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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

चीन के आचरण एवं शक्ति संबंधी तर्क

  • 24 Jul 2017
  • 8 min read

संदर्भ
गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच मौजूदा तकरार का आरंभ जून माह के मध्य में उस समय हुआ था, जब भारत ने डोकलाम क्षेत्र में सड़क निर्माण के बहाने चीन के दखल पर विरोध प्रकट किया था| ध्यातव्य है कि डोकलाम (चुंबी घाटी का एक भाग) चीन, पूर्वोत्तर भारत के राज्य सिक्किम और भूटान के बीच का क्षेत्र है| भारत में डोकलाम के नाम से जाने जाने वाले इस इलाके को चीन में डोंगलोंग नाम से जाना जाता है| वर्तमान में यह क्षेत्र चीन और भूटान के बीच विवाद का विषय बना हुआ है| विदित हो कि इस संबंध में भारत भूटान के दावे का समर्थन करता है| वस्तुतः इस समस्त परिदृश्य में भारत की चिंता यह है कि अगर यह सड़क बन जाती है तो चीन भारत के बीस किलोमीटर चौड़े कॉरिडोर 'चिकन्स नेक' के नज़दीक पहुंच जाएगा| ध्यातव्य है कि यह गलियारा पूर्वोत्तर के सभी राज्यों को भारत के मुख्यभाग से जोड़ता है|

वस्तुतः इस समस्त प्रकरण में अभी तक भिन्न - भिन्न आयामों से बहुत से विचार एवं विश्लेषण प्रस्तुत किये गए है, तथापि इस संबंध में एक अन्य अत्यंत प्रभावकारी कारक चीन की बढ़ती शक्ति एवं इसके प्रभावस्वरूप इसके हितों में आए परिवर्तन के विषय में गहराई से विचार नहीं किया गया है| इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उक्त लेख में हमने इस आयाम को प्रमुखता देते हुए दोकलाम मुद्दे का पुनरवलोकन करने का प्रयास किया है|

चीन के व्यवहार में आया परिवर्तन
ध्यातव्य है कि पिछले कुछ समय से चीन के व्यवहार में काफी परिवर्तन देखने को मिल रहा है| फिर चाहे वह हाल ही में जापान को चीनी वायु सेना द्वारा उनके हवाई क्षेत्र में आवागमन के प्रति सामान्य दृष्टिकोण बनाए रखने के संबंध में हो अथवा चीन के द्वारा दिजुबाती में देश का पहला औपचारिक सेना अड्डा स्थापित करने के संबंध में हो| ध्यातव्य है कि कुछ समय पहले विश्व आर्थिक फोरम के मंच पर चीन द्वारा इस बात का स्पष्ट संकेत दिया गया था कि वह वैश्वीकरण का प्रबल समर्थन करता है| हालाँकि यदि इस संदर्भ में गंभीरता से विचार किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि चीन विश्व में मुक्त व्यापार एवं खुले बाज़ार के प्रमुख के रूप में अमेरिका की पारम्परिक रूप से विद्यमान भूमिका में स्वयं को स्थापित करने का पुरजोर प्रयास कर रहा है| वस्तुत: इस संबंध में चीन के विषय में गंभीरता से विचार करने के पश्चात् यह ज्ञात होता है कि मुद्रा के हेर-फेर (currency manipulation), बंद पूंजी बाज़ार तथा सूक्ष्म गैर-टैरिफ जैसी बहुत सी बाधाओं वाली चीनी अर्थव्यवस्था के वैश्विक आर्थिक नेता के रूप में उभरने का सपना अत्यंत कठिन जान पड़ता है|

चीनी परिदृश्य
ध्यातव्य है कि पिछले दो दशकों से जहाँ एक ओर चीन की शक्ति में निरंतर वृद्धि देखने को मिल रही है वहीं दूसरी ओर इसने अपने हितों के दायरे में भी आकस्मिक रूप से बढ़ोतरी की है| इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण हमें दक्षिण एशिया एवं हिन्द महासागरीय क्षेत्र में इसके बढ़ते प्रभाव के रूप को देखने को मिलता है| 

भारतीय परिदृश्य
इस संदर्भ में यदि भारतीय परिदृश्य में बात की जाए तो ज्ञात होता है कि किसी भी मुद्दे के संदर्भ में कभी भी भारत एवं चीन को एक ही पृष्ठ पर रखकर विचार नहीं किया गया है| ये दोनों देश समस्त ब्रिक्स समूह ( ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन एवं दक्षिण अफ्रीका) में सबसे बड़ी पहेली के रूप में उभर कर सामने आए है| वस्तुतः इस बदलते परिदृश्य का एक मुख्य कारण इस संबंध में भारत का उदासीन व्यवहार है| 

ध्यातव्य है कि जैसे-जैसे चीन भारत की ओर प्रसार की नीति का अनुकरण कर रहा है, वैसे-वैसे ही भारतीय नीतिनिर्माताओं के व्यवहार में चीन के मुद्दे के संबंध में उदासीनता का रुख आता प्रतीत हो रहा है| वस्तुतः भारत ने हमेशा से ही चीन से जुड़े लगभग सभी मुद्दों के संबंध में आगे न बढ़ने का रुख बनाए रखा है| उदाहरण के तौर पर, भारतीय सरकार ने बीजिंग का अपमान न करने के उद्देश्य से न तो कभी दलाई लामा से सार्वजनिक रूप से कोई भेंट स्वीकार की है और न ही कभी खुलकर दलाई लामा का समर्थन ही किया है| न ही भारत ने कभी इस संबंध में विचार रखने वाले किसी भी राष्ट्र के साथ कोई सैन्य अभ्यास करने को ही स्वीकृति प्रदान की है| स्पष्ट रूप से इसका एकमात्र कारण यह रहा है कि चीन भारत के विषय में कोई गलत अवधारणा न बनाए|

इतना ही नहीं भारत ने अमेरिका के साथ भी ऐसे किसी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये जो उसे अमेरिकी समूह के हिस्से के रूप में प्रदर्शित करें| हालाँकि ऐसा न करने के कारण भले ही चाहे हिन्द महासागरीय क्षेत्र में चीनी पनडुब्बियों को ट्रैक करने की भारतीय क्षमता क्षीण ही क्यों न हो| वस्तुतः ये सभी पक्ष चीन के संबंध में भारत के नरम एवं उदासीन रुख की ओर ही इशारा करते है जो कि भविष्य के लिये चिंता का विषय है|

निष्कर्ष
उक्त परिदृश्य में विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि डोकलाम का मुद्दा केवल चीन द्वारा भारत को युद्ध की धमकी देकर पीछे हटने के लिये मजबूर करने या दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने से ही संबंधित नहीं है| बल्कि वास्तविक रूप में यह संपूर्ण विश्व के समक्ष चीन के द्वारा अपने शक्ति प्रदर्शन के साथ-साथ शक्ति प्रसार एवं हितों को साधने से संबद्ध है| वस्तुतः हमेशा से ही चीन की नीति शक्ति के विस्तार की नीति रही है| यही कारण है कि यह अपने आर्थिक एवं कुटनीतिक विस्तारण के पश्चात् सैन्य शक्ति के विस्तारण पर बल दे रहा है| स्पष्ट्या यही इस महान शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति की वास्तविकता भी है| अत: ऐसी किसी भी स्थिति में यही उचित होगा कि हम इसके आचरण के कारण को समझने के स्थान पर स्वयं को इसके लिये पर्याप्त रूप से तैयार करने पर बल प्रदान करें|

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