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आपदा प्रबंधन

आपदा प्रबंधन का परिप्रेक्ष्य: राहत से समुत्थानशक्ति निर्माण तक

  • 09 Jul 2025
  • 28 min read

यह एडिटोरियल 08/05/2024 को द लाइवमिंट में प्रकाशित “India's disaster risk financing needs to evolve as new options emerge” लेख पर आधारित है। यह लेख भारत के आपदा प्रबंधन कार्यढाँचे में व्याप्त मूलभूत विरोधाभास: लगातार वित्त आयोगों द्वारा वित्तपोषण तंत्र को मज़बूत करने के बावजूद, देश की बढ़ती जा रही कमज़ोरियों को उजागर करता है।

प्रिलिम्स के लिये:

प्राकृतिक आपदाएँ, चक्रवात, हिंद महासागर सुनामी- 2004, चक्रवात रेमल, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, चरम मौसमी घटनाएँ, हीट वेव, आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005, आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंडाइ फ्रेमवर्क, ह्योगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन (HFA), चक्रवात बिपरजॉय, जोशीमठ भूमि अवतलन संकट- 2022 

मेन्स के लिये:

भारत के समक्ष प्रमुख आपदा संकट, मज़बूत आपदा प्रतिरोधक प्रणाली बनाने के लिये भारत द्वारा अपनाए जा सकने वाले उपाय

भारत की आपदा प्रबंधन व्यवस्था एक बुनियादी विरोधाभास से जूझ रही है: एक ओर जहाँ वित्त आयोगों ने समय के साथ वित्तीय संसाधनों को सुदृढ़ किया है, वहीं दूसरी ओर देश की भेद्यताएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। आपदाओं से होने वाले आर्थिक नुकसान अब प्रतिवर्ष ₹50,000 करोड़ से अधिक हो चुके हैं। अम्फान और तौकते जैसे चक्रवातों, बंगलुरु, असम और चेन्नई में आई विनाशकारी बाढ़ों तथा वायनाड में हुए भू-स्खलनों का असर यह स्पष्ट कर चुका है कि किस प्रकार प्राकृतिक आपदाएँ बार-बार जीवन एवं अर्थव्यवस्था पर भीषण चोट पहुँचा रही हैं। अब प्रश्न यह नहीं है कि क्या भारत आपदा तैयारियों में निवेश करने का जोखिम उठा सकता है, बल्कि यह है कि क्या यह तेज़ी से अप्रत्याशित जलवायु के लगातार अस्थिर होते भविष्य के प्रति समुत्थानशीलन स्थापित करने के अपने दृष्टिकोण की मौलिक रूप से पुनर्कल्पना नहीं कर सकता है।

भारत के समक्ष प्रमुख आपदा खतरे क्या हैं? 

  • अत्यधिक हीट वेव्स और नगरीय ऊष्मा द्वीप प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में हीट वेव्स में वृद्धि हो रही है, जो नगरीय ऊष्मा द्वीप प्रभाव के कारण शहरों में और भी अधिक बढ़ गई है। 
    • अविकसित बुनियादी अवसंरचना, हरियाली की कमी और परावर्तक सतहें गर्मियों में शहरी केंद्रों को जानलेवा बना देती हैं। इसका सबसे अधिक असर वृद्ध जनों, बाहरी कामगारों और झुग्गी-बस्तियों में रहने वाली आबादी पर पड़ता है।
    • वर्ष 2024 में, दिल्ली में 49.9°C तापमान दर्ज किया गया। IMD ने उत्तर भारत में वर्ष 2000-2020 के दौरान हीटवेव के दिनों में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की।

