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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

यूरेशियाई परिदृश्य में भारत की प्रमुख भूमिका

  • 20 Jun 2018
  • 15 min read

संदर्भ

G-7 शिखर सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तथा अन्य सहभागी देशों के नेताओं के साथ सार्वजनिक रूप से कट्टरपंथी विचारों के आदान-प्रदान तथा मुख्य रूप से समाचारों की सुर्ख़ियों में रही अमेरिका-उत्तर कोरिया शिखर वार्ता के बीच शंघाई सहयोग संगठन (Shanghai Cooperation Organisation -SCO) ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी और आकर्षित किया। उल्लेखनीय है कि भारत ने पहली बार शंघाई सहयोग संगठन में पूर्ण सदस्य के रूप में भाग लिया। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2005 से भारत इस संगठन का पर्यवेक्षक सदस्य था। 

SCO1

शंघाई सहयोग संगठन
(Shanghai Cooperation Organisation -SCO)

  • SCO की स्थापना वर्ष 1996 में शंघाई पाँच नामक समूह के रूप में पाँच देशों रूस, चीन, कज़ाखस्तान, ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान द्वारा की गई थी।
  • इसका उद्देश्य चीन तथा अन्य चार देशों के बीच सीमा विवाद को हल करना था। 
  • वर्ष 2001 में उज़्बेकिस्तान को भी इसमें शामिल कर लिया गया और शंघाई सहयोग संगठन के रूप में इसका पुनः नामकरण किया गया। 
  • इसके कार्य क्षेत्र में विस्तार करते हुए राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को भी इसमें शामिल किया गया। 
  • वर्ष 2017 में भारत तथा पाकिस्तान को इसके पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल किया गया।  

 

SCO2

भारत के लिये SCO में प्रवेश का महत्त्व

  • भारत और पाकिस्तान के प्रवेश से SCO की भौगोलिक, जनसांख्यिकीय और आर्थिक रूपरेखा का विस्तार हुआ है, जिसमें अब दुनिया की आधी आबादी और जीडीपी का एक-चौथाई हिस्सा शामिल है। 
  • इसकी सीमा दक्षिण की ओर हिंद महासागर तक फैली हुई है, जिससे संगठन में भारत की भौगौलिक उपस्थिति मज़बूत होती है।
  • भारत के लिये SCO की प्रासंगिकता भूगोल, अर्थशास्त्र और भू-राजनीति के रूप में निहित है। 
  • इसके सदस्य देशों का भारत के विस्तारित क्षेत्र के आस-पास एक विशाल भू-भाग पर अधिकार है, जिसमें भारत के महत्त्वपूर्ण आर्थिक और सुरक्षा हित शामिल हैं। 
  • अफगानिस्तान, पाकिस्तान और चीन इसकी सीमा से लगे मध्य एशियाई देश हैं। 
  • भूमि का एक हिस्सा दक्षिणी ताजिकिस्तान को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) से अलग करता है। 

पृष्ठभूमि 

  • इस संगठन में पाकिस्तान के शामिल होने तथा अफगानिस्तान और ईरान द्वारा इसकी सदस्यता की मांग के साथ ही भारत की सदस्यता तार्किक रूप से सिद्ध हो जाती है।
  • सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही राजनीतिक एवं सुरक्षा कारणों से मध्य एशियाई देशों के साथ भारत के संबंधों का सर्वोत्तम विकास बाधित रहा है।
  • अब ईरान से होकर गुज़रने वाले नए मल्टीमॉडल ट्रांसपोर्ट गलियारे के माध्यम से इस क्षेत्र के साथ व्यापार और निवेश संबंधों को फिर से बढ़ावा देने की संभावनाएँ खुल गई हैं। (बशर्ते ईरान पर ताज़ा अमेरिकी प्रतिबंध इस प्रयास को बाधित न करें)। 
  • SCO के प्रारंभिक वर्षों में रूस ने मध्य एशिया में चीन के आर्थिक प्रभुत्व को कुछ हद तक संतुलित करने के लिये इसमें भारत के प्रवेश के लिये दृढ़ता से दबाव डाला था। लेकिन चीन ने इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। 
  • चीन ने इस क्षेत्र में अपनी ऊर्जा और आर्थिक आधार को संगठित करने का काम किया है, जहाँ इसकी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (Built and Road- BRI) के हिस्से के रूप में महत्त्वाकांक्षी आधारभूत संरचना और कनेक्टिविटी परियोजनाओं की परिकल्पना की गई है। 
  • शंघाई सहयोग संगठन के 2018 के सम्मेलन में भारत को छोड़कर शेष सभी देशों ने चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का समर्थन किया है।
  • गौरतलब है कि मध्य एशिया में रूस की सुरक्षा प्रदाता की भूमिका तथा चीन की प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उपस्थिति के साथ-साथ भारत को इस क्षेत्र में स्वयं के लिये राजनीतिक तथा आर्थिक स्थान प्राप्त करने के लिये कड़ी मेहनत करनी होगी।
  • मध्य एशियाई देश इस क्षेत्र में केवल रूस तथा चीन के वर्चस्व को समाप्त करने के लिये भारत की इस पहल का स्वागत करेंगे।

