अंतर्राष्ट्रीय संबंध
बहुपक्षीय संस्थाओं का निर्माण – भारतीय दृष्टिकोण
- 28 May 2025
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यह एडिटोरियल 28/05/2025 को बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित “Reimagining India's role at multilaterals via votes, values, and vision” पर आधारित है। यह लेख बहुपक्षीय संस्थाओं में निहित पक्षपात को उज़ागर करता है, जैसा कि IMF द्वारा पाकिस्तान को दिये गये ऋण में देखा गया।
प्रिलिम्स के लिये:UNFCCC के तहत पेरिस समझौता, WHO की COVAX पहल, वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ, विश्व बैंक, भारत की LiFE (पर्यावरण के लिये जीवनशैली) पहल, भारत-ऑस्ट्रेलिया आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौता, क्षेत्रीय उत्सर्जन व्यापार प्रणाली, इज़रायल-हमास संघर्ष मेन्स के लिये:वैश्विक शासन में बहुपक्षीय मंचों की भूमिका, बहुपक्षीय मंचों की प्रासंगिकता में कमी लाने वाले कारक, बहुपक्षवाद और लघुपक्षवाद के बीच संतुलन। |
भारत के साथ सक्रिय सैन्य तनाव के दौरान IMF द्वारा पाकिस्तान को दिये गये विवादास्पद 2.4 अरब डॉलर के ऋण ने बहुपक्षीय संस्थाओं की उस स्थायी समस्या को उज़ागर कर दिया है, जो उनकी तटस्थता के दावों को कमज़ोर करती है। जैसे-जैसे भारत एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभर रहा है, उसे चाहिये कि वह अपनी प्रतिनिधित्व प्रणाली को अधिक पेशेवर बनाए, मतदान रणनीतियों का पुनर्मूल्यांकन करे तथा ग्लोबल नॉर्थ के साथ मज़बूत साझेदारियाँ स्थापित करे, ताकि अपने रणनीतिक हितों की रक्षा सुनिश्चित कर सके। आज जब अनेक देश बहुपक्षीयता से हटकर लघु-गठबंधनों (minilateralism) की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसे में भारत के लिये यह आवश्यक हो गया है कि वह इन दोनों दृष्टिकोणों के बीच रणनीतिक संतुलन बनाए रखे — एक ओर पारंपरिक बहुपक्षीय मंचों का लाभ उठाए और दूसरी ओर ऐसे केंद्रित गठबंधन (focused coalitions) बनाए जो तेज़ी से विखंडित होते वैश्विक परिदृश्य में राष्ट्रीय हितों की पूर्ति कर सकें।
वैश्विक शासन में बहुपक्षीय मंचों की क्या भूमिका है?
- वैश्विक चुनौतियों पर सामूहिक कार्रवाई को सुविधाजनक बनाना: बहुपक्षीय मंच देशों को ऐसे अनिवार्य मंच प्रदान करते हैं, जहाँ वे मिलकर जलवायु परिवर्तन, महामारी और वित्तीय संकट जैसे सीमापार मुद्दों का समाधान कर सकते हैं।
- इनकी संयोजक शक्ति (convening power) संवाद, संसाधनों के साझा उपयोग और समन्वित नीतियों को संभव बनाती है, जिन्हें कोई एक राष्ट्र अकेले लागू नहीं कर सकता। यह सामूहिक ढाँचा वैश्विक स्थिरता और सतत् विकास को बढ़ावा देता है।
- उदाहरण के लिये, UNFCCC के तहत पेरिस समझौता जलवायु कार्रवाई में 196 देशों को एकजुट करता है, जबकि WHO की COVAX पहल ने कोविड-19 के दौरान वैक्सीन वितरण का समन्वय किया, जिससे गरीब देशों तक भी पहुँच सुनिश्चित हो सकी।
- नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बढ़ावा देना: बहुपक्षीय संस्थाएँ ऐसे मानदंड, कानून और प्रक्रियाएँ बनाये रखती हैं जो राज्यों के व्यवहार को नियंत्रित करती हैं, जिससे वैश्विक मामलों में अराजकता और एकतरफावाद में कमी आती है।
- ये संस्थाएँ विवाद समाधान की व्यवस्था तथा व्यापार और सुरक्षा नियमों के प्रवर्तन के जरिये अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को पूर्वानुमेय और शांतिपूर्ण बनाने में योगदान देती हैं।
- विश्व व्यापार संगठन (WTO) की विवाद निपटान प्रणाली, हाल की चुनौतियों के बावजूद, वर्ष 1995 से अब तक 600 से अधिक व्यापार विवादों का समाधान कर चुकी है, जिससे वैश्विक वाणिज्य को स्थिरता मिली है।
- संयुक्त राष्ट्र चार्टर (UN Charter) आज भी संप्रभु आचरण और संघर्ष समाधान के लिये मार्गदर्शक बना हुआ है।