  • हिमनद का विगलन और हिमालय में बाढ़: ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय में हिमनदों के तेज़ी से पिघलने से आकस्मिक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएँ हो रही हैं। ये घटनाएँ अनियंत्रित जलविद्युत परियोजनाओं एवं संवेदनशील क्षेत्रों में वनों की कटाई से और भी बदतर हो रही हैं।
    • यह संकट सीमा पार— नेपाल, भूटान और उत्तरी भारतीय राज्यों पर समान रूप से प्रभाव डाल रहा है।
    • वर्ष 2023 में सिक्किम में एक ग्लेशियल झील के फटने से आई बाढ़ में 74 लोगों की मौत हो गई थी। ISRO ने पाया कि हिमालय की 2,000 से अधिक ग्लेशियल झीलें खतरे में हैं।

  • अरब सागर में चक्रवातों की बढ़ती तीव्रता: अरब सागर में चक्रवातों की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ रही है, जो भारत के पश्चिमी तट के लिये ऐतिहासिक रूप से दुर्लभ, परंतु एक नया बदलाव है। गर्म होते महासागर तूफानों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे गुजरात, महाराष्ट्र और केरल जैसे तटीय राज्य खतरे में पड़ रहे हैं। 
    • शहरी तटीय आबादी और बंदरगाह अर्थव्यवस्थाएँ अत्यधिक असुरक्षित हैं। चक्रवात बिपरजॉय (वर्ष 2023) अरब सागर का सबसे लंबा चक्रवात था, जिसने गुजरात में 94,000 लोगों को विस्थापित किया। 

  • बाढ़ और शहरी जल निकासी व्यवस्था की विफलता: अब मानसून के दौरान शहरी क्षेत्रों में बाढ़ की घटनाएँ आम होती जा रही हैं, जिनका मुख्य कारण अकुशल जल निकासी व्यवस्था, अतिक्रमण और अधोसंरचना की विफलता है। तेज़ी से हो रहा अनियोजित शहरीकरण भूमि की जल-अवशोषण क्षमता को घटाता है जिससे जलभराव की समस्या और गंभीर हो जाती है। जलवायु में हो रहे उतार-चढ़ाव के कारण अब अल्पकालिक लेकिन तीव्र वर्षा की घटनाएँ बढ़ रही हैं, जो मौज़ूदा प्रणालियों को पूरी तरह असमर्थ बना देती हैं।
    • जुलाई 2023 में, दिल्ली में यमुना का जलस्तर 45 वर्षों में अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच गया, जिससे कई प्रमुख क्षेत्र जलमग्न हो गए। 
  • हिमालयी क्षेत्र और पूर्वोत्तर में भूकंप का खतरा: भारत के उत्तर और उत्तर-पूर्व में, जो दोनों ही उच्च भूकंपीय क्षेत्र हैं, भूकंपीय खतरे पर अभी भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। भवन निर्माण नियमों का पालन न करने और अनियमित निर्माण से जोखिम बढ़ रहा है। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इस क्षेत्र में एक विध्वंसकारी भूकंप आने की आशंका है।
    • भारत का 58% से अधिक भूभाग भूकंप-प्रवण है (NDMA)। मार्च 2024 में, अफगानिस्तान में 6.6 तीव्रता के भूकंप ने दिल्ली को हिलाकर रख दिया, जिससे सीमा पार भूकंपीय जोखिम की आशंका बढ़ गई है।
  • जल संकट और सूखा: अत्यधिक जल दोहन, मानसून की अनियमितता तथा कृषि में असक्षमता भारत के जल संकट को और गंभीर बना रही है। देश के मध्य तथा दक्षिणी राज्य लगातार सूखा-प्रवण होते जा रहे हैं और भूजल स्तर तेज़ी से घट रहा है। यह संकट केवल पारिस्थितिक नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक तनाव और अंतर-राज्यीय संघर्षों से भी जुड़ा हुआ है।
    • उदाहरण: वर्ष 2023 में कावेरी जल विवाद एक बार फिर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच छिड़ गया। मराठवाड़ा क्षेत्र में लगातार 8 वर्षों तक सूखा पड़ा। वर्ष 2023 में केंद्रीय जल आयोग (CWC) ने बताया कि भारत के 70% से अधिक भूजल संसाधनों का अत्यधिक दोहन हो चुका है।
  • वनाग्नि और जैवविविधता का क्षरण: बढ़ते तापमान और लंबी शुष्क अवधि के कारण पारिस्थितिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में वनों में आग लगने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। अपर्याप्त वन प्रबंधन, मानवीय हस्तक्षेप और आक्रामक प्रजातियाँ इस संकट को और गहरा करती हैं। ये वनाग्नियाँ जैवविविधता, जनजातीय समुदायों/ आदिवासियों की आजीविका और प्राकृतिक 'कार्बन सिंक' के लिये बड़ा खतरा बनती जा रही हैं।
    • उदाहरण: वर्ष 2024 में उत्तराखंड में केवल 4 महीनों में बड़ी संख्या में वनाग्नि की घटनाएँ सामने आयीं। वन सर्वेक्षण संस्था (FSI) ने वर्ष 2004 की तुलना में आग की चपेट में आने वाले संवेदनशील क्षेत्रों में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की है।
  • समुद्र-स्तर वृद्धि और तटीय अपरदन: भारत का 7,500 किलोमीटर लंबा समुद्री तट समुद्र-स्तर वृद्धि से गंभीर संकट में है, जिससे भूमि क्षरण, लवणता की वृद्धि और आजीविका पर संकट बढ़ा है। बंदरगाहों और पर्यटन पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। मैंग्रोव विनाश और रेत उत्खनन जैसे मानवीय हस्तक्षेप इस संकट को और तीव्र बना रहे हैं।
    • उदाहरण: चिल्का झील में भूमि क्षरण की दर (प्रति वर्ष लगभग 19.87 मीटर) अत्यधिक है। सुंदरबन के द्वीप प्रतिवर्ष 2–3 मिलीमीटर की दर से निमग्न होते जा रहे हैं।

