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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारतीय दवा कंपनियों की राह में ट्रम्प रूपी बाधा

  • 18 Mar 2017
  • 3 min read

समाचारों में क्यों ?

विदित हो कि गत छह माह में निफ्टी का फार्मा सूचकांक 11.52 फीसदी गिरा है। सन, वॉकहार्ट, ल्युपिन, अरविंदो जैसी दवा उद्योग की सभी दिग्गज कंपनियों के मूल्य में कमी आई है क्योंकि निवेशकों को डर है कि अमेरिका सस्ती जेनेरिक दवाओं का आयात रोक सकता है। दरअसल इन कंपनियों का अमेरिका में बड़ा कारोबार है। भारत में जेनेरिक दवाओं पर सरकार द्वारा मूल्य नियंत्रण की नीति लागू है, इसलिये भारत में उनको उतना लाभ नहीं मिलता। अब जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 'मेक इन अमेरिका' को बढ़ावा देना शुरू किया है, यह आशंका पैदा हो गई है कि भारतीय दवा क्षेत्र की दिग्गज कंपनियों को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है।

भारतीय कंपनियों के अधिक प्रभावित होने की आशंका क्यों ?

वर्ष 2015 में मूल्य की दृष्टि से भारत, अमेरिका को दवा निर्यात करने वाला पाँचवां सबसे बड़ा मुल्क था। उसके आगे आयरलैंड, जर्मनी, स्विटजरलैंड और इज़रायल थे। इन चारों में से प्रथम तीन देश उच्च मूल्य वाली पेटेंटयुक्त दवाएँ बनाते हैं। वहीं मात्रा की बात करें तो भारत, चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। परंतु चीन कम मूल्य वाले एक्टिव फार्मास्युटिकल्स इंग्रीडिएंट्स यानी एपीआई और इंटरमीडिएट्स निर्यात करता है, जबकि भारत जेनेरिक दवाएँ बनाता है। उल्लेखनीय है कि कनाडा और मैक्सिको को नाफ्टा के तहत प्राथमिकता मिलती है लेकिन इसके बावजूद दवाओं के निर्यात में वे भारत से नीचे रहे।

निष्कर्ष

इन परिस्थितियों में कंपनियाँ अमेरिका में ऐसी दवाएँ बनाने को भी तैयार हैं जिनकी बिक्री केवल अमेरिका में होती है। लेकिन जिन दवाओं की बिक्री दुनिया के तमाम देशों में होती है उनका निर्माण कंपनियाँ भारत में ही करना चाहती हैं, क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करेंगी तो भारत में दवाओं के निर्माण पर जो कम लागत आती है उन्हें उसकी क़ुरबानी देनी होगी। यदि अमेरिका सभी दवाओं का निर्माण अमेरिका में ही करवाना चाहता है तो उसे सस्ती दवाएँ उपलब्ध नहीं हो पाएंगी।  अतः यह ट्रम्प की टीम को तय करना होगा कि वह सस्ती दवाएँ चाहती है या अधिक रोज़गार। उम्मीद यहीं की जानी चाहिये कि अमेरिका समझदारी से काम लेगा और भारतीय दवा कंपनियों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाएगा।

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