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जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन एवं भारत की प्रमुख फसलों पर उसका प्रभाव

  • 19 Jun 2019
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वैज्ञानिक ने यह दावा किया है कि भारत का अनाज उत्पादन जलवायु परिवर्तन के प्रति सुभेद्य है तथा चरम मौसमी स्थितियों के चलते चावल के उत्पादन में उल्लेखनीय रूप से गिरावट आने की संभावना है।

  • उल्लेखनीय है कि यह शोध अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय (Columbia University) के शोधकर्त्ताओं द्वारा भारत की पाँच प्रमुख फसलों: रागी (finger millet), मक्का (Maize), बाज़रा (Pearl Maize), चारा (Sorghum ) और चावल (Rice) पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन किया गया। ये प्रमुख पाँच फसलें भारत में खाद्य आपूर्ति को पूर्णता प्रदान करती है।

प्रमुख बिंदु

  • भारत में जून-से-सितंबर के मध्य मानसून के दौरान (जो भारत में अनाज उत्पादन के लिये सबसे अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं) इन फसलों का व्यापक स्तर पर उत्पादन किया जाता है।
  • जर्नल इनवायरमेंटल रिसर्च लेटर्स (Environmental Research Letters) में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया कि मक्का (Maize), बाज़रा (Pearl Maize), चारा (Sorghum ) जैसी फसलें चरम मौसमी (Extreme Weather) स्थितियों के प्रति अनुकूलन को प्रदर्शित करती हैं।
  • भारत में अनाज के तौर पर मुख्य फसल चावल के उत्पादन में तेज़ी से गिरावट देखी गई है।
  • विशेषज्ञों के अनुसार, यदि भारत में केवल एक फसल ‘चावल’ पर निर्भरता में वृद्धि होती है तो भारत की खाद्य आपूर्ति पर भी संभावित रूप से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ेगा। इसे कम करने के लिये चार वैकल्पिक अनाजों के उत्पादन में वृद्धि करके भारतीय अनाज उत्पादन में विविधता को कम किया जा सकता हैं, विशेष रूप से ऐसे क्षेत्रों में जहाँ वैकल्पिक फसलों की पैदावार चावल के बराबर होती है।
  • ऐसा करने से सूखे या चरम मौसमी स्थितियों के दौरान देश की विशाल और बढ़ती आबादी के लिये खाद्य आपूर्ति के संकट को कम किया जा सकता है।
  • भारत में तापमान और वर्षा की मात्रा में भी निरंतर परिवर्तन देखने को मिलता है, जिसके चलते फसलों के उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। साथ ही भारतीय क्षेत्र में सूखे और तूफान जैसी आपदाओं (जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव के कारण इनकी निरंतरता में भी वृद्धि होती जा रही हैं) के कारण फसल के उत्पादन के बचाव संबंधी उपायों को खोजे जाने की आवश्यकता है।
  • अनुसंधानकर्त्ताओं ने भारत के 707 ज़िलों में से 593 ज़िलों से फसलों की पैदावार, तापमान और वर्षा संबंधी आँकड़ों को (राष्ट्रीय स्तर पर)एकत्रित किया। इसमें गत 46 वर्षों (1966-2011) के आँकड़ों को शामिल किया गया हैं।
  • शोधकर्त्ताओं ने तापमान और वर्षा संबंधी आँकड़ों का भी इस्तेमाल किया तथा इन्हीं जलवायु चरों (तापमान और वर्षा संबंधी आँकड़ों) के आधार पर फसलों की उपज आदि की भविष्यवाणी भी किया जाती है।
  • इस अध्ययन से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव को संयमित करने हेतु फसलों में विविधता लाए जाने से खाद्य-उत्पादन प्रणाली को बेहतर बनाया जा सकता है।
  • साथ ही भारत में वैकल्पिक अनाज के उत्पादन को बढ़ाकर फसल की पोषकता में सुधार किया जा सकता है, पानी की बचत और ऊर्जा की मांग को कम करने में मदद मिल सकती है तथा कृषि से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भी कमी लाई जा सकती है।

जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिये कृषि को सक्षम बनाने हेतु कुछ सुझाव

  • समाधान संरक्षण कृषि (Conservation Farming) और शुष्क कृषि (Dryland Agriculture) को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इसके साथ-साथ प्रत्येक गाँव को विभिन्न मौसमों में फसल कीटों और महामारियों के बारे में मौसम आधारित पूर्व चेतावनी के साथ समय पर वर्षा के पूर्वानुमान की जानकारी दी जानी चाहिये।
  • कृषि अनुसंधान कार्यक्रमों के तहत शुष्क भूमि अनुसंधान पर पुनः ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। इसके तहत ऐसे बीजों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये जो सूखे जैसी स्थिति में फसल उत्पादन जोखिम को 50% तक कम कर सकते हैं।
  • गेहूँ की फसल रोपण के समय में कुछ फेरबदल करने पर विचार किया जाना चाहिये। एक अनुमान के अनुसार, ऐसा करने से जलवायु परिवर्तन से होने वाली क्षति को 60-75% तक कम किया जा सकता है।
  • किसानों को मिलने वाले फसल बीमा कवरेज़ और उन्हें दिये जाने वाले कर्ज़ की मात्रा बढ़ाने की आवश्यकता है। सभी फसलों को बीमा कवरेज देने के लिये इस योजना का विस्तार किया जाना चाहिये। फसल बीमा के लिये ग्रामीण बीमा विकास कोष (Rural Insurance Development Fund) का दायरा बढ़ाया जाना चाहिये। कर्ज़ पर लिये जाने वाले ब्याज पर किसानों को मिलने वाली सब्सिडी को सरकार की सहायता से बढ़ाया जाना चाहिये। इस संबंध में सरकार द्वारा हाल ही में लघु और सीमांत किसानों को प्रतिमाह दी जाने वाली सहायता राशि एक स्वागत योग्य कदम है।

शून्य जुताई प्रौद्योगिकी और लेज़र भूमि स्तर

  • परंपरागत खेती की तुलना में शून्य जुताई और लेज़र भूमि स्तर के मामले में तकनीकी दक्षता अधिक पाई जाती है। लेज़र भूमि स्तर और शून्य जुताई प्रौद्योगिकी पारंपरिक जुताई की तुलना में अधिक टिकाऊ है।
  • यह देखने को मिलता है कि यदि किसान जलवायु स्मार्ट कृषि प्रौद्योगिकियों को अपनाता है तो उसके जोखिम स्तर में कमी के साथ अपेक्षित आय में वृद्धि होगी। लेकिन जलवायु स्मार्ट कृषि प्रौद्योगिकियों से प्राप्त कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभों के बावजूद यह अभी तक भारत में लोकप्रिय नहीं हो पाई है।

स्रोत: द हिंदू (बिज़नेस लाइन)

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