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भारतीय औषधियों के समक्ष नियामक चुनौतियाँ

  • 22 Jun 2023
  • 17 min read

यह एडिटोरियल 20/06/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘Safety first’’ लेख पर आधारित है। इसमें भारतीय दवाओं से जुड़े सुरक्षा संबंधी मुद्दों और इसके परिणामों के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO),औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940

मेन्स के लिये:

अप्रभावी औषधि विनियमों के परिणाम

भारत विश्व में फार्मास्युटिकल उत्पादों के सबसे बड़े उत्पादकों और निर्यातकों में से एक है, जो जेनेरिक दवाओं (generic drugs) की वैश्विक मांग के लगभग 20% की पूर्ति करता है। भारत विश्व में जैव प्रौद्योगिकी (biotechnology) के लिये शीर्ष 12 गंतव्यों में से एक है और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी के लिये तीसरा सबसे बड़ा गंतव्य है। वर्ष 2022 में भारत के जैव प्रौद्योगिकी उद्योग ने पिछले वर्ष की तुलना में 14% की वृद्धि के साथ 80.12 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर को पार कर लिया।

भारत के फार्मा उद्योग ने दुनिया भर में, विशेषकर विकासशील देशों में लाखों लोगों के लिये स्वास्थ्य परिणामों में सुधार और सस्ती दवाओं तक पहुँच में योगदान दिया है। हालाँकि, भारत के फार्मा उद्योग को गुणवत्ताहीन, दूषित या हानिकारक दवाओं के उत्पादन के विभिन्न आरोपों और घटनाओं का भी सामना करना पड़ा है, जिसके कारण श्रीलंका, गाम्बिया, उज़्बेकिस्तान, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि कई देशों में रोगियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और मौतें भी हुईं ।

इन घटनाओं ने भारतीय फार्मा उत्पादों की गुणवत्ता एवं सुरक्षा/अहानिकारकता (quality and safety) और मानकों एवं मानदंडों (standards and norms) के अनुपालन को सुनिश्चित करने में भारतीय दवा नियामक की भूमिका एवं प्रभावशीलता के बारे में गंभीर चिंताओं को जन्म दिया है।

दवाओं के अपर्याप्त सुरक्षा मानकों के संभावित कारण कौन-से हैं?

  • उपयुक्त विनियमन और प्रवर्तन का अभाव:
    • भारत का दवा विनियमन औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 (Drugs and Cosmetics Act, 1940) के तहत शासित है, जो पुराना हो चुका है और आधुनिक फार्मा बाज़ार की जटिलताओं एवं चुनौतियों से निपटने के लिये अनुपयुक्त है।
    • यह अधिनियम नैदानिक परीक्षण (clinical trials), जैव-समतुल्यता अध्ययन (bioequivalence studies), सुव्यवस्थित विनिर्माण अभ्यासों (good manufacturing practices) जैसे कई पहलुओं को दायरे में नहीं लेता, जो दवाओं की गुणवत्ता और इनसे जुड़ी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक हैं।
    • इसके अलावा, अधिनियम का कार्यान्वयन कमज़ोर और खंडित है, क्योंकि यह केंद्र और राज्य स्तर पर कई प्राधिकरणों को संलग्न करता है जिनके बीच क्षेत्राधिकार और उत्तरदायित्व के ओवरलैपिंग की स्थिति बनती है।
  • अपर्याप्त संसाधन:
    • दवा निर्माण इकाइयों और उनके उत्पादों के प्रभावी निरीक्षण (inspection), परीक्षण (testing), निगरानी (monitoring) एवं अवेक्षण (surveillance) के लिये जनशक्ति, अवसंरचना, धन और प्रौद्योगिकी की कमी की समस्या भी मौजूद है।
  • पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव:
    • भारत का दवा नियामक- केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (Central Drugs Standard Control Organization- CDSCO) अपनी गतिविधियों, प्रक्रियाओं, परिणामों आदि के बारे में आम लोगों या मीडिया को अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं कराता है।
    • गुणवत्ताहीन या नकली दवाओं पर अंकुश लगाने के संबंध में इसके कार्य-प्रदर्शन या प्रभाव का मूल्यांकन करने की कोई व्यवस्था मौजूद नहीं है।
      • यह सुनिश्चित करने के लिये भी कोई तंत्र मौजूद नहीं है कि भारत का दवा नियामक स्वतंत्र, निष्पक्ष और सरकार या उद्योग के बाह्य प्रभावों या दबाव से मुक्त है।
      • CDSCO के कुछ अधिकारियों पर भ्रष्टाचार, कुछ फार्मा कंपनियों के साथ मिलीभगत और हितों के टकराव के आरोप भी लगे हैं।
  • फार्मा कंपनियों में जागरूकता और अनुपालन की कमी :
    • भारत में कुछ फार्मा कंपनियाँ दवाओं के निर्माण, परीक्षण, लेबलिंग, पैकेजिंग, भंडारण और वितरण के लिये निर्धारित मानकों एवं मानदंडों का पालन नहीं करती हैं।
      • कुछ फार्मा कंपनियां लागत में कटौती या मुनाफा बढ़ाने के लिये अनैतिक या अवैध अभ्यासों का भी सहारा लेती हैं, जैसे गुणवत्ताहीन या नकली कच्चे माल का उपयोग करना, दवाओं में मिलावट करना या उन्हें तनु करना, डेटा या दस्तावेजों में गलत दावे या हेराफेरी करना आदि।
      • वे विभिन्न बाज़ारों या देशों के लिये नियामक आवश्यकताओं या दिशानिर्देशों के बारे में जागरूकता या ज्ञान का अभाव भी रखते हैं।
      • उनके पास अपने उत्पादों में त्रुटियों या दोषों का पता लगाने अथवा उन पर अंकुश लगाने के लिये पर्याप्त गुणवत्ता नियंत्रण प्रणालियों या तंत्रों का अभाव भी हो सकता है।

