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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भ्रष्टाचार निवारण हेतु ‘भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद्’ का पुनर्गठन

  • 21 Sep 2017
  • 8 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नीति आयोग के विशेषज्ञों ने भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद् को एक नए राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (National Medical Commission -NMC) से प्रतिस्थापित करने का प्रस्ताव रखा। इसका उल्लेख एक विधेयक के मसौदे में किया गया है, जिसे ‘राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक ’, 2016 के नाम से जाना जाता है। 

प्रमुख बिंदु 

  • उल्लेखनीय है कि भारत के आकांक्षी मेडिकल कॉलेजों को अपारदर्शी मान्यता (opaque accreditation) प्रदान करने के लिये ‘भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद्’ (Medical Council of India-MCI) की बार-बार आलोचना की जाती रही है।
  • दरअसल, एम.सी.आई. के अनेक सदस्यों पर शीघ्र मान्यता देने के लिये रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया है।  रिश्वत लेने से मान्यता प्राप्त सभी कॉलेजों की वैधता कम हो जाती है और इस प्रकार पूरे देश में मेडिकल कॉलेजों की गुणवत्ता के साथ समझौता किया जाता है। 
  • भारत में चिकित्सा पेशेवरों की कमी को देखते हुए तथा स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये गुणवत्तापूर्ण मेडिकल कॉलेजों की आवश्यकता है। 
  • हालाँकि विशेषज्ञों ने इस प्रस्तावित विधेयक पर विचार करके कुछ ऐसी सिफारिशें की हैं, जो निश्चित ही भारत की चिकित्सकीय शिक्षा को वैधतापूर्ण मान्यता प्रदान करने में सहायक होंगी। 

प्रस्तावित एन.एम.सी और एम.सी.आई में अंतर

  • प्रस्तावित एन.एम.सी. और एम.सी.आई. के मध्य संरचनात्मक अंतर काफी अधिक है। एन.एम.सी. चुनाव, सलाह देने और वास्तविक मान्यता प्रदान करने वाली प्रक्रियाओं को तीन पृथक निकायों के मध्य विभाजित कर देगा। 
  • आशा की जा रही है कि शक्तियों का विभाजन करने से जाँच और संतुलन की व्यवस्था को कायम रखा जा सकेगा। दरअसल, वर्तमान बिल के अनुसार, मान्यता प्रदान करने वाले बोर्ड के सभी सदस्य सलाहकारी बोर्ड के भी पदेन सदस्य हो सकते हैं। 
  • निरीक्षण करने के लिये विभिन्न निकायों के सृजन के अलावा एन.एम.सी दो अलग-अलग प्रमुखों की भी नियुक्ति करेगा। इसी कारण मान्यता प्रदान करने वाले निकाय के सभी सदस्यों को सलाहकारी बोर्ड से हटाने की सिफारिश की गई है। 
  • यद्यपि मान्यता प्रदान करने वाले बोर्ड का मान्यता प्रदान करने वाली प्रक्रिया पर पूर्ण अधिकार नहीं होगा, परन्तु इसका अन्य चार उप-निकायों (जो मान्यता प्रदान करने वाली प्रक्रिया के चार प्रमुख क्षेत्रों का अवलोकन करते हैं) पर पूर्ण अधिकार होगा। ये चार प्रमुख क्षेत्र हैं- स्नातक, परास्नातक, मेडिकल पेशेवर का रजिस्ट्रार और अनुपालन। 
  • दरअसल, इसका अनुपालन उप- निकाय विंग के तीसरे समूह का गठन करेगा, जो इस संबंध में जानकारी प्राप्त करेंगे कि कॉलेज उप-निकायों द्वारा स्थापित मानदंडों को पूरा कर पा रहे हैं अथवा नहीं। 
  • इसके अतिरिक्त चार क्षेत्रीय मेडिकल परिषदों के सृजन की भी सिफारिश की गई है। इन क्षेत्रीय विकल्पों का सृजन करने से प्रतिस्पर्धा में बढ़ोतरी होगी और मान्यता प्रदान करने वाली सेवाओं की कुशलता में वृद्धि होगी। देश में पहले से ही राज्य मेडिकल परिषदें हैं, जिन्हें इस उद्देश्य के लिये क्षेत्रीय मेडिकल परिषदों के साथ संयुक्त किया जा सकता है।  
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मूल चिकित्सकीय शिक्षा, परास्नातक चिकित्सकीय शिक्षा (postgraduate medical education -PME) और सतत् व्यावसायिक विकास के मानकों के लिये कई प्रारूप तैयार किये हैं।  
  • ऐसा माना जा रहा है कि सेवा का एकाधिकारी स्वरूप अनावश्यक दबाव उत्पन्न करेगा तथा भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद् के प्रभाव क्षेत्र का भी विस्तार कर देगा। 

कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य 

  • मेडिकल स्कूलों की विश्व निर्देशिका के अनुसार, वर्ष 2016 में 343 मेडिकल कॉलेजों के साथ भारत में विश्व के सबसे अधिक एलोपेथिक (allopathic) मेडिकल स्कूलों का संचालन किया जा रहा था। इस मामले में ब्राज़ील 193 मेडिकल कॉलेजों के साथ दूसरे स्थान पर था, जबकि चीन (जिसकी आबादी भारत के बराबर है) में ऐसे स्कूलों की संख्या भारत की लगभग आधी थी। 
  • अनेक विश्लेषणों से यह प्रदर्शित हुआ है कि अगले तीन वर्षों के भीतर 76 नए मेडिकल कॉलेजों को भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद् की ओर से ‘मान्यता प्राप्त’ (recognized) कॉलेजों का दर्ज़ा मिल जाएगा। अतः भारत के लिये आवश्यक है कि वह यह सुनिश्चित कराए कि ये सभी मेडिकल कॉलेज न्यूनतम गुणवत्ता मानकों को पूरा करते हैं या नहीं।  
  • ध्यान देने योग्य है कि अमेरिका और ब्रिटेन में सबसे अधिक भारतीय चिकित्सक हैं, जबकि ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में भारतीय चिकित्सकों का योगदान इनसे अपेक्षाकृत कम है।  
  • एन.एम.सी. में नए स्नातक चिकित्सकों के पलायन को सीमित करने के लिये भी एक नीति बनाने की सिफारिश की गई है।  
  • थाईलैंड ने इस प्रकार के उपायों को वर्ष 1972 में सफलतापूर्वक अपनाया था। थाईलैंड की नीति में सभी परस्त्नातकों के लिये तीन वर्ष तक सरकारी कार्य करना अनिवार्य था। वहाँ के सभी चिकित्सकों का पहला वर्ष प्रांतीय अस्पतालों में बीतता है, जबकि दूसरा और तीसरा वर्ष ग्रामीण अथवा सामुदायिक अस्पतालों में व्यतीत होता है। 
  • आँकड़े इस ओर संकेत करते हैं कि नीतियाँ, प्रतिभा पलायन को सीमित करती है और ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के मध्य चिकित्सकीय पेशेवर असमानता में कमी लाती है। 
  • भारत में मेडिकल चिकित्सकों की कमी का एक अन्य कारक चिकित्सकों का अन्य देशों में होने वाला प्रवासन भी है। 

निष्कर्ष

भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद् के वर्तमान नियम और दिशा-निर्देश परास्नातक डिग्री से रहित योग्य एम.बी.बी.एस चिकित्सकों के लिये अल्ट्रासाउंड और छाती के एक्स रे जैसी प्रक्रियाओं को प्रतिबंधित करते हैं। एन.एम.सी. को भारत में योग्य चिकित्सकों की प्रभावी उपलब्धता पर पुनः विचार करने की आवश्यकता है।

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