान है।
      • खासियों में पैतृक संपत्ति सबसे छोटी पुत्री (Ka Khadduh) को प्राप्त होती है, जो संहिताबद्ध हिंदू विधि की पितृसत्तात्मक संरचना से बिल्कुल विपरीत है, जिसमें पुत्रियों को समान उत्तराधिकार अधिकार केवल वर्ष 2005 में प्राप्त हुए।
    • चूँकि परिवार और विवाह समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं, इसलिये राज्यों ने इनके नियमन में लचीलापन दिखाया है। हालाँकि गोवा की नागरिक संहिता जैसी राज्य स्तरीय पहल विकेंद्रीकृत सुधार की क्षमता को दर्शाती हैं, वहीं UCC को असमान रूप से अपनाने से राष्ट्रीय एकरूपता और भारत की संघीय एवं सांस्कृतिक विविधता के बीच संतुलन बनाए रखने को लेकर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
    • एक ही तरीका सब पर लागू करने से इन सामाजिक वास्तविकताओं को नजरअंदाज़ करने का खतरा रहता है, जिससे प्रतिरोध और असमान कार्यान्वयन हो सकता है। 
  • बहुसंख्यक पूर्वाग्रह और अल्पसंख्यक विश्वास की कमी की धारणा: समान नागरिक संहिता को लेकर एक स्थायी चिंता यह है कि कहीं यह बहुसंख्यक समुदाय की मान्यताओं और प्रथाओं को ही सामान्य मानक के रूप में न स्थापित कर दे, जिससे अल्पसंख्यक परंपराएँ हाशिये पर चली जाएँ।
    • शाह बानो मामले (1985) के बाद हुई बहसों सहित पिछली बहसों से पता चलता है कि यदि आम सहमति बनाने के साथ व्यक्तिगत कानून सुधार नहीं किया जाता है, तो यह राजनीतिक रूप से ध्रुवीकरण का कारण बन सकता है।
      • पन्नालाल बंसीलाल बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1996) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि समान नागरिक संहिता को क्रमिक और टुकड़ों में लागू किया जाना चाहिये, क्योंकि सामाजिक एकरूपता को बिना व्यापक सहमति के अचानक थोपना संभव नहीं है।
    • यदि समाज के कुछ वर्ग UCC को संवैधानिक समानता के बजाय सांस्कृतिक वर्चस्व के साधन के रूप में देखते हैं, तो इससे सामाजिक विश्वास और एकता को क्षति पहुँच सकती है। इसलिये UCC की वैधता तटस्थ प्रारूपण, समावेशी परामर्श और पारदर्शिता पर अत्यंत निर्भर करती है। 
  • कानूनी और प्रशासनिक जटिलता: हज़ारों असंहिताबद्ध और संहिताबद्ध व्यक्तिगत विधियों को एक ही ढाँचे में समाहित करना अपने आप में एक विशाल विधायी समस्या है। भारत में 700 से अधिक मान्यता प्राप्त जनजातियों एवं अनेक उप-संप्रदायों की सभी प्रथाओं का कोई केंद्रीकृत डेटाबेस उपलब्ध नहीं है।
    • विवाह और तलाक से आगे बढ़कर समान नागरिक संहिता को कराधान (जैसे: हिंदू अविभाजित परिवार या HUF की स्थिति), दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण जैसे जटिल विषयों को भी हल करना होगा।
      • उदाहरण के तौर पर, हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) का दर्जा समाप्त करने से राजस्व विभाग एवं लाखों नागरिकों की वित्तीय योजना पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।
  • LGBTQ+ अधिकारों और नॉन-बाइनरी मान्यता पर प्रभाव: एक प्रमुख आधुनिक चिंता यह है कि क्या UCC वास्तव में प्रगतिशील होगा या केवल एकसमान। वर्तमान व्यक्तिगत कानून लगभग पूरी तरह से नॉन-बाइनरी हैं, जिनमें पति और पत्नी की अवधारणा ही केंद्र में रहती है।
    • ऐसी आशंका है कि UCC सभी धर्मों में एक विषमलैंगिक मानक (Heteronormative – एक पुरुष, एक महिला) को संहिताबद्ध कर सकता है, जिससे समलैंगिक विवाह या नॉन-बाइनरी लैंगिक पहचान को मान्यता देने का अवसर खो सकता है।
    • यदि UCC को राजनीतिक सहमति प्राप्त करने के लिये पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों के आधार पर तैयार किया जाता है, तो यह विधिक रूप से दशकों तक LGBTQ+ समुदाय के अपवर्जन को स्थायी कर सकता है, जिससे भविष्य में सुधार और भी कठिन हो जाएँगे।

भारत में समान नागरिक संहिता के प्रभावी कार्यान्वयन के लिये क्या रोडमैप होना चाहिये?