भारत की मौजूदा आपदा प्रबंधन प्रणाली आधुनिक आपदा चुनौतियों के लिये अपर्याप्त क्यों है?

  • विरासती कार्यढाँचा समुत्थानशीलन के बजाय राहत पर केंद्रित: भारत की आपदा मोचन प्रतिक्रियात्मक बनी हुई है, जोखिम न्यूनीकरण या समुत्थानशक्ति के निर्माण पर नहीं, बल्कि आपदा-पश्चात राहत पर केंद्रित है। संरचनात्मक शमन, पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ और जलवायु अनुकूलन पर अभी भी कम ज़ोर दिया जाता है। 
    • NDMA के पास बाध्यकारी प्रवर्तन प्राधिकरण और रणनीतिक चपलता का अभाव है। प्रारंभिक चेतावनियों के बावजूद चक्रवात अम्फान (वर्ष 2020) से 13 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ, जो अकुशल संरचनात्मक तैयारी की ओर संकेत करता है।
  • अपर्याप्त स्थानीय शासन और विकेंद्रीकरण: आपदा नियोजन अधोगामी होता है; स्थानीय निकायों के पास प्रतिक्रिया देने के लिये धन, स्वायत्तता और तकनीकी क्षमता का अभाव होता है। 
    • ग्राम पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों का जोखिम नियोजन में सही ढंग से एकीकरण नहीं है। इससे, विशेष रूप से ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी भारत में, वास्तविक काल पर अनुक्रिया सीमित हो जाती है।
    • 10% से भी कम ज़िलों ने आपदा प्रबंधन योजनाओं को अद्यतन किया है (NDMA, 2024)। वर्ष 2023 में, हिमाचल प्रदेश के कई गाँवों को स्थानीय निकासी प्रोटोकॉल के बिना भूस्खलन का सामना करना पड़ा।
  • जलवायु विज्ञान के साथ जोखिम नियोजन का अपर्याप्त समन्वय: वर्तमान आपदा प्रबंधन कार्यढाँचा जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न नई वास्तविकताओं, जैसे: बढ़ते हिमानी झील विस्फोट या नगरीय ऊष्मा द्वीप को अनदेखा करता है। जोखिम आकलन अब भी ऐतिहासिक आँकड़ों पर आधारित होते हैं, न कि गतिशील या भविष्यसूचक आँकड़ों पर। जलवायु परिवर्तन को एक आकस्मिक घटना की तरह देखा जाता है, जबकि यह एक प्रणालीगत संकट है।
    • से यह पता चलता है कि ग्लेशियल झील विस्फोट जोखिम क्षेत्रों की पूर्व-मान्यता में भारी चूक हुई।
  • शहरी भेद्यता और बुनियादी अवसंरचना का पतन: तीव्र शहरीकरण आपदा प्रबंधन प्रणाली की क्षमता से कहीं अधिक गति से बढ़ रहा है, जिससे अवसंरचनात्मक विफलताओं को सँभालना कठिन हो गया है। महानगरों में जल निकासी, विद्युत ग्रिड, स्वास्थ्य सेवाएँ तथा परिवहन तंत्र अत्यंत नाज़ुक अवस्था में हैं। 