- छोटे और विकासशील देशों की आवाज़ को सशक्त बनाना: समावेशी मंच प्रदान करके बहुपक्षीयता (Multilateralism) कमज़ोर या छोटे देशों को वैश्विक निर्णयों को प्रभावित करने की शक्ति देती है, जिससे न्याय और प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है।
- यह सामूहिक सौदेबाज़ी (Collective Bargaining) द्विपक्षीय संबंधों में अंतर्निहित शक्ति विषमताओं को संतुलित करती है और न्यायसंगत वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देती है।
- “वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ” शिखर सम्मेलन में भारत के नेतृत्व ने जलवायु न्याय और वित्त पर विकासशील देशों की प्राथमिकताओं को ऊपर उठाने में बहुपक्षवाद की भूमिका पर प्रकाश डाला है।
- आर्थिक सहयोग और सतत् विकास को सक्षम बनाना: बहुपक्षीय मंच आर्थिक नीतियों का समन्वय करते हैं, मानकों को एकरूप बनाते हैं और विकास परियोजनाओं के लिये वित्तीय संसाधनों को जुटाते हैं।
- ये मंच विकसित और विकासशील देशों के बीच के विभाजन को समाप्त करते हैं, जिससे समावेशी विकास और गरीबी उन्मूलन को बढ़ावा मिलता है।
- विश्व बैंक और IMF प्रतिवर्ष खरबों डॉलर के ऋण और अनुदान देते हैं; भारत की 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था (हाल ही में जापान से आगे) को WTO के नियमों के माध्यम से व्यापार वृद्धि, विदेशी निवेश, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और G20 आर्थिक संवाद के जरिये स्थिरता और निवेश प्रवाह का लाभ मिलता है।
- पारदर्शिता, जवाबदेही और वैश्विक शासन की वैधता को बढ़ाना: बहुपक्षीय संस्थाएँ जन निगरानी, हितधारकों की भागीदारी और मूल्यांकन के मंच उपलब्ध कराती हैं, जो वैश्विक शासन में विश्वास को मज़बूत करते हैं।
- पारदर्शी निर्णय लेने और नियमित रिपोर्टिंग से राज्य की जवाबदेही बढ़ती है और मनमाने नीतिगत बदलावों में कमी आती है।
- WTO का NGO की भागीदारी के प्रति खुलापन और संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्य (SDG) की प्रगति रिपोर्टें पारदर्शिता को बढ़ावा देती हैं और देशों को वैश्विक प्रतिबद्धताओं के अनुरूप नीति-निर्धारण के लिये प्रेरित करती हैं।
- मानदंड प्रसार और सॉफ्ट पॉवर कूटनीति को प्रोत्साहित करना: ये मंच मानवाधिकारों, पर्यावरणीय मानकों और लोकतांत्रिक शासन जैसे वैश्विक मानदंडों के प्रसार को बढ़ावा देते हैं।
- यह ऐसे अंतर्राष्ट्रीय मंच होते हैं जहाँ देश नेतृत्व प्रस्तुत करते हैं, गठबंधन बनाते हैं और सॉफ्ट पॉवर के माध्यम से वैश्विक एजेंडा को प्रभावित करते हैं।
- भारत की LiFE (पर्यावरण के लिये जीवनशैली) पहल, जिसे COP26 ग्लासगो में प्रस्तुत किया गया था, ने स्थायी जीवनशैली के मानकों को वैश्विक स्तर पर प्रचारित किया, वहीं अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन नवीकरणीय ऊर्जा में नेतृत्व को बढ़ावा दे रहा है।
- सामूहिक उपायों के माध्यम से सुरक्षा चुनौतियों का समाधान: बहुपक्षीय मंच आतंकवाद, साइबर हमलों और महामारियों जैसी चुनौतियों के खिलाफ सहयोग को सशक्त बनाते हैं—सूचना साझा करना, कानून प्रवर्तन का समन्वय और विधिक ढाँचे का सामंजस्य इनके प्रमुख उपकरण हैं। सामूहिक सुरक्षा तंत्र आक्रामकता को रोकते हैं और संघर्ष-प्रवण क्षेत्रों में स्थिरता लाते हैं।
- संयुक्त राष्ट्र शांति सेना और आतंकवाद-रोधी समिति संयुक्त रणनीतियों को बढ़ावा देती है।
- वैश्विक संकट प्रबंधन और पुनर्प्राप्ति के लिये ढाँचा उपलब्ध कराना: वित्तीय संकट या महामारियों जैसे वैश्विक संकटों के दौरान, बहुपक्षीय मंच प्रतिक्रियाओं का समन्वय करते हैं, बाज़ारों को स्थिर करते हैं, और सहायता एकत्रित करते हैं। इनकी वैधता और वैश्विक पहुँच उन्हें पुनर्प्राप्ति और लचीलापन के लिये तेज़ और सामूहिक हस्तक्षेप सक्षम बनाती है।
- वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के समय G-20 की प्रतिक्रिया और हालिया वैश्विक महामारी संधि (Global Pandemic Treaty) इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।
बहुपक्षीय मंचों की प्रासंगिकता में गिरावट के लिये कौन-से कारक ज़िम्मेदार हैं?
- भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और सत्ता की राजनीति: बहुपक्षीय मंचों पर संघर्ष होता है, क्योंकि उभरती शक्तियाँ प्रायः आम सहमति को दरकिनार करते हुए रणनीतिक हितों पर ज़ोर देती हैं।
- अमेरिका, चीन और रूस जैसे प्रमुख भागीदारों के बीच परस्पर विरोधी एजेंडे विश्वास को समाप्त करते हैं तथा सामूहिक निर्णयों को बाधित करते हैं। यह शक्ति प्रतियोगिता बहुपक्षवाद को सहयोग के बजाय प्रभाव के लिये युद्ध के मैदान में बदल देती है।
- उदाहरण के लिये, अनेक प्रस्तावों के बावजूद संयुक्त राष्ट्र रूस-यूक्रेन संघर्ष में प्रभावी भूमिका निभाने में विफल रहा, जिससे इसका सीमित प्रभाव उजागर होता है।
- भारत-पाक तनाव के बीच IMF द्वारा पाकिस्तान को दिया गया विवादास्पद 2.4 बिलियन डॉलर का ऋण, कथित रूप से तटस्थ संस्थाओं को प्रभावित करने वाली भू-राजनीति को दर्शाता है।
- द्विपक्षीयता और क्षेत्रवाद वैश्विक सहयोग में कमी: देश धीमी बहुपक्षीय वार्ताओं को दरकिनार करते हुए, त्वरित और अनुकूलित परिणामों के लिये द्विपक्षीय या क्षेत्रीय समझौतों को प्राथमिकता दे रहे हैं।
- यह व्यावहारिक बदलाव वैश्विक मंचों के प्रभाव को कम करता है क्योंकि राष्ट्र प्रत्यक्ष, रणनीतिक साझेदारी को प्राथमिकता देते हैं। FTA और मुद्रा स्वैप का प्रसार इस प्रवृत्ति का साक्ष्य है।
- उदाहरण के लिये, पिछले 5 वर्षों में भारत ने कई PTA पर हस्ताक्षर किये हैं, जिनमें भारत-ऑस्ट्रेलिया आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौता और UAE के साथ मुद्रा स्वैप समझौता शामिल है, जबकि दोहा दौर के बाद से WTO वार्ता रुकी हुई है।
- कमज़ोर प्रवर्तन तंत्र: बहुपक्षीय समझौते प्रायः स्वैच्छिक अनुपालन पर निर्भर होते हैं तथा अनुपालन न करने पर दंडात्मक उपायों का अभाव होता है।
- यह कमज़ोर जवाबदेही जलवायु परिवर्तन या व्यापार नियमों जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर प्रतिबद्धताओं को लागू करने के लिये ऐसे मंचों के विश्वास और विश्वसनीयता को कमज़ोर करती है।
- उदाहरण के लिये, पेरिस समझौते के NDC स्वैच्छिक हैं; लक्ष्य पूरा न करने पर कोई दंड नहीं लगाया जाता, जिससे उत्सर्जन में लगातार वृद्धि हो रही है। इसी तरह, अमेरिका द्वारा अपने अपीलीय निकाय में नियुक्तियों को अवरुद्ध करने के बाद WTO विवाद निपटान कमज़ोर हो गया है।
- असमान शक्ति गतिशीलता: निर्णय लेने में प्रमुख शक्तियों का प्रभुत्व अनुचितता की धारणा को बढ़ावा देता है तथा छोटे या विकासशील देशों को अलग-थलग कर देता है।