  • चरणबद्ध, क्रमिक और परामर्श आधारित सुधार रणनीति का अंगीकरण: भारत को नागरिक कानून सुधार के लिये एक चरणबद्ध दृष्टिकोण अपनाना चाहिये, न कि आकस्मिक या व्यापक रूपांतरण करना चाहिये। प्रारंभिक प्रयासों में वर्तमान व्यक्तिगत कानूनों में मौजूद स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण प्रावधानों, जैसे कि असमान उत्तराधिकार अधिकार या लिंग-आधारित तलाक प्रथाओं को हटाने पर ध्यान दिया जा सकता है।
    • यह भारत के सुधार इतिहास को प्रतिबिंबित करता है, जहाँ क्रमिक हस्तक्षेपों (जैसे: 1950 के दशक के हिंदू संहिता विधेयक) ने समय के साथ सामाजिक स्वीकृति सुनिश्चित की। क्रमिक सुधार प्रतिरोध को कम करता है तथा समाज और संस्थानों को अनुकूलन करने का अवसर प्रदान करता है।
  • धर्म-विशिष्ट एकरूपता के बजाय लैंगिक-तटस्थ नागरिक कानूनों को प्राथमिकता: UCC का मूल उद्देश्य लैंगिक न्याय होना चाहिये, न कि सांस्कृतिक समरूपता। इसलिये सुधार का केंद्र बिंदु लैंगिक-तटस्थ और अधिकार-आधारित नागरिक कानून होने चाहिये, जो धर्म की परवाह किये बिना सभी नागरिकों पर लागू हों। 
    • उदाहरण के लिये, शायरा बानो (2017) मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय दर्शाता है कि किस प्रकार लक्षित न्यायिक हस्तक्षेप संपूर्ण व्यक्तिगत कानून प्रणालियों को निरस्त किये बिना लैंगिक भेदभाव को समाप्त कर सकता है। 
    • यह दृष्टिकोण अनुच्छेद 14 और 15 के साथ सामंजस्य सुनिश्चित करता है, साथ ही धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर चिंताओं को कम करता है।
  • व्यापक हितधारक परामर्श और सामाजिक संवाद को संस्थागत रूप देना: सफल सुधार के लिये समावेशी परामर्श आवश्यक है, विशेष रूप से महिला संगठनों, अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधियों, विधि विशेषज्ञों और नागरिक समाज के साथ। 
    • विश्व स्तर पर कानून सुधार आयोगों के अनुभवों से पता चलता है कि सहभागी विधि निर्माण से वैधता बढ़ती है।
    • भारत में, पारिवारिक विधि सुधारों पर विधि आयोग की परामर्श प्रक्रियाएँ विश्वास एवं सहमति बनाने के लिये एक खाका प्रदान करती हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि सुधार अमूर्त कानूनी आदर्शों के बजाय वास्तविक जीवन की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करते हैं।
  • वर्तमान व्यक्तिगत कानूनों और राज्य मॉडलों से सर्वोत्तम प्रथाओं को संहिताबद्ध करना: भारत सभी प्रणालियों में सर्वश्रेष्ठ दृष्टिकोण अपना सकता है, जिसमें विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों में पहले से मौजूद प्रगतिशील प्रावधानों को चुनिंदा रूप से संहिताबद्ध किया जा सकता है। 
    • उदाहरण के लिये, हिंदू कानून में समान उत्तराधिकार अधिकार, विशेष विवाह अधिनियम के तहत महिलाओं के लिये संरक्षण एवं गोवा की नागरिक संहिता के तत्त्व संदर्भ बिंदु के रूप में काम कर सकते हैं। इस प्रकार का चयनात्मक संहिताकरण इस विचार को पुष्ट करता है कि UCC मौजूदा कानूनों का विकास है, न कि उनका निरसन।
  • संवैधानिक नैतिकता और मूल अधिकारों में ज़मीनी कार्यान्वयन: UCC की ओर कोई भी आंदोलन संवैधानिक नैतिकता में दृढ़ता से निहित होना चाहिये, जैसा कि सबरीमाला (2018) जैसे मामलों में ज़ोर दिया गया है। 
    • इससे यह सुनिश्चित होता है कि व्यक्तिगत गरिमा, समानता और स्वतंत्रता भेदभावपूर्ण रीति-रिवाजों पर सर्वोच्च स्थान प्राप्त करें। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सुधार को राजनीतिक स्वार्थ और चुनावी विचारों से मुक्त रखा जाना चाहिये, जिससे न्यायपालिका के इस सुसंगत रुख को बल मिले कि UCC एक संवैधानिक लक्ष्य है जिसे सैद्धांतिक कानून के माध्यम से सर्वोत्तम रूप से प्राप्त किया जा सकता है।
  • राष्ट्रीय कार्यढाँचे के भीतर राज्य-स्तरीय प्रयोगों को सक्षम बनाना: भारत की संघीय संरचना को देखते हुए, राज्य सुधार की प्रयोगशालाओं के रूप में कार्य कर सकते हैं, राष्ट्रीय संवैधानिक मानकों का पालन करते हुए अपने सामाजिक संदर्भ के अनुकूल सामंजस्यपूर्ण नागरिक कानून प्रावधानों का परीक्षण कर सकते हैं। 
    • यह ज़मीनी स्तर का दृष्टिकोण व्यापक रूप से अपनाने से पहले सफलताओं और चुनौतियों से सीख लेने में सहायक है, जिससे एकरूपता एवं विविधता के बीच संतुलन बना रहता है।

