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भारतीय राजनीति

विधायकों के एक वर्ष के निलंबन पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

  • 29 Jan 2022
  • 8 min read

प्रिलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 212, अनुच्छेद 194, संविधान की मूल संरचना, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 151 (A), संसद के सदनों से संबंधित प्रावधान।

मेन्स के लिये:

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, शक्तियों का पृथक्करण, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र विधानसभा से बीजेपी के 12 विधायकों (MLAs) के एक वर्ष के निलंबन को रद्द कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक वर्ष के लिये निलंबन 'असंवैधानिक तथा काफी हद तक अवैध और तर्कहीन' था।

प्रमुख बिंदु

  • विधायकों (MLAs) के निलंबन के बारे में:
    • विधायकों को OBCs के संबंध में डेटा के खुलासे को लेकर विधानसभा में दुर्व्यवहार करने के लिये निलंबित किया गया था।
    • निलंबन की चुनौती मुख्य रूप से नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के खंडन और निर्धारित प्रक्रिया के उल्लंघन के आधार पर निर्भर करती है।
      • निलंबित 12 विधायकों ने कहा है कि उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया गया और निलंबन की इस प्रक्रिया ने संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया।
    • महाराष्ट्र विधानसभा का नियम 53: इसके तहत "अध्यक्ष किसी भी सदस्य को तुरंत विधानसभा से बाहर जाने का निर्देश दे सकता है यदि कोई उसके निर्णय का पालन करने से इनकार करता है या उसकी राय में उसका आचरण घोर उच्छृंखल है। इसके अलावा यदि कोई सदस्य:
      • शेष दिन की बैठक में स्वयं अनुपस्थित रहता हो।
      • यदि किसी सदस्य को उसी सत्र में दूसरी बार निलंबन का आदेश दिया जाता है, तो विधानसभा का अध्यक्ष उस सदस्य को "किसी एक विशिष्ट अवधि के लिये सत्र से अनुपस्थित रहने का निर्देश दे सकता है, जो कि सदन की शेष अवधि से अधिक नहीं हो सकता।
  • महाराष्ट्र विधानसभा का तर्क:
  • अनुच्छेद 212: सदन ने अनुच्छेद 212 के तहत अपनी विधायी क्षमता के भीतर कार्य किया तथा न्यायालयों के पास विधायिका की कार्यवाही की जाँच करने का अधिकार नहीं है।
  • अनुच्छेद 212 (1) के तहत "किसी राज्य के विधानमंडल में किसी भी कार्यवाही की वैधता को प्रक्रिया की किसी कथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा"।
  • सीटों की रिक्ति: राज्य ने यह भी कहा है कि यही सदस्य 60 दिनों तक सदन में उपस्थित नहीं होता है तो भी यह सीट स्वतः रिक्त नहीं होती है, बल्कि सदन द्वारा ऐसा घोषित करने पर ही यह सीट रिक्त होती है।
    • साथ ही यह भी कहा गया था कि सदन ऐसी सीट को रिक्त घोषित करने के लिये बाध्य नहीं है।
  • अनुच्छेद 194: राज्य ने सदन की शक्तियों और विशेषाधिकारों पर अनुच्छेद 194 का भी उल्लेख किया और तर्क दिया है कि इन विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी भी सदस्य को सदन की अंतर्निहित शक्तियों के माध्यम से निलंबित किया जा सकता है।
    • राज्य द्वारा इस बात से भी इनकार किया गया है कि किसी सदस्य को निलंबित करने की शक्ति का प्रयोग केवल विधानसभा के नियम 53 के माध्यम से किया जा सकता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के तर्क:
    • तर्कहीन निलंबन: विधानसभा में व्यवस्था बहाल करने के लिये किसी सदस्य के निलंबन को अल्पकालिक या अस्थायी, अनुशासनात्मक उपाय के रूप में प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
      • इससे अधिक कुछ भी तर्कहीन निलंबन होगा।
    • विपक्ष में हेरफेर: इसने कहा कि एक कम बहुमत वाली गठबंधन सरकार विपक्षी दल के सदस्यों की संख्या में हेरफेर करने के लिये इस तरह के निलंबन का इस्तेमाल कर सकती है।
      • विपक्ष अपने सदस्यों को लंबी अवधि के लिये निलंबित किये जाने के डर से सदन में चर्चा/बहस में प्रभावी रूप से भाग नहीं ले पाएगा।
    • संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन: विधानसभा में पूरे एक साल तक निलंबित विधायकों के निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व न होने से संविधान का मूल ढाँचा प्रभावित होगा।
    • संवैधानिक आवश्यकता: पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 190 (4) का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है, "यदि किसी राज्य के विधानमंडल के सदन का कोई सदस्य साठ दिनों की अवधि तक सदन की अनुमति के बिना उसकी सभी बैठकों से अनुपस्थित रहता है, तो सदन उसकी सीट को रिक्त घोषित कर सकता है।"
    • वैधानिक आवश्यकता: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 151 (ए) के तहत "किसी भी रिक्ति को भरने के लिये वहाँ एक उप-चुनाव, रिक्ति होने की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर आयोजित किया जाएगा"।
      • इसका मतलब है कि इस धारा के तहत निर्दिष्ट अपवादों को छोड़कर, कोई भी निर्वाचन क्षेत्र छह महीने से अधिक समय तक प्रतिनिधि के बिना नहीं रह सकता है।
    • समग्र निर्वाचन क्षेत्र को दंडित करना: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक वर्ष का निलंबन प्रथम दृष्टया असंवैधानिक था, क्योंकि यह छह महीने की सीमा से अधिक था और यह केवल "सदस्य को दंडित करना नहीं, बल्कि समग्र निर्वाचन क्षेत्र को दंडित करने" जैसा है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप का प्रश्न: सर्वोच्च न्यायालय से इस प्रश्न पर हस्तक्षेप की अपेक्षा की जाती है कि क्या न्यायपालिका सदन की कार्यवाही में हस्तक्षेप कर सकती है।
      • हालाँकि संवैधानिक विशेषज्ञों का कहना है कि न्यायालय ने पिछले निर्णयों में स्पष्ट किया है कि सदन द्वारा किये गए असंवैधानिक कृत्य के मामले में न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है।

संसद सदस्य के निलंबन के प्रावधान:

  • लोकसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों के अंतर्गत नियम 373, 374, और 374A में उस सदस्य के निलंबन का प्रावधान है जिसका आचरण ‘बेहद अव्यवस्थित’ है और जो सदन के नियमों का दुरुपयोग करता है या उसके कामकाज में जान-बूझकर बाधा डालता है।
  • इन नियमों के अनुसार अधिकतम निलंबन ‘लगातार पाँच बैठकों या शेष सत्र, जो भी कम हो’ के लिये हो सकता है।
  • नियम 255 और 256 के तहत राज्यसभा से भी अधिकतम निलंबन शेष सत्र से अधिक नहीं है।
  • इसी तरह के नियम राज्य विधानसभाओं और परिषदों पर भी लागू हैं, जो सत्र के शेष समय से अधिक नहीं हो सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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