- यह असंतुलन बहुपक्षीय मंचों की वास्तविक प्रतिनिधिक क्षमता के रूप में वैधता को चुनौती देता है तथा सुधारों या वैकल्पिक गठबंधनों की मांग को बढ़ावा देता है।
- उदाहरण के लिये, UNSC सुधारों के लिये भारत का निरंतर प्रयास उभरती शक्तियों को बाहर रखने को उजागर करता है। सार्थक UN सुरक्षा परिषद पुनर्गठन में वर्षों का विलंब समावेशी शासन के खिलाफ संस्थागत जड़ता का संकेत देती है।
- वैश्विक मुद्दों का विखंडन और संस्थाओं का एक दूसरे से ओवरलैप होना: विशिष्ट मुद्दों पर ध्यान देने वाले विशेष मंचों के प्रसार से विखंडन, ओवरलैप और नीतिगत असंगति उत्पन्न होती है, जिससे प्रमुख बहुपक्षीय संस्थाओं का प्रभाव कमज़ोर हो जाता है।
- संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों, G20, विश्व व्यापार संगठन तथा अन्य के बीच परस्पर विरोधी अधिदेश समन्वित कार्रवाई को जटिल बनाते हैं।
- जलवायु शासन में UNFCCC, IPCC, G20 जलवायु परिवर्तन कार्रवाई और क्षेत्रीय उत्सर्जन व्यापार प्रणाली शामिल हैं, जिनकी प्राथमिकताएँ प्रायः असंगत होती हैं। यह विखंडन कार्बन मूल्य निर्धारण जैसे आवश्यक मुद्दों पर वैश्विक सहमति को धीमा कर देता है।
- तकनीकी और डिजिटल संप्रभुता संघर्ष: डिजिटल राष्ट्रवाद में वृद्धि और डेटा संप्रभुता पर चिंताएँ एकीकृत डिजिटल व्यवस्था के लिये बहुपक्षीय प्रयासों को बाधित करती हैं। प्रतिस्पर्द्धी विनियमन और डेटा शेयरिंग पर अविश्वास साइबरस्पेस शासन के लिये वैश्विक कार्यढाँचे को अवरुद्ध करता है।
- उदाहरण के लिये, सीमा पार डेटा फ्लो पर भारत का सतर्क रुख अमेरिकी सिलिकॉन वैली के हितों के विपरीत है, जो अलग-अलग प्राथमिकताओं को दर्शाता है। रुकी हुई WTO ई-कॉमर्स वार्ता डिजिटल व्यापार नियमों को संरेखित करने की चुनौती को दर्शाती है।
- बढ़ता संरक्षणवाद सहकारी भावना को नष्ट करता है: पुनरुत्थानशील राष्ट्रवाद संरक्षणवादी नीतियों को बढ़ावा देता है तथा मुक्त व्यापार एवं वैश्विक सहयोग के प्रति प्रतिबद्धता को कमज़ोर करता है।
- देश घरेलू हितों को प्राथमिकता देते हैं, जिससे पारस्परिक लाभ और सामूहिक समस्या समाधान का बहुपक्षीय सिद्धांत कमज़ोर होता है।
- उदाहरण के लिये, टैरिफ में वृद्धि (अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध) से वैश्विक व्यापार तनाव उत्पन्न हुआ है, जिससे WTO का प्रभाव कम हो गया है।
बहुपक्षीय मंचों में सुधार लाने में भारत क्या भूमिका निभा सकता है?