    • शहरी बाढ़, अग्निकांड तथा भवनों का ध्वस्त होना अब एक सामान्य परिघटना बन गई है।
    • उदाहरणस्वरूप, वर्ष 2022 में बेंगलुरु में आयी बाढ़ से सूचना-प्रौद्योगिकी कंपनियों को ₹225 करोड़ की हानि हुई।
  • पूर्वानुमान और पूर्व चेतावनी प्रणालियों में तकनीकी खामियाँ: भारत की पूर्व चेतावनी प्रणालियों में विस्तृत जानकारी, वास्तविक काल पर सूचना का प्रसार और अंतिम बिंदु तक सूचना पहुँचाने का अभाव है। पूर्वानुमान में गैर-चक्रवाती घटनाओं जैसे लू, वनाग्नि और आकस्मिक बाढ़ (फ्लैश फ्लड) को पर्याप्त रूप से शामिल नहीं किया जाता है। बहु-आपदा चेतावनी प्रणाली अभी भी खंडित है।
    • भारतीय मौसम विभाग (IMD, 2024) के अनुसार, हीटवेव चेतावनी केवल कुछ राज्यों तक सीमित है जबकि 23 राज्य संवेदनशील घोषित किये गये हैं।
  • सुभेद्य आपूर्ति शृंखलाएँ और परस्पर निर्भरताएँ: उच्च अंतर्संबंध के कारण आपदाएँ अब राष्ट्रीय खाद्य, ईंधन और डिजिटल आपूर्ति शृंखलाओं को बाधित करती हैं। वर्तमान कार्यढाँचे विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक जोखिमों का आकलन नहीं करते हैं। एक स्थानीय घटना अब बहु-क्षेत्रीय व्यवधानों को जन्म दे सकती है।
    • चक्रवात बिपरजॉय (वर्ष 2023) के दौरान कांडला बंदरगाह के प्रभावित होने से उर्वरक आपूर्ति प्रणाली में विघटन हुआ।
  • अपर्याप्त वित्त पोषण और असंगत संस्थागत कार्यढाँचा: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA), राज्य एवं ज़िला स्तर की संस्थाएँ (SDMAs और DDMAs) संसाधनों के अभाव, अधिकारों की परस्पर असंगतता तथा समन्वय की कमी से ग्रस्त हैं। इनके दायित्व प्रायः विकास प्राधिकरणों एवं मंत्रालयों के कार्यक्षेत्र से टकराते हैं।  
    • आपदा प्रबंधन को अब भी सामान्य शासन व्यवस्था का अंग नहीं बनाया गया है। 
    • साथ ही, निजी उद्योगों एवं समुदायों को वर्तमान योजना प्रक्रिया में समुचित स्थान नहीं मिला है, जबकि वे जोखिम के प्रत्यक्ष भागीदार हैं तथा उनमें सशक्तीकरण की सम्भावनाएँ निहित हैं। कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) के अंतर्गत आपदा जोखिम न्यूनीकरण को विरल ही प्राथमिकता दी जाती है। समुदायों को न तो पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त है, न ही अभ्यास या निर्णयात्मक भागीदारी का अवसर।

भारत अधिक सुदृढ़ आपदा प्रतिरोधक प्रणाली बनाने के लिये क्या उपाय लागू कर सकता है?

