मुख्य परीक्षा
नाबालिगों के संपत्ति का अधिकार बरकरार
- 01 Nov 2025
- 46 min read
चर्चा में क्यों?
के.एस. शिवप्पा बनाम श्रीमती के. नीलाम्मा केस 2025 में, सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने फैसला दिया कि वयस्क होने के बाद, कोई व्यक्ति अपने अभिभावक द्वारा न्यायालय की मंज़ूरी के बिना की गई संपत्ति की बिक्री को या तो मुकदमा दायर करके या स्पष्ट और असंदिग्ध आचरण, जैसे उस संपत्ति को दोबारा खुद बेच देने के माध्यम से भी उस लेनदेन को अस्वीकार कर सकता है।
नाबालिग की संपत्ति बेचने के बारे में कानून क्या कहता है?
- मामले की पृष्ठभूमि: पिता ने प्राकृतिक अभिभावक (नेचुरल गार्डियन) के रूप में कार्य करते हुए, कानून द्वारा अपेक्षित ज़िला न्यायालय की मंज़ूरी प्राप्त किये बिना अपने नाबालिग बेटों के नाम पर खरीदे गए भूमि के हिस्सों को बेच दिया।
- वयस्क होने के बाद, पुत्रों ने संपत्तियों को पुनः बेच दिया, जिसके परिणामस्वरूप मूल खरीदारों और बाद के क्रेताओं के बीच कानूनी विवाद उत्पन्न हो गए।
- कानूनी ढाँचा: अभिभावकों द्वारा अवयस्कों के लिये अर्जित संपत्ति से संबंधित कानून तीन प्रमुख विधानों के अंतर्गत निर्धारित किये जाते हैं:
- भारतीय संविदा अधिनियम, 1872: केवल पूर्ण आयु प्राप्त और स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति ही संविदा करने के पात्र होते हैं। अवयस्कों द्वारा की गईं संविदाएँ शुरू से ही शून्य मानी जाती हैं।
- एक वैध संविदा के लिये सहमति, वैध उद्देश्य, वैध प्रतिफल और सक्षम पक्षों का होना आवश्यक है - जिसमें अंतिम शर्त विशेष रूप से तब महत्त्वपूर्ण होती है जब अवयस्क का प्रतिनिधित्व उसका अभिभावक करता है।
- भारतीय संविदा अधिनियम, 1872: केवल पूर्ण आयु प्राप्त और स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति ही संविदा करने के पात्र होते हैं। अवयस्कों द्वारा की गईं संविदाएँ शुरू से ही शून्य मानी जाती हैं।
- हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956: प्राकृतिक अभिभावक को अवयस्क के हित में ही कार्य करना चाहिये। अभिभावक न्यायालय की अनुमति के बिना अवयस्क की स्थावर संपत्ति को बेच, बंधक रख या पट्टे पर नहीं दे सकता।
- बिना अनुमति की गई कोई भी बिक्री अवयस्क के विकल्प पर शून्यकरणीय होती है।
- संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890: अभिभावक न्यायालय की अनुमति के बिना संरक्ष्य की संपत्ति का निपटान नहीं कर सकता।
- परिसीमा अधिनियम, 1963: यह किसी व्यक्ति को वयस्क होने के बाद ऐसी संपत्ति अंतरण को चुनौती देने या रद्द करने के लिये 3 वर्ष का समय देता है।
- हालिया सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
- दो प्रकार की अस्वीकृति (Repudiation): न्यायालय ने माना कि कोई व्यक्ति किसी विलुप्त्य (voidable) लेन-देन को दो तरीकों से अस्वीकार कर सकता है या तो उसे निरस्त करने के लिये वाद (सूट) दायर करके, या फिर अपने स्पष्ट आचरण (unequivocal conduct) के माध्यम से उसका प्रतिषेध करके।
- आचरण के रूप में वैध उपकरण: यदि कोई व्यक्ति वयस्कता प्राप्त करने के बाद तीन वर्ष की सीमा अवधि के भीतर संपत्ति को किसी नए खरीदार को पुनः बेच देता है तो यह कार्य मूल अनधिकृत विक्रय की वैध अस्वीकृति (valid repudiation) मानी जाएगी।
- पावर ऑफ अटॉर्नी: यदि वादी (plaintiff) स्वयं गवाही देने से मना करता है तो उसका प्रतिनिधि (proxy) उन मुख्य तथ्यों पर गवाही नहीं दे सकता जो केवल वादी को ही ज्ञात हैं। अतः पावर ऑफ अटॉर्नी धारक मुख्य पक्ष (principal) के स्थान पर गवाही नहीं दे सकता।
