जयपुर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 7 अक्तूबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


जैव विविधता और पर्यावरण

हिमालयी क्षेत्र के लिये EIA की पुनर्कल्पना

  • 23 Oct 2023
  • 20 min read

यह एडिटोरियल 17/10/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The Indian Himalayan Region needs its own EIA” लेख पर आधारित है। इसमें भारतीय हिमालयी क्षेत्र में सतत् विकास सुनिश्चित करने के लिये ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ (EIA) की पुनर्कल्पना की आवश्यकता के बारे में चर्चा की गई है और इस क्षेत्र के समक्ष विद्यमान पारिस्थितिक चुनौतियों पर विचार किया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

ग्लेशियरों का तेज़ी से पिघलना, ब्लैक कार्बन, सिक्किम में तीस्ता बांध का टूटना, हिमनद झील के फटने से बाढ़, पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA)

मेन्स के लिये:

हिमालय का महत्त्व, बड़े पैमाने पर शहरीकरण के कारण हिमालयी क्षेत्र के लिये पारिस्थितिक चुनौतियाँ, EIA के मुद्दे और आवश्यक उपाय।

हाल ही में सिक्किम में तीस्ता बांध का टूटना और हिमाचल प्रदेश में विनाशकारी बाढ़ एवं भूस्खलन की घटनाएँ इस बात की स्पष्ट याद दिलाती हैं कि हमारा विकास मॉडल पर्वतीय क्षेत्रों पर कितना भारी पड़ रहा है। ये घटनाएँ विकास के प्रति हमारे दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती हैं, विशेषकर हिमालय जैसे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में। इस मूल्यांकन के प्रमुख साधनों में से एक है। पर्यावरण प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment- EIA) है जो विभिन्न परियोजनाओं के पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक प्रभावों के पूर्वानुमान, विश्लेषण और शमन के लिये डिज़ाइन की गई प्रक्रिया है।

पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) क्या है?

  • परिचय:
    • संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा EIA को परियोजनाओं के कार्यान्वयन से पहले उनके पर्यावरणीय परिणामों का आकलन करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें परियोजना विकल्पों की तुलना करना, पर्यावरणीय प्रभावों का पूर्वानुमान लगाना और शमन रणनीतियाँ तैयार करना शामिल है।
  • भारत में EIA का विकास:
    • भारत में EIA प्रक्रिया वर्ष 1976-77 में नदी घाटी परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित करने के साथ शुरू हुई। समय के साथ इसका विकास हुआ, जहाँ वर्ष 2006 की अधिसूचना एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई है। हालाँकि यह कई संशोधनों के अधीन रहा है और पारिस्थितिक चिंताओं की तुलना में औद्योगिक हितों की अधिक पक्षधरता के लिये इसकी आलोचना भी होती रही है।
  • उद्देश्य:
    • परियोजना के योजना-निर्माण और डिज़ाइन के आरंभिक चरण में पर्यावरणीय प्रभावों का पूर्वानुमान लगाना, प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के तरीके एवं साधन ढूँढ़ना, स्थानीय पर्यावरण के अनुरूप परियोजनाओं को आकार देना और निर्णय-निर्माताओं के लिये पूर्वानुमान एवं विकल्प प्रस्तुत करना।
  • प्रक्रिया:
    • स्क्रीनिंग (Screening): यह EIA का पहला चरण है जो यह निर्धारित करता है कि प्रस्तावित परियोजना के लिये EIA की आवश्यकता है या नहीं और यदि है तो मूल्यांकन के किस स्तर की आवश्यकता है।
    • स्कोपिंग (Scoping): यह चरण उन प्रमुख मुद्दों और प्रभावों की पहचान करता है जिनकी आगे जाँच की जानी चाहिये। यह चरण अध्ययन की सीमा और समय-सीमा को भी परिभाषित करता है।
    • प्रभाव विश्लेषण (Impact analysis): EIA का यह चरण प्रस्तावित परियोजना के संभावित पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव की पहचान और भविष्यवाणी करता है तथा इसके महत्त्व का मूल्यांकन करता है।
    • शमन (Mitigation): EIA में यह चरण विकास गतिविधियों के संभावित प्रतिकूल पर्यावरणीय परिणामों को कम करने और उनसे बचने के लिये कार्रवाई की सिफ़ारिश करता है।
    • रिपोर्टिंग (Reporting): यह चरण निर्णयकारी संस्था और अन्य इच्छुक पक्षकारों को एक रिपोर्ट के रूप में EIA के परिणाम प्रस्तुत करता है।
    • सार्वजनिक सुनवाई (Public hearing): EIA रिपोर्ट के पूरा होने पर, परियोजना स्थल के निकट रहने वाले लोगों एवं पर्यावरण समूहों को सूचित किया जा सकता है और उनकी बात सुनी जा सकती है।
    • EIA की समीक्षा: यह EIA रिपोर्ट की पर्याप्तता एवं प्रभावशीलता की जाँच करती है और निर्णयन के लिये आवश्यक सूचना प्रदान करती है।
    • निर्णयन (Decision-making): यह तय करता है कि परियोजना को अस्वीकार कर दिया जाए, अनुमोदित किया जाए या इसमें सुधार की आवश्यकता है।
    • उत्तर-निगरानी (Post monitoring): परियोजना शुरू होने के बाद यह चरण अपनी भूमिका निभाता है। यह चरण इस बात की सुनिश्चितता के लिये इसकी जाँच करता है कि परियोजना के प्रभाव विधिक मानकों का उल्लंघन न करें और शमन उपायों का कार्यान्वयन EIA रिपोर्ट में वर्णित तरीके से हो।

