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भारतीय राजनीति

भारत का अर्द्ध-संघीय लोकतंत्र

  • 14 Oct 2021
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 09/10/2021 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘Reflections on the ‘quasi-federal’ democracy’’ लेख पर आधारित है। इसमें भारतीय संघवाद की विशेषताओं और हमारे लोकतंत्र के संघीय ढाँचे की खामियों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में संसदीय व्यवधान (Parliamentary Disruption) एक सामान्य घटना है। बीते कुछ दिनों में ऐसे व्यवधानों के बीच ही संसद में बिना किसी विचार-विमर्श के बड़ी संख्या में ऐसे विधेयक (जैसे तीन कृषि कानून विधेयक) पारित किये गए है, जो देश के संघीय ढाँचे को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं ।

इसने भारत के संघीय लोकतंत्र में व्याप्त संरचनात्मक खामियों के संबंध में कई विषयों की ओर ध्यान आकर्षित किया है जिन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

भारतीय संघवाद (Indian Federalism)

  • संक्षिप्त तौर पर संघवाद एक द्वैध सरकार प्रणाली है, जिसमें एक केंद्र और कई राज्य शामिल होते हैं।
  • भारतीय संघवाद की अनूठी विशेषताएँ:  
    • एकल संविधान: भारत में केवल एक ही संविधान को अंगीकार किया गया है। यह समग्र रूप से संघ और राज्यों, दोनों पर लागू होता है; जबकि एक ‘वास्तविक संघ’ (True Federation) में, संघ और राज्यों के लिये अलग-अलग संविधान होते हैं।
    • शक्ति का विभाजन: किसी वास्तविक संघ में दो सरकारों के बीच शक्ति समान रूप से विभाजित होती है।  
      • लेकिन भारत में, केंद्र सरकार को राज्य सरकारों की तुलना में अधिक शक्तियाँ दी गई हैं और उन्हें अधिक मज़बूत बनाया गया है (अनुसूची 7 की संघ सूची में राज्य सूची की तुलना में अधिक और महत्त्वपूर्ण विषय रखे गए हैं)। 
    • संविधान अत्यधिक कठोर नहीं है: भारत के संविधान में भारतीय संसद द्वारा समय की आवश्यकता के अनुरूप संशोधन किया जा सकता है।
      • कई मामलों में संविधान के संशोधन के लिये संसद को राज्य विधानसभाओं के अनुमोदन की आवश्यकता भी नहीं होती है (अनुच्छेद-3 मौजूदा राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के परिवर्तन की अनुमति प्रदान करता है)।
      • हालाँकि, राज्यों के कार्यों और अधिकारों को प्रभावित करने वाले संविधान संशोधनों और कानूनों पर आधे राज्यों की सहमति आवश्यक है (संविधान का अनुच्छेद 368)। 
    • एकीकृत न्यायपालिका: भारत में एकीकृत न्यायिक प्रणाली स्थापित की गई है। उच्च न्यायालय, जो किसी राज्य के शीर्ष न्यायालय होते हैं, पदानुक्रम में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अंतर्गत रखे गए हैं।
    • एकल नागरिकता: भारत में संघ और राज्यों के लिये अलग-अलग नागरिकता नहीं प्रदान की गई है (संविधान के भाग II के तहत एकल नागरिकता का प्रावधान)। 
      • सभी भारतीय नागरिक देश के नागरिक हैं। यह संयुक्त राज्य अमेरिका से विपरीत है, जहाँ दोहरी नागरिकता का प्रबंध है: एक, संघीय और दूसरा, राज्य की नागरिकता।
  • भारतीय संविधान की प्रकृति
    • संघीय सिद्धांतकार ’के.सी. व्हेयर’ (K.C. Wheare) ने भारतीय संविधान को अपनी प्रकृति में अर्द्ध-संघीय (Quasi-Federal) माना है।      
    • ‘एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ’ वाद (1994) में सर्वोच्च न्यायालय के नौ न्यायाधीशों की पीठ ने संघवाद को ‘संविधान की मूल संरचना’ (Basic Structure of the Constitution) का अंग माना था।    
    • ‘सत पाल बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य’ (1969) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान को संघीय या एकात्मक की तुलना में अर्द्ध-संघीय अधिक माना था।  