किंगदाओ सम्मेलन तथा भारत-पकिस्तान

  • हाल ही में शंघाई सहयोग संगठन के 18वें सम्मेलन का आयोजन किंगदाओ (चीन) में हुआ।
  • किंगदाओ में भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत को बारीकी से देखा गया था। 
  • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति ममनून हुसैन के बीच हाथ मिलाने और हँसी का आदान-प्रदान तो देखा गया लेकिन था द्विपक्षीय वार्ता की कोई भी पहल नदारद थी। 
  • इसने भारत तथा पाकिस्तान के शंघाई सहयोग संगठन में प्रवेश के चलते उत्पन्न उन शंकाओं का भी निराकरण कर दिया जिसमें कहा गया था कि भारत-पाकिस्तान के बीच आपसी तकरार के कारण यह वार्ता ध्वस्त हो जाएगी। 

भारत-पाकिस्तान ट्रैक

  • रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा है कि SCO में सामंजस्यपूर्ण सहयोग भारत-पाकिस्तान को एक-दूसरे के नज़दीक आने के लिये मार्ग प्रशस्त कर सकता है। उन्होंने यह भी  दोहराया कि SCO की सदस्यता ने रूस और मध्य एशियाई देशों के साथ चीन के सीमा विवादों को सुलझाने में सहायता प्रदान की है। 
  • इस क्षेत्र में बड़े रणनीतिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के प्रयास में चीन ने रूस और मध्य एशिया के साथ अपने सीमा विवादों को सुलझाने के लिये पर्याप्त रियायतें दीं। 

क्षेत्रीय आतंकवाद विरोधी संरचना (RATS)  

  • हालाँकि, SCO दोनों देशों को संवेदनशील क्षेत्रों में सहयोग करने के लिये प्रेरित करेगा। इसका एक उदाहरण SCO की क्षेत्रीय आतंकवाद-विरोधी संरचना (Regional Anti-Terrorist Structure -RATS) है, जो आपराधिक और आतंकवादी गतिविधियों पर खुफिया जानकारी साझा कर सुरक्षा और स्थिरता के लिये सहयोग को समन्वित करती है। 
  • ऐसे में भारत और पाकिस्तान, जो इस तरह के मामलों में आपसी भेदभाव रखते हैं, को RATS में सहयोग के तरीकों की तलाश करनी होगी। 

रक्षा सहयोग तथा सैन्य अभ्यास

  • SCO का उद्देश्य रक्षा सहयोग जैसे मुश्किल क्षेत्र में सशस्त्र बलों के बीच संबंधों को बढ़ावा देना भी है। 
  • भारत इस साल के अंत में रूस में होने वाले SCO के आतंकवाद विरोधी सैन्य अभ्यास में भाग लेने पर सहमत हो गया है। 
  • इस सैन्य अभ्यास में भारतीय और पाकिस्तानी सैनिक एक-साथ भाग लेंगे। 

SCO के सामने चुनौतियाँ

  • SCO के विस्तार ने अब तक के साझा दृष्टिकोण पर इसके मतैक्य को कमज़ोर कर दिया है। 
  • इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कि भारत और पाकिस्तान परमाणु अप्रसार संधि (Nuclear Non-Proliferation Treaty -NPT) के हस्ताक्षरकर्त्ता नहीं हैं, किंगदाओ घोषणा अपने प्रावधानों में SCO के एनपीटी हस्ताक्षरकर्त्ताओं के अनुपालन की पुष्टि करती है।
  • एक कार्यशील बहुपक्षीय ढाँचे का मूल तत्त्व साझा उद्देश्यों और विचलन को कम करने पर केंद्रित होता है।

परमाणु अप्रसार संधि
(Nuclear Non-Proliferation Treaty -NPT)