हिमालय के समक्ष विद्यमान पारिस्थितिक चुनौतियाँ 

  • पारिस्थितिक कमज़ोरी (Ecological Fragility):
    • हिमालय युवा, वलित पर्वत हैं जिसका अर्थ यह है कि वे अभी भी ऊपर उठ रहे हैं और विवर्तनिक गतिविधियों से ग्रस्त हैं। इससे यह क्षेत्र भूस्खलन, हिमस्खलन और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के लिये प्रवण क्षेत्र है।
      • भारतीय हिमालय क्षेत्र की सुस्थापित कमज़ोरियों और संवेदनशीलता के बावजूद EIA ढाँचा इसे अन्य क्षेत्रों के समकक्ष ही देखता है जहाँ इसकी अद्वितीय विकासात्मक एवं पारिस्थितिक आवश्यकताओं पर विचार नहीं करता है।
  • चरम मौसम और जलवायु परिवर्तन:
    • हिमालय क्षेत्र चरम मौसम दशाओं—जैसे भारी वर्षा, फ्लैश फ्लड, भूस्खलन और भूकंपीय गतिविधि के लिये प्रवण क्षेत्र है। जलवायु परिवर्तन इन कमज़ोरियों को और बढ़ा देता है। क्षेत्र-विशिष्ट मानकों का अभाव इन चिंताजनक मुद्दों का समाधान करने में विफल रहता है।
  • ‘ब्लैक कार्बन’ का संचय:
    • ग्लेशियरों के पिघलने के सबसे बड़े कारणों में से एक वायुमंडल में ब्लैक कार्बन एरोसोल (black carbon aerosols) का उत्सर्जन भी है।
    • ब्लैक कार्बन अधिक प्रकाश अवशोषित करता है और इंफ्रा-रेड विकिरण उत्सर्जित करता है जिससे तापमान बढ़ता है; इस प्रकार, हिमालय में ब्लैक कार्बन की वृद्धि ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने में योगदान करती है।
  • अन्य मानव जनित चुनौतियाँ:
    • वनों की कटाई, निर्माण गतिविधियाँ, अनियमित पर्यटन और अनुपयुक्त भूमि उपयोग अभ्यासों से मृदा के कटाव एवं भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।
    • वनस्पति आवरण की क्षति हिमालयी ढलानों को अस्थिर कर देती है, जिससे वे भारी वर्षा या भूकंपीय घटनाओं के दौरान कटाव के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।

दोषपूर्ण EIA हिमालय क्षेत्र को कैसे प्रभावित करता है?

