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मुद्रास्फीति को काबू में रखने की ज़रूरत

  • 24 Jul 2017
  • 11 min read

किसी अर्थव्यवस्था में इन्फ्लेशन यानी मुद्रास्फीति का महत्त्व रोज़गार सृजन जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों से भी अधिक है, क्योंकि किसी के पास रोज़गार हो या न हो, मुद्रास्फीति सबको प्रभावित करती है। विदित हो कि पिछले माह मुद्रास्फीति की दर 1.5 प्रतिशत रही थी। अब जब मुद्रास्फीति कम हो रही है तो रेपो रेट में कटौती होनी चाहिये, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। दरअसल, रेपो रेट में कटौती न होने के कई कारण हैं। लेकिन उन कारणों पर गौर करने से पहले समझते हैं कि मुद्रास्फीति क्या है और इसे नियंत्रण में रखने के उपाय क्या हैं?

मुद्रास्फीति और इसे नियंत्रण में रखने के उपाय

  • किसी अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति के अधिक होने का मतलब है आवश्यक चीज़ों के दामों में बढ़ोतरी। यह इस बात का संकेत देता है कि महंगाई तेज़ी से बढ़ रही है। बढ़ती हुई मंहगाई को नियंत्रित करने के लिये सरकार और रिज़र्व बैंक समय-समय पर कुछ ऐसे उपाय करते हैं जिससे मुद्रास्फीति की दर को निम्न स्तर पर लाया जा सके।
  • मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिये मुख्य रूप से दो तरीकों को अपनाया जाता है:

1. मौद्रिक नीति।
2. राजकोषीय नीति।

  • पहले बात करते हैं मौद्रिक नीति की। दरअसल, यह मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की सर्वाधिक प्रचलित नीति है। मौद्रिक नीति के ज़रिये मुद्रास्फीति में कमी लाने के लिये मुख्यतः तीन उपाय किये जाते हैं: बैंक दर नीति, कैश रिज़र्व रेश्यो (सीआरआर) और ओपन मार्केट ऑपरेशन्स।
  • वहीं मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के राजकोषीय नीतियों में शामिल है- कराधान, सरकारी खर्चा, पब्लिक बॉरोइंग आदि। इसके अलावा सरकार द्वारा आवश्यक वस्तुओं जैसे दालें, अनाज और तेल आदि के निर्यात पर प्रतिबंध लगा देना, कालाबाज़ारी रोकना भी राजकोषीय नीतियों का हिस्सा हैं।
  • मौद्रिक नीति में सबसे महत्त्वपूर्ण है बैंक दर नीति। यदि आरबीआई चाहता है कि बाज़ार में पैसे की आपूर्ति और तरलता बढ़े तो वह बैंक रेट को कम करेगा, वहीं यदि वह चाहता है कि बाज़ार में पैसे की आपूर्ति और तरलता कम हो तो वह बैंक रेट को बढ़ाएगा। मुद्रास्फीति बढ़ने के दौरान केन्द्रीय बैंक सामान्यतः रेपो रेट बढ़ाएगा और मुद्रास्फीति के कम होने के दौरान कम कर देगा।

रेपो रेट और मुद्रास्फीति में संबंध

  • जैसा कि हम जानते हैं कि बैंकों को अपने काम-काज़ के लिये अक्सर बड़ी रकम की ज़रूरत होती है। बैंक इसके लिये आरबीआई से अल्पकाल के लिये कर्ज़ मांगते हैं और इस कर्ज़ पर रिज़र्व बैंक को उन्हें जिस दर से ब्याज देना पड़ता है, उसे ही रेपो रेट कहते हैं।
  • रेपो रेट कम होने से बैंकों के लिये रिज़र्व बैंक से कर्ज़ लेना सस्ता हो जाता है और तभी बैंक ब्याज दरों में भी कटौती करते हैं, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा रकम कर्ज़ के तौर पर दी जा सके।  मुद्रास्फीति बढ़ने का एक मतलब यह भी है कि वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में वृद्धि के कारण, बढ़ी हुई क्रय शक्ति के बावजूद लोग पहले की तुलना में वर्तमान में कम वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग कर पा रहें हैं।
  • ऐसी स्थिति में आरबीआई का कार्य यह है कि वह बढ़ती हुई मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखने के लिये बाज़ार से पैसे को अपनी तरफ खींच ले। अतः आरबीआई रेपो रेट में बढ़ोतरी कर देता है, ताकि बैंकों के लिये कर्ज़ लेना महँगा हो जाए और वे अपने बैंक दरों को बढ़ा दे जिससे कि लोग कर्ज़ न ले सकें।
  • ध्यातव्य है कि पिछले कुछ समय से मुद्रास्फीति में गिरावट देखी जा रही है फिर भी आरबीआई रेपो रेट में परिवर्तन के लिये तैयार नहीं दिख रहा है।

दरों में कटौती नहीं करना उचित क्यों ?