- महत्त्व: यह निर्णय भारतीय संपत्ति कानून में अवयस्कों की सुरक्षा को सुदृढ़ करता है, अब्दुल रहमान बनाम सुखदयाल सिंह, 1905 के पूर्ववर्ती निर्णय की पुष्टि करता है और परिसीमन अधिनियम, 1963 के अंतर्गत ऐसी अस्वीकृति के लिये तीन वर्ष की सीमा अवधि को स्पष्ट करता है।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय नाबालिगों के संपत्ति अधिकारों को महत्त्वपूर्ण रूप से सशक्त बनाता है। आचरण के माध्यम से अनुबंध अस्वीकरण को मान्यता देकर, यह वयस्कों के लिये बिना अनुमति बेची गई संपत्ति को पुनः प्राप्त करने की प्रक्रिया को सरल बनाता है। साथ ही यह अभिभावक के न्यासीय कर्त्तव्य को सुनिश्चित करता है और पीड़ित पक्ष पर औपचारिक मुकदमेबाज़ी का बोझ कम करता है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: यह चर्चा कीजिये कि के.एस. शिवप्पा बनाम के. नीलाम्मा (2025) का निर्णय नाबालिग के संपत्ति अधिकारों के संरक्षण को कैसे सशक्त बनाता है और इसका अभिभावकता कानून पर क्या प्रभाव पड़ता है। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1. नाबालिग द्वारा किये गए अनुबंध की कानूनी स्थिति क्या है?
भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 के अनुसार, नाबालिगों द्वारा किये गए अनुबंध शुरू से ही शून्य माने जाते हैं।
2. किसी व्यक्ति के लिये अपने अभिभावक द्वारा की गई संपत्ति हस्तांतरण को चुनौती देने की समय-सीमा क्या है?
सीमितीकरण अधिनियम, 1963 के अनुसार, वयस्कता प्राप्त करने की तिथि से तीन वर्ष की अवधि के भीतर ऐसे हस्तांतरण को चुनौती दी जा सकती है।
3. सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय के माध्यम से किस पूर्व निर्णय की पुनः पुष्टि की?
न्यायालय ने अब्दुल रहमान बनाम सुखदयाल सिंह (1905) मामले में स्थापित उस सिद्धांत की पुनः पुष्टि की, जिसमें आचरण के माध्यम से अनुबंध अस्वीकरण को मान्यता दी गई थी।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
प्रीलिम्स
प्रश्न. भारत में संपत्ति के अधिकार की क्या स्थिति है? (2021)
(a) केवल नागरिकों के लिये उपलब्ध विधिक अधिकार
(b) किसी भी व्यक्ति के लिये उपलब्ध विधिक अधिकार
(c) केवल नागरिकों के लिये उपलब्ध मौलिक अधिकार
(d) न तो मौलिक अधिकार और न ही कानूनी अधिकार
उत्तर: (b)
प्रश्न. भारत के संविधान के उद्देश्यों में से एक के रूप में 'आर्थिक न्याय' का किसमें उपबंध किया गया है? (2013)
(a) उद्देशिका और मूल अधिकार
(b) उद्देशिका और राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व
(c) मूल अधिकार और राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व
(d) उपर्युक्त में से किसी में नहीं
उत्तर: (b)
मेन्स:
प्रश्न. कोहिलो केस में क्या अभिनिर्धारित किया गया था? इस संदर्भ में क्या आप कह सकते हैं कि न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के बुनियादी अभिलक्षणों में प्रमुख महत्त्व का है? (2016)
प्रश्न: कृषि विकास में भूमि सुधारों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। भारत में भूमि सुधारों की सफलता के लिये उत्तरदायी कारकों की पहचान कीजिये। (2016)
प्रश्न. भूमि अर्जन, पुनरुद्धार और पुनर्वासन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 पहली जनवरी, 2014 से प्रभावी हो गया है। इस अधिनियम के लागू होने से कौन-से महत्त्वपूर्ण मुद्दों का समाधान निकलेगा? भारत में उद्योगीकरण और कृषि पर इसके क्या परिणाम होंगे?