  • दोषपूर्ण पारिस्थितिक आकलन:
    • भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) में परियोजनाओं के प्रभावों का आकलन करने के लिये क्षेत्र की कमज़ोरियों एवं भेद्यता की प्रासंगिक समझ का होना आवश्यक है। वर्तमान प्रणाली इस महत्त्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य की पूर्ति नहीं कर पाती है।
  • श्रेणीबद्ध दृष्टिकोण और इसकी खामियाँ:
    • भारतीय नियामक प्रणाली एक श्रेणीबद्ध दृष्टिकोण अपनाती है, जहाँ किसी परियोजना से प्रभावित पर्यावास के प्रकार के आधार पर पर्यावरणीय स्थितियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। इस दृष्टिकोण में IHR के प्रति पृथक दृष्टिकोण का अभाव है, जिससे क्षेत्र विशेष सुरक्षा के बिना रह जाता है।
  • EIA के तहत छूट:
    • कुछ श्रेणियों से संबंधित परियोजनाएँ—जैसे कि सामरिक एवं रक्षा परियोजनाएँ, बायोमास आधारित बिजली संयंत्र, मत्स्यग्रहण से संबद्ध बंदरगाह, टोल प्लाजा आदि को कुछ मानदंडों के आधार पर EIA से छूट दी गई है।

हिमालय में EIA के लिये आगे की राह 

  • एक राष्ट्रीय नियामक की आवश्यकता:
    • एक राष्ट्रीय स्तर के नियामक (जिसका सुझाव वर्ष 2011 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया था) की अनुपस्थिति उद्देश्यपूर्ण एवं पारदर्शी परियोजना मूल्यांकन और निगरानी में बाधा डालती है। एक स्वतंत्र नियामक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच अधिक न्यायसंगत संतुलन सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है।
  • संचयी प्रभाव आकलन:
    • EIA प्रक्रिया, अपने वर्तमान स्वरूप में, संचयी प्रभावों पर पर्याप्त रूप से विचार नहीं करती है। यह किसी विशिष्ट क्षेत्र में कई परियोजनाओं के संयुक्त प्रभावों का आकलन करने के बजाय परियोजना विशेष पर ध्यान केंद्रित करती है। IHR के लिये एक अधिक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
  • रणनीतिक प्रभाव आकलन:
    • रणनीतिक पर्यावरण मूल्यांकन (Strategic environmental assessment- SEA) किसी परियोजना की शुरुआत में वैकल्पिक प्रस्तावों के व्यापक पर्यावरणीय, सामाजिक एवं आर्थिक प्रभावों का आकलन है। अर्थात् निर्णय के चरण पर - नीति, योजना या कार्यक्रम (policy, planning or program- PPP) स्तर पर
  • EIA प्राधिकारियों की सक्रिय भूमिका:
    • यह महत्त्वपूर्ण है कि EIA प्राधिकारी विकासात्मक गतिविधियों पर प्रतिक्रिया देने के बजाय उनका अनुमान लगाने में सक्षम हों।
    • यह महत्त्वपूर्ण है कि EIA की तैयारी परियोजना प्रस्तावक से पूरी तरह स्वतंत्र हो।
  • जोशीमठ जैसे आपदा प्रवण क्षेत्रों में निर्माण गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये, जिसकी अनुशंसा मिश्रा समिति (1976) द्वारा भी की गई थी। 

हिमालय क्षेत्र की सुरक्षा के अन्य उपाय कौन-से हो सकते हैं?