  • हाल ही जीएसटी लागू होने के बाद सेवा क्षेत्र के लिये 18 प्रतिशत का स्लैब तय किया गया है, जो कि पहले 15 प्रतिशत था। 7वें वेतन आयोग के भत्ते लागू हो जाने के बाद उपभोक्ता की क्रय शक्ति में वृद्धि देखने को मिलेगी। इन परिस्थितियों में दरों में कटौती करने को उचित नहीं कहा जा सकता है।
  • कहा यह जा रहा है कि उच्च दरों के कारण निवेशकों को कर्ज़ नहीं मिल पा रहा है और इससे निवेश भी प्रभावित हो रहा है। विदित हो कि मुद्रास्फीति की दर में जो यह गिरावट देखने को मिल रही है वह खाद्य वस्तुओं के मूल्यों में कमी के कारण है और इस बात कि कोई गारंटी नहीं है कि मूल्यों में यह गिरावट बनी ही रहेगी।
  • दरअसल, खाद्य वस्तुओं के मूल्य में त्वरित परिवर्तन की आशंका लगातार बनी रहती है। मान लिया जाए कि खाद्य वस्तुओं एवं कच्चे तेल के मूल्यों में कमी के आधार पर मुद्रास्फीति में आई कमी को ध्यान में रखकर केन्द्रीय बैंक द्वारा दरों में कटौती कर दी जाती है और तभी बाढ़ या सूखे जैसी प्राकृतिक आपदा के कारण खाद्य वस्तुओं के मूल्यों में फिर से उछाल आ जाता है या किन्हीं परिस्थितियों में कच्चे तेल के दामों में वृद्धि होती है तो ऐसी स्थिति में दरों में साप्ताहिक या अर्द्धमासिक परिवर्तन की ज़रूरत होगी, जिसे व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता।

‘मौद्रिक नीति समिति’ की भूमिका

  • यद्यपि कीमतों में स्थिरता बनाए रखना सरकारी नीतियों का एक अहम लक्ष्य है, लेकिन पिछले ही साल यह ज़िम्मेदारी मुख्य रूप से रिज़र्व बैंक को दे दी गई। पिछले साल मौद्रिक प्रबंधन में एक ऐतिहासिक सुधार करते हुए सरकार ने आधिकारिक तौर पर आरबीआई को मुद्रास्फीति का लक्ष्य दिया था।
  • इससे पहले, केंद्रीय बैंक के कई उद्देश्य थे, जिनमें आर्थिक वृद्धि को बढ़ना और बेरोज़गारी को कम करना शामिल था। हालाँकि मूल्य स्थिरता निस्संदेह सर्वोपरि लक्ष्य था, लेकिन ‘फ्लेक्सिबल इन्फ्लेशन टारगेट” नामक नए ढाँचे के अंतर्गत केन्द्रीय बैंक को मुद्रास्फीति कम रखने का एक संख्यात्मक लक्ष्य दिया गया।
  • विदित हो कि इस लक्ष्य को बेंचमार्क ब्याज दरों के निर्धारण द्वारा हासिल करना था और दरों के संबंध में निर्णय अब एक छः सदस्यीय “मौद्रिक नीति समिति द्वारा लिया जाता है”, जिसका अध्यक्ष रिज़र्व बैंक का गवर्नर होता है।
  • उल्लेखनीय है कि वर्तमान मुद्रास्फीति लक्ष्य 4% [(+)(-) 2%] रखा गया है। यदि मौद्रिक नीति समिति लगातार तीन तिमाहियों तक यह लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहती है तो उसे भी असफल मान लिया जायेगा।

निष्कर्ष

  • विदित हो कि आरबीआई दरों को कम करने के मामले में उदार इसलिये नहीं दिख रहा, क्योंकि क्योंकि वह ‘हेडलाइन मुद्रास्फीति’ के बजाय ‘कोर मुद्रास्फीति’ को अधिक गंभीरता से ले रही है।
  • दरअसल, हेडलाइन मुद्रास्फीति, मुद्रास्फीति का कच्चा आँकड़ा है, जो कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के आधार पर तैयार की जाती है। हेडलाइन मुद्रास्फीति में खाद्य एवं ईंधन की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव को भी शामिल किया जाता है।
  • कोर मुद्रास्फीति वह है, जिसमें खाद्य एवं ईंधन की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव को शामिल नहीं किया जाता है। ध्यातव्य है कि  कोर मुद्रास्फीति के आकलन में वैसे मदों पर ध्यान नहीं दिया जाता है, जो किसी अर्थव्यवस्था में माँग और उत्पादन के पारंपरिक ढाँचे से बाहर हों, जैसे- पर्यावरणीय समस्यायों के कारण उत्पादन में देखी जाने वाली कमी।
  • गौरतलब है कि औद्योगिक अर्थव्यवस्था वाले देशों के नीति-निर्माता अरसा पहले हेडलाइन मुद्रास्फीति पर ध्यान देना बंद कर चुके हैं। जैसा कि इन दिनों हमारे यहाँ हो रहा है।
  • उल्लेखनीय है कि  हेडलाइन मुद्रास्फीति जिन कारणों से बढ़ रही है, यदि उन कारणों का प्रभाव लम्बे समय तक बना रहे तो कोर मुद्रास्फीति में भी वृद्धि देखने को मिलती है।
  • मान लिया जाए कि लगातार तीन साल से सूखे की स्थिति बनी हुई है और इसकी वज़ह से खाद्य वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हों तो यह अर्थव्यवस्था में माँग एवं उत्पादन चक्र को व्यापक समय के लिये बुरी तरह से प्रभावित करती है। अतः हेडलाइन मुद्रास्फीति को एक सिरे से खारिज़ करना भी उचित नहीं कहा जा सकता, लेकिन वर्तमान में बैंक दरों को लेकर आरबीआई को तटस्थ रहने की ज़रूरत है।
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