  • परमाणु नि:शस्त्रीकरण की दिशा में परमाणु अप्रसार संधि (Non-Proliferation Treaty) को एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है।
  • यह 18 मई, 1974 को तब सामने आया जब भारत ने शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिये अपना पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण किया । 
  • भारत का मानना है कि 1 जुलाई, 1968 को हस्ताक्षरित तथा 5 मार्च, 1970 से लागू परमाणु अप्रसार संधि भेदभावपूर्ण है, साथ ही यह असमानता पर आधारित  एकपक्षीय व अपूर्ण है। 
  • भारत का मानना है कि परमाणु आयुधों के प्रसार को रोकने और पूर्ण निरस्त्रीकरण के उद्देश्य की पूर्ति के लिये क्षेत्रीय नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किये जाने चाहियें।  
  • परमाणु अप्रसार संधि का मौजूदा ढाँचा भेदभावपूर्ण है और परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों के हितों का पोषण करता है। 
  • यह परमाणु खतरे के साए तले जी रहे भारत जैसे देशों के हितों की अनदेखी करता है। 
  • भारत के अनुसार, वे कारण आज भी बने हुए हैं जिनकी वजह से भारत ने अब तक इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। 
  • कह सकते हैं कि परमाणु अप्रसार संधि पर भारत का रुख बेहद स्पष्ट है। वह किसी की देखा-देखी या दबाव में इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं करेगा।  
  • इस पर हस्ताक्षर करने से पहले भारत अपने हितों और अपने भविष्य को सुरक्षित रखते हुए मामले के औचित्य पर पूरी तरह से विचार करेगा।

भारत इस अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से इनकार करता रहा है।  

इसके लिये भारत दो तर्क देता है: 

  1. इस संधि में इस बात की कोई व्यवस्था नहीं की गई है कि चीन की परमाणु शक्ति से भारत की सुरक्षा किस प्रकार सुनिश्चित हो सकेगी। 
  2. इस संधि पर हस्ताक्षर करने का अर्थ है कि भारत अपने विकसित परमाणु अनुसंधान के आधार पर परमाणु शक्ति का शांतिपूर्ण उपयोग नहीं कर सकता। 

मध्य एशिया और शंघाई सहयोग संगठन

  • मध्य एशिया में भारत के लिये विस्तृत अवसरों के अलावा, SCO गैर-पश्चिमी (वैश्विक मुद्दों पर विरोधी-पश्चिमी परिप्रेक्ष्य से अलग) विचारों की अभिव्यक्ति के लिये एक मंच है।
  • यह भारत के अनुकूल है कि SCO अपनी घोषणाओं में स्पष्ट रूप से पश्चिम विरोधी नहीं है।

मध्य एशिया तथा अमेरिका

  • अमेरिका अफगानिस्तान में चलाए जा रहे अपने अभियानों के लिये सैन्य समर्थन सुनिश्चित करने के लिये कज़ाखस्तान, किर्गिस्तान और उज़्बेकिस्तान के साथ संबंध स्थापित करता है और धीरे-धीरे उन्हें रूसी प्रभाव से अलग कर देता है। 
  • रूस और चीन भी SCO में सावधानीपूर्वक पश्चिम-विरोधी दिखावे से परहेज़ करते हैं और शांतिपूर्वक तथा द्विपक्षीय वार्ताओं के माध्यम से मतभेदों को दूर करने की कोशिश करते हैं।

शक्तियों का संतुलन

  • पाकिस्तान के साथ सुरक्षा और रक्षा सहयोग के अलावा SCO में चीन का प्रभुत्व भारत के लिये चुनौतीपूर्ण हो सकता है। 
  • हो सकता है कि अमेरिका-रूस संबंध आगे खराब हो जाएँ, जिससे रूस को चीन की राजनीतिक और आर्थिक सहायता पर अधिक निर्भर होना पड़े। 
  • एक और संभावित कदम यू.एस.-उत्तरी कोरिया शिखर सम्मेलन का पतन हो सकता है।
  • अमेरिका द्वारा हाल ही में दिये गए संकेतों के अनुसार यदि कोरियाई प्रायद्वीप में शांति व्यवस्था कायम हो जाती है तो इस क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति कम हो सकती है यदि ऐसा होता है तो यह एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शक्तियों के संतुलन को नाटकीय रूप से चीन के पक्ष में खड़ा कर देगा।

निष्कर्ष

जब पड़ोसी के साथ आपके संबंध पेंचीदा हों या अनुकूल न हों तो आपको पड़ोसी के पड़ोसी के साथ मज़बूत संबंध रखने चाहियें। शंघाई सहयोग संगठन में भारत की सदस्यता आर्थिक, भौगोलिक तथा राजनीतिक रूप से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह चीन तथा रूस के बाद यूरेशिया में भारत के बढ़ते प्रभाव का सूचक है।  

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