  • GLOFs के लिये NDMA दिशानिर्देश:
    • अनियमित पर्यटन की समस्या को नियंत्रित करने के लिये राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) ने नियमों की एक शृंखला की सिफ़ारिश की थी जिसके तहत एक बफ़र ज़ोन का निर्माण किया जाएगा और हिमनद झील के फटने से उत्पन्न बाढ़ (Glacial Lake Outburst Floods- GLOFs) के प्रवण क्षेत्रों एवं आस-पास के क्षेत्रों में पर्यटन को प्रतिबंधित किया जाएगा ताकि उन क्षेत्रों में प्रदूषण के पैमाने को कम किया जा सके।
  • सीमा-पार सहयोग:
    • हिमालय क्षेत्र के देशों को एक अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क का निर्माण करने की ज़रूरत है जो हिमनद झीलों से उत्पन्न आपदाओं जैसे जोखिमों की निगरानी करेगा और पिछले दशक में हिंद महासागर के आसपास स्थापित सुनामी चेतावनी प्रणालियों की तरह खतरों की पूर्व-चेतावनी प्रदान करेगा।
    • इन देशों को पर्वतीय क्षेत्रों और वहाँ की पारिस्थितिकी के संरक्षण के बारे में ज्ञान की साझेदारी और प्रसार करना चाहिये।
  • शिक्षा और जागरूकता:
    • भारत और अन्य प्रभावित देशों को अपने स्कूली पाठ्यक्रम में हिमालय के भूविज्ञान एवं पारिस्थितिकी के बुनियादी ज्ञान को शामिल करना चाहिये। यदि छात्रों को अपने पर्यावरण के बारे में सिखाया जाता है तो वे भूमि से अधिक जुड़ाव महसूस करेंगे और इसकी संवेदनशीलता के प्रति अधिक जागरूक होंगे।
    • यदि हिमालय क्षेत्र के लोग अपने पर्वतीय आवास की भू-वैज्ञानिक भेद्यता एवं पारिस्थितिक संवेदनशीलता के बारे में अधिक जागरूक होते तो वे निश्चित रूप से इसकी रक्षा करने के लिये कानूनों एवं विनियमों के अधिक अनुपालन के लिये भी बल देते।
  • स्थानीय सरकारों की भूमिका:
    • हिमालयी राज्यों में नगर निकायों को भवन निर्माण की मंज़ूरी देते समय अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की ज़रूरत है। जलवायु परिवर्तन की उभरती चुनौतियों पर नियंत्रण पाने के लिये भवन निर्माण उपनियमों को अद्यतन करने की भी आवश्यकता है।
    • आपदा प्रबंधन विभागों को अपने दृष्टिकोण को पुनः उन्मुख करने और बाढ़ की रोकथाम एवं तैयारियों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

भारत में वर्तमान पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) ढाँचा भेद्य एवं संवेदनशील भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) की विशेष आवश्यकताओं की पहचान कर सकने में विफल रहता है। इस पारिस्थितिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में सतत् विकास सुनिश्चित करने के लिये EIA प्रक्रिया का पुनर्मूल्यांकन करने की तत्काल आवश्यकता है। केवल क्षेत्र-विशिष्ट और समग्र दृष्टिकोण अपनाकर ही हम उत्तरदायी विकास को आगे बढ़ाते हुए IHR के संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा कर सकते हैं।

यह आवश्यक है कि भारत दुनिया भर के पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण के प्रति जागरूक और सतत विकास के लिये एक मिसाल कायम करते हुए हिमालय के लिये EIA की पुनर्कल्पना करने में अग्रणी भूमिका निभाए।

अभ्यास प्रश्न: हिमालय क्षेत्र के समक्ष विद्यमान पर्यावरणीय चुनौतियों के समाधान में पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) की भूमिका की चर्चा कीजिये। हिमालयी क्षेत्र में सतत विकास सुनिश्चित करने और इसके संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करने के लिये EIA प्रक्रिया में सुधार के उपाय सुझाइये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2020)

    शिखर                        पर्वत

  1. नामचा बरवा        गढ़वाल हिमालय 
  2. नंदा देवी             कुमाऊँ हिमालय 
  3. नोकरेक              सिक्किम हिमालय

उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 1 और 3
(d) केवल 3

उत्तर: (b)


प्रश्न. यदि आप हिमालय से होकर यात्रा करेंगे तो आपको निम्नलिखित में से कौन सा पौधा वहाँँ प्राकृतिक रूप से उगता हुआ देखने को मिलेगा? (2014)

  1. ओक  
  2. रोडोडेंड्रोन  
  3. चंदन

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a) 


प्रश्न. जब आप हिमालय में यात्रा करेंगे, तो आपको निम्नलिखित दिखाई देगा: (2012)

  1. गहरी घाटियाँ  
  2. यू-टर्न नदी मार्ग  
  3. समानांतर पर्वत शृंखलाएँ  
  4. तीव्र ढाल, जो भूस्खलन का कारण बन रही हैं

उपर्युक्त में से किसे हिमालय के युवा वलित पर्वत होने का प्रमाण कहा जा सकता है?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 4
(c) केवल 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. हिमालय क्षेत्र और पश्चिमी घाट में भूस्खलन के कारणों के बीच अंतरों को बताइये। (2021)

प्रश्न. हिमालय के हिमनदों के पिघलने का भारत के जल संसाधनों पर किस प्रकार दूरगामी प्रभाव होगा? (2020)

प्रश्न. हिमालय क्षेत्र भूस्खलन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। इसके प्रमुख कारणों पर चर्चा करते हुए इसके शमन हेतु उपाय बताइये। (2016)

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2