  • शहरी और बुनियादी अवसंरचना की योजना में जलवायु-जोखिम मुख्यधारा को संस्थागत बनाना: भारत को स्मार्ट सिटी, आवास, परिवहन और ऊर्जा बुनियादी अवसंरचना की नीति में गतिशील जलवायु-जोखिम सूचकांक को शामिल करना चाहिये। 
    • इसमें ज़ोनिंग सुधार, शहरी उपनियमों में लचीलापन मानक तथा क्लाइमेट-प्रूफ मास्टर प्लान शामिल हैं। 
    • स्थानिक नियोजन में केवल ऐतिहासिक भेद्यता ही नहीं, बल्कि पूर्वानुमानित जोखिम मानचित्रण को भी एकीकृत किया जाना चाहिये। शहरी नियोजन को विस्तारवादी से जलवायु-अनुकूली अभिकल्पना की ओर स्थानांतरित होना होगा।
  • विकेंद्रीकृत बहु-क्षेत्रीय जोखिम मानचित्रण और कार्रवाई प्रकोष्ठों की स्थापना: प्रत्येक ज़िले को AI-संचालित पूर्वानुमान उपकरणों, GIS स्तरों और स्थानीय आकस्मिक प्रोटोकॉल से सुसज्जित एक वास्तविक काल बहु-क्षेत्रीय जोखिम निगरानी प्रकोष्ठ की स्थापना करनी चाहिये। 
    • इन इकाइयों को अंतिम चरण की कार्रवाई के लिये पंचायतों और शहरी वार्डों के साथ समन्वय करना चाहिये। जोखिम मानचित्रण में बाढ़ और महामारी या भूकंप एवं अग्निकांड जैसी संयुक्त घटनाओं को शामिल किया जाना चाहिये।
  • शमन के लिये समर्पित पूंजीगत व्यय के साथ एक राष्ट्रीय लचीलापन कोष का निर्माण: अनुक्रियात्मक राहत बजट के बजाय, भारत को पूंजीगत व्यय-संचालित ‘राष्ट्रीय लचीलापन कोष’ निर्धारित करना चाहिये। 
    • इससे तटबंधों, पुनर्निर्माण, प्राकृतिक अवरोधों, हरित अवसंरचना और पूर्व चेतावनी अवसंरचना के लिये वित्तपोषण किया जाना चाहिये। प्रदर्शन मानकों से जुड़ी एक नियम-आधारित निधि संवितरण व्यवस्था को उपयोग का मार्गदर्शन करना चाहिये।
  • सभी क्षेत्रों के लिये आपदा-रोधी अवसंरचना संहिता को संहिताबद्ध करना: रेलवे, विद्युत ग्रिड, बंदरगाहों, स्कूलों और दूरसंचार पर लागू होने वाली एक अनिवार्य ‘आपदा-रोधी अवसंरचना संहिता’ विकसित की जानी चाहिये।
    • सभी सार्वजनिक बुनियादी अवसंरचना को भूकंपीय भार, बाढ़ या चक्रवाती हवाओं जैसे विशिष्ट स्थानीय जोखिमों का सामना करने के लिये डिज़ाइन या पुनर्निर्मित किया जाना चाहिये, जो कानूनी रूप से बाध्यकारी होना चाहिये तथा इसका वार्षिक ऑडिट होना चाहिये।
  • जोखिम-संवेदनशील वित्तीय उपकरण और बीमा पारिस्थितिकी तंत्र: सूखा, बाढ़, चक्रवात और फसल हानि के लिये स्केलेबल पैरामीट्रिक बीमा मॉडल विकसित किया जाना चाहिये, विशेष रूप से MSME, किसानों व अनौपचारिक श्रमिकों के लिये। 
    • माइक्रोफाइनेंस और जोखिम-पूलिंग तंत्रों को स्थानीय सहकारी समितियों से जोड़ना चाहिये। बैंकों और FPO को उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में अनुकूलन से जुड़े ऋण प्रदान करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • समुदाय-नेतृत्व वाली प्रारंभिक चेतावनी और प्रतिक्रिया प्रोटोकॉल को संस्थागत बनाना: स्थानीय ज्ञान के आधार पर प्रतिक्रिया प्रोटोकॉल को डिज़ाइन करने, अभ्यास करने और निष्पादित करने के लिये प्रत्येक गाँव और शहरी मलिन बस्तियों में ‘जोखिम समितियों’ को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