निष्कर्ष:

समान नागरिक संहिता भारत के नागरिक कानूनों में समता, गरिमा और न्याय को सामंजस्य स्थापित करने की संवैधानिक आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करती है। यदि इसे चरणबद्ध, परामर्शपूर्ण और अधिकार-आधारित दृष्टिकोण से लागू किया जाए, तो यह सांस्कृतिक विविधता को नष्ट किये बिना लैंगिक न्याय को बढ़ावा दे सकती है। सामाजिक विश्वास को बनाए रखने के लिये बहुसंख्यकवादी आवेगों के बजाय संवैधानिक नैतिकता पर आधारित सुधार आवश्यक है। एक संतुलित नागरिक संहिता भारत की बहुलतावाद का सम्मान करते हुए विधि के शासन एवं विधिक निश्चितता को सुदृढ़ करेगी। ऐसा करके, यह सतत विकास लक्ष्य 5 (लैंगिक समानता) की प्राप्ति में भी योगदान देगी।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न समान नागरिक संहिता को समानता और लैंगिक न्याय को बढ़ावा देने के लिये एक संवैधानिक साधन के रूप में परिकल्पित किया गया है, फिर भी इसके कार्यान्वयन से धार्मिक स्वतंत्रता एवं बहुलवाद से संबंधित चिंताएँ उत्पन्न होती हैं। समान नागरिक संहिता के अंगीकरण के पीछे संवैधानिक तर्क पर चर्चा कीजिये।

                           

प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न

प्रश्न 1. समान नागरिक संहिता (UCC) क्या है?
समान नागरिक संहिता से तात्पर्य संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत परिकल्पित धर्म की परवाह किये बिना सभी नागरिकों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, दत्तक ग्रहण और उत्तराधिकार को नियंत्रित करने वाले नागरिक कानूनों के एक सामान्य समूह से है।

प्रश्न 2. भारत में UCC को महत्त्वपूर्ण क्यों माना जाता है?
UCC को विधि के समक्ष समता, लैंगिक न्याय और विधिक एकरूपता सुनिश्चित करने के साधन के रूप में देखा जाता है, विशेष रूप से कुछ व्यक्तिगत कानूनों में मौजूद भेदभावपूर्ण प्रावधानों को संबोधित करके।

प्रश्न 3. UCC एक विवादास्पद मुद्दा क्यों बना हुआ है?
इससे धर्म की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25), सांस्कृतिक स्वायत्तता, अल्पसंख्यक अधिकारों और भारत की बहुलवादी सामाजिक संरचना से संबंधित चिंताएँ उत्पन्न होती हैं, जिससे आम सहमति बनाना कठिन हो जाता है।

प्रश्न 4. क्या संविधान UCC को तत्काल लागू करने का आदेश देता है?
नहीं। अनुच्छेद 44 राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का हिस्सा है, जो न्यायोचित नहीं हैं और राज्य को क्रमिक एवं सहमतिपूर्ण सुधार की दिशा में मार्गदर्शन करने के लिये हैं।

प्रश्न 5. भारत में UCC को लागू करने के लिये कौन-सा दृष्टिकोण उपयुक्त माना जाता है?
एक चरणबद्ध, परामर्शपूर्ण और अधिकार-आधारित दृष्टिकोण, जो राजनीतिक सुविधा के बजाय लैंगिक रूप से तटस्थ कानूनों, हितधारकों के परामर्श एवं संवैधानिक नैतिकता पर केंद्रित है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स  

प्रश्न 1. भारतीय संविधान में प्रतिष्ठापित राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों के अंतर्गत निस्नलिखित प्रावधानों पर विचार कीजिये:  (2012)

  1. भारतीय नागरिकों के लिये समान नागरिक (सिविल) संहिता सुरक्षित करना
  2. ग्राम पंचायतों को संगठित करना
  3. ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्दोगों को प्रोत्साहित करना
  4. सभी कर्मकारों के लिये यथोचित अवकाश तथा सांस्कृतिक अवसर सुरक्षित करना

उपर्युक्त में से कौन-से गाँधीवादी सिद्धांत हैं, जो राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में प्रतिबिंबित होते हैं?

(a) केक्ल 1, 2 और 4

(b) केवल 2. और 3

(c) केवल 1, 3 और 4 

(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (b)


मेन्स 

प्रश्न 1. चर्चा कीजिये कि वे कौन-से संभावित कारक हैं जो भारत को राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व में प्रदत्त के अनुसार अपने नागरिकों के लिय समान सिविल संहिता को अभिनियमित करने से रोकते हैं। (2015)

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