- समावेशी वैश्विक शासन और संयुक्त राष्ट्र सुधार का समर्थन: भारत बहुपक्षीय संस्थाओं के लोकतंत्रीकरण के प्रयासों का नेतृत्व कर सकता है तथा वर्तमान वैश्विक शक्ति परिवर्तनों को प्रतिबिंबित करते हुए न्यायसंगत प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर सकता है।
- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार के लिये इसका प्रयास इसका उदाहरण है, जिसका उद्देश्य ग्लोबल साउथ और उभरती अर्थव्यवस्थाओं की आवाज़ को बढ़ाना है। ऐसे सुधारों से वैश्विक शासन में वैधता एवं प्रभावशीलता बढ़ेगी।
- विकसित और विकासशील देशों के हितों के बीच सेतु निर्माण: एक बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्था एवं लोकतांत्रिक शक्ति के रूप में अपनी अद्वितीय स्थिति के साथ, भारत विकसित और विकासशील देशों के बीच मध्यस्थता कर सकता है तथा जलवायु वित्त एवं व्यापार जैसे विवादास्पद मुद्दों पर आम सहमति को बढ़ावा दे सकता है।
- विखंडन का सामना कर रहे बहुपक्षीय मंचों में सामंजस्य बनाए रखने के लिये यह भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
- 'ग्लोबल साउथ के प्रतिनिधि' के रूप में भारत का नेतृत्व तथा संवर्द्धित जलवायु वित्त एवं प्रौद्योगिकी अंतरण के लिये इसका समर्थन इसकी समन्वयकारी भूमिका को रेखांकित करती है।
- सतत् विकास और जलवायु नेतृत्व को बढ़ावा देना: वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन के प्रति भारत की प्रतिबद्धता और LiFE जैसी पहल उसे वैश्विक जलवायु शासन को समानता एवं जलवायु परिवर्तन कार्रवाई की दिशा में मार्गदर्शन करने की स्थिति में रखती है।
- क्लाइमेट जस्टिस को बढ़ावा देकर भारत कमज़ोर देशों को संतुलित वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करने पर ज़ोर दे सकता है, जिससे एक सुधारित, संधारणीय बहुपक्षीय व्यवस्था को आकार मिल सकता है।
- साउथ-साउथ कोऑपरेशन और क्षेत्रवाद का सुदृढ़ीकरण: भारत वैश्विक मंचों के पूरक के रूप में साउथ-साउथ पार्टनरशिप और क्षेत्रीय बहुपक्षवाद को मज़बूत कर सकता है तथा साझा विकास एवं भू-राजनीतिक संतुलन को बढ़ावा दे सकता है।
- BIMSTEC और भारत-अफ्रीका फोरम जैसे मंचों के माध्यम से, यह विकासशील क्षेत्रों के सामूहिक समर्थन को बढ़ा सकता है।
- अफ्रीका को भारत की 10 बिलियन डॉलर की ऋण सहायता तथा BIMSTEC में इसकी सक्रिय भूमिका, क्षेत्रीय आर्थिक और रणनीतिक सहयोग के निर्माण के लिये व्यावहारिक प्रयासों को दर्शाती है।
- शांतिपूर्ण संघर्ष समाधान और कूटनीति का प्रतिनिधित्व: भारत की सैद्धांतिक गुटनिरपेक्षता और कूटनीति पर ज़ोर उसे वैश्विक संघर्षों में मध्यस्थ के रूप में स्थापित करता है तथा बहुपक्षीय शांति तंत्र को मज़बूत करता है।
- यूक्रेन और अफगानिस्तान जैसे मुद्दों पर इसका संतुलित रुख संप्रभुता और संवाद पर आधारित नेतृत्व का उदाहरण है।
- इज़रायल-हमास संघर्ष में द्वि-राज्य समाधान के लिये भारत का आह्वान तथा मानवता के विरुद्ध अपराधों की निंदा, बहुपक्षीय कार्यढाँचे के भीतर उसके कूटनीतिक प्रभाव को उजागर करती है।
भारत बहुपक्षवाद और लघु-गठबंधन में संतुलन किस प्रकार स्थापित कर सकता है?