    • उन्हें बुनियादी डिजिटल उपकरणों और त्वरित प्रतिक्रिया किटों से लैस किया जाना चाहिये। नियमित क्षमता निर्माण के माध्यम से महिलाओं, स्वयं सहायता समूहों और युवा समूहों को प्रथम प्रतिक्रियाकर्त्ता के रूप में सशक्त बनाया जाना चाहिये।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों में आपदा-प्रतिरोधी क्षमता को एकीकृत करना: प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) को बाढ़, लू या वेक्टर प्रकोपों ​​के लिये अत्यधिक क्षमता वाली जलवायु-प्रतिरोधी इकाइयों के रूप में पुनर्निर्धारित किया जाना चाहिये। स्वास्थ्य निगरानी, ​​मोबाइल चिकित्सा इकाइयों और टेलीमेडिसिन को ज़िला आपदा योजनाओं में शामिल किया जाना चाहिये।
    • खतरा-स्वास्थ्य अभिसरण के लिये राज्य आपदा प्राधिकरणों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के साथ संरेखित किया जाना चाहिये।
  • पाठ्यक्रम और कार्यबल प्रशिक्षण में आपदा जोखिम शिक्षा को संस्थागत बनाना: आपदा तैयारी और जलवायु अनुकूलन को औपचारिक स्कूल पाठ्यक्रम, व्यावसायिक प्रशिक्षण और सिविल सेवा मॉड्यूल का हिस्सा बनाया जाना चाहिये। 
    • सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों, शिक्षकों, ठेकेदारों और पंचायत कार्यकर्त्ताओं को स्थानीय स्तर पर आपातकालीन स्थितियों से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये। सिमुलेशन, अभ्यास और गेमीफाइड ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म का उपयोग किया जाना चाहिये।
  • निजी क्षेत्र की निरंतरता योजना और CSR जोखिम वित्तपोषण को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाना: उद्योगों, SEZ और कॉर्पोरेट समूहों के लिये ‘व्यावसायिक निरंतरता और अनुकूलन योजनाओं’ को बनाए रखना अनिवार्य बनाया जाना चाहिये। 
    • CSR विनियमों में आपदा मोचन और संवेदनशील क्षेत्रों में पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्स्थापना को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। एक संयुक्त सार्वजनिक-निजी आपातकालीन प्रतिक्रिया वित्तपोषण तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये।
  • इको-डीआरआर मॉडल के माध्यम से प्राकृतिक बफर्स ​​को पुनर्स्थापित और संरक्षित करना: मैंग्रोव, बाढ़ के मैदानों, आर्द्रभूमि और वन गलियारों को पुनर्स्थापित करके पारिस्थितिकी तंत्र आधारित आपदा जोखिम न्यूनीकरण (इको-डीआरआर) को अपनाया जाना चाहिये।
    • ढलान स्थिरीकरण, शहरी शीतलन और जल अवशोषण के लिये प्रकृति-आधारित समाधानों का उपयोग किया जाना चाहिये। भूमि उपयोग योजनाओं में ग्रीन बफर्स ​​को संस्थागत रूप दिया जाना चाहिये और उन्हें कार्बन-क्रेडिट वित्त धाराओं से जोड़ा जाना चाहिये।
  • जलवायु और आपदा पेशेवरों का एक राष्ट्रीय कैडर बनाना: भू-सूचना विज्ञान, शहरी जोखिम, मानवीय रसद, जलवायु अनुकूलन और आपातकालीन चिकित्सा में डोमेन विशेषज्ञों के साथ एक विशेष सेवा जैसे: ‘आपदा और अनुकूलन सेवा कैडर’ की स्थापना की जानी चाहिये।
    • इन विशेषज्ञों को राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों (SDMA), शोध संस्थानों और ज़मीनी तैनातियों के बीच चक्रानुक्रम में नियुक्त किया जाये ताकि शीघ्र व्यावसायिकता सुनिश्चित की जा सके।