अर्द्ध-संघीय प्रणाली के लाभ

  • राष्ट्रीय एकीकरण: भारतीय संविधान सभा ने एक वास्तविक संघ का निर्माण नहीं करने का निर्णय तत्कालीन अनिश्चित परिदृश्यों को देखते हुए लिया था।   
    • धर्म के आधार पर पाकिस्तान की मांग के साथ अन्य भारतीय राज्यों में भी अलग राष्ट्र राज्यों के सृजन की कुछ मांगें उठ रही थीं। परिणामस्वरूप, संविधान में अनुच्छेद-356 जैसे विभिन्न प्रावधान जोड़े गए। एकात्मक विशेषताओं वाली एक संघीय संरचना ने इस तरह के परिदृश्यों से निपटने हेतु एक अवसर प्रदान किया।  
  • सहयोग और समन्वय: एक अर्द्ध-संघीय संरचना ही केंद्र को ’पल्स पोलियो कार्यक्रम’ जैसे राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों का समन्वय करने का अवसर देती है।  
    • हाल ही में कोविड-19 के दौरान विभिन्न राज्यों को उनकी आवश्यकता के अनुसार ऑक्सीजन का आवंटन एक केंद्रीय प्राधिकार के कारण ही संभव हो सका।  
  • एकल बाज़ार अर्थव्यवस्था: अर्द्ध-संघीय ढाँचा भारत को विश्व के लिये एक ‘एकल बाज़ार’ के रूप में विकसित होने का अवसर देता है। हाल ही में लाई गई वस्तु एवं सेवा कर (GST) व्यवस्था ने भारत को एक एकल बाज़ार के रूप में उभरने की अनुमति दी है।  
    • इसके अलावा, पूरे भारत में एक ही आयकर व्यवस्था लागू है और राज्यों के पास अलग आयकर लागू करने की शक्ति नहीं है। इस प्रकार, भारतीय नागरिकों की दोहरे कराधान से रक्षा की गई है।  
  • प्रक्रियात्मक सुगमता: भारतीय संसदीय प्रणाली अपने द्विसदनीय विधानमंडल के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे वास्तविक संघ में विधि पारित करने की प्रक्रिया की तुलना में अधिक प्रक्रियात्मक सुगमता प्रदान करती है।  
    • द्विसदनीय विधानमंडल की व्यवस्था उच्च सदन में राज्यों का उचित प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित करती है।
  • अंतर्राज्यीय विवादों का समाधान: भारत का अर्द्ध-संघीय ढाँचा केंद्र को अंतर्राज्यीय विवादों में मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका निभाने का अवसर देता है। उदाहरण के लिये सीमा विवाद और नदी जल विवाद।
    • संविधान का अनुच्छेद 262: अंतर्राज्यीय नदियों या नदी घाटियों के जल से संबंधित विवादों का अधिनिर्णयन  

अर्द्ध-संघीय व्यवस्था की चुनौतियाँ

  • केंद्र द्वारा शक्ति का दुरुपयोग: संविधान के संघीय प्रावधानों में केवल राज्यों की सहमति से ही संशोधन किया जा सकता है। संविधान की अनुसूची-7 में केंद्र और राज्य के लिये अलग-अलग सूची का प्रावधान किया गया है।  
    • हालाँकि, केंद्र नियमित रूप से राज्य के विषयों पर कानून बनाकर इस प्रावधान का उल्लंघन करता रहा है। हाल के तीन कृषि कानून भी इसकी पुष्टि करते हैं।  
  • राज्यपाल का पद: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-154 के अनुसार राज्य की सभी कार्यकारी शक्तियाँ राज्यपाल में निहित हैं।   
    • इस प्रावधान का तात्पर्य यह है कि राज्यपाल राज्य के मुख्यमंत्री के साथ ही राज्य के महाधिवक्ता और राज्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की शक्ति रखता है। केंद्र में सत्तासीन राजनीतिक पार्टी द्वारा अपनी राज्य इकाई या गठबंधन साझीदार किसी क्षेत्रीय पार्टी के पक्ष में बार-बार राज्यपाल की शक्तियों का दुरुपयोग किया जाता है।
    • राज्यपाल की सर्वोपरि कार्यकारी शक्ति यह है कि वह किसी राज्य में संवैधानिक आपातकाल लगाने की अनुशंसा कर सकता है। 
  • क्षेत्रवाद: क्षेत्रवाद स्वयं को भाषा, संस्कृति आदि के आधार पर स्वायत्तता की मांगों के माध्यम से स्थापित करता है।
    • इस प्रकार, राष्ट्र को उग्रवाद के रूप में आंतरिक सुरक्षा की चुनौती का सामना करना पड़ता है, जो कि भारतीय संघ की मूल धारणा पर आघात का कारण बनता है।

आगे की राह

  • संस्थागत और राजनीतिक स्तर पर सुधार भारत में संघवाद की जड़ों को गहरा कर सकता है।  
  • केंद्र के हितों के लिये राज्यों के अधिकार को महत्त्वहीन करने में राज्यपाल की विवादास्पद भूमिका की भी समीक्षा की जानी चाहिये।
  • विवादास्पद नीतिगत मुद्दों पर केंद्र और राज्यों के बीच राजनीतिक सद्भावना विकसित करने हेतु अंतर्राज्यीय परिषद के संस्थागत तंत्र का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिये।   
  • केंद्र के हिस्से को कम किये बिना राज्यों की राजकोषीय क्षमता के क्रमिक विस्तार की कानूनी गारंटी दी जानी चाहिये।  

निष्कर्ष

संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर ने उपयुक्त दृष्टिकोण को आगे बढ़ाते हुए था कि, ‘‘हमारा संविधान समय और परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुसार एकात्मक और संघीय दोनों होगा।’’ 

उनके इस दृष्टिकोण के अनुरूप, भारतीय संघवाद को एक अलग प्रकार के संघवाद या स्वयं में अनूठे संघवाद (Federalism Sui Generis) के रूप में देखना ही ​​अधिक उपयुक्त होगा। 

अभ्यास प्रश्न: ‘भारतीय संविधान समय और परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुसार एकात्मक और संघीय दोनों है।’ इस कथन के आलोक में भारतीय राज्य व्यवस्था के अर्द्ध-संघीय स्वरूप का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये।

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