- मुद्दा-आधारित फोरम मैपिंग के माध्यम से रणनीतिक विभेदीकरण: भारत को एक व्यापक, गतिशील 'फोरम-मैपिंग' तंत्र विकसित करना चाहिये जो जटिलता, तात्कालिकता और हितधारक संरचना के आधार पर वैश्विक मुद्दों को वर्गीकृत करता है, जिससे संतुलित जुड़ाव को सक्षम बनाया जा सके।
- इसमें जलवायु शासन जैसी प्रणालीगत चुनौतियों के लिये बहुपक्षवाद का लाभ उठाना तथा साइबर सुरक्षा या क्षेत्रीय सुरक्षा जैसे सामरिक, उच्च-दाँव वाले क्षेत्रों के लिये लघु-गठबंधन का लाभ उठाना शामिल है।
- यह सटीक कूटनीति प्रभाव को अधिकतम करती है और कूटनीतिक थकान को न्यूनतम करती है।
- क्षेत्रीय बहुपक्षवाद को रणनीतिक गठबंधन के रूप में संस्थागत बनाना: भारत को क्रॉस-सेक्टरल फ्रेमवर्क (आर्थिक, सुरक्षा, पर्यावरण) को शामिल करके BIMSTEC और SAARC जैसे क्षेत्रीय प्लेटफॉर्मों को परिष्कृत बहुपक्षीय केंद्रों में बदलना चाहिये, जो वैश्विक कूटनीति के लिये आधारशिला के रूप में कार्य करेंगे।
- यह क्षेत्रीय बहुपक्षवाद एक रणनीतिक मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि क्षेत्रीय प्राथमिकताएँ वैश्विक निर्णय प्रक्रिया में सहजता से एकीकृत हो जाएँ।
- समानांतर राजनयिक ट्रैक का संचालन: भारत को एक बहु-ट्रैक कूटनीति प्रणाली को संस्थागत बनाना चाहिये, जहाँ आधिकारिक बहुपक्षीय वार्ता, लघुपक्षीय रणनीतिक संवाद और ट्रैक-II कूटनीति तालमेल के साथ संचालित हो तथा फीडबैक लूप का निर्माण हो, जो सुसंगतता एवं लचीलेपन को बढ़ाए।
- यह समग्र दृष्टिकोण भारत को भिन्न-भिन्न हितों का प्रबंधन करने, आम सहमति बनाने तथा भू-राजनीतिक उतार-चढ़ाव के साथ शीघ्रता से अनुकूलन करने में सक्षम बना सकता है।
- बहुपक्षीय और लघुपक्षीय संबंधों को मज़बूत करने के लिये सांस्कृतिक कूटनीति का लाभ उठाना: भारत को विभिन्न मंचों पर सांस्कृतिक, शैक्षिक और मूल्य-आधारित कूटनीति पहलों को बढ़ावा देकर, मानवाधिकारों, लोकतंत्र एवं सतत् विकास पर मानक अभिसरण को सुदृढ़ करते हुए, अपनी सॉफ्ट पावर का उपयोग करना चाहिये।
- यह भावनात्मक सामंजस्य और दीर्घकालिक संरेखण को प्रोत्साहित करता है, जिससे लेन-देन आधारित कूटनीति से आगे बढ़कर सहयोग की स्थायी नींव तैयार होती है।
- उभरते वैश्विक शासन क्षेत्रों में मानक उद्यमिता को बढ़ावा देना: भारत बहुपक्षीय और एकपक्षीय स्थानों के भीतर डिजिटल एथिक्स, अंतरिक्ष कानून एवं जलवायु अनुकूलन वित्तपोषण जैसी उभरती हुई शासन व्यवस्थाओं को सक्रिय रूप से आकार देकर स्वयं को एक मानक उद्यमी के रूप में स्थापित कर सकता है।
- सक्रिय रूप से नवीन कार्यढाँचे का प्रस्ताव करने से वैश्विक स्तर पर भारत के विचार नेतृत्व और मानक प्रभाव में वृद्धि होती है।
निष्कर्ष:
भारत वैश्विक शासन में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर है, जहाँ इसकी कूटनीतिक बुद्धिमता को इसके बढ़ते वैश्विक छवि के अनुरूप बढ़ाने की आवश्यकता है। बहुपक्षीय संस्थाओं में समावेशी सुधारों को बढ़ावा देकर और रणनीतिक रूप से लघुपक्षीय समूहों में शामिल होकर, भारत वैश्विक समानता को बनाए रखते हुए अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा कर सकता है। सिद्धांत और व्यावहारिकता का संतुलित मिश्रण भारत को एक अधिक प्रतिनिधि, समुत्थानशील और उत्तरदायी विश्व व्यवस्था बनाने में सक्षम बनाएगा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. "वैश्विक शासन की बदलती रूपरेखा, बहुपक्षवाद में विश्वास में कमी और मुद्दा-आधारित लघु-गठबंधन के उदय के कारण, भारत के कूटनीतिक रुख में रणनीतिक पुनर्संतुलन की आवश्यकता है।" विवेचना कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न 1. निम्नलिखित में से किस समूह के सभी चारों देश G20 के सदस्य हैं? (2020) (a) अर्जेंटीना, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका एवं तुर्की उत्तर: (a) प्रश्न 2. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न 1. 'मोतियों के हार' (द स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स) से आप क्या समझते हैं ? यह भारत को किस प्रकार प्रभावित करता है ? इसका सामना करने के लिये भारत द्वारा उठाए गए कदमों की संक्षिप्त रूपरेखा दीजिये। (2013) |