निष्कर्ष: 

आपदा-प्रतिरोधी भारत के निर्माण के लिये, वर्तमान प्रतिक्रियात्मक कार्यढाँचे को एक सक्रिय, जलवायु-अनुकूल और स्थानीय रूप से सशक्त प्रणाली के रूप में विकसित होना होगा। प्रौद्योगिकी, समता और पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित रणनीतियों का एकीकरण अब वैकल्पिक नहीं रहा, बल्कि यह अत्यावश्यक है। आपदा जोखिम न्यूनीकरण को सभी क्षेत्रों में मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये, न कि केवल आपातकालीन प्रतिक्रिया के रूप में सीमित किया जाना चाहिये। यह सेंडाई कार्यढाँचे की प्राथमिकताओं: जोखिम समझ, शासन, लचीलापन निवेश और ‘बिल्ड बैक बेटर’ के लिये तैयारी, के बिल्कुल अनुरूप है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. "भारत का आपदा प्रबंधन कार्यढाँचा अभी भी बहुत हद तक प्रतिक्रियात्मक है और जलवायु से जुड़े उभरते आपदा जोखिमों के साथ संरचनात्मक रूप से असंगत है।" इस कथन के आलोक में, भारत के वर्तमान आपदा प्रशासन की सीमाओं का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये और सेंडाई कार्यढाँचे के अनुरूप एक अनुकूल, बहु-क्षेत्रीय जोखिम न्यूनीकरण दृष्टिकोण का सुझाव दीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

मेन्स 

प्रश्न 1. आपदा प्रबन्धन में पूर्ववर्ती प्रतिक्रियात्मक उपागम से हटते हुए भारत सरकार द्वारा आरम्भ किए गए अभिनूतन उपायों की विवेचना कीजिये। (2020)

प्रश्न 2. आपदा प्रभावों और लोगों के लिये उसके खतरे को परिभाषित करने के लिये भेद्यता एक अत्यावश्यक तत्त्व है। आपदाओं के प्रति भेद्यता का किस प्रकार और किन-किन तरीकों के साथ चरित्र चित्रण किया जा सकता है? आपदाओं के संदर्भ में भेद्यता के विभिन्न प्रकारों पर चर्चा कीजिये।  (2019)

प्रश्न 3. भारत में आपदा जोखिम न्यूनीकरण (डी.आर.आर.) के लिये 'सेंडाई आपदा जोखिम न्यूनीकरण प्रारूप (2015-2030)' हस्ताक्षरित करने से पूर्व एवं उसके पश्चात् किये गए विभिन्न उपायों का वर्णन कीजिये। यह प्रारूप 'ह्योगो कार्रवाई प्रारूप, 2005' से किस प्रकार भिन्न है? (2018)

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