अप्रभावी विनियमों के क्या परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं?

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य का नुकसान:
    • भारतीय फार्मा उत्पादों की खराब गुणवत्ता और सुरक्षा इनका सेवन करने वाले रोगियों में संक्रमण, एलर्जी, अंग क्षति, विषाक्तता जैसे प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न कर सार्वजनिक स्वास्थ्य को गंभीर हानि पहुँचा सकती है।
    • इससे उन रोगियों में उपचार विफलता, दवा प्रतिरोध, जटिलताएँ या मृत्यु की स्थिति बन सकती है जो एचआईवी/एड्स, तपेदिक, मलेरिया, कैंसर जैसी गंभीर या प्राणघातक बीमारियों से पीड़ित हैं।
    • सार्वजनिक विश्वास की हानि:
    • अप्रभावी विनियमन फार्मा उत्पादों के प्रति रोगियों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के भरोसे को कमज़ोर करता है।
  • आर्थिक विकास का नुकसान:
    • भारतीय फार्मा उत्पादों की खराब गुणवत्ता एवं सुरक्षा वैश्विक बाज़ार में भारत के फार्मा उद्योग की प्रतिष्ठा और प्रतिस्पर्द्धात्मकता को प्रभावित कर आर्थिक विकास को नुकसान पहुँचा सकती है।
    • यह विदेशी नियामकों या ग्राहकों द्वारा उत्पादों पर प्रतिबंध, रिकॉल या अस्वीकृति के कारण भारतीय फार्मा कंपनियों के लिये बाज़ार हिस्सेदारी, राजस्व और मुनाफे की हानि का कारण बन सकता है।
    • इसके परिणामस्वरूप, भारतीय फार्मा क्षेत्र के लिये विदेशी मुद्रा आय अर्जन, रोज़गार अवसरों और निवेश के नुकसान की स्थिति बन सकती है।
    • ये अन्य देशों के कानूनों या मानदंडों का उल्लंघन करने के लिये भारत के फार्मा उद्योग को कानूनी देनदारियों या दंड का भागी बना सकते हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का नुकसान:
    • भारतीय फार्मा उत्पादों की खराब गुणवत्ता एवं सुरक्षा वैश्विक स्वास्थ्य पहलों में एक ज़िम्मेदार एवं विश्वसनीय भागीदार के रूप में भारत की छवि एवं साख को प्रभावित करके अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को नुकसान पहुँचा सकती है।
    • इससे भारत और भारत से प्राप्त हुए घटिया या हानिकारक दवाओं से प्रभावित अन्य देशों के बीच राजनयिक तनाव या संघर्ष पैदा हो सकता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का नुकसान:
    • ये पैंडेमिक, एपिडेमिक जैसे साझा स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने में अन्य देशों या संगठनों के साथ भारत के सहयोग या सहकार्यता में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।

भारत में औषधियों और फार्मास्युटिकल को विनियमित करने वाली प्रमुख संस्थाएँ

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय

रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय

वाणिज्य मंत्रालय

विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय

पर्यावरण मंत्रालय

स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय (DGHS) 

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR)

औषधि विभाग

पेटेंट कार्यालय

जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT)

विनिर्माण के लिये पर्यावरणीय मंज़ूरी

केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO), जिसकी अध्यक्षता भारत के औषधि महानियंत्रक (DCGI) करते हैं + वैधानिक समितियाँ + सलाहकार समितियाँ

राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (NPPA); औषधि (मूल्य नियंत्रण) आदेश (DPCO) 2013

पेटेंट महानियंत्रक (Controller General of Patent)

वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) प्रयोगशालाएँ



आगे की राह 

  • औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 में संशोधन करना:
    • सरकार को फार्मा क्षेत्र के सभी पहलुओं और चुनौतियों को संबोधित करने के लिये दवा विनियमन हेतु मौजूद कानूनी ढाँचे को अद्यतन करना चाहिये तथा विभिन्न श्रेणियों की दवाओं एवं बाज़ारों के लिये स्पष्ट और एकसमान मानक एवं मानदंड प्रदान करना चाहिये।
  • दवा नियामक संरचना एवं कार्यकरण को सुव्यवस्थित और युक्तिसंगत बनाना:
    • सरकार को संपूर्ण फार्मा क्षेत्र को विनियमित करने और दवा कानूनों एवं मानदंडों के प्रभावी प्रवर्तन और अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त शक्तियों, संसाधनों, विशेषज्ञता एवं स्वायत्तता के साथ एक एकल केंद्रीय प्राधिकरण का गठन करना चाहिये।
  • फार्मा उद्योग में गुणवत्ता एवं सुरक्षा की संस्कृति को बढ़ावा देना:
    • मानकों एवं मानदंडों का अनुपालन करने और उच्च गुणवत्तापूर्ण दवाओं का उत्पादन करने के साथ ही स्वैच्छिक स्व-नियमन और गुणवत्ता प्रमाणन योजनाओं को अपनाने के लिये फार्मा उद्योग को प्रेरित करने के लिये सरकार द्वारा वित्तीय प्रोत्साहन, मान्यता, समर्थन एवं मार्गदर्शन प्रदान किया जाना चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: वैश्विक बाज़ार में भारतीय फार्मा उत्पादों की खराब गुणवत्ता एवं सुरक्षा के कारणों और इसके परिणामों की विवेचना कीजिये। भारतीय फार्मा उत्पादों की गुणवत्ता एवं सुरक्षा में सुधार के लिये और वैश्विक दक्षिण की फार्मेसी के रूप में भारत की प्रतिष्ठा एवं प्रतिस्पर्द्धात्मकता की संवृद्धि के लिये कुछ उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न (PYQ)  

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-से, भारत में सूक्ष्मजैविक रोगजनकों में बहु-औषध प्रतिरोध के होने के कारण हैं?

1. कुछ व्यक्तियों में आनुवंशिक पूर्ववृत्ति (जेनेटिक प्रीडिस्पोजीशन) का होना
2. रोगों के उपचार के लिये प्रतिजैविकों (एंटिबॉयोटिक्स) की गलत खुराकें लेना
3. पशुधन फार्मिंग में प्रतिजैविकों का इस्तेमाल करना
4. कुछ व्यक्तियों में चिरकालिक रोगों की बहुलता होना

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) 1 और 2   
(b) केवल 2 और 3
(c) 1, 3 और 4
(d) 2, 3 और 4

उत्तर: (d)

व्याख्या:

  • बहु-औषध प्रतिरोध (AMR) एक सूक्ष्मजीव (जैसे बैक्टीरिया, वायरस और कुछ परजीवी) की एक रोगाणुरोधी (जैसे एंटीबायोटिक, एंटीवायरल और एंटीमाइलेरियल) को इसके खिलाफ कार्य करने से रोकने की क्षमता है। नतीजतन, मानक उपचार अप्रभावी हो जाते हैं, संक्रमण बना रहता है और दूसरों में फैल सकता है।
  • एक आनुवंशिक पूर्ववृत्ति (जेनेटिक प्रीडिस्पोजीशन) जिसे कभी-कभी आनुवंशिक संवेदनशीलता भी कहा जाता है, किसी व्यक्ति के आनुवंशिक गुणों के आधार पर किसी विशेष रोग के विकसित होने की संभावना बढ़ जाती है। विशिष्ट आनुवंशिक विविधताओं से एक आनुवंशिक पूर्ववृत्ति का परिणाम होता है जो अक्सर माता-पिता से मिलता है। इसका बहु-औषध प्रतिरोध से कोई सीधा संबंध नहीं है। अतः 1 सही नहीं है।
  • रोगाणुरोधी प्रतिरोध आमतौर पर आनुवंशिक परिवर्तनों के माध्यम से स्वाभाविक रूप से समय के साथ विकसित होता है। हालाँकि, रोगाणुरोधी का दुरुपयोग और अति प्रयोग ने इस प्रक्रिया को तेज़ करने कार्य किया है। कई स्थानों पर मानव एवं अन्य जीवों में प्रतिजैविक दवाओं का अत्यधिक उपयोग अथवा दुरुपयोग ने, जो की अक्सर पेशेवर निरीक्षण की अनुपस्थिति में होता है, इस समस्या को और भी गंभीर बना दिया है। दुरुपयोग के उदाहरणों में सर्दी और फ्लू जैसे वायरल संक्रमण में एवं पशुओं में विकास प्रमोटर के रूप में या स्वस्थ पशुओं में रोगों को रोकने के लिये इनका अत्यधिक उपयोग शामिल है। अतः 2 और 3 सही हैं।
  • चिरकालिक रोग दो या दो से अधिक पुरानी बीमारियाँ हैं जो एक ही समय में एक व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिये, या तो गठिया और उच्च रक्तचाप वाले व्यक्ति या हृदय रोग और अवसाद वाले व्यक्ति, दोनों को कई पुरानी बीमारियाँ हैं। इसलिये यह जरूरी नहीं है कि बहु-औषध प्रतिरोध वाले व्यक्ति में एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस होगा, क्योंकि चिरकालिक रोग ऐसा हो सकता है, जिसमें प्रतिजैविकों को देने की ज़रूरत न हो। अतः 4 सही नहीं है।

अतः विकल्प (B) सही